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Magazine - Year 2003 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात-1 - समाज का नवनिर्माण शिक्षा एवं कला में सुधार से होगा

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संस्कृति ज्ञान विस्तार हेतु शाँतिकुँज द्वारा किया जा रहा पुरुषार्थ

व्यक्ति और समाज का भावनात्मक कायाकल्प दो ही माध्यमों से संभव है, शिक्षा और कला। विडंबना यह है कि आज स्वतंत्रता के बाद के भारत में दोनों ही माध्यम उपेक्षा के गर्त में चले गए हैं। न शिक्षा के क्षेत्र में कोई बदलाव आया, न ही कला क्षेत्र ने समाज का कोई रचनात्मक शिक्षण किया। शिक्षा, जो हमें मैकाले के षडयंत्र के तहत उत्तराधिकार में मिली थी, काले अंगरेज तैयार करती रही एवं ‘बाबू संस्कृति’ का पोषण होता रहा। चूँकि यह मूल्यविहीन मात्र जानकारी पर आधारित शिक्षा थी, पढ़े-लिखे लोग तो तैयार होते चले गए, परन्तु राष्ट्र निर्माण में सहयोगी सृजनशिल्पी नहीं विनिर्मित हो सके। शिक्षा के मन्दिर विश्वविद्यालय, महाविद्यालय राजनीति के अखाड़े बन गए। छात्रों को माध्यम बनाकर भ्रष्ट नेताओं ने अपने-अपने मंच खड़े कर लिए। बेरोजगारों की एक फौज खड़ी होती चली गई एवं जो विशिष्ट प्रतिभावान थे, वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के षडयंत्र का शिकार होकर अथवा अपनी महत्त्वाकाँक्षा व राष्ट्र की अराजकतापूर्ण स्थिति के दृष्टिगत प्रतिभा-पलायन कर दूसरे देशों को लाभ देने लगे। उच्च शिक्षा पूरी तरह से अभिजात्य वर्ग तक सीमित होकर रह गई एवं सत्ता का मद हमारी युवा पीढ़ी को भी अपनी चपेट में लेता चला गया।

दूषित कला-जगत

कला जो किसी भी राष्ट्र की संस्कृति का मेरुदंड होती है, विगत तीस वर्षों में तेजी से प्रदूषित हुई है। जब से रंगीन परदे वाला टेलीविजन व फिल्मों का जमाना आया, लोककलाएं लुप्त होती चली गई। इनका स्थान फिल्मी गीतों, फूहड़, नृत्यों, अश्लील प्रदर्शनों ने ले लिया। हमारे घर के अन्दर तक केबल नेटवर्क के माध्यम से पहुँचने वाला नग्नता का यह जहर इतनी बेशर्मी से प्रवेश कर गया कि कोई विरोध तक न कर पाया। हिंसा व अश्लीलता परोसी जाने लगी। जीवन मूल्य गौण हो गए तथा पारिवारिक मूल्यों में दरकन आने लगी। परिवार संस्था टूटने लगी। घर-घर में कलह-अपसंस्कृति का प्रदूषण, परिग्रह, तृष्णा से उपजा संक्षोभ व मानसिक तनाव फैल गया। उपभोक्तावादी संस्कृति ने कला को बाजारवाद फैलाने वाला माध्यम बना दिया। मातृ उपासक, शक्ति उपासक यह देश भोग्या कामिनी नारी को चाहने लगा एवं फैशन अपने पूरे कुरुपतम स्वरूप में जन-जन में प्रवेश कर गया।

समझा जाना चाहिए कि जिस राष्ट्र की शिक्षा व कला परावलंबी-दूषित होंगी, वहाँ साँस्कृतिक उत्थान लगभग रुक सा जाएगा। नैतिक मूल्यों का पतन तेजी से होगा। दुहाई सब देंगे, पर कुछ कर नहीं पाएंगे, क्योंकि ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाले तथाकथित समाज के मार्गदर्शकों में इनसे जूझने का साहस नहीं है। पुरातन काल में असुर-राक्षस चित्र विचित्र आकृति के होते थे। आज वे असंस्कृति के रूप में भिन्न-भिन्न वेशों में हमारे बीच में है। हम उनसे नित्य हो रहे नुकसान को पहचान भी नहीं पा रहे हैं।

