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Magazine - Year 2001 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात-क् - शांतिकुंज का महागरुड़ ही जुटाएगा नवसृजन के आधार उपकरण

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First 36 38 Last
परिवर्तन की इस वेला में हमारी भूमिका अति महत्वपूर्ण

“भूकंपों, ज्वालामुखियों, दुर्भिक्षों, बाढ़ों, महामारियों का अपना इतिहास है। उनके द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला महाविनाश सुनने वालों तक के रोमाँच कर देता है। फिर भी भूमि की समस्वरता समाप्त नहीं हुई है। विनाश की चुनौतियों को स्वीकार करने में विकास पूरी तरह समर्थ हैं। निराशाजन्य परिस्थितियों की विकरालता से सभी परिचित है। तमिस्रा की व्यापकता देने वाली ऊषा अपने समय पर उदित होती रही है एवं परिवर्तन लाती रही है।” प्रस्तुत उद्धरण परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी से नवंबर क्−त्त्त्त् की ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका से लिया गया है। उन्होंने तब क्ख् वर्षीय युग संधि महापुरश्चरण की घोषणा की ही थी। यह भी कहा था, “इस कुसमय का अंत होते-होते कहर बरसेगा” तथा “सड़े फोड़े का गहरा मवाद यदि एक साथ ही निकलेगा, तो अधिक घिनौने दृश्य उपस्थित करेगा”, “इसीलिये इस अवधि को बारह से पंद्रह वर्षों की सृजन व ध्वंस से भरी संधि लीला में बदल दिया गया हैं, ऐसा समय आएगा, जिसमें पिछले समस्त घाटे की पूर्ति हो जाएगी, ताकि गहरी खाई पाटकर समतल ही नहीं वरन् पुष्पोद्यान के रूप में छटा भी दीखने लगे।”

यह सारा कथोपकथन एक ही लेख से हैं-’युगसंधि की द्विधा नियति-परिणति,’ जो भी कुछ ऊपर लिखा हैं, उसे घटित होते आपने-हमने-सभी ने देखा है। भयावह-से-भयावह विभीषिकाओं से विश्व-वसुधा इन दिनों गुजर रही है। कष्ट की इन प्रलयंकारी घड़ियों में भी भगवद्सत्ता के दर्शन तब होते हैं, तब मानवता के नाम पर ढेरों सद्प्रयास इस दिशा में चल पड़ते हैं। ऐसा हुआ हैं व हम सबने देखा है। समाचार पत्रों में पढ़ा भी है।

परमपूज्य गुरुदेव यह भी इसी लेख में लिखते हैं, “भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट आचरण के कारण जो अनर्थ उपजे हैं, उन्हें कोई दावानल भस्मसात् करके रख दें, यह संभव है। ऐसा समय असाधारण रूप से कष्टकारी भी हो सकता है। विपत्तियाँ और बढ़ सकती हैं। संकट और भी अधिक गहरा सकते हैं, किंतु साथ ही यह भी निश्चित है कि उज्ज्वल भविष्य का सृजन भी इन्हीं दिनों होगा। प्रतिभाएँ इन्हीं दिनों उभरेंगी और उनके द्वारा बहुमुखी सृजन की ऐसी योजनाएं भी बनेंगी, जो चरितार्थ होने पर ऐसा वासंती वातावरण बना दें, जिसकी इक्कीसवीं सदी के रूप में आशा-अपेक्षा चिरकाल से की जाती रही हैं।” (पृष्ठ भ्-भ्क् नवंबर त्त्त्त् अखण्ड ज्योति)।

