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Magazine - Year 2001 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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सबसे बड़ी शक्ति है - श्रद्धा

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जीवन को किसी निर्दिष्ट ढाँचे में ढाल देने वाली सबसे प्रबल एवं उच्चस्तरीय शक्ति श्रद्धा है। यह अंतःकरण की दिव्य भूमि में उत्पन्न होकर समस्त जीवन को हरियाली से सजा देती है। श्रद्धा का अर्थ है। श्रेष्ठता के प्रति अटूट आस्था। यह आस्था जब सिद्धाँत एवं व्यवहार में उतरती है, तो उसे निष्ठा कहते हैं। यही जब आत्मा के स्वरूप, जीवन एवं ईश्वर भक्ति के क्षेत्र में प्रवेश करती है, तो श्रद्धा कहलाती है।

आत्मकल्याण चाहने वाले के लिए और ईश्वर प्राप्ति के लिए इस शक्ति का उभार अवलंबन आवश्यक है इसके बिना उस महान लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। अपने अंतरात्मा में बैठे हुए परमात्म को देखने, उसे प्राप्त करने का उपाय बताते हुए मनीषियों ने इसी श्रद्धा की गरिमा को प्रस्तुत किया है। मनुष्य स्थूल कम, सूक्ष्म अधिक है। वह भावनाओं के सहारे पैदा होता, भावनाओं में ही जीवित रहता और भाव जगत् में ही विलीन होता है। भावनाओं के प्रति सम्मान ही श्रद्धा है।

यह संवेदना जहाँ भी होगी वही संतोष की निर्झरिणी प्रवाहित हो रही होगी। भगवान कृष्ण न कहा है, सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवित भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छूद्धः स एव सः॥ अर्थात् हे अर्जुन! यह सृष्टि श्रद्धा से विनिर्मित है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह पुरुष वैसा ही बन जाता है अर्थात् बुराइयों के प्रति श्रद्धा व्यक्ति को समस्याओं में कैद कर देती है, तो आदर्शों के प्रति श्रद्धा मनुष्य जीवन को सुख शाँति और प्रसन्नता से भर देती है। श्रद्धा में ही व्यक्तित्व के परिष्कार की वास्तविक सामर्थ्य है।

श्रद्धा के अभिसिंचन से पत्थर में देवता का उदय किया जा सकता हैं हिंदू संस्कृति में प्रतिमा प्रतिस्थापित करने तथा उनकी पूजा उपासना करने का दर्शन इसी श्रद्धा तत्व पर आधारित है। अपने इष्ट के प्रति अटूट श्रद्धा आरोपित करके ही उपासक उसके साथ अनन्य एकता स्थापित कर लेते हैं। ईश्वर, कर्मफल, जीवनोद्देश्य, कर्तव्यपालन, आत्मा की गरिमा जैसे सत्य तथ्यों पर सघन श्रद्धा रखने वाले लोग ही सामान्य जीवन से उठकर महामानवों देवदूतों की पंक्ति में बैठ सकते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र की उच्चस्तरीय साधनाओं में श्रद्धा की ही अपरिमेय शक्ति काम करती है।

श्रद्धा का आविर्भाव सरलता और पवित्रता के संयोग से होता है। पार्थिव वस्तुओं से ऊपर उठने के लिए सरलता व पवित्रता इन्हीं दो गुणों की अत्यंत आवश्यकता होती है। इच्छा से सरलता और प्रेम में पवित्रता का विकास जितना अधिक होगा, उतनी ही अधिक श्रद्धा बलवान होगी। सरलता द्वारा परमात्म की भावानुभूति होती है और पवित्र प्रेम के माध्यम से उसकी रसानुभूति। श्रद्धा दोरो का ही सम्मिलित स्वरूप है, उसमें भावना भी है और रस भी। जहाँ उसका उदय हो वहाँ लक्ष्य प्राप्ति की कठिनाई का अधिकाँश समाधान तुरंत हो जाता है। जब तक मनुष्य के अंतःकरण में श्रद्धा का जन्म नहीं होता, तब तक जप, तप, यम नियम, व्रत आदि जितने भी धर्माचरण हैं, उनमें मनुष्य की बुद्धि स्थिर नहीं रहती। यह श्रद्धा ही जीवन की कठिनाइयों में मनुष्य को पार लगाती है और आत्मगुणों का विकास करती हुई उसे विज्ञानयुक्त परमात्मा के प्रकाश तक जा पहुँचाती है।

मानव देह में एक चिरंतन आध्यात्मिक सत्य छुपा हुआ है। जब तक वह मिल नहीं जाता, इच्छाएँ उसे इधर से उधर भटकातीं, दुख के थपेड़े खिलाती रहती हैं। अपने आपको, अपनी चेतन सत्य को पहचानना आसान बात नहीं हैं विद्यमान परिस्थितियाँ ही धोखा देने के लिए पर्याप्त होती हैं, फिर जनम-जन्माँतरों के प्रारब्ध इतने भले नहीं होते, जो मनुष्य को साधारणतः ही क्षमा कर दें। हमारा असली व्यक्तित्व इतना स्पष्ट है कि उसकी भावानुभूति एक क्षण में हो जाती है। वह परदों में नहीं रहता, फिर भी वह इतना जटिल और कामनाओं के परदों में छुपा हुआ है कि असली स्वरूप को जानना टेढ़ा पड़ जाता है। साधना-उपासना करते हुए भी बार-बार पथ से विचलित होना पड़ता है।

