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Magazine - Year 2001 - Version 2

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संवेदना का धनी वनस्पति जगत्

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वृक्ष वनस्पतियाँ भी मनुष्य की ही तरह संवेदनशील होती हैं। वे परिवेश की सरदी-गरमी एवं ऋतु प्रभावों को ही ग्रहण नहीं करती, बल्कि वातावरण में विद्यमान ध्वनि, प्रकाश एवं विचार प्रवाह से भी प्रभावित होती है। संगीत की सुमधुर स्वरलहरियाँ जहाँ उन्हें आनंदित करती हैं व उनके विकास को गति देती हैं, वही कर्कश ध्वनियाँ उन्हें कष्ट पहुँचाती है व उसके विकास में अवरोध बनती हैं। वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षणों की कसौटी पर कसते हुए ये तथ्य प्रकाश में आ रहे हैं और कण-कण में व्याप्त चैतन्य सत्ता के अस्तित्व को प्रमाणित कर रहे हैं।

टेंपल बुअल कॉलेज, डेनवार की श्रीमती डोरोथी रिटलेक ने पौधों पर स्थानीय रेडियो स्टेशन से प्रसारित होने वाले रॉक संगीत को आजमाया और अन्य पौधों पर दूसरे स्टेशन से प्रसारित क्लासिकल संगीत को आजमाया। रॉक संगीत के प्रति पौधों की नकारात्मक प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक थी, जिसमें पौधों को 8 अंश के कोण पर विपरीत दिशा में झुकते देखा गया। उनकी जड़ संरचनाएँ उथली थीं और संगीत केंद्र से दूर फैली थीं। पौधों के तने और पत्ते छोटे व दुर्बल थे और कुछ तो प्रयोग के कुछ दिन बाद ही मुरझा गए। इनमें ‘पेंटुनियम’ पौधे ने तो फूलना ही बंद कर दिया।

दूसरी ओर ‘स्कवैशवाइन’ के पौधों ने रेडियो के चारों ओर लिपटकर ऊपर चढ़ना शुरू किया, जिससे मधुर क्लासिक एवं धार्मिक संगीत बज रहा था। पेंटुनियम का पौधा भी छह सुँदर फूलों से खिल उठा था। इन पौधों की जड़ें मजबूत हुई और पौधे भी बड़े एवं पुष्ट दिखाई दिए।

इन परिणामों से उत्साहित होकर श्रीमती रिटलेक ने दूसरे वर्ष इसी प्रयोग को पुनः दुहराया। इस बार शोध के आयामों को और विस्तार दिया गया और पौधों को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों पर कड़ी नजर रखी गई। परिणाम पुनः वही थे। रिटलेक का कहना है कि इन प्रयोग-परीक्षणों के आधार पर वनस्पति जगत् को पृथ्वी की जड़ इकाई मान बैठना, मनुष्य की बड़ी भूल होगी, क्योंकि इनमें मनुष्य की तरह अनुकूल व प्रतिकूल प्रवाह को अनुभव करने की पर्याप्त संवेदनशीलता विद्यमान है। हाँ, इनकी अभिव्यक्ति की क्षमता व तरीकों में अंतर अवश्य है।

इसी तरह ओहियो एग्रीकल्चर एक्सपेरिमेंट स्टेशन में बागीवानी के प्रो. डेल क्रेचमैन ने भी उक्त निष्कर्षों को पुष्ट किया। वनस्पतिशास्त्री डॉ. जॉन विलर्स्टन ने भी पौधों की इस संवेदनशीलता को प्रयोगशाला में जाँचा-परखा है, इसके अंतर्गत अनुकूल संगीत के प्रभाव में पौधों को तीव्र गति से बढ़ते हुए देखा गया। एक पौधा तो मात्र छह माह में ही फूलते देखा गया, जो सामान्यतः दो वर्षों में पुष्पित होता था।

वृक्ष-वनस्पति अपनी बीजावस्था में भी इस संवेदनशीलता से संपन्न पाए गए है। दक्षिण भारत के अन्नामलाई विश्वविद्यालय के डॉ. टी. सी. एन. सिंह ने इस संदर्भ में कई प्रयोग किए है। उनके अनुसार, संगीत द्वारा अभिमंत्रित बीज सामान्य बीजों की तुलना में एक तिहाई समय में ही अंकुरित हो जाते हैं। अंकुरित बीजों को अत्यधिक मात्रा में संगीत सुनाने से इसका विकास रुक जाता है। जबकि दिन के विशेष समय में विशेष धुन सुनाने से इनका विकास तीव्र हो जाता है और इनकी उत्पादक क्षमता भी बढ़ जाती है। जिसे 6 से 1 प्रतिशत तक बढ़ते देखा गया है। इस संदर्भ में भारतीय शास्त्रीय संगीत की बाँसुरी तथा वायलिन की धुनों के प्रति पौधों की प्रतिक्रिया सबसे सकारात्मक भी देखी गई है। यह भी देखा गया है कि धुनों की पसंद प्रत्येक पौधे की अपनी-अपनी होती है।

