
विविध रोगों की यज्ञोपचार−प्रक्रिया
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यज्ञ को भारतीय संस्कृति का मूल माना गया है। प्राचीनकाल से ही आत्मसाक्षात्कार से लेकर स्वर्ग−सुख, बंधन−मुक्ति, मन शुद्धि, पाप−प्रायश्चित, आत्मबल, ऋद्धि−सिद्धियों आदि के केंद्र यज्ञ ही थे। यज्ञों द्वारा मनुष्य को अनेक आध्यात्मिक एवं भौतिक लाभ प्राप्त होते हैं। गायत्री महामंत्री के साथ−साथ शास्त्रोक्त हवियों के द्वारा भावप्रवणता के साथ जो विधिवत् हवन किया जाता है, उससे एक दिव्य वातावरण विनिर्मित होता है। उस दिव्य यज्ञीय वातावरण में बैठने मात्र से रोगी मनुष्य निरोग हो सकते हैं। चरम ऋषि ने अपने अनुपम ग्रंथ चरक संहिता में लिखा है, “आरोग्य प्राप्त करने की इच्छा करने वालों को विधिवत् हवन करना चाहिए।” बुद्धि को शुद्ध करने की यज्ञ में अपूर्व क्षमता है। जिन व्यक्तियों के मस्तिष्क दुर्बल हैं बुद्धि, मलीन है अथवा मानसिक विकृतियों से घिरे हुए हैं, यदि वे यज्ञ करें, तो उससे उनकी मानसिक दुर्बलताएँ शीघ्र दूर हो सकती हैं। यज्ञ से प्रसन्न हुए देवता मनुष्य को धन, वैभव, सौभाग्य तथा सुख−साधन प्रदान करते हैं। यज्ञ करने वाला कभी दरिद्री नहीं रह सकता। यज्ञ करने वाले स्त्री−पुरुषों की संतान बलवान, बुद्धिमान, सुँदर और दीर्घजीवी होती हैं। राजा दशरथ को यज्ञ द्वारा ही चार पुत्र प्राप्त हुए थे। गीता आदि शास्त्रों में इसीलिए यज्ञ को आवश्यकता धर्मकृत्य बताया गया है और कहा गया है कि यज्ञ न करने वालों को लोग और परलोक कुछ भी प्राप्त नहीं होता। यजुर्वेद में भी कहा गया है कि जो यज्ञ को त्यागता है, उसे परमात्मा त्याग देता है। यज्ञ के द्वारा ही मनुष्य को देवयोनि प्राप्त होती है और वह स्वर्ग का अधिकारी बनता है।
प्राचीनकाल में ऋषि−मनीषियों ने यज्ञ के सर्वतोमुखी इन लाभों को भलीप्रकार समझा था, इसलिए वे उसे लोककल्याण का अति आवश्यक कार्य समझकर अपने जीवन का एक तिहाई समय यज्ञों के आयोजन में ही लगाते थे। स्वयं यज्ञ करना और दूसरों से यज्ञ कराना उनका प्रधान कार्य था। जब तक भारत में यज्ञ की प्रतिष्ठा थी, तब तक यह भूमि स्वर्ण−संपदाओं की स्वामिनी थी। लोग स्वस्थ, सुदृढ़, प्रतिभावान् एवं दीर्घजीवी होते थे। यज्ञीय गरिमा को भुला देने से आज जो दुर्गति हो रही है, वह सर्वविदित है। यज्ञ की उसी प्राचीन गरिमा को पुनर्स्थापित करने में ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान, शाँतिकुँज के मूर्द्धन्य वैज्ञानिकों ने ऋषिसत्ता के निर्देशन में गत बीस वर्षों जो शोध−निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं, वे बहुमूल्य हैं।
यज्ञ चिकित्सा−यज्ञोपैथी को ही लें, तो यह एलोपैथी, होम्योपैथी आदि उपचारपद्धतियों से अत्यंत श्रेष्ठ व सफल सिद्ध हुई है। भिन्न−भिन्न रोगों के लिए विशेष प्रकार की हवन सामग्री प्रयुक्त करने पर उनके जो परिणाम सामने आए हैं, वे बहुत ही उत्साहजनक रहे। यज्ञोपैथी में इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि आयुर्वेद शास्त्रों में जिस रोग की जो औषधियों बताई गई हैं, उसे खाने के साथ ही उन वनौषधियों को आम, पीपल आदि की समिधाओं के साथ नियमित रूप से हवन भी किया जाता रहे, तो कम समय में अधिक लाभ मिलता है। यज्ञोपैथी का मूल सिद्धाँत ही यह है कि जो वस्तु जितनी सूक्ष्म होती जाती है, वह उतनी ही अधिक शक्तिशाली एवं उपयोगी बनती जाती है। विशिष्ट मंत्रों के साथ जब औषधि युक्त हवि सामग्री का हवन किया जाता है, तो यज्ञीय ऊर्जा से पूरित धूम्र रोगी के शरीर में रोम छिद्रों एवं नासिका द्वारा अंदर प्रविष्ट करता है और रोग की जड़ें कटने लगती हैं। इससे रोगी शीघ्र ही रोगमुक्त होने लगता है। अथर्ववेद 3/99/2 में कहा गया है−
