
मुख में ग्रास देने की विधि (kahani)
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
संत रामदास अपने शिष्यों के साथ धर्म प्रचार के लिए जा रहे थे। रास्ते में निर्जन प्रदेश पड़ा, दूर तक कोई गाँव दिखाई न देता था। भोजन की समस्या उत्पन्न हुई, तो उन्होंने कहा, जो कुछ तुम्हारे पास है, उसे इकट्ठा कर लो और मिल-बाँटकर खाओ।
शिष्यों के पास कुल मिलाकर पाँच रोटी और दो टुकड़े तरकारी निकली। शिष्यों ने उसे भरपेट खाया और जो भूखे भिखारी उधर से निकले, वे भी उसी से तृप्त हो गए।
भानुवा नामक शिष्य ने पूछा, गुरुवर! इतनी कम सामग्री में इतने लोगों की तृप्ति का रहस्य क्या है? संत ने कहा, हे शिष्यों! धर्मात्मा वह है जो खुद की नहीं, सबकी बात सोचता है। अपनी बचत सबके काम आए इस विचार से ही तुम्हारी पाँच रोटी अक्षय अन्नपूर्णा बन गई। जो जोड़ते हैं वे ही भूखे रहेंगे। जिनने देना सीख लिया है उनके लिए तृप्ति के साधन आप ही आ जुटते हैं।
एक बार देवता और असुरों में इस बात को लेकर झगड़ा हो गया कि दोनों में से कौन बड़ा है? निर्णय के लिए दोनों पक्ष ब्रह्माजी के पास पहुँचे। ब्रह्माजी ने इसके लिए एक परीक्षा की कसौटी सामने रख दी। उन्होंने दोनों को दो पंक्तियों में बिठाया और भोजन के लिए स्वादिष्ट पदार्थ परोसवा दिए। जब खाने का समय आया तो प्रजापति ने कुछ ऐसा किया कि उन सभी के हाथ कोहनियों पर से मुड़ने बंद हो गए। भोजन करने में दोनों के लिए ही कठिनाई थी। दैत्यों को अपना ही स्वार्थ सूझता था। इसलिए वे मुट्ठी भरकर ऊपर ले जाते और वहाँ से मुँह में छोड़ते। इस तरह बहुत कम ही मुँह में पहुँचा, शेष चेहरे पर गिरा और इधर-उधर फैला, अंत में उन्हें भूखा रहना पड़ा। पर देवताओं ने उदारता और परस्पर सहयोग की नीति अपनाकर एक-दूसरे के मुख में ग्रास देने की विधि अपनाई। एक ने अपने हाथ से दूसरे को भोजन कराया। फलस्वरूप सभी का पेट भर गया।