
इंसान इन जीव-जंतुओं से कुछ सीखकर तो देखे
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यह सच है कि इंसान सृष्टि का सबसे बुद्धिमान जीव है। पर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि प्रकृति के छोटे-नन्हें जीवों में बौद्धिक क्षमता भी है। भले ही यह सीमित दायरे में हो। वैसे कभी-कभी इन छोटे कहे जाने वाले जीवों की बुद्धि कुशलता देखकर मनुष्य की बुद्धि भी चकरा जाती है। प्रकृति ने अपने आँचल की छाया में सबको पनाह दी है। इंसान अपने अहंकार को त्याग सके, तो इन छोटे जीवों की अनोखी क्षमताओं से काफी कुछ सीख सकता है। यह तथ्य है कि प्रकृति माता की हर संतान अपने आप में अद्भुत एवं आश्चर्यजनक क्षमताएँ सँजोए है।
माता प्रकृति की इन संतानों के बारे में सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘टाइम’ ने अपने ख्क् मार्च क्क्क्फ् के अंक में एक विशेष लेखमाला प्रकाशित की थी। इसके एक लेख के अनुसार ऐरीजोना विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में भूरे रंग का एक तोता है। सभी जानते है कि तोतों में बोलने की कुछ विशेष क्षमता होती है। इस बारे में कुछ खास जानकारी पाने के लिए पक्षीविज्ञानी फारेन पेयरवर्ग ने इस भूरे रंग के तोते पर कुछ प्रयोग किए। इन प्रयोगों के निष्कर्ष में उन्होंने पाया कि भूरे रंग का एलेक्स नाम का तोता न सिर्फ बोलियों की नकल करता है, बल्कि वस्तुओं के रंग, प्रकार, बनावट, आदि के बारे में भी बड़ी आसानी से ब्यौरेवार जानकारी दे डालता है। पेयरवर्ग ने इसके साँकेतिक स्वरों को भाषा में परिवर्तित किया है। उनके अनुसार जब वह परेशान होता है, तो अलग तरह के स्वर निकालता है, जबकि खुशी और प्रसन्नता की अवस्था में वह काफी शाँत होकर बोलता है।
नृतत्वविज्ञानी के अनुसार मानव की कई बौद्धिक विशेषताएँ है। इन्हीं विशेषताओं में सर्वप्रमुख है विस्तृत बातों को संकेतों एवं सूत्रों के रूप में प्रयोग करने की कुशलता। इसी वजह से उसने अन्य जीवों से अपना अस्तित्व अलग बना रखा है। फ्रेंचविज्ञानी ज्याँ मितराँ का मानना है कि इस विशेषता को मनुष्य का एकाधिकार मानना ठीक नहीं। सृष्टि के अन्य प्राणी भी बीज रूप में यह विशेषता रखते है। उनके अनुसार शायद इस बात को परखकर ही चार्ल्स डार्विन ने कहा था, अपनी विकास प्रक्रिया में मनुष्य को इन्हीं छोटे और कमतर कहे व माने जाने वाले प्राणियों के संसार से गुजरना पड़ता है। यह बात विवादास्पद भले ही हो, पर इतना तो सच है कि अन्य जीव-जंतुओं में किसी-न-किसी रूप में बौद्धिक क्षमता रहती ही है।
यूरोप में क्लेवर हेन्स नाम का एक घोड़ा है। उस घोड़े के बारे में डच साइकोलॉजिस्ट आस्कर पगंस्ट का कहना है कि इसने गणित के कई सवालों को हल कर तहलका मचा दिया है। क्लेवर हेन्स अंकों का जोड़-घटाना कर ही लेता है, साथ ही उसे गुणा-भाग करने में कोई ज्यादा परेशानी नहीं होती है। मनोविज्ञानी उसकी इस क्षमता से हैरान है। उनका मानना है कि व्याकलन, गुणन व विश्लेषण की क्षमता का घोड़े में इस कदर पाए जाना प्रकृति का एक अनोखा आश्चर्य ही है। सही अर्थों में वह ‘क्लेरवाँयन्स’ संपन्न है।
वैज्ञानिकों ने बंदर की एक प्रजातियों पर भाषा संबंधी अनुसंधान की शुरुआत क्क्स्त्र में की। उनका अध्ययन विहैव्यिरल साइन्स के अंतर्गत किया गया। अपने प्रायोगिक निष्कर्षों में वैज्ञानिकों ने बताया कि चिंपाँजी तथा कोको गोरिल्ला साँकेतिक भाषा के माध्यम से बहुत अग्रणी साबित हुए। इस शोध प्रक्रिया में कई वैज्ञानिकों ने अपनी जान को जोखिम में डालकर यह गहन अध्ययन संपन्न किया और अंत में उन्हें स्वीकारना पड़ा कि बंदरों की अनेकों प्रजातियाँ अपने आप में कुछ विशेष बौद्धिक कुशलता को समेटे हुए है।