यदि क्षितायुर्यदि वापरेतों यदि, मृत्योरन्तिकं नीत एव।
तमा हरामि निऋंतेरुपस्थाद स्यार्ष मेन शतशारदाय।
अर्थात् अग्निहोत्र के माध्यम से आयु क्षीण हुए, जीवनी−शक्तियों नष्ट हुए तथा मृत्यु के समीप पहुँचे हुए व्यक्ति रोग के चंगुल से छूट जाते हैं। रोगी मृत्यु के मुख से पुनः वापस आ जाते हैं और सौ वर्ष जीवित रहने की शक्ति प्राप्त करते हैं।
आरोग्य वृद्धि एवं रोग−निवारण के लिए इस तरह के जो यज्ञ किए जाते हैं, उन्हें ‘भैषा यज्ञ’ कहते हैं। प्राचीनकाल में आरोग्य शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् यज्ञ के ब्रह्मा होते थे, जो सूक्ष्म वैज्ञानिक परीक्षण द्वारा यह जान लेते थे कि इस समय वायुमंडल में क्या विकार या प्रदूषण बढ़ जाने से कौन−सा रोग फैला हुआ है और उसके निवारण के लिए किन वनौषधियों का हवन का आयोजन किया जाता था। रोगी के शरीर में कौन−सी व्याधि बढ़ी हुई है, कौन से तत्त्व घट−बढ़ गए हैं? उनकी पूर्ति करके एवं शरीरगत धातुओं का संतुलन ठीक करने के लिए किन औषधियों की आवश्यकता है, वह ऐसा निर्णय करते थे और वनौषधियों की हवन सामग्री बनाकर, उसी प्रकृति के वेदमंत्रों से आहुतियाँ दिलाकर हवन कराया जाता था। वैसा ही पुरोडस एवं यावशिष्ट रोगी के लिए तैयार किया जाता था। रोगी यज्ञधूम्र के वातावरण में रहता था और उसी वायु से सुवासित जलवायु एवं आहार ग्रहण करता था तदनुसार वह आधि−व्याधियों से, रोगों से छुटकारा पा लेता था। इस तरह के भैषज यज्ञों का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है।
भावप्रकाश, निघंटु एवं अन्य आयुर्वेद ग्रंथों में यज्ञ−चिकित्सा में प्रयुक्त होने वाली जिन औषधियों को प्रमुखता दी गई है, उनमें अगर, तगर, गूगल, ब्राह्मी, शतावरी, असंगध, विधारा, रास्ना, गिलोय, जटामंसी, शालपर्णी मंडकपर्णी इंद्रायण की जड़, अड़ूसा, मकोय, गुलाब के फूल, गोखरू, तालमखाना, क्षीरकाकोली, बादाम, मुनक्का, जायफल, बड़ी, हरड़, आँवला, छोटी पिप्पली, बड़ी इलायची, जीवंती, पुनर्नवा, नागकेशर, चंदन, कपूर, चीड़ का बुरादा, देवदार, चीता, पित्तपापड़ा, मोथा आदि मुख्य हैं। यह सभी औषधियाँ समान मात्रा में ली जाती हैं। इन्हें जौकुट करके उसमें दसवाँ भाग गुड़ की शर्करा एवं घी मिलाकर हवन करने से निकटस्थ लोगों को शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य संवर्द्धन का लाभ मिलता है।
यों तो विशेष रोगों के लिए विशेष प्रकार की रोगानुसार हवन सामग्री तैयार की जाती है, परंतु जो औषधियाँ सभी रोगों में समान रूप से एक समान हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं, (1) अगर (2) तगर (3) देवदार (4) चंदन (5) लाल चंदन (6) जायफल (7) लौंग (8) गूगल (9)चिरायता (10) गिलोय एवं (11) असगंध।
इन औषधियों को बराबर मात्रा में लेकर कूट−पीसकर दरदरा चूर्ण बना लिया जाता है। इस प्रकार तैयार हवन सामग्री को एक डिब्बे में रखकर नंबर(1)का लेबल लगा देना चाहिए।
अब, जैसा कि आगे वर्णन किया जा रहा है, उन औषधियों को रोगानुसार लेकर उनका भी जौकुट पाउडर बनाकर दूसरे डिब्बे में रखकर नंबर (2) का लेबल चिपका देना चाहिए। यज्ञोपचार करते समय नंबर (1)एवं नंबर (2)के डिब्बों में से समान मात्रा में औषधीय हवन सामग्री अलग पात्र में निकालकर मिश्रित कर लेना चाहिए और उसी से गायत्री महामंत्र या सूर्य गायत्री मंत्र द्वारा कम−से−कम चौबीस बार हवन करना चाहिए अर्थात् 24 आहुतियाँ प्रदान करनी चाहिए औषधियों जितनी ताजी और अच्छी होंगी, उतना ही अधिक