
शाह नहीं शहंशाह
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अकाल भयावह था। समूचा सिरोही राज्य इसकी व्यथा से आक्राँत था। सिरोही नरेश अपने समूचे प्रयासों−प्रयत्नों के बावजूद अपनी प्रजा की रक्षा करने में स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रहे थे। उन्होंने अपना सारा संचित धन अकाल राहत कार्य में लगा दिया, फिर भी अकाल राहत कार्य पूर्ण नहीं हो पा रहा था। अल्प समय में ही राज्य के खजाने खाली होने लगे। भयंकर अकाल था, अभी काफी समय बाकी था। सोच में डूबे नरेश निराश होने लगे।
उन्होंने अंतिम उपाय के तौर पर अपने राज्य के बुद्धिजीवी, विचारशील नागरिकों की सभा बुलाई। सथा में अकाल राहत कार्य के बारे में चर्चा होने लगी। लोग तरह−तरह के सुझाव−समाधान प्रस्तुत कर रहे थे, पर प्रस्तुत किए जा रहे सारे समाधान धन के अभाव में स्वयं में महाप्रश्न बन रहे थे। धन कहाँ से लाया जाए? धन प्राप्ति का उचित उपाय क्या हो? एक अनुभवी वयोवृद्ध, विचारशील नागरिक ने संकोचपूर्वक कहा, “अन्नदाता इस सवाल का उत्तर हमारे पास है। यदि अनुमति हो, तो प्रस्तुत करने का साहस करूं।”
सिरोही नरेश को तो जैसे प्राण मिले, उन्होंने कहा कि नेकी और पूछ−पूछ, आप अवश्य कहें। नरेश के प्रोत्साहन पर उस वृद्ध ने कहना प्रारंभ किया, नंदीवर्धनपुर के जगतशाह झाँझड़ वाले काफी धनवान एवं धर्मात्मा हैं। इस कार्य में अवश्य साथ दे सकते हैं, किंतु इसके लिए राज्य को स्वयं उनसे याचना करनी होगी। वृद्ध का यह सुझाव कतिपय सभासदों को नहीं भाया। वे सोचने लगे, क्या राजा का अपने ही किसी प्रजाजन के सामने याचक बनना उचित होगा? सभा में एक पल के लिए सन्नाटा छा गया।
परंतु सिरोही नरेश प्रजावत्सल थे। उन्होंने सभी का संकोच तोड़ते हुए कहा, इसमें मेरे अपमान की कोई बात नहीं। शाह धर्मप्राण व्यक्ति हैं, उनके सामने किसी लोकहित के कार्य हेतु माँगने में शर्म कैसी? यदि शाह के आगे हाथ फैलाने से राहत कार्य पूर्ण हो जाता है, तो इससे अच्छी बात और क्या होगी? यदि मेरे निवेदन पर शाह जी ने प्रजा की भलाई के लिए कार्य किया और प्रजा की रक्षा हो जाए, तो इससे बढ़कर मेरा सौभाग्य और क्या होगा? अपने इस कथन को क्रिया रूप में परिणत करते हुए सिरोही नरेश ने महामंत्री की ओर देखते हुए कहा, मंत्री महोदय! आप अभी नंदीवर्धनपुर गाँव को जाएँ और जगतशाह झाँझड़ वाले को दरबार में मान सहित उपस्थित होने का संदेश पहुँचाएँ। राजाज्ञा को शिरोधार्य करके मंत्री महोदय तुरंत अपने राज्यकर्मचारियों के साथ नंदीवर्धनपुर को रवाना हो गए।
अपनी यात्रा पूरी करके राज्य कर्मचारी एवं मंत्री महोदय नंदीवर्धनपुर ग्राम के चौराहे पर आकर रुके और आगंतुकों से शाह के निवास का पता पूछा। गाँव वालों ने बताया, सामने जो हवेली दिख रही है, वहीं झाँझड़ वाले शाह का मकान है। मंत्री महोदय एवं राज्य कर्मचारियों ने शाह की हवेली के आगे आकर देखा कि एक हृष्ट−पुष्ट व्यक्ति वहाँ पशुशाला की सफाई कर रहा है। वह आधी बाजू की खादी की बनियान तथा खादी की ही ऊँची धोती पहने है। मंत्री ने मन−ही−मन सोचा, जरूर यह शाह का ग्वाला होगा। जो इस समय पशुशाला की सफाई कर रहा है। मंत्री ने उसे अपने समीप बुलाया और रोबीले स्वर में कहा, ए मजदूर! जाकर शाह साहब को कहो कि सिरोही राज्य के मंत्री व राज्य कर्मचारी आपसे मिलने आए हैं और उन्हें दरबार ने याद किया है। शाह ने मंत्री महोदय को पहचान लिया, लेकिन इस पहचान को अपने मन में रखते हुए उन्होंने कहा, अन्नदाता, मैं अभी शाह को आपके पधारने का समाचार देता हूँ। आप सब लोग हवेली के बैठक खाने में विराजें। राज्य कर्मचारी तथा मंत्री महोदय एक नौकर के सद्व्यवहार से खुश हो गए। उनको लगने लगा, वास्तव में शाह के नौकरों का व्यवहार काफी अच्छा है।
