
प्रतिभा (kahani)
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अमीचंद नामक एक प्रसिद्ध व्यक्ति महर्षि दयानंद के पास गाना गाने जाया करता था। दयानंद को उस व्यक्ति से अत्यंत आत्मीयता हो चुकी थी। एक दिन समाज के सभ्य लोगों ने उसके आचरण के विषय में महर्षि से शिकायत की। महर्षि ने विस्तार से पता लगाया तो सच पाया। दूसरे दिन जब अमीचंद गाना गाकर उठने ही वाला था कि महर्षि ने कहा, प्यारे दोस्त! तुम्हारा गला तो कोयल का है, परंतु आचरण कौए के समान है। अमीचंद को इतनी सी बात हृदय को चुभने के समान लगी। उसने संकल्प लिया कि महर्षि देव से मिलूँगा तो अच्छा बनकर। दूसरे दिन से ही उसने कार्यालय में रिश्वत लेना बंद कर दिया। बहुत समय से त्यागी हुई पत्नी को पुनः बुला लिया। नशा आदि का भी सेवन करना बंद कर दिया। तब ऋषि चरणों में जाकर मस्तक झुकाया। अमीचंद की पत्नी तो ऋषि के अद्भुत कर्तृत्व पर मुग्ध थी तथा अपना नया जन्म अनुभव कर रही थी।
लगन क्या से क्या न बना दे
प्रतिभा के संपादन में, अभिवर्द्धन में जिसकी भी अभिरुचि बढ़ती रही है, जिसने अपने गुण, कर्म, स्वभाव को सुविकसित बनाने के लिए प्रयत्नरत रहने में अपनी विशिष्टता की सार्थकता समझी है, समझना चाहिए उसी को अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने का अवसर मिला है। उसी को जनसाधारण का स्नेह-सहयोग मिला है। पुस्तकों का बक्सा सिर पर रखकर फेरी लगाने वाले भगवती प्रसाद वाजपेयी, भिक्षान्न से पले बालकृष्ण शर्मा नवीन, भैंस चराने वाले रामवृक्ष बेनीपुरी आदि घोर विपन्नताओं से ऊँचे उठकर मूर्द्धन्य साहित्यकार बने थे। शहर के कूड़ों में से चिथड़े बटोरकर गुजारा करने वाले गोक्री विश्वविख्यात साहित्यकार हो चुके हैं। ध्यानध्यक्षों में हेनरी फोर्ड, राँक फेलर, अल्फ्रेड नोबुल, टाटा, बिड़ला में से अधिकाँश आरंभिक दिनों में साधनरहित स्थिति में ही रहे हैं। पीछे उनके उठने में सूझ बूझ ही प्रधान रूप में सहायक रही है। कठोर श्रमशीलता, एकाग्रता एवं लक्ष्य के प्रति सघन तत्परता ही सच्चे अर्थों में सहायक सिद्ध हुई। इन्हीं सब सद्गुणों का समुच्चय मिलकर ऐसा प्रभावशाली व्यक्तित्व विनिर्मित करता है, जिसे प्रतिभा कहते हैं।