ऊपर यह सब इसलिए पुनः लिखा एवं परिजनों को याद कराया, ताकि हम सब अपने चिंतन को वर्तमान त्रासदी भरे समय में भी विधेयात्मक बनाए रख सकें, मनोबल गिरने न दें और पतन की दुरभिसंधि का शिकार न हो जाएं। पिछले दिनों इतना कुछ कहा गया, लिखा गया, कभी-कभी पाठकों-परिजनों को लगता है कि अब तो इक्कीसवीं सदी आ गई। अब तो कष्टों का समापन होना चाहिए। सतयुग के चिह्न स्थान-स्थान पर दिखाई देने चाहिए। किंतु दैवी आपदा ही नहीं, दुर्बुद्धि का भस्मासुर अभी चारों ओर महाविनाश मचाता दीख रहा है। लोगों का लालच किस सीमा तक बढ़ गया है, देखा जा सकता है। तहलका से लेकर सीमाशुल्क के सभी वरिष्ठ अधिकारियों की भ्रष्टाचार में गिरफ्तारी इसकी साक्षी देते हैं। लगता है कि सारे कुँए में ही भाँग मिला दी गई हैं, जिसे पीकर सभी उन्मत्त होते दिखाई देते हैं। युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहे हैं ढेरों युद्ध आज भी विश्व में कहीं-न-कहीं लड़े जा रहे हैं। गृह युद्ध की सी स्थिति विश्वभर में चारों ओर है। आत्महत्याओं का दौर चल पड़ा है। मनोचिकित्सकों को विचित्र प्रकार की व्याधियाँ चुनौती दे रही हैं और सारे प्रयासों के बावजूद मानवी स्वास्थ्य कहीं भी नियंत्रण में आता नहीं दीखता। क्या होगा, कब होगा, कैसे होगा यह प्रश्न चिह्न सभी के समक्ष खड़ा दिखाई देता है। आखिर धैर्य की भी तो एक सीमा हैं, वह चुकती-सी नजर आती है।

हम कभी-कभी भूल जाते हैं कि पुनर्निर्माण भी अपना समय लेता है। अभी हाल ही में गुजरात में आए भूकंप का दृष्य हमारे सामने है। चारों ओर मलबा, टूटे मकान, खंडहर से दीखते महानगर, किंतु उनके बीच की आशा की किरणों की तरह मानवी पुरुषार्थ से हो रहा पुनर्निर्माण एक विरोधाभास ही सही, किंतु एक सुखद अहसास भी दिला देता है। गाड़ी पटरी से उतर जाए, तो उसे वापस पटरी पर लाने में समय लगता है। मानवी प्रयास जितने तीव्रतम स्तर पर हो सकते हैं, हो रहे हैं एवं लगता है कि आगामी एक या डेढ़ वर्षों में सारा सौराष्ट्र एवं कच्छ हमें पुनर्निमित दिखाई देगा, साथ ही नर्मदा का नीर वहाँ पहुँचकर उन्हें दुर्भिक्ष से भी राहत पहुँचा रहा होगा। हर सघन अंधकार के बाद उजाले की लालिमा लिए सूर्य की किरण आती हैं, यह याद रखा जाना चाहिए।

जहाँ चर्चा युगसंधि की चल रही हो, वहाँ इस दृश्य को व्यापक स्तर पर देखने-समझने का प्रयास करें। हजारों वर्षों की गंदगी को बुहार कर एक क्षण में नहीं हटाया जा सकता। विगत दो सहस्राब्दियों में मानव बड़ी तेजी से बौद्धिक प्रगति के चरमतम आयामों पर पहुँचा है। पिछली सहस्राब्दी की अंतिम दो सदियों तो वैज्ञानिक-औद्योगिक आर्थिक क्राँति के चरमतम सोपानों तक पहुँचाने वाली मानी जाती है। अब इक्कीसवीं सदी, जिसे आरंभ हुए मात्र कुल जमा डेढ़ सौ दिन भी नहीं हुए हैं, अपने साथ साँस्कृतिक क्राँति का उद्घोष लेकर आई है। विज्ञान और अध्यात्म के समन्वयात्मक सोपानों पर चढ़कर इक्कीसवीं सदी की मानवजाति ऐसे उपाय खोज निकालेगी कि अब ध्वंस नहीं, मात्र सृजन-ही-सृजन हो। ख्क् से लेकर ख्क्भ् तक की सारी अवधि सृजन की प्रसूति वेदना भरी घड़ियों से भरा है। नवसृजन जहाँ कहीं भी होता है, अत्यधिक कष्टदायी स्थिति में से ही होता है। यह सृजन हो रहा है, नई जगती का, नए राष्ट्र का, जिसे महानायक बनना है, सारे विश्व का एवं साँस्कृतिक नवोन्मेष की धुरी पर विकसित होने वाली मानवता का। यदि वह सब हम युगऋषि के महर्षि अरविंद के शब्दों में समझे सके तो यह अवधि जिसे हम भोगकर कष्ट के रूप में बिता रहे हैं, तप बन जाएगी एवं हम सभी योगी उस महायोगी के संरक्षण में एक महत्वपूर्ण किरदार नवनिर्माण के साक्षी होने का, युगनिर्माण में भागीदार होने का निभा जाएँगे।’अखण्ड ज्योति’ इसीलिए सभी को सदैव आशावाद का संकेत देती है एवं अपने कर्त्तव्य की जानकारी कराती रहती है।

