
समृद्धि और प्रसन्नता का मूल (kahani)
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किसी व्यक्ति ने सुना, बीस फुट मिट्टी खोद लेने से पानी निकल आता है, कुआँ बन जाता है। वह कुआँ खोदने में लग गया। बीस की अपेक्षा पच्चीस फुट खुद गया, फिर भी पानी नहीं निकला वह व्यक्ति उस आदमी के पास गया और पानी न निकलने की शिकायत की।
अगले दिन उस व्यक्ति ने जाकर देखा तो पाया, कुआँ खोदा तो गया, पर गहराई में नहीं लंबाई में। उसने कहा, भाई इतना परिश्रम करने की अपेक्षा पहले विधि पूछ लेते तो अच्छा था। ज्ञान की सार्थकता, उसे पूरी तरह समझ लेने में ही है, अधूरी वार्ता सुनकर कृत्य करने वाले धोखा ही खाते हैं।
संस्कृत का उद्भट विद्वान वरदराज कभी विद्यालय का सबसे बुद्धू लड़का था। बहुत पढ़ने पर भी उसे कुछ याद न होता। दुखी होकर वह घर से भाग गया। रात एक सराय में बिताई। वहाँ उसने देखा, एक टूटे पंखों वाला पतिंगा दीवार पर चढ़ता और गिर जाता है। बीस बार असफल रहने के बाद इक्कीसवीं बार वह दीवार पर चढ़ गया। इस दृश्य से वरदराज को एक नई हिम्मत मिलीं वह घर लौटा और फिर पढ़ने में जुट गया। इस बार उसकी असफलता सफलता में बदल गई।
एक किसान था। स्वभाव से था काहिल। दिनभर में चार बार घर लौटता, बार-बार खाना माँगता। पत्नी न तो कुछ उत्साह दिखाती और न ही हर बार खाना देती। उसकी इस टाल मटोल और उपेक्षा से किसान बड़ा दुखी रहता था। यह बात उसने अपने मित्र को बताई। मित्र ने उसके कानों में कुछ कहा। किसान खुशी होकर चल पड़ा। उस दिन वह घर नहीं गया सूर्यदेव सिर पर चढ़ आए, तो देखा पत्नी स्वयं ही भोजन लिए खेतों पर आ उपस्थित हुई। यही नहीं उसने सत्कार भी जताया, प्यार भी। उस दिन का भोजन उसे विशेष तृप्तिदायक लगा। उसने पत्नी से पूछा, प्रिये! पहले तुम उपेक्षा दिखाती थी और आज अपनत्व। श्रम तो मैं पहले भी करता था, अभी भी, फिर तुम्हारे व्यवहार में अंतर क्यों? पत्नी बोली, “स्वामी! आपने श्रम को मनोयोग पूर्वक करने की महत्ता समझ ली। हमारी समृद्धि और प्रसन्नता का मूल भी यह है। बस समझ लें, यह उसी की प्रतिक्रिया है।’