
शाश्वत सुख का आनंद
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महापुरुषों के उच्चतम अनुभवपूर्ण भावों में अपने हृदय को मिला देना एवं उस भाव से स्वयं भावित हो जाना ही असली संग है। यदि ऐसे महापुरुषों का स्थूल सान्निध्य न मिल सके, तो उनके द्वारा रचित सत्साहित्यों का मनोयोगपूर्वक स्वाध्याय भी बहुत लाभदायक होता है। भगवत् प्राप्त महापुरुषों के अनुभवयुक्त वचनों में बड़ा प्रभाव होता है और आत्मा को प्रकाशित करने की सामर्थ्य रखता है ।
जीवन शाश्वत केंद्र एवं अनादि चैतन्य तत्त्व ‘आत्मा’ ही मनुष्य के सुखों का मूल स्रोत है। जो सुख−शाँति एवं स्थिरता से भरा−पूरा जीवन जीने के अभिलाषी हों, उन्हें अपनी आत्मा को जानने का प्रयास करना चाहिए। आत्मा में ही संपूर्ण विश्व व्यवस्थित है। तेजबिंदूपनिषद् में आत्मा की महत्ता प्रतिपादन करते हुए कहा गया है−
आत्मनोऽन्या गतिर्नास्ति सर्वमात्ममय जगत्। आत्मनोऽन्यन्न हि क्वापि आत्मनोऽन्यत्तृणं नहि॥
अर्थात् आत्मा से भिन्न गति नहीं है। सब जगत् आत्ममय है। आत्मा से विलग कुछ भी नहीं है, आत्मा से भिन्न एक तिनका भी नहीं हैं।
आत्मा में शौर्य, प्रेम एवं पौरुष की अनंत शक्ति समाहित है। आत्मशक्ति से संपन्न व्यक्ति के सारे अभाव, दुःख−दारिद्र्य, साँसारिक आधि−व्याधि समाप्त हो जाती है। आज शरीर के संपूर्ण अंग−प्रत्यंगों की स्थूल जानकारी, पदार्थ और उसके गुण−भेद की जानकारी, ग्रह−नक्षत्रों से संबंधित गणित और वैज्ञानिक तथ्य जानने के मनुष्य की भौतिक सुविधाएँ भले ही बढ़ गई हों, पर अपने आपको जानने का प्रयास नहीं करने के कारण मनुष्य का दुःख बढ़ा ही है। हमारे पूर्वज ज्ञान−विज्ञान में आज के वैज्ञानिकों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रवीण थे, किंतु वे इस सत्य से अवगत थे कि विज्ञान अंततोगत्वा मनुष्य की वृत्तियों को भोगवादी ही बनाता है। अतः उन्होंने धर्म और अध्यात्म पर आधारित जीवन की रचना की थी। इस जीवन में प्राण था, शक्ति थी, समुन्नति थी और वह सब कुछ था, जिससे मनुष्य का जीवन सुखी और संतुष्ट कहा जा सके।
सूक्ष्मतापूर्वक विश्लेषण करने पर पता चलता है कि मनुष्य न शरीर है, न मन और न बुद्धि, क्योंकि यह सभी पंचभूतों के सत्−रज अंश से निर्मित है और इसी कारण नश्वर है। आत्मा अनश्वर है। वह स्वयं शक्ति का उत्पादक, अजर−अमर सर्वव्यापी तत्त्व है। आत्मा सद्यः अनुभूमि है। आत्मा में ज्ञान का सहज प्रकाश है, जो सत्य को झूठ से अलग करके प्रकाशित करता है। उपनिषद् में कहा गया है,
नहि द्रुष्टुदृष्टेर्विपरिलोपो विद्यते।
य एव हि निराकर्त्ता तदेव तस्य स्वरुपम्।
अर्थात् “जिस प्रकार द्रष्टा से दृष्टि का बोध स्वतः हो जाता है, उसी प्रकार निराकरणकर्त्ता के रूप में आत्मा स्वयं सिद्ध है।” यदि मैं कह रहा हूँ कि मैं नहीं हूँ। सूर्य के प्रकाश की तरह आत्मा स्वयं प्रकाशित एवं स्वतः ज्ञात है। जैसे बादलों के आवरण से सूर्य की सत्ता बाधित नहीं, वैसे ही शरीर आदि आवरणों से आत्मा खंडित नहीं होती। उपनिषद् आगे कहता है−