दो अभिनव प्रयास

अखिल विश्व गायत्री परिवार ने एक मोर्चा हाथ में लिया है, राष्ट्र की मूलाधार, ज्ञान गंगोत्री भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित किया जाए एवं शिक्षा तथा कला को प्रदूषण मुक्त कर इन्हीं माध्यमों से जनमानस को प्रशिक्षित किया जाए। एक-एक दिन की देर राष्ट्र के भावी नागरिकों को हमसे छीन रही है। हमें अब शीघ्रातिशीघ्र इस प्रक्रिया को जन-जन में गतिशील करना होगा, ताकि मीठे विष से वे परिचित हों, उस हानि से बच सकें जो सार भारतीय समुदाय को भुगतनी पड़ सकती है। इस कार्य हेतु भारतीय संस्कृति की जानकारी कराने वाले एक राष्ट्र एवं अब विश्वव्यापी भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा का 1994 में शुभारंभ किया गया तथा 2002 में एक विराट तंत्र शाँतिकुँज परिसर में देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के नाम से स्थापित किया गया। शिक्षा के क्षेत्र में इन दोनों ही स्थापनाओं की अल्पावधि में जो उपलब्धियाँ हैं, उन्हें देखकर भविष्य आशावादी लगता है। कला के क्षेत्र में एक ‘युगप्रवाह’ नामक पाक्षिक वीडियो पत्रिका आरंभ की गई, जो अब उस नेटवर्क को विश्वव्यापी बनाकर विभिन्न चैनेल्स को माध्यम बनाकर साँस्कृतिक प्रदूषण से लड़ने का मन बना लिया गया है। लोकरंजन से लोकमंगल हो, यह गुरुसत्ता का निर्देश मानकर नुक्कड़ नाटकों, एक्शन साँग्स, ढपली गीतों, सफलता की कहानियों से जुड़े जीवंत समाचारों, प्रेरणा प्रधान गीत एवं कथाओं को माध्यम बनाकर धर्मतंत्र से लोक-शिक्षण का महत्त्वपूर्ण दायित्व हाथ में लिया गया है। परिजन-पाठकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया से लगता है, यह कार्य बढ़ता ही चला जाएगा एवं देखते-देखते बदलाव लाकर रहेगा। आज का धर्मतंत्र विकृत स्थिति में हैं। इसे भी परिष्कृत करने एवं इसके वैज्ञानिक प्रस्तुतिकरण की अत्यधिक आवश्यकता है। युवावर्ग को लक्ष्य मानकर उनके लिए प्रेरक कार्यक्रम बनाए जा रहे हैं, इनका एक विराट तंत्र खड़ा किया जा रहा है।

मूल्य प्रधान का तंत्र

सबसे बड़ी चुनौती है शिक्षा क्षेत्र में। इसे अनौपचारिक, स्वावलंबन प्रधान बनाना जरूरी है। साथ ही उसे मूल्यों पर आधारित विद्या और शिक्षा के सार्थक समन्वय के साथ प्रस्तुत किए जाने की अनिवार्यता अनुभव की जा रही है। इसी के अभाव में परमपूज्य गुरुदेव के अनुसार ब्रह्मराक्षस पैदा होते जा रहे हैं। अब सरकारी पद कहीं रहे नहीं। निजी क्षेत्र में कंप्यूटर क्राँति एवं उपनिवेशवादी उपभोक्तावाद के चलते व्यापक छंटनी अभियान चल रहा है। वहाँ भी अब आई.टी. हों या बी.टी. कहीं भी अवसर व्यक्ति को मिलने वाले नहीं हैं, इसीलिए गायत्री परिवार ने स्वदेशी स्वावलंबन पर आधारित रोