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Magazine - Year 2001 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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सृजन ने किया क्षेत्र का कायाकल्प

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First 14 16 Last
लगभग साठ-पैंसठ वर्ष पहले की बात है। फ्राँस के आल्पस पहाड़ों में वह पदयात्रा कर रहा था। इस क्षेत्र का उत्तरी हिस्सा बिलकुल ही वीरान था। वैसे तो यह पर्वतमाला तीन-चार हजार फीट से अधिक ऊँचाई की न थी, परंतु थी बिलकुल नग्न एवं वृक्षविहीन। बीच-बीच में कहीं-कहीं जंगली काँटों से भरे झुँड आ जाते थे। बहुत भटकने के बाद वह एक वीरान गाँव में पहुँचा। उसे बहुत प्यास लगी थी, पर वहाँ जो कुआँ मिला वह सूखा था।

जून का महीना था। सूर्य सिर पर था। बिना पानी की जगह पर ठहरने में कोई सार न देखकर उसने अपना सामान उठाया और आगे बढ़ गया। लगातार पाँच घंटे चलने पर भी कहीं पानी नहीं मिला। इतने लंबे सफर के बाद भी वही भूगोल था, छोटे-छोटे पहाड़ और कहीं-कही उन पर काँटों के झुँड।

थोड़ी देर बाद दूर एक लंबी काली चीज दिखाई दी। कोई सूखा पेड़ होगा, यह सोचकर वह वहाँ जा पहुंचा। देखकर उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, यह तो चरवाहा था। कितनी देर से यह बिलकुल सीधा खड़ा था। यह इर्द-गिर्द की झाड़ियों में चरने वाली तीस-चालीस भेड़ों की निगरानी कर रहा था।

अपने मोटे कपड़े के लोटे से उसने उसे चल पिलाया। उसकी प्यास की तीव्रता देखकर वह उसे घर ले गया। टीले के मैदान में उसका घर था और एक छोटा-सा टूटा-फूटा कुआँ भी था। उसे उसका पानी पीने अमृत-सा लगा।

इस बीच उन दोनों में कोई खास बातें नहीं हुई। शायद वह बहुत ही कम बोलता था। ऐसे ही निर्जन क्षेत्र में रहने वाले कम ही बोला करते हैं, परंतु उसके चेहरे पर उसने गजब का आत्मविश्वास देखा। ऐसे निर्जन क्षेत्र में वह रहता था, यही आश्चर्य था उसने एक गुफा की कुछ मरम्मत कर उसको रहने लायक घर बना लिया था। अंदर सामान कम था, लेकिन सब साफ-सुथरा था। उसके कपड़े थिगडी वाले थे, परंतु साफ थे।

रात का भोजन दोनों ने साथ किया। खाने के बाद उसने अपने झोले में से चिरुट निकालकर उसको दी। मुस्कराते हुए वह बोला, मैं तंबाकू नहीं पीता। घर की देहरी पर बैठा उसका कुत्ता भी वैसा ही शाँत प्रकृति का था।

उस वृद्ध चरवाहे ने झोले में से ओक की सूखी गाँठें निकालकर सामने रखी और उनमें से बहुत ध्यानपूर्वक एक-एक गाँठ अलग करता रहा। जबकि वह दरी पर बैठा चिरुट पी रहा था। बीच में उसने पूछा कि मैं कुछ मदद कर सकता हूँ? तो उसने कहा, नहीं, यह तो मेरा ही काम है। काफी देर तर वह अपना काम करता रहा और आखिर में अच्छी-से-अच्छी गांठें चुनकर उसने दस-दस गांठों के दस ढेर लगा दिए। फिर उसने चुनी हुई सौ गाँठें एक झोले में भरकर रख दी और सो गया।

इस आदमी के साथ रहने में आनंद आ रहा था, इसलिए दूसरे दिन उसने और एक दिन रहने की अनुमति माँगी। उस व्यक्ति ने भी सिर हिलाकर हाँ कह दी और बोला, आपके रहने से मुझे कोई तकलीफ नहीं होगी। उसे आराम की कोई जरूरत नहीं थी, वह तो बस इस रहस्यमय मनुष्य को जानना चाहता था।

सुबह सीटी बजाकर उसने अपनी भेड़ों को बाहर निकाला और जाने से रात को चुनकर रखी हुई आठ सौ ओक की गाँठों के झोले को पानी में भिगो दिया। फिर कोने से लोहे की पतली कुदाली उठा ली और भेड़ों को लेकर टीले के उस पार चला गया।

थोड़ी देर बाद वह भी उस दिशा में गया। उसने वहाँ जाकर देखा कि वह पेड़ लगा रहा है। वह जगह चुन लेता वहाँ छोटा-सा गड्ढा करता और अपने झोले में से एक गाँठ निकालकर वहाँ गाड़ देता और ऊपर से मिट्टी ढाँप देता। ओ हो! तो यह ओक के पेड़ लगा रहा है। उसने पूछा, यह तुम्हारी जमीन है? उसने कहा, नहीं। इस जमीन के मालिक को तुम पहचानते हो? सिर हिलाकर बोला, नहीं। यह जमीन किसकी है, इसकी उसको कोई चिंता नहीं थी। वह तो सिर्फ पेड़ बो रहा था। अत्यंत ध्यानपूर्वक उसने सौ गांठें बो दी।

