
सच्चा बाह्मणत्वे
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वह संस्कृत के महान् विद्वान् थे। संस्कृत ही उनकी मातृ भाषा थी। उनका सारा परिवार संस्कृत में ही बात−चीत करता था। उनके यहाँ पीढ़ियों से इसी प्रकार संस्कृत में ही बातचीत करने की परंपरा चली आई थी। उनके पूर्वजों की प्रतिज्ञा थी कि हम न तो संस्कृत को छोड़कर दूसरी भाषा का कोई शब्द बोलेंगे और न ही सनातन धर्म को छोड़कर किसी भी मत−मताँतर के चक्कर में उलझेंगे। भले ही इसके लिए मुट्ठी−मुट्ठी भर आटा माँगकर पेट भरना पड़े, तो भी चिंता की कोई बात नहीं। भिखारी बनकर भी वेद−शास्त्रों की और सनातन धर्म की रक्षा करेंगे। इस प्रतिज्ञा का पालन करते हुए वह अपनी धर्मपत्नी तथा बाल−बच्चों को लेकर गंगा किनारे विचरण किया करते थे। पतित−पावनी गंगा जी के किनारे−किनारे चलते रहना ही उनका नियम था।
पाँच−सात मील चलकर सारा परिवार गाँव से बाहर किसी देवमंदिर में या वृक्ष के नीचे ठहर जाता था। वे गाँव में जाकर आटा माँग लेते और रूखा−सूखा जैसा भी होता, अपने हाथों से बनाकर भोजन पा लेते। अगले दिन फिर से श्री गंगाजी के किनारे आगे बढ़ जाते। संस्कृत एवं संस्कृति की उनकी यह प्रचार यात्रा इसी तरह गतिशील रहती।
एक बार वह देववाणी एवं देवसंस्कृति का प्रचार करते−करते एक राजा की रियासत में पहुँच गए और नियमानुसार गाँव से बाहर एक वृक्ष के नीचे ठहर गए। दोपहर को गाँव में गए और घरों से मुट्ठी−मुट्ठी भर आटा माँग लाए। उसी से भोजन बनने लगा। अकस्मात् उधर से राजपुरोहित आ निकले। उन्होंने देखा एक ब्राह्मण परिवार वृक्ष के नीचे ठहरा हुआ है। माथे पर तिलक गले में यज्ञोपवीत, सिर पर लंबी चोटी, ऋषि मंडली−सी प्रतीत हो रही है। पास आकर देखा तो रोटी बनाई जा रही थी। छोटे बच्चे तथा ब्राह्मणी संस्कृत में वार्त्तालाप कर रहे थे।
राजपुरोहित ने परिवार के मुखिया से संस्कृत भाषा में बातें कीं। उन्हें यह जानकर भारी आश्चर्य हुआ कि आ से ही नहीं, सैकड़ों वर्षों से इनके पूर्वज संस्कृत में ही बोलते चले आ रहे हैं और संस्कृत की, धर्म की, वेद−शास्त्रों की रक्षा के लिए ही भिखारी बने मारे−मारे डोल रहे हैं। राजपुरोहित ने सारा वृत्ताँत जब महाराज को सुनाया, तो वह भी चकित रह गए। उन्होंने पुरोहित से कहा कि ऐसे देव−परिवार को महलों में बुलाया जाए और मुझे परिवार सहित उनके दर्शन−पूजन का सौभाग्य प्राप्त कराया जाए।
महाराज एवं राजपुरोहित के अति आग्रहवश अगले दिन यह ऋषि परिवार राजभवन पहुँचा। वहाँ पहले से ही हजारों स्त्री−पुरुषों का जमघट लगा हुआ था। लोग पंडित श्रीराम जी महाराज की जय के नारे लगा रहे थे। अपने नाम के यह जयकारे सुनकर वह चकित भाव से मौन रहे। महाराज ने स्वयं अपनी महासनी सहित सुवर्ण पात्रों में ब्राह्मण देवता, ब्राह्मणी तथा बच्चों के चरण धोकर पूजन किया, आरती उतारी और चाँदी के थालों में सोने की अशर्फियाँ और हजारों रुपये के बढ़िया−बढ़िया दुशाले सामने लाकर रख दिए।
सबने देखा कि उस ब्राह्मण परिवार ने उन अशर्फियों और दुशालों की तरफ देखा तक नहीं। जब स्वयं महाराज एवं महारानी ने भेंट स्वीकार करने के लिए प्रार्थना की, तब पंडित जी ने धर्मपत्नी की ओर देखकर पूछा कि क्या आज के लिए आटा है? ब्राह्मणी ने कहा, नहीं। पंडित जी ने महाराज से कहा, बस आज के लिए आटा चाहिए। ये अशर्फियों के थाल और दुशाले मुझे नहीं चाहिए।
महाराज ने प्रार्थना की, ब्राह्मण देवता! मैं क्षत्रिय हूँ, भला दान की हुई चीज मैं वापस कैसे ले सकता हूँ। इस पर पंडित श्रीराम महाराज मुस्कराए और बोले, महाराज हम ब्राह्मणों का धन तो विद्या एवं तप है। हम इसी का अर्जन करते हैं और इसी का संग्रह करते हैं। इसी में हमारे संपत्ति की रक्षा कीजिए।
महाराज यह सुनकर बड़े श्रद्धाभाव से बोले, पर क्या यह उचित होगा कि एक क्षत्रिय अपना दिया हुआ दान वापस ले ले? क्या इसे सनातन धर्म को क्षति नहीं पहुँचेगी। इस पर पंडित जी ने कहा अच्छा इसे हमने ले लिया। अब इसे हमारी ओर से आप जनकल्याण के कार्यों में व्यय कर दीजिए। इस तरह हमारे और आपके दोनों के ही धर्म की रक्षा हो जाएगी।
और फिर सबने देखा कि ब्राह्मण देवता सपरिवार एक सेर आटा लेकर और सारे सोने की अशर्फियों से भरे चाँदी के थाल व दुशालों को ठुकराकर वेद पाठ करते हुए जंगल की ओर चले जा रहे हैं।
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