
आगामी दो दशक की चुनौतियाँ
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विश्व आज उस निर्णयात्मक दौर से गुजर रहा है जब साम्यवाद का अंत हो चला है और समाजवाद अपने अंतिम चरणों में हैं। दूरदर्शी विचारशीलों का कहना है कि पूँजीवादी का अंत भी अब ज्यादा दूर नहीं है। पूँजीवादी के अंत के बाद की सामाजिक रचना कैसी होगी? हाँलाकि यह प्रश्न अभी अनिर्णित है, लेकिन फिर भी संभावना पूर्ण है कि इस परिवर्तन के दौर में कुछ विकासशील देश आर्थिक शक्तियों के रूप में उभरकर आएँगे।
पाश्चात्य इतिहास में प्रत्येक कुछ सौ वर्षों के अंतराल में एक तीव्र परिवर्तन होता आया है। कुछ दशकों के अंदर समाज अपने दर्शन, सामाजिक व राजनैतिक ढाँचों, मूलभूत सिद्धाँत, कला तथा इसके अन्य मुख्य घटकों के साथ स्वयं को पुनर्व्यवस्थित कर लेता है इस समाज में पैदा व्यक्ति उस समाज की कल्पना भी नहीं कर सकता। जिसमें कि उसके पूर्वज जिए व उनके माता-पिता जन्में। हम आज ऐसे ही परिवर्तन के क्षणों में जी रहे हैं।
एक ऐसा परिवर्तन क्फ्वीं शताब्दी में हुआ था, जब अचानक ही लगभग रातोंरात पाश्चात्य दुनिया शहरों में आकर बस गई थी। नए ज्ञान का आधार धर्मग्रंथों की बजाय अरस्तू के विचारों की ओर खिसक गया था। संस्कृति केंद्र के रूप में शहरी विश्वविद्यालयों ने एकाँत गाँवों में अवस्थित मठों का स्थान ले लिया था।
अगला परिवर्तन ख् वर्षों के बाद हुआ। यह गुटनवर्ग के प्रिंटिंग आविष्कार के म् वर्षों के अंदर हुआ। जब क्ब्भ्भ् में पहली छपी पुस्तक सामने आई थी।
अगला परिवर्तन क्स्त्रस्त्रम् में अमेरिका की क्राँति व वाष्प इंजन के आविष्कार के साथ आरंभ हुआ। यह वाटरलू में ब् वर्ष बाद पूरा हो गया । इस दौरान सभी आधुनिक वादों ‘प्उ’ का जनम हुआ था। इसी समय पूँजीवादी, साम्यवाद, एवं औद्योगिक क्राँति का जन्म हुआ था परिणामतः इन ब् वर्षों ने एक नई यूरोपीय सभ्यता को जन्म दिया।
लगभग ख् वर्षों बाद आज का समय वैसे ही परिवर्तन का समय है। अंतर मात्र यह है आज यह पाश्चात्य समाज व इतिहास तक सीमित नहीं है। क्योँकि आज इसकी जगह पर विश्व इतिहास व विश्व सभ्यता आ गई है, जो वस्तुतः प्राचीनतम भारतीय इतिहास व सभ्यता से उत्पन्न हुई है। यह परिवर्तन जापान जैसे गैर पाश्चात्य देश के एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने से हुआ था। प्रथम कंप्यूटर के आविष्कार से यह विषय विवादास्पद है।
हम इस परिवर्तन के बीच में खड़े है। यदि हम इतिहास के प्रकाश में देखें तो परिवर्तन ख् से लेकर ख्ख् तक पूर्ण हो जाना चाहिए। हालाँकि इसके पहले ही विश्व के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और नैतिक नक्शे को बदलने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी हैं सन् ख् में पैदा हुई पीढ़ी यह सहज कल्पना नहीं कर सकेगी कि उनके दादा जिस दुनिया में जिए वह कैसी थी?