जन्माद्याः षडिमे भावा दृष्टा देहस्यनात्मनः।
फलानासिव वृक्षस्य कालेनेश्वरमूर्तिन॥
आत्मा नित्योऽव्ययः शुद्धः एकः क्षेत्रज्ञ आश्रयः।
अविक्रियः स्वदृग् हेतुर्व्यापकोऽसंगयनावृतः॥
“जन्म, अस्तित्व की प्रतीति, वृद्धि, परिमाण, क्षय और विनाश ये छह विकार देह के हैं, देह में दिखते हैं। ये आत्मा में नहीं हैं। आत्मा से हमारे मूल स्वरूप से इनका कोई संबंध नहीं है। जैसे काल भगवान् की प्रेरणा से वृक्षों में प्रतिवर्ष फूल लगते हैं, फलों के अस्तित्व का अनुभव होता है, वे बढ़ते हैं, पकते हैं, क्षीण होते हैं और नष्ट हो जाते हैं, वे वृक्ष ज्यों−का−त्यों सदा बना रहता है, वैसे ही जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत छहों विकार देह के ही होते हैं। आत्मा के नहीं। आत्मा तो सदा एकरस बना रहता है।”
मनुष्य जीवन के साथ जन्म−मरण, सुख−दुःख और भोग−रोग आदि की जो विलक्षणताएँ अविच्छिन्न रूप से विद्यमान हैं, वे मनुष्य को सोचने के लिए विवश कर देती हैं कि इंद्रियों के भोग, भोगकर जीवन के दिन पूरे कर लेना मात्र मनुष्य जीवन का उद्देश्य नहीं है। यह अमूल्य मानवजीवन पाकर भी यदि आत्मकल्याण न किया जा सके, तो न जाने कब तक फिर अनेकों कष्टसाध्य योनियों में भटकना पड़ेगा। जिसके अंदर आत्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत् हो जाए, उसे अपने आपको परमात्मा का कृपापात्र ही समझना चाहिए।
सबसे पहले, हमें इस सत्य को आँतरिक गहराई तक हृदयंगम करना होगा कि हम शरीर नहीं आत्मा हैं। परमात्मा के सनातन अंश है। उनसे मिलने का हमारा नित्य सिद्ध आधार है। इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा का सुधा बीज विद्यमान है। अपने मूल स्वरूप को पहचानना, अपने अंदर के सुधा बीचों को अंकुरित होने देने से रोकना ही हमारे दुःखों का कारण है। जब मनुष्य अपने को आत्मा के रूप में नहीं स्वीकारता, अपने जीवन को आत्मसंस्पर्श से वंचित रखता है तभी तक वह दुःखी रहता है।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमें अपनी चेतना को बहिर्गमन अर्थात् साँसारिकता की ओर से हटाकर अंतर्मन की ओर मोड़ना होगा। आज मनुष्य का जीवन सिर्फ शरीर एवं संसार तक ही सीमित होकर रह गया है। आत्मिक जीवन की ओर से वह पूरी तरह उदासीन हो गया है। अर्थ व अधिकार ये दो ही मानवजीवन के लक्ष्य रह गए है। इन दोनों की प्राप्ति के लिए व्यक्ति उचित−अनुचित, न्याय−अन्याय का कुछ भी ध्यान न रख प्रमत्त की भाँति जुटा रहता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य कर्म करना बंद कर दे। इसका मतलब यह है कि वह उनकी दिशा बदल दे। उसका हर कार्य आत्मिक उन्नति की भावना लिए हुए हो। भगवान् को समर्पित हो। जब हर कार्य भगवान् को समर्पित किया जाएगा, तो स्वतः ही अनुचित कार्य नहीं बन पड़ेंगे।
