
नूतन वर्ष लाता है नई उमंगें
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नवीन वस्त्र धारण करने पर बालकों में जो उल्लास दिखलाई पड़ता है, कुछ वैसा ही उत्साह जनमानस में नूतन वर्ष के प्रति होता है। जीर्ण−शीर्ण पुरानी चीजें किसे भाती हैं? नई की कल्पना और आकर्षण ही कुछ और होता है। उनके आने और पाने में जो खुशियाँ उमंगती हैं, उनका कहना ही क्या!
पुराने साल की विदाई के बाद जब नूतन वर्ष का आगमन होता है, तो प्रत्येक मनुष्य में एक अभिनव स्फूर्ति और उमंग दिखाई पड़ती है। यह इस बात की सूचक होती है कि पुरातनता का आलस्य और अनुत्साह अपनी केंचुल त्याग चुके हैं और नई अँगड़ाई लेकर नूतनता का ऐसा आवरण ओढ़ा है, जिसमें सर्वत्र सक्रियता एवं गतिशीलता ही दृष्टिगोचर होती है। यों प्रगतिशीलता के अभाव का नाम भी प्राचीनता है। इसे भूतकाल या विगत काल भी कह सकते हैं। जब हम नए युग में, नए समय में, नए साल में प्रवेश करते हैं, तो सर्वप्रथम इस बात पर विचार करते हैं कि हमारा पिछड़ापन कैसे दूर हो? विगत वर्ष में हमसे जो भूलें हुई और जिसके कारण उन्नति के स्वर्ण अवसर हमने खोए, उनसे कैसे बचे और अपना भविष्य उज्ज्वल कैसे बनाएँ?
इन सभी बातों की समीक्षा का उपयुक्त अवसर नया वर्ष होता है। वह नवीन प्रेरणाएँ और नूतन विचार लेकर आता है। मनः संस्थान में यदि इनके प्रति उमंगे न जगें, तो उत्कर्ष का सिलसिला अवरुद्ध होकर रह जाएगा और उस आनंद और उल्लास से सदा वंचित ही बना रहेगा जो नववर्ष के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।
योजनाकार क्रियान्वयन से पूर्व ही अपनी समस्त योजनाएँ भलीभाँति बना और मस्तिष्क में बैठा लेते हैं। भवन निर्माता निर्माण से पहले उसका नक्शा बनाते, तब निर्माण कार्य आरंभ करते हैं। ऐसे ही नए वर्ष के आते ही हर विवेकशील व्यक्ति पूरे सालभर का एक मोटा खाका तैयार करता है और यह सुनिश्चित का लेता है कि उस समूची अवधि में कौन−कौन से नए निर्धारण और कार्य कब−कब आरंभ होंगे। इसे नववर्ष की पुलकन का चमत्कार ही कहना चाहिए कि मन उक्त समय में समग्र सफलता के ताने−बाने बुनने में इतना संलग्न हो जाता है, जितना कि अन्य मौकों पर शायद ही होता हो।
वैसे तो काल एक सतत प्रवाह है, वह अनादि और अनंत भी है। इसलिए उसके नए−पुराने होने का अर्थ नहीं, किंतु फिर भी मनुष्य ने उसे दिन, सप्ताह, पक्ष, मास एवं वर्ष आदि के सुविधानुसार विभाजनों में बाँटकर एक विभेद तो उत्पन्न कर ही दिया है। तदनुसार तो बीत गया, उसे भूतकाल कहने की परंपरा है और आगत−अनागत को क्रमशः वर्तमान एवं भविष्यत् कह दिया जाता है। आदमी का यह सहज स्वभाव है कि वह विगत या वर्तमान के प्रति उतना उत्साहित नहीं रहता, जितना कि आने वाले अनागत के प्रति। परिवार के सभी सदस्य परस्पर हिल−मिलकर रहते हैं, यह सच है; पर जब कभी कोई चिर प्रतीक्षित मेहमान घर में आ विराजता है, तब जो प्रसन्नता की कहर पूरे वातावरण में दौड़ती दिखाई पड़ती है, वह अन्य अवसरों पर कहाँ देखी जाती है! कुछ ऐसे ही दृश्य अभिनव वर्ष के आगमन पर दृष्टिगोचर होता है। उससे मन में तरंग, शरीर में स्फूर्ति, क्रिया में गति, वाणी में उल्लास और बुद्धि में सक्रियता का जो नवीन उदय होता है, उसे वसंत में पतझड़ के बाद वनस्पतियों में निकलने वाले नूतन किसलय का संज्ञा दी जा सकती हैं।
इसे सृष्टिक्रम का एक आश्चर्य ही कहना चाहिए कि यहाँ किसी को भी पुरातनता का बोझ लंबे समय तक नहीं ढोना पड़ता। परमात्मा ने हर प्राणी का इस संदर्भ में ध्यान रखा है। मुर्गों में कलगी, हाथी में दाँत, साँप में केंचुल आदि इसी परिवर्तन के परिचायक हैं। अंत में शारीरिक अशक्तता के आ धमकने पर जीवात्मा को उससे भी मुक्त कर नवीन कलेवर प्रदान किया जाता है। यह उस एकरसता को दूर करने के लिए ही ईश्वर द्वारा निर्धारित व्यवस्था के अंतर्गत होता है, जो लंबे समय तक एक जैसी स्थिति और देह में रहने के कारण उत्पन्न होती हैं।
नवीनता ही जीवन है। उसमें गति, प्राण और प्रेरणा है। प्राचीनता तो दर−दर की ठोकरें खाती और स्थान−स्थान पर दुत्कारी जाती है। नए वर्ष को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए और उससे नई प्रेरणा लेकर हर एक को अपना जीवन सफल−समुन्नत बनाने में लग जाना चाहिए।
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