वे लाभकारी होंगी। सूर्योदय के समय किया गया हवन सर्वाधिक लाभकारी होता है। वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा भी अब यह सिद्ध हो चुका है। आवश्यकतानुसार पीछे भी दिन में तीन बार और रात को एक−दो बार किसी पात्र में अग्नि रखकर थोड़ी−सी औषधीय हवन सामग्री थोड़ी देर के लिए रोगी के निकट धूप की भाँति जलाई जा सकती है। हवन करते समय तैयार औषधियों का दसवाँ भाग शर्करा एवं दसवाँ भाग घृत मिला लेना चाहिए। कोई औषधि या वस्तु अधिक महँगी हो अथवा अनुपलब्ध हो तो उसकी पूर्ति अन्य दूसरी औषधियों की मात्रा बढ़ाकर की जा सकती है।
विधिः − यज्ञोपचार की प्रक्रिया इस प्रकार है−
शास्त्रों में सूर्य को स्वास्थ्य का केंद्र माना गया है। सूर्य में रोग−निवारण की प्रचंड शक्ति विद्यमान है। इसका प्रयोग करने से कई प्रकार के रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है और पूर्ण दीर्घायुष्य प्राप्त किया जा सकता है। नीरोगता, बलिष्ठता एवं दीर्घायु के लिए सूर्य गायत्री मंत्र का उपयोग किया जाता है। सूर्य−गायत्री का मंत्र इस प्रकार है−
ॐ भूर्भुवः स्वः
भास्कराय विद्महे, दिवाकराय धीमहि,
तन्नः सूर्यों प्रचोदयात्।
गहन वैज्ञानिक अध्ययन−अनुसंधानों के आधार पर पाया गया है कि जो वनौषधियाँ आयुर्वेद ग्रंथों में जिन रोगों के लिए गुणकारी मानी गई हैं, उन्हें हवन सामग्री के रूप में घृत और शक्कर मिलाकर सूर्य−गायत्री मंत्र के साथ रोगी के निकट हवन करने से साधारण औषधि−चिकित्सा की अपेक्षा रोगी को अधिक लाभ मिलता है। यज्ञोपचार प्रक्रिया में रोगानुसार गायत्री महामंत्र तथा उससे संबंधित चौबीस गायत्री मंत्र द्वारा हवन किया जाता है। यज्ञ चिकित्सा करते समय उन्हीं विशिष्ट औषधियों को सूक्ष्म चूर्ण रूप में सुबह−शाम एक−एक चम्मच लेते रहने से दूना लाभ मिलता है।
हवन के पश्चात् समीप रखे हुए जल पात्र में दूर्वा, कुश अथवा पुष्प डुबोकर गायत्री मंत्र पढ़ते हुए रोगी पर अभिसिंचन करना चाहिए। साथ ही यज्ञ की भस्म मस्तक, हृदय, कंठ, पेट नाभि एवं दोनों भुजाओं पर लगानी चाहिए। इसी प्रकार घृतपात्र में जो घृत बचा रहता है, उसमें से कुछ बूँदें लेकर रोगी के मस्तक एवं हृदय पर लगाना चाहिए। देखा गया है कि इन प्रयोगों से सामान्य औषधि चिकित्सा की अपेक्षा रोगी को अधिक लाभ मिलता है। इसका प्रभाव रोगी के शारीरिक एवं मानसिक दोनों ही क्षेत्रों में पड़ता है, परिणामस्वरूप वह जल्दी स्वस्थ हो जाता है। जीवनी−शक्ति बढ़ जाने से वह दुबारा उस बीमारी से आक्राँत नहीं होने पाता।
यज्ञोपैथी द्वारा कुछ सामान्य रोगों को दूर करने में प्रयुक्त होने वाली विशेष औषधियों के रोगानुसार नाम एवं उनकी प्रयोग−विधि अगली पंक्तियों में दी जा रही है। यहाँ इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि इन विशिष्ट औषधियों से बनी हवन सामग्री के साथ ही उपर्युक्त नंबर (1) कॉमन हवन सामग्री भी बराबर मात्रा में मिलाकर तब रोगी के समीप हवन किया जाता है।
(1)यकृत (लीवर) एवं तिल्ली तथा उससे संबंधित रोग−इन अंगों से संबंधित रोगों की विशेष हवन सामग्री इस प्रकार है−
(1)शरपुँखा (2)कालमेध (3)पिप्पलीमूल (4)पुनर्नवा (5)मकोय (6)सेमर (शालमली) (7)जामुन छाल (8) अपामार्ग (9)भृंगराज (10)भुइ आँवाला (11) कुटकी (12) राई।
इन सभी 12 औषधियों को जौकूट कर हवन सामग्री बनाने के साथ ही कुछ मात्रा महीन पीसकर इसको कपड़े से छानकर पाउडर रूप में अलग रख लेना चाहिए और रोगी को सुबह−शाम एक−एक चम्मच जल के साथ खिलाना चाहिए। इस प्रकार यह यज्ञोपचार प्रक्रिया बड़ी प्रभावी मानी गई है। आगे भी यह क्रम हम जारी रखेंगे।