तीसरी आवश्यकता है, शुद्ध−सात्विक आहार−विहार की। सात्विक वृत्तियों वाला व्यक्ति ही आत्मोद्धार करने में सफल हो सकता है। आहार−विहार, शयन−जागरण एवं चेष्टा के संबंध में गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं, “यह योग न तो बहुत खाने वाले का सिद्ध होता है और न ही बिल्कुल न खाने वाले का ही सिद्ध होता है। यह दुःखों का नाश करने वाला तो यथायोग्य आहार करने वाले का और कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का ही सिद्ध होता है।” शिष्ट, ऋत, सत्य, प्रिय एवं हितकारी वाक्−प्रयोग तथा समय−समय पर एकाँत सेवन भी करते रहना चाहिए।
आत्मिक प्रगति की चाह रखने वाले व्यक्तियों को महात्माओं संग भी करना चाहिए। ऐसे महापुरुषों के उच्चतम अनुभवपूर्ण भावों में अपने हृदय को मिला देना एवं उस भाव से स्वयं भावित हो जाना ही असली संग है यदि ऐसे महापुरुषों का स्थूल सान्निध्य न मिल सके, तो उनके द्वारा रचित सत्साहित्यों का मनोयोगपूर्वक स्वाध्याय भी बहुत लाभदायक होता हैं। भगवत् प्राप्त महापुरुषों के अनुभवयुक्त वचनों में बड़ा प्रभाव होता है और आत्मा को प्रकाशित करने की सामर्थ्य रखता है।
आत्मिक उन्नति के मार्ग में प्रमाद एक महाशत्रु है। यह हमारे अंदर शुभ की ओर उठने वाली चेतना का शत्रु है। जो चेतना के दिव्य आयामों को स्पर्श करने से रोके, जो आत्मिक उच्चताओं में आस्था न बनने दे, वह हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। उससे संग्राम कर उसे पराजित करना हमारा परम धर्म हो जाता है। विवेक चूड़ामणि में कहा है−
इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्तु स्वार्थें प्रमाद्यति।
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम्॥
जीवन परमात्मा का दिया एक अमूल्य वरदान है। चाहे इससे विभूतियां अर्जित कर लो चाहे दुर्गति।
अर्थात् दुर्लभ मनुष्य देह और उसमें भी पुरुषत्व को पाकर जो आत्मसाक्षात्कार में प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ़ और कौन होगा।
हमने अपने जीवन को आत्मिक दिव्यता में ढालने का संकल्प ले लिया है, तो हमें संकीर्णता भी त्यागनी होगी। अपने अहं पर आघात करने होंगे। सबमें परमात्मा का ही एक अंश आत्मा की ज्योति प्रज्वलित है, इस सत्य को पहचानना होगा। हम अपनी सत्ता को अहंपोषित इंद्रियों के छोटे और टूटे−फूटे सुख देने के बजाय शाश्वत सुख का आनंद दें। सर्वत्र एक ही आत्मा का दर्शन करने वाला मनुष्य न तो मोहग्रस्त होता है और न ही शोकाकुल। तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वं अनुपश्यतः। जैसे−जैसे आत्मभाव में दृढ़ता आती है, आनंद बढ़ने लगता है।
अगर हम वास्तव में सुख−शाँति से भरा−पूरा जीवन जीना चाहते हैं, तो हमें अपनी आत्मिक उत्कृष्टताओं को उभारना होगा और अपनी सारी बुराइयों से संघर्ष करना होगा। आत्मज्ञान की संपदा प्राप्त किए बिना सुख−शाँति की चाह एक कल्पना मात्र है।