दोपहर के भोजन के बाद फिर वही काम चला। वह उससे सवाल पूछता गया और वह चरवाहा जवाब देता गया। पिछले तीन सालों से वह उसी वीरान प्रदेश में वे लगा रहा था। अभी तक उसने एक लाख ओक की गाँठ बोई थी। उनमें से बीस हजार बीजों के अंकुर निकल आए थे। इस क्षेत्र की भीषण गरमी में दस एक हजार में तो वैसे ही सूख जाएँगे या चूहे उन्हें नष्ट कर देंगे। इसकी आशंका तो उसको भी थी, फिर भी उसका अनुमान था कि दस हजार पेड़ तो उगने ही चाहिए। जहाँ एक भी पेड़ नहीं, वहाँ दस हजार पेड़ लहराएँगे।

कितनी उम्र होगी? मैंने पूछा। पचपन साल। धीरे से उसने कहा। और नाम? मुझे एलफर्ड बाफियर कहते हैं।

दूर मैदान के क्षेत्र में उसकी खेती थी। पहले इकलौता बेटा भगवान् के पास चला गया, फिर पत्नी गई और घर-खेती छोड़कर अपनी भेड़ों को लेकर वह इस निर्जन वीरान प्रदेश में चला आया। उसने देखा, इतना अच्छा क्षेत्र है, परंतु वीरान है, उसके पास कोई जरूरी काम भी नहीं है, तो क्यों न यहाँ पेड़ लगाए जाएँ! इस तरह इस वीरान प्रदेश में ओक के पेड़ लगाने का काम उसने प्रारंभ कर दिया।

उसने कहा, अगले तीस सालों में यहाँ ओक के दस हजार पेड़ खड़े होंगे, तब यह दृश्य कितना भव्य होगा?

अत्यंत सरलतापूर्वक उसने जवाब दिया, भगवान् की कृपा होगी और तीस साल जीने की मुझे इजाजत मिलेगी, तो भविष्य में मैं ही यहाँ इतने पेड़ लगाऊँगा कि दस हजार पेड़ की कोई गिनती ही नहीं होगी।

दूसरे दिन वह वहाँ से लौटा, अपने घर वापस आया। 1114 से 1118 तक उसे युद्ध के मोरचे पर रहना पड़ा। वहाँ पेड़-पौधों के बारे में सोचने का समय ही कहाँ था? सत्य बात तो यह थी कि उस घटना ने उसे इतना प्रभावित भी नहीं किया था। उसे तो केवल निरुद्देश्य घूमने का शौक था।

युद्ध खत्म हुआ। पाँच साल लगातार बारूद का धुआँ अंदर खींच-खींचकर उसकी नाक फट रही थी। शुद्ध हवा के लिए वह तड़प रहा था और एक दिन फिर से उस वीरान प्रदेश की ओर निकल पड़ा। अपने आप उसके पैर उस गाँव की ओर चल दिए। इतने साल के बाद वहाँ कुछ नहीं बदला था। एकाएक उसे वह चरवाहा याद आया और दस हजार ओक में पेड़।

पाँच साल के युद्ध में उसने अगणित लोगों को मरते देखा था। मौत के इस अनुभव के बाद एलफर्ड को भी मरा हुआ मानने में उसे कोई शंका नहीं थी। परंतु उस गुफा तक उसे पहुँचने पर मालूम हुआ कि वह मरा नहीं था। वह अच्छी तरह से स्वस्थ और प्रसन्न दिखाई देता था। लेकिन उसका धंधा जरूर बदल गया था। भेड़ों के बदले उसने मधुमक्खियों को पालने का काम शुरू कर दिया था। ओक के पेड़ों के लिए भेड़े दुश्मन सिद्ध हो रही थी। इस बीच में महायुद्ध हुआ, उसके बारे में उसको कुछ भी मालूम नहीं था। दुनिया लड़ती रही और यह बोफियर चुपचाप पेड़ लगाता रहा। इतने बड़े युद्ध ने उसके काम में थोड़ा सा भी अदल-बदल नहीं किया।

वर्षों पहले लगाए हुए पेड़ों की ऊँचाई अब उसके कंधों तक पहुँच चुकी थी। सामने का दृश्य कितना अद्भुत था। देखकर वह गदगद हो गया, कुछ भी बोल नहीं सका और वह चरवाहा भी चुप ही था। दिनभर वे दोनों चुपचाप जंगल में घूमते रहे। लगभग 11 किलोमीटर लंबा जंगल उसी चरवाहे की करामात थी। यह बात से बार झकझोरती रही। आधुनिक यंत्रों की कुछ भी मदद लिए बगैर बस लोटे और कुदाल के सहारे इस बोफियर ने कितना काम कर दिखाया। उसे लगा कि सृजन के बाद मनुष्य भगवान् से भी टक्कर ले सकता है।