श्री अरंविद ने क्−ब्त्त् में अपने एक पत्र में लिखा है, "इस समय में बड़ी-से-बड़ी बुरी घटनाएँ घट रही हैं और मैं कहना चाह रहा हूँ कि अभी इससे भी कहीं अधिक बुरी परिस्थितियाँ आना निष्चित है, पर इसमें घबराने की कोई बात नहीं वरन् मनुष्यों को यह समझना चाहिए कि इस प्रकार की घटनाओं का होना अनिवार्य है। इसी से एक नवीन और श्रेष्ठ संसार की रचना हो सकनी संभव है।" परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं,"यह दो महायुगों की मिलन वेला है। ऐसे में मिलन मुहूर्त का गौरव असंख्य गुँना बढ़ जाना स्वभाविक है और सचमुच यह समय ‘परिवर्तन का महापर्व’ भी बन चुका है। दृष्य जगत् के स्पंदन किसी अदृष्य महाषक्ति के सकेंतों के अनुसार तीव्रतर और तीव्रतम होते चले आ रहे हैं। श्री अरविंद ने इसी समय को भागवत् मुहूर्त के आने पर सोया रहे और उसके उपयोग के लिए तैयार न हो, जो उसके स्वागत के लिए दिया सँजोकर न रखे और उसकी पुकार से कान बंद कर ले।" (मातृवाणी)

वस्तुतः महापुरश्चरण की साधना जो बारह वर्ष तक चली है एवं जिसके अनुयाज रूप में यह बारह वर्षीय वेला ख्क् से ख्क्ख् तक की हम सब के लिए आई हैं, अपने सभी परिणाम इसी अवधि में दिखाएगी। अदृश्य वातावरण में भरे भौतिक एवं चेतनात्मक प्रदूषणों से निपटने के बाद अब उसे नवसृजन का कार्य भी करना हैं। निमित्त हम सभी को बनना है। प्रतिभाओं का अभ्युदय होना है एवं देवसंस्कृति का विस्तार विश्वभर में इन्हीं दिनों होता हैं। अवतरण की वेला में भगवान् एक नहीं, अनेकों प्रबुद्ध आत्माओं के रूप में एक साथ अवतरित होता है। यही आत्माएँ के रूप में एक साथ अवतरित होता है। यही आत्माएँ के रूप में एक साथ अवतरित होता है। यही आत्माएँ मिल-जुलकर दैवी प्रयोजनों की पूर्ति संभव कर दिखाती हैं।

‘परिवर्तन की अदृश्य किंतु अद्भुत प्रक्रिया’ शीर्षक से फरवरी क्−त्त्स्त्र के इक्कीसवीं सदी विशेषांक (अखण्ड ज्योति) में छपे गुरुसत्ता के कुछ उद्गारों को पढ़ने से आज की असमंजस की स्थिति और स्पष्ट हो सकेगी, हम भलीभाँति युग बदलने की प्रक्रिया को समझ भी सकेंगे। वे पृष्ठ भ्क् पर लिखते हैं "बीसवीं सदी का अंत और इक्कीसवीं सदी का आगमन, जब अपना परिपूर्ण स्थिति में होंगे, तब उनके बदलने में काफी देर लगेगी। यह समय क्रमिक गति से बदलेगा। परिवर्तन की धीमी गति से चलती हुई प्रक्रिया दिखाई देगी। इन्हें देखकर यह तो अनुमान लगाया जा सकता है कि समय गति किस दिशा में चल रही हैं, पर जो होने जा रहा हैं, वह एक क्षण में उलट जाए ऐसा नहीं हो सकता। नाटकों में परदा उलटते ही दूसरी तरह के दृश्य सामने आ खड़े होते हैं, पर युगपरिवर्तन तो बहुत बड़ी बात है। उसकी प्रक्रिया द्रुतगति से चलती हुई भी मानवी बुद्धि को धीमी ही प्रतीत होगी।"

"युग परिवर्तन की प्रक्रिया को यथावत्, यथासमय समझ सकना हर किसी के लिए कठिन पड़ेगा" "फ्क् दिसंबर सन् ख् की रात्रि को सोते समय जो नजारे देखकर सोए थे, वे क् जनवरी सन् ख्क् में सर्वथा बदले हुए दीखें, यह नहीं हो सकता। गति की तीव्रता को पहचानना सरल नहीं होता। धीमापन तो और भी अधिक समझने में जटिल होता है। छोटी बालक तो निरंतर बढ़ता रहता है, पर वह दिखाई नहीं पड़ता कि हर रोज, हर घंटे किस क्रम से कितना बढ़ रहा है।"