शोध-प्रयोग के इस क्रम में काँजी नामक एक चिंपाँजी को अटलाँटा की एक जार्जिया स्टेट यूनिवर्सिटी के लैंग्यून रिसर्च सेंटर में रखा गया है। इस पर प्रख्यात मनोविज्ञानी सू सेवेज रैंबाग ने अनेकों प्रयोग संपन्न किए है। उनके अनुसार चिंपाँजी यद्यपि अधिक स्पष्ट तौर पर बोल नहीं सकते, परंतु इनकी समझदारी काफी बढ़ी-चढ़ी रहती है। मनोवैज्ञानिक सू सेवेज के अनुसार चिंपाँजी में शब्दों के नियंत्रण के लिए स्वर यंत्र का उचित विकास नहीं होता, पर इनकी समझदारी पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं है।
अपने अध्ययनक्रम में उन्होंने यह पाया कि काँजी नाम का चिंपाँजी लेक्सीग्राम के द्वारा अपनी अभिव्यक्ति को संपूर्ण तौर पर व्यक्त करता है। इस लेक्सीग्राम में एक इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड होता है। जिसमें कई तरह के स्विच होते है। उसके बटन को दबाने से इसके कंप्यूटर के परदे पर उसी प्रकार की आकृति उभरती है, जिसका उसमें संकेत होता है। काँजी इतना समझदार है कि वह अपनी आवश्यकतानुसार ही बटन दबाता है। इसके द्वारा यह खेलना, बातचीत करना तथा अन्य तरह के काम करता है। वह अन्य बच्चों के साथ खेलता है और उनके जैसा और उसी तरह का कुछ खास करने की कोशिश भी करता है। सबसे मजे की बात तो यह है कि उसे सिनेमा देखना काफी अच्छा लगता है।
इस काँजी नाम के चिंपाँजी ने एलिया नाम की दो साल की लड़की की पढ़ाई भी करनी शुरू की और वह ढाई सालों तक अनवरत पढ़ता भी रहा। अपनी इस पढ़ाई के क्रम में सामान्य अँग्रेजी व्याकरण को सीख लिया। इस संबंध में प्राणि विज्ञानी रोजन का मानना है कि सभी जीवों में अपने जीवनक्रम को चलाने के लिए एक मौलिक वृत्ति होती है। यदि इसे उपयुक्त और उचित रीति से विकसित किया जा सके, तो सभी जीव काँजी की ही भाँति बुद्धिमान साबित हो सकते है।
इस बारे में यदि यह कहा जाए कि जैव विकास के क्रम में बंदर इंसान का काफी नजदीकी है, तो बात ऐसी नहीं है। समझदारी खाली बंदरों तक सीमित नहीं है। अन्य प्राणियों में भी यह अनोखापन देखने को मिलता है। यहाँ बात डाल्फिन मछली की, की जा रही है। जिसकी बढ़ी-चढ़ी बौद्धिक कुशलता को देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। डाल्फिन को प्राणी वर्गीकरण के क्रम में स्तनधारी वर्ग में रखा गया है। विज्ञानवेत्ताओं ने इसे साढ़े चार करोड़ साल पुराना स्तनधारी माना है।
इसकी बौद्धिकता परीक्षा के एक क्रम में अमेरिका के एक विद्यालय में स्कूली बच्चों के साथ डाल्फिन का भी इम्तहान लिया गया। यह इम्तहान कागज, कलम, स्याही के द्वारा न होकर मौखिक और प्रायोगिक था। परीक्षाफल में मजेदार बात यह रही कि डाल्फिन ने कुछ स्कूली बच्चों के साथ अधिक अंक प्राप्त कर लिए। इस नतीजे ने सबको मानने के लिए विवश कर दिया कि योग्यता सिर्फ मानव की अकेली संपत्ति नहीं है। प्रकृति ने अन्य प्राणियों को भी इसका अनुदान-वरदान दिया है, पर जहाँ अन्य प्राणी कुछ और अधिक सीखने-जानने के लिए सहज तत्पर हो जाते है, वही मानव अपने भावी विकास के प्रति प्रायः उपेक्षा बरतता है, जबकि उसे इस बात के लिए हमेशा सचेष्ट रहना चाहिए कि उसे अभी और आगे बढ़ना है। मानव से देवमानव बनना है।