
महाशक्ति गायत्री का धरा-धाम पर अवतरण
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ज्येष्ठ शुक्ल दशमी (10 जून, 2003) आदिशक्ति माता गायत्री के अवतरण की पावन तिथि है। युगों पहले ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के महातप से माँ गायत्री इसी शुभ तिथि को धरतीवासियों के लिए वरदायिनी हुई थीं। काल प्रवाह में गायत्री की शक्तिधाराएँ विलोप होने लगीं। जनसामान्य महाशक्ति के दिव्य प्रभावों से अनजान होने लगा। ऐसे में युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव ने युग विश्वामित्र के रूप में कठोर तप साधना की। और भगवती गायत्री की सभी दिव्य शक्तियों को पुनः प्रकट किया। जन सामान्य को जगन्माता की कृपा, करुणा का ज्ञान कराया। माता के अमित प्रभावों से अपरिचित जन-मन में यह सवाल उठ सकता है कि अगणित मंत्रों, अनेकानेक साधना विधियों के होते हुए गायत्री साधना ही क्यों?
शास्त्र रचना करने वाले अनुभवी महर्षियों ने इस प्रश्न के विस्तृत उत्तर प्रस्तुत किए हैं। जिन्होंने भी गायत्री महाशक्ति का आँचल थामा, उन सभी का यही कहना है कि गायत्री महामंत्र मात्र एक मंत्र भर नहीं है। बल्कि इसमें सभी मंत्रों का समावेश है। इसके चौबीस अक्षरों में शक्ति समुद्र समाए हैं। तभी तो ऋषि वाणी कहती है-
गायत्री चैव संसेव्या धर्मकामार्थ मोक्षदा।
गायत्र्यास्तु परं नास्ति इह लोके परम च॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करने वाली गायत्री का जप करना चाहिए। गायत्री मंत्र से बढ़कर कोई मंत्र इस लोक और परलोक में नहीं है।
इस महामंत्र के चौबीस अक्षरों में चौबीस महान् महर्षियों की तपशक्ति समायी है। जिन महर्षियों की तप-चेतना से गायत्री महामंत्र के चौबीस अक्षर ओत-प्रोत हैं, वे महर्षि हैं-
वामदेवोऽत्रिर्वसिष्ठः शुक्रः कण्वः पराशरः।
विश्वामित्रो महातेजाः कपिलः शौनको महान्॥
याज्ञवल्क्यो भरद्वाजो जमदग्निस्तपोनिधिः।
गौतमो मुद्ग्लश्चैव वेदव्यासश्च लोमशः॥
अगस्त्यः कौशिको वत्सः पुलस्त्यो माण्डुकस्तथा।
दुर्वासास्तपसाँ श्रेष्ठो नारदः कश्यपस्तथा॥
इत्येते ऋषयः प्रोक्ता वर्णानाँ क्रमशो मुने।
वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ, शुक्र, कण्व, पराशर, महातेजस्वी विश्वामित्र, कपिल, महान् शौनक, याज्ञवल्क्य, भारद्वाज, तपोनिधि जमदग्नि, गौतम, मुदग्ल, वेदव्यास, लोमश, अगस्त्य, कौशिक, वत्स, पुलस्त्य, मण्डूक, दुर्वासा, नारद और कश्यप। क्रम से इन ऋषियों की तप शक्ति गायत्री महामंत्र के प्रत्येक वर्ण में समायी है। गायत्री महामंत्र की साधना करने वाला साधक इन चौबीस ऋषियों के महातप का भागीदार बनता है।
चौबीस ऋषियों की ही भाँति गायत्री महामंत्र में चौबीस छन्दों की भी ऊर्जा है। सामान्य क्रम में यही समझा जाता है- गायत्री महामंत्र का छन्द केवल गायत्री है। पर यथार्थता इससे अलग भी है। ऋषि वचन है-
गायत्र्युष्णिगनुष्टप् च बृहती पंक्तिरेव च॥
त्रिष्टभं जगती चैव तथाऽतिजगती मता।
शर्क्वयतिशक्वरी च धृतिश्चातिधृतिस्तथा॥
विराट्प्रस्तार पंक्तिश्च कृतिः प्रकृतिराकृतिः।
विकृतिः संस्कृतिश्चैवाक्षर पंक्तिस्तथैव च॥
भूर्भुवः स्वरितिच्छन्दस्तथा ज्योतिष्मती स्मृतम्।
इत्येतानि च छन्दाँसि कीर्तितानि महामुने॥