जहाँ तक दृष्टि पहुँचती थी वहाँ तक कंधे बराबर ऊँचे पेड़ ही पेड़ लहराते नजर आ रहे थे। अब मजबूत हो गए थे और अब उन पर गरम हवा या चूहों का कोई असर नजर नहीं आता था। प्रलय के समय इन पौधों को कोई डर नहीं था।

उसके इस कार्य का असर चारों ओर फैल रहा परंतु वह उससे अनजान था। खंडहर में परिवर्तित उस कुएँ में फिर से पानी भर आया था। वर्षों से सूखी धरती पर अब अरण्य उग आने के कारण जगह जगह छोटे-छोटे झरने बहने लगे थे। छोटे-छोटे नदियों के आविर्भाव के कारण इस प्रदेश में हरियाली के मैदानों और जंगली फूल पौधों की बहार थी।

1902 के बाद हर साल वह बोफियर से मिलने जाने लगा। हर समय उसमें वही उत्साह और कार्य में निमग्नता थी। यह काम उसके लिए अत्यधिक कठिन था। एक साल उसने दस हजार बीज लगाए थे, परंतु उनमें से एक भी अंकुर नहीं फूटा था। पर उसने हिम्मत नहीं हारी।

एक सुनसान क्षेत्र में जंगल इतना बढ़कर खड़ा हो गया था और यह पराक्रम वर्षों से एकाकी जीवन बिताने वाले, वृक्ष लगाने वाले उसी चरवाहे का था, ऐसी कल्पना भी किस को नहीं हो सकती थी। उस क्षेत्र के सरकारी अधिकारियों ने तो मान ही लिया था कि वह प्रकृति की देन है और उस प्राकृतिक जंगल को संभालने के लिए कुछ वन विभाग भी शुरू हो गया था। 1933 में पहली बार वन अधिकारियों ने इस क्षेत्र का दौरा किया। जंगल की सरहद पर इस बूढ़े गड़रियों की झोंपड़ी देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। वह वहाँ पहुँचा तब बोफियर रसोई पका रहा था। उस अधिकारी ने उसको धमकाया। आग की चिंगारी कही जंगल में आग न फैला दें, इसके लिए उसको सावधान किया। वृद्ध बोफियर ने अधिकारी की सूचना का कोई जवाब नहीं दिया। जीवन के अंतिम दिनों में वह और भी कम बोलने लगा था। बोलने की अब शायद उसको जरूरत भी नहीं थी। वह 75 साल का हुआ था। अब वह अपनी झोंपड़ी से बाहर एक डेढ़ किलोमीटर दूर एक नया जंगल उगाने में मग्न था। रोज इतनी ज्यादा दूर आना-जाना अब उसकी शक्ति के बाहर लग रहा था। इसलिए उस नए जंगल के पास अपनी झोंपड़ी ले जाने की तैयारी में वह था ही। उसने अधिकारी को कोई जवाब देने की आवश्यकता महसूस नहीं की और वह वहाँ से चला गया।

1945 के जून महीने में जब वह उससे आखिरी बार मिला तब वह 87 साल का था। इस बार वह बस से गया था। “किसी दूसरे रास्ते से मैं उस गाँव में पहुँचा, ऐसा मुझे भ्रम हुआ, परंतु रास्ता वही था। वहाँ का सारा संदर्भ ही बदल गया। 1913 में इस गाँव में केवल तीन परिवार थे, परंतु आज वह गाँव आबाद और खुशहाल था। सभी घर साफ सुथरे थे। खेत हरियाली से लहलहा रहे थे और सब तो ठीक, स्वयं मौसम ही बदल गया था। पहले की सूखी गर्त हवा की जगह सुगंधित हवा चल रही थी। वह आवाज वृक्षों के साथ खेलने वाली हवा की आवाज थी। नजदीक से सुनाई देते झरने के निनाद ने तो मुझे चौंका ही दिया। उसी झरने के किनारे गाँव वालों ने एक नया जंगल खड़ा कर दिया। नई आशा और नई संभावना का मानो वह यहाँ पुनर्जन्म ही हुआ था।”

“पहले जहाँ खंडहर थे वहाँ अब मकान और लहलहाते खेत दिखे। दूर दूर तक अनेक नए गाँव बसे हुए थे। प्रदेश से आए हुए लोग प्रसन्नचित्त और हृष्ट-पुष्ट दिखाई दिए यौवन से प्रदीप्त चेहरों पर मुक्त हास्य देखने को मिला। अब इस क्षेत्र में हजार की नई आबादी संतोषपूर्वक अपना जीवन बिता रही है।”

वह सोच रहा था कि वह स्वयं फौज का उच्च अधिकारी है। बहादुरी के लिए उसे अनेक पुरस्कार मिले है। पर वास्तविक बहादुर कौन है, वह स्वयं अथवा बार वृद्ध चरवाहा? जिसने अकेले इतना विशाल सृजन कर दिया। आत्मचिंतन में मग्न उसकी आत्मा के स्वर फूटे “वास्तविक बहादुरी तो सृजन में हैं, ध्वंस में नहीं, क्योंकि सृजन में ईश्वर स्वयं अभिव्यक्त होता है।”

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