इन सबको उचित स्थान पर बैठने के लिए कहकर वह स्वयं अंदर गए और साफ−सुथरी पोशाक पहनकर मंत्री महोदय के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। बड़े ही विनम्र भाव से कहने लगे, “मालिक फरमाओ! दास हाजिर है। आपको यहाँ तक, इस दास की कुटिया तक पधारने का कष्ट क्यों करना पड़ा। आप संदेश भिजवा देते, तो मैं स्वयं आपकी सेवा में हाजिर हो जाता। नरेश कुशल से तो हैं। आप तो मेरे लिए उनका हुक्म बतलाओ। सेवक के लिए उनका क्या संदेश लेकर आए हैं?” शाह साहब की विनम्र वाणी को सुनकर और उनके चेहरे की ओर देखकर मंत्री महोदय को भारी अचरज हुआ कि अरे, यह तो वही मजदूर है, जो शाह की पशुशाला में सफाई कर रहा था। उन्हें लगा कहीं मुझे भ्रम तो नहीं हो रहा है। जिज्ञासा की पूर्ति के लिए मंत्री महोदय ने धीरे से शाह से पूछा, मजदूर के रूप में पशुशाला में....।
वह मैं ही था। शाह मुस्कराते हुए कहने लगे, मंत्री जी! हम काम न करें और आराम को बड़ा मानें, यह तो हमारा भ्रम हैं। काम तो पूजा है। फिर कोई काम छोटा नहीं होता।
मंत्री महोदय कुछ देर तक शाह को बड़े विस्मय से देखते रहे। वे कुछ भी बोल न पाए। फिर रुकते−रुकते बोले, राज्य में अकाल पड़ा हुआ है। नरेश ने अपना पूरा खजाना प्रजाजनों की सेवा में लगा दिया है और...। बीच में ही शाह मंत्री जी से बोले सिरोही नरेश ने आपको मेरे पास कुछ सहयोग के लिए भेजा है। मंत्री महोदय ने सिर हिलाकर समर्थन किया। शाह ने मंत्री महोदय से कहा, महाराज ने इतनी छोटी−सी बात के लिए आपको यहाँ भेजा, इसके लिए मैं आपसे एवं महाराज से क्षमा चाहता हूँ। आप वहाँ दरबार में बैठे हुए ही हुक्म फरमा देते, तो भी आपका यह सेवक तैयार था।
शाह विनम्र स्वर में अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बोले, मेरे पास जितना जो कुछ भी है, वह सब राज्य का ही तो है। राज्य की जनता का उस पर पूरा−पूरा अधिकार हैं। मैं इस अकाल के राहत कार्य में काम नहीं आ सका, तो मेरा जीवन ही बेकार है। मैं धन−स्वर्ण मुद्राओं की गाड़ियाँ अभी दरबार में भेजने का प्रबंध करता हूँ और जब तक महाराज की ओर से मना का संदेश नहीं मिलेगा, तब तक स्वर्णमुद्राओं से भरी एक से जुड़ी एक बैलगाड़ियाँ यहाँ से प्रस्थान करती रहेंगी।
शाह ने एक क्षण रुककर फिर कहा, यह अपार वैभव मेरा नहीं हैं। वास्तव में धन−संपदा किसी की नहीं होती है। वह तो प्रत्येक जरूरतमंद की है। जिसके पास जो संपत्ति है, वह उसका मालिक नहीं संरक्षक भर है। उसका काम तो उसे जरूरतमंदों तक पहुँचाना है।
शाह ने उसी समय अपने कर्मचारियों को आदेश दिया कि बैलगाड़ियों का प्रबंध करो और स्वर्णमुद्राओं को गाड़ियों में भरकर शीघ्र राजदरबार में पहुंचाओ और जब तक मेरा आदेश न हो, तब तक गाड़ियाँ भेजना बराबर चालू रहना चाहिए। शाह की बातें सुनकर मंत्री महोदय के पाँवों के नीचे की धरती दोलायमान होने लगी। वह निर्णय नहीं कर सके कि यह क्या कह रहे हैं और मैं क्या सुन रहा हूँ। कहीं यह सब स्वप्न तो नहीं है। यह तो शाह नहीं शहंशाह हैं।
मंत्री महोदय ने शाह के आगे अपना मस्तक झुका दिया और उनकी आज्ञा लेकर दरबार की ओर चल दिए। सिरोही नरेश के दरबार में जब उन्होंने अपनी यात्रा का यह अनुभव वृत्ताँत सुनाया, तो सिरोही नरेश सहित सभी एक स्वर से कह उठे, “शाह ने ही सही अर्थों में अर्थ को अर्थवान् बनाया है। उनका धन भी धर्म की साधना ही है।”