गायत्री, उष्णिक, अनुष्टप, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टप, जगती, अतिजगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, धृति, अतिधृति, विराट, प्रस्तार, पंक्ति, कृति, प्रकृति, आकृति, संस्कृति, अक्षरपंक्ति, भूः, भुवः, स्वः और ज्योतिष्मती; इन चौबीस छन्दों की ऊर्जा गायत्री के चौबीस अक्षरों में समायी है। गायत्री जप करने वाला इन सभी की ऊर्जा के अनुदान का लाभ उठाता है।
गायत्री महामंत्र के चौबीस अक्षरों में चौबीस देवताओं के वरदान भी संजोये है। महर्षियों की अनुभूत वाणी है-
आग्नेयः प्रथमं प्रोक्तं प्राजापत्यं द्वितीयकम्।
तृतीयं च तथा सोम्यमीशानं च चतुर्थकम्॥
सवित्रं पञ्चमं प्रोक्तं षष्ठमादित्य दैवतम्।
बार्हस्पत्यं सप्तमं तु मैत्रावरुणमष्टमम्॥
नवमं भगदैवत्यं दशमं चार्यमेश्वरम्।
गणेशमेकादशकं त्वाष्ट्रं द्वादशकंस्मृतम्॥
पौष्णं त्रयोदशं प्रोक्तमैद्राग्नं च चतुर्दशम्॥
वायव्यं पञ्चदशकम् वामदेव्यं च षोडशम्।
मैत्रावरुणदैवत्यं प्रोक्तं सप्तदशाक्षरम्॥
अष्टदशं वैश्वदेवमनविंशं तु मातृकम्।
वैष्णवं विंशतितमं वसुदैवतमीरितम्॥
एकविंशतिसंख्याकं द्वाविंशं रुद्रदैवतम्।
त्रयोविंशं च कौबेरमाश्विने तत्त्वसंख्यकम्॥
चतुर्विंशतिवर्णानाँ देवतानाँ च संग्रहः।
कथितः परमश्रेष्ठो महापापैकशोधनः॥
प्रथम के अग्नि, दूसरे के प्रजापति, तीसरे के चन्द्रमा, चौथे के ईशान, पाँचवे के सविता, छठे के आदित्य, सातवें के बृहस्पति, आठवें के मित्रावरुण, नवें के भग, दसवें के अर्यमा, ग्यारहवें के गणेश, बारहवें के त्वष्ट्रा, तेरहवें के पूषा, चौदहवें के इन्द्र और अग्नि, पन्द्रहवें के वायु, सोलहवें के वामदेव, सत्रहवें के मैत्रावरुण, अठारहवें के विश्वेदेवा, उन्नीसवें की मातृकाएँ, बीसवें के विष्णु, इक्कीसवें के वसु, बाइसवें के रुद्र, तेइसवें के कुबेर, चौबीस के अश्वनीकुमार- ये चौबीस अक्षरों के देवता हैं। ये सभी परमश्रेष्ठ एवं महापाप के शोधक हैं। गायत्री महामंत्र की साधना करने वाले को इन सभी की साधना का फल एक साथ मिलता है।
गायत्री महामंत्र के चौबीस अक्षरों में देवियों की चौबीस शक्तियाँ भी समाहित हैं। ऋषि कहते हैं-
वामदेवी प्रिया सत्या विश्वा भद्रा विलासिनी॥
प्रभावती जया शान्ता कान्ता दुर्गा सरस्वती।
विद्रुमा च विशालेशा व्यापिनी विमला तथा॥
तमोऽपहारिणी सूक्ष्मा विश्वयोनिर्जयावशा।
पद्मालया पराशोभा भद्रा च त्रिपदा स्मृता॥
चतुर्विंशति वर्णानाँ शक्तयः समुद्राहृताः।
वामदेवी, प्रिया, सत्या, विश्वा, भद्रा, विलासिनी, प्रभावती, जया, शान्ता, कान्ता, दुर्गा, सरस्वती, विद्रुमा, विशालेशा, व्यापिनी, विमला, तमोपहारिणी, सूक्ष्मा, विश्वयोनि, जयावशा, पद्मालया, पराशोभा, भद्रा और त्रिपदा ये क्रम से चौबीस अक्षरों की शक्तियाँ हैं। गायत्री साधक इन सभी शक्तियों के वरदानों से स्वयमेव ही लाभान्वित हो जाता है।
गायत्री के चौबीस अक्षरों में सृष्टि के चौबीस रंग भी समावेशित हैं। ऋषि कथन है-
चम्पकातसी पुष्पसन्निभं विद्रुमं तथा।
स्फटिकाकारकं चैव पद्मपुष्प समप्रभम्॥
तरुणादित्यसंकाशं शंखकुन्देन्दुसन्निभं।
प्रवाल पद्म पत्राभं पद्म राग समप्रभं॥
इन्द्रनीलमणि प्रख्यं मौक्तिकं कुँकमप्रभम्।
अञ्जनाभं च रक्तं च वैदूर्यं क्षौद्रसन्निभं॥
हारिद्रकुन्ददुग्धामं रविकान्ति समप्रभम्।