इंडियन स्टेट ऑफ पाँडिचेरी के कृषि विभाग ने डॉ. सिंह के निष्कर्षों के तहत कृषि सुधार के प्रयोग किए। चावल, गन्ना और टेरीआका पर हुए प्रयोगों ने इनकी विकास दर में 28 से 61 प्रतिशत तक की आश्चर्यजनक वृद्धि को दर्ज किया। सेंट लुइस की मेंगल डाँरक बीज कंपनी के शोध वैज्ञानिक जार्ज स्मिथ ने भी इसी तरह ग्रीन हाउस में कई प्रयोग किए। मक्का व सोयाबीन की फसलों को दो खंडों में विभाजित किया गया। एक को बिना संगीत वाले ग्रीन हाउस में तो दूसरे को संगीत युक्त ग्रीन हाउस में रखा गया, जिसमें दिन के चौबीसों घंटे लगातार बीस दिन तक संगीत चलता रहा। इन पौधों का अंकुरण शीघ्र हुआ व विकास गति भी तीव्र रही। दूसरा प्रयोग खेतों में किया गया। यहाँ लंबे खंभों पर लाउडस्पीकर द्वारा तरह-तरह के संगीत बजाए गए। पुनः विकास की गति तीव्र पाई गई और उत्पादन में 2 प्रतिशत वृद्धि रही।

इसी तरह एक प्रयोग के अंतर्गत, असम में गुवाहाटी के पास स्थित आई. सी. एल. फलोरा एक्सोटिका नामक फल उद्यान में फलदार वृक्ष, भक्ति संगीत व धार्मिक गीतों को सुनकर फल-फूल रहे हैं। पाँच एकड़ के क्षेत्र में फैले इस फल उद्यान में 2 से 3 फुट की दूरी साउंड बॉक्स लगाए गए है। जहाँ लगभग एक लाख फलदार पेड़ों को प्रतिदिन सुबह सात से ग्यारह बजे तक मधुर धार्मिक गीत सुनाए जाते हैं। उद्यान से जुड़े वनस्पति शास्त्री डॉ. के. रोकियो का दावा है कि जब से फल वाले पेड़-पौधों को गीत-संगीत की खुराक दी जा रही है, तब से इनमें आश्चर्यजनक परिवर्तन आए है और इनके फलों एवं फूलों की गुणवत्ता में सुधार हो रहा है।

पौधों में संगीत के प्रति संवेदनशीलता का यह गुण वनस्पति जगत् का एक आश्चर्यपूर्ण एवं रोमाँचकारी अध्याय है, जो ध्वनि संगीत के आगे मानवीय विचार एवं भावों से भी जुड़ा हुआ है। इंग्लैंड के वनस्पति विज्ञानी जेम्स विलियम ने भी पौधों पर इसी तरह के रोचक निष्कर्षों को प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार पेड़-पौधे भी मनुष्य के विचार-व्यवहार से प्रभावित होते हैं। अपमान, तिरस्कारपूर्ण व्यवहार उन्हें खिन्न करता है। इससे उनका विकास अवरुद्ध होता है, जबकि शाँति, मधुरता एवं सद्व्यवहार भरा वातावरण उनमें सुखद परिवर्तन लाता है। उनकी विकास दर से लेकर उत्पादक क्षमता तक सभी इससे प्रभावित होते हैं।

वनस्पति जगत् में भी संवेदनशीलता के ये आश्चर्यजनक प्रमाण मनुष्य को काफी कुछ सोचने के लिए मजबूर करते हैं। आधुनिक वनस्पति विज्ञान के जनक कार्लवान लिनिअस ने ठीक ही कहा था, “पौधे बोलने व कुछ सीमा तक गति करने के अलावा मानव से किसी अर्थ में कम नहीं है।” 19वीं सदी में चार्ल्स डार्विन ने पौधों में गति भी सिद्ध कर दी थी। 20वीं सदी की शुरुआत में जगदीश चंद्र वसु जैसे वैज्ञानिक ने वृक्ष-वनस्पति जगत् के संवेदनशील अस्तित्व पर समुचित प्रकाश डाला था, तब से विज्ञान जगत् क्रमशः इस तथ्य पर और अधिक अनुसंधान करता आ रहा है। अध्यात्मवेत्ताओं ने तो पहले से ही बता रखा है कि सृष्टि के कण-कण में उस परम चैतन्य सत्ता का अस्तित्व विद्यमान है। आज हम वैज्ञानिक दृष्टि से देखे या आध्यात्मिक दृष्टि से, निष्कर्ष यही निकलता है कि वनस्पति जगत् भी मनुष्य के संवेदनशील व्यवहार का हकदार है।

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