उत्तर पूँजीवादी विश्व कैसा होगा, यह ठीक-ठीक पता लगाना अभी बहुत कठिन है। संभावनाओं का अनुमान कुछ अंश तक लगा सकते हैं, लेकिन अधिकतर प्रश्नों का जवाब भविष्य के गर्भ में छुपा पड़ा है। नया समाज गैर समाजवादी व उत्तर -पूँजीवादी होगा, यह तो सुनिश्चित है और यह भी निश्चित है कि इसका प्रमुख स्त्रोत ज्ञान होगा। अतः यह एक संगठन व्यवस्था का समाज होगा।
उत्पादन में मुख्य एवं नियंत्रक पहलू आज न तो पूँजी है और न ही साधन तथा श्रमिक। यह है ज्ञान। पूँजीवादी तथा मजदूरों की जगह उत्तर पूँजीवाद समाज में प्रमुख भूमिका ज्ञदवूसमकहम वतामत तथा मतअपबम वतामत की है।
यह वही शक्ति है जिसने मार्क्सवाद को एक दर्शन के रूप में तथा साम्यवाद को एक समाज व्यवस्था के रूप में नष्ट कर दिया। वही आज तीव्रता से पूँजीवाद को समाज व्यवस्था के रूप में अनुपयुक्त सिद्ध कर रही है। क्त्त्वीं शताब्दी के मध्य से ख्भ् वर्षों तक पूँजीवादी प्रधान समाज दर्शन था। अब इसका अतिक्रमण उसी तीव्र गति के साथ समाज व विश्व के प्रति एक नए चिंतन द्वारा हो रहा है। पूँजीवादी नया समाज कैसा भी हो, लेकिन यह नहीं होगा।
सत्य यही है कि मूलभूत आर्थिक स्त्रोत ज्ञान है। अर्थ उपार्जन की गतिविधियों में न तो पूँजी के निर्धारक और न ही श्रमिक रहेंगे, जो कि क्−वीं और ख्वीं शताब्दी के अर्थ दर्शन के दो ध्रुव रहे हैं। भविष्य में सिर्फ ये उत्पादकता और नवाचार (पददवअंजपवद) के इर्द-गिर्द केंद्रित होंगे, जो कि काम करने के ज्ञान की दो विधियाँ है। कुशल समाज के सामाजिक प्रतिनिधि समूह न तो पूँजीवादी होंगे और न ही श्रमिक, जो कि ख्भ् वर्ष पूर्व की औद्योगिक क्राँति से अब तक चले आ रहे हैं। शासक समूह ज्ञानी कार्यकर्ताओं का होगा, जिनके पास पूँजी की उत्पादक क्षमता का उपयोग करने की दृष्टि एवं क्षमता होगी।
लेकिन इसमें दूसरा प्रतिनिधि समूह भी होगा, जिसे स्वयंसेवक कार्यकर्ता का नाम देना उचित होगा। जिनके पास ज्ञानवान कार्यकर्ता बनने के लिए ललक होगी। प्रत्येक देश में चाहे वह कितना ही विकसित क्यों न हो, बहुमत इन्हीं का होगा।
लेकिन यह समाज भी मूल्यों संबंधी शोध की एक नई विभाजन रेखा से विभाजित होगा। यह विभाजन स्पजमतंजम ज्ञानी एवं डंदंहमत प्रबंधक के बीच होगा। जिनमें ज्ञानी शब्द एक विचारों से संबंधित होगा व प्रबंधक लोगों एवं काम से। इस विभाजन को पाटना इस भविष्यत् समाज के लिए केंद्रीय दार्शनिक एवं शैक्षणिक चुनौती होगी।
मार्क्सवाद के विखंडन ने समाज के माध्यम से उद्धार के विश्वास को खंडित कर दिया है। आगे क्या होगा? इसके उत्तर में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है। शायद तितिक्षायुक्त त्याग के अतिरिक्त और कुछ नहीं? शायद एक परंपरागत धर्म का पुनरुज्जीवन। जो कुशल समाज की आवश्यकताओं एवं चुनौतियों को पूरा कर सके? जिसका आधार आध्यात्मिक ही भविष्य के जीवन मूल्यों का व्याख्याता बनेगा।
विकासशील देश विश्व की जनसंख्या का दो तिहाई हिस्सा बनाते हैं। जब तक परिवर्तन का यह दौर पूरा हो जाता है अर्थात् ख्क्भ् या ख्ख् के आस-पास, विकासशील देशों की जनसंख्या तीन-चौथाई हो जाएगी। इसकी पूरी संभावना है कि अगले एक दो दशकों में एक नया और जबरदस्त आर्थिक चमत्कार होगा, जिसमें गरीब एवं पिछड़े देश स्वयं को रातोरात विकसित एवं तीव्र विकसित आर्थिक शक्तियों में परिवर्तित कर लेंगे। इनमें भारत अपनी वृहत अप्रयुक्त क्षमताओं के साथ अग्रिम पंक्ति में खड़ा होगा।