शुकपुच्छनिभं तद्वच्छतपत्रनिभं तथा॥
केतकीपुष्प संकाशं मल्लिकाकुसुमप्रभम्।
करवीरश्च इत्येते क्रमेणे परिकीर्तिताः॥
वर्णाः प्रोक्ताश्च वर्णानाँ महापापविशोधनाः।
चम्पक तथा अलसी के पुष्प के समान, मूँगे के रंग के समान, स्फटिक के समान, पद्मरागमणि के समान, तरुण सूर्य के समान, शंख, कुन्द, इन्द्र, प्रवाक, पद्म पत्र के समान, पद्मराग के समान, इन्द्र नीलमणि के समान, मोती कुँकुम, अञ्जन के समान, लाल वैडूर्य के समान, शहद के समान, हल्दी, कुन्द, दुग्ध, सूर्यकान्ति, शुकपुच्छ, शतपत्र के समान, केतकी पुष्प के समान, मल्लिका (चमेली) और कनेर के समान- क्रम से ये चौबीस अक्षरों के रंग हैं। ये सभी रंग महापाप को शुद्ध करने वाले हैं। गायत्री साधक अपने अस्तित्त्व में इनका अनुभव कर परमपवित्र हो जात है।
चौबीस रंगों की ही तरह सृष्टि के चौबीस तत्त्व भी गायत्री महामंत्र के अक्षरों में समावेशित हैं। ऋषि बताते हैं-
पृथिव्यापरस्तथा तेजो वायुराकाश एव च॥
गन्धोरसश्च रुपं च शब्दः स्पर्शस्तथैव च।
उपस्थं पायुपादं च पाणिवागपि च क्रमात्॥
प्राणं जिह्व च चक्षुश्च त्वक् श्रोतं च ततः परम्।
प्राणोऽपानस्तथा व्यानः समानश्च ततः परम्॥
तत्त्वान्येतानि वर्णानाँ क्रमशः कीर्तितानि तु।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, गन्ध, रस, रूप, शब्द, स्पर्श, उपस्थ, गुदा, चरण, हाथ, वाणी, प्राण (नासिका), जिह्वा, चक्षु, त्वचा, श्रोत्र, प्राण, अपान, व्यान, समान, क्रम से ये सभी वर्णों के तत्त्व हैं।
सृष्टि के चौबीस तत्त्वों की ही तरह परम श्रेष्ठ चौबीस मुद्राओं का सुफल भी गायत्री महामंत्र के चौबीस अक्षरों में समाया हुआ है। ऋषियों के अनुभूत वचन है-
सुमुखं सम्पुटं चैव विततं विस्तृतं तथा।
द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुः पञ्चमुखं तथा॥
षण्मुखाधोमुख चैव व्यापकाञ्जालकं तथा।
शकटं यमपाशं च ग्रन्थितं सन्मुखोन्मुखं॥
विलम्बम्मुष्टिकं चैव मत्स्यं कूर्मं वाराहकम्।
सिंहाक्रान्तं महाक्रान्तं मुद्गरं पल्लवं तथा॥
त्रिशूलयोनी सुरभिश्चाक्षमालाँ च लिंगकम्।
अम्बुजं च महामुद्रास्तूर्यरुपा प्रकीर्तिताः॥
इत्येताः कीर्तिता मुद्रा वर्णानाँ ते महामुने।
महापापक्षयकराः कीर्तिदाः कान्तिदाः मुनेः॥
सन्मुख, सम्पुट, वितत, विस्तृत, एकमुख, द्विमुख, त्रिमुख,चतुर्मुख, पञ्चमुख, अधोमुखा, व्यापक, अञ्जली, शकट, यमपाशक, ग्रंथित, सन्मुख, उन्मुख, विलम्ब, मुष्टिक, मत्स्य, कूर्म, वाराह, सिंहाक्रान्त, महाक्रान्त, मुदगर, पल्लव, त्रिशूल, योनि, सुरभि, अक्षमाला, लिंग, अम्बुज, ये चौबीस महामुद्राएँ गायत्री के अक्षरों में समायी हैं। ये सभी महापापनाशिनी, कीर्ति और कान्ति देने वाली हैं।
संक्षेप गायत्री महामंत्र के चौबीस अक्षरों में सृष्टि की सभी श्रेष्ठ शक्तियाँ समायी हैं। गायत्री की साधना करने वाले को अन्य किसी भी साधना की कोई आवश्यकता नहीं है। हाँ अन्य साधनाएँ जरूर गायत्री साधना के बिना अपूर्ण रहती हैं। इसलिए गायत्री साधना में हम सभी को अपने मन-प्राण-भावनाएँ परिपूर्ण रूप से अर्पित करना चाहिए। गायत्री अवतरण दिवस के पावन क्षण गायत्री साधना के संकल्प दिवस के रूप में मूर्त हो, तभी इस पुण्य तिथि की सार्थकता है। इसी में हमारी सही पहचान है।