श्रद्धा वह प्रकाश है जो आत्मा को सत्य प्राप्ति के लिए बनाए गए मार्ग को दिखाता रहता है। जब भी मनुष्य लौकिक चमक-दमक, कामिनी व कंचन के लिए मोहग्रस्त होता है, तो माता की तरह ठंडे जल से मुँह धोकर जगा देने वाली शक्ति यह श्रद्धा ही होती है। सत्य के सद्गुण ऐश्वर्य स्वरूप एवं ज्ञान की पूँजी अपनी बुद्धि से नहीं मिलती। उसके प्रति सविनय प्रेम भावना विकसित करनी पड़ती है, उसी को श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा सत्य की सीमा तक साधक को साधे रहती है और सँभाले रहती है।

श्रद्धा के बल पर ही मलिन चित्त अशुद्ध चिंतन का परित्याग करके बार-बार परमात्मा के चिंतन में लगा रहता हैं बुद्धि भी जड़ पदार्थों में सन्मय न रहकर परमात्मज्ञान में अधिक-से अधिक सूक्ष्मदर्शी होकर दिव्य भाव में बदल जाती हैं । जब अपने कर्मों के औचित्य एवं अनौचित्य को परम प्रेरक शक्ति के हाथों सौंप देते हैं, तो एक प्रकार की निश्चिंतता मन में आ जाती है। मन का बोझ हलका हो जाता हैं। जिसकी जीवन पतवार परमात्मा के हाथ में हो उसे किसका भय?

सर्वशक्तिमान से संबंध स्थापित करके ही मनुष्य निर्भय हो सकता है। व्यक्तियों में सद्गुणों का प्रकाश और दिव्यता झरने लगती है। जीवन में आनंद झलकने लगता है। यह संबंध और स्पर्श जब तक पूर्णता तक नहीं पहुँचता, तब तक यह श्रद्धा के रूप में प्रकट व विकसित होता है। यह एक प्रकार से पाथेय है, इसलिए उसका मूल्य और महत्व उतना ही है, जितना कि अपने लक्ष्य का, गंतव्य का, अभीष्ट का, आत्मा, सत्य अथवा परमात्मा की प्राप्ति का। श्रद्धायुक्त जीवन की विशेषता से ही मनुष्य स्वभाव में ऐसी सुंदरता बढ़ती जाती है, जिसको देखकर श्रद्धावान् स्वयं संतुष्ट बना रहता है। श्रद्धा सरल हृदय की ऐसी प्रीतियुक्त भावना है, जो श्रेष्ठ पथ की सिद्धि कराती है। इसीलिए शास्त्रकार कहते है-

भवानीशडंकरै वंदे श्रद्धाविश्वासरुपिणौ। याभ्याँ विना न पश्यन्िसिद्धास्वाँतः स्थमीश्वरम्॥

हम सर्वप्रथम भवानी और भगवान्, प्रकृति और परमात्मा को श्रद्धा व विश्वास के रूप में वंदन करते है, जिसके बिना सिद्धि और ईश्वर-दर्शन की आकांक्षा पूर्ण नहीं होती।

उपर्युक्त विवेचना के सहारे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि मानव जीवन में सबसे बड़ी, सबसे ऊँची, सबसे समर्थ शक्ति की ही है। मनःस्थिति को परिस्थितियों का सृजनकर्त्ता कहा गया है। शरीर का जन्म तो माता-पिता की उत्कृष्टता, श्रद्धा व विश्वासरूपी दिव्य जननी और जनक की अनुकंपा का फल माना जा सकता है। उल्लसित वर्तमान और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण पूर्णतया श्रद्धा के हाथ में है। उसी का महत्व, मर्म, उपार्जन, अभिवर्द्धन सिखाने के लिए भूतकाल की कथा-गाथाओं को पुरातन उपाख्यानों में पुराण के नाम से जाना जाता है।

भूत, भविष्य और वर्तमान की सुखद संभावनाओं का निर्माण अंतःकरण के जिस क्षेत्र में विनिर्मित होता है, उसका स्वरूप समझना हो तो एक श्रद्धा शब्द का उपयोग करने से वह प्रयोजन पूरा हो सकता है। गुरु कुछ भी न दे तो भी श्रद्धा में वह शक्ति है, जो अनंत आकाश से अपनी सफलता में तत्व और साधन को आश्चर्यजनक रूप से खींच लेती है। ध्रुव, एकलव्य, राजर्षि दिलीप की साधनाओं में सफलता का रहस्य उनके अंतःकरण की श्रद्धा ही रही है। उनके गुरुओं ने तो केवल उसकी परख की थी। यदि इस तरह की श्रद्धा आज भी लोगों में आ जाए व पूर्ण रूप से परमात्मा की इच्छाओं पर चलने को कटिबद्ध हो जाएँ, तो विश्व शाँति चिर संतोष और अनंत समृद्धि की परिस्थितियाँ बनते देर न लगे।

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