उदाहरणों के माध्यम से कितने सुँदर ढंग से उस तथ्य को समझाने का प्रयत्न किया गया है, जिसे हम सामान्य बुद्धि से जोर लगाने पर भी समझ नहीं पाते। हमें तो उनका महामानवों का संदेश सुन "करिष्ये वचंन तव" की भाषा बोलनी चाहिए। इसी इक्कीसवीं सदी अंक में पृष्ठ म्ब् पर वे लिखते हैं,"जो घटित होने वाला है, उस सफलता के लिए श्रेयाधिकारी-भागीदार बनने से दूरदर्शी विज्ञजनों में से किसी को भी चूकना नहीं चाहिए। यह लोभ-मोह के लिए खपने और अहंकार प्रदर्शन के लिए ठाठ-बाट बनाने की बात सोचने और उसी स्तर की धारणा, रीति-नीति अपनाए रहने का समय नहीं है श्रेय संभावना की भागीदारी में सम्मिलित होने का सुयोग्य-सौभाग्य जिन्हें अर्जित करना हैं, उन्हें हमारी ही तरह भौतिक जगत् में संयमी-सेवाधर्मी बनना पड़ेगा।"

गायत्री जयंती की वेला में सब हम याद करते हैं तो पाते हैं कि परमपूज्य गुरुदेव हमारे लिए मार्गदर्शक संजीवनी, अपने विचार छोड़ गए हैं, जो हमारा समय-समय पर मार्गदर्शन करते रहते हैं, साथ ही शाँतिकुँज व देवसंस्कृति विश्वविद्यालय परिसर के रूप में एक विराट् छावनी भी। इक्कीसवीं सदी के आगमन की वेला में इस गायत्री जयंती पर हम सबका अतिरिक्त पुरुषार्थ होना चाहिए कि हम शांतिकुंज रूपी गुरुसत्ता के स्थूलशरीर-दृश्यमान-प्रतिमा-शांतिकुंज से जुड़े रहें, कम-से-कम इन संधिकाल के बारह वर्षों में प्रतिवर्ष एक सत्र अवध्य कर लें। वह सुखद-सौभाग्य भी इस वर्ष बड़े अनुपम रूप में विशिष्ट एकाँत में किए जा सकने वाले प्राण-प्रत्यावर्तन स्तर के पाँच दिवसीय साधना सत्र के रूप में आ रहा है। अभी त्त्ख् कमरों की ही व्यवस्था हो पाई है, जिनमें चौबीस घंटे एकाँत में गुरुचेतना के सान्निध्य में रहा जा सकेगा। त्रिपदा ख् नाम से बने इन कमरों में टेपरिकॉर्डर द्वारा ध्यान-साधना, त्रिकाल संध्या से लेकर अमृतवाणी-मातृवाणी का आनंद भी लिया जा सकेगा। परमवंदनीया माताजी के भोजनालय में बने सात्विक आहार से अपना परिशोधन-पुनर्निर्माण हो सकेगा। आश्विन नवरात्रि से यह शृंखला आरंभ होनी है, जो चैत्र नवरात्रि ख्ख् तक अनवरत चलती रहेगी। हमें परमपूज्य गुरुदेव की अप्रैल क्−− में लिखी महाप्रयाण से कुछ पूर्व की वेला की पंक्तियाँ याद आ जाती है "नवसृजन के आधार, उपकरण, औजार या साधन यहाँ वह समुदाय है, जिस शांतिकुंज के महागरुड़ ने अंडे बच्चों की तरह अपने डैनों के नीचे छिपा कर रखा हैं। उनको समर्थ एवं परिपुष्ट बनाने की प्रक्रिया इसी तंत्र के अंतर्गत चलती रहेगी।"

भारी उज्ज्वल है। हमारी जीवन-साधना प्रखर हो तो ही हम श्रेयाधिकारी बन सकेंगे, वह तथ्य निश्चित मानना चाहिए। हम श्रेष्ठ गायत्री साधक बनें, अपने इष्ट (जो भी हमारा हो) उससे यही प्रार्थना करें कि बुद्धि के अकाल का प्रकोप, दैवी प्रकोपों की इस वेला में कहीं हम पर न आ सवार हो, हम सद्बुद्धि को धारण किए उस महायात्रा पर अनवरत चलते रहें, जिस राह पर वह अनोखा बाजीगर हमें अनायास ही खड़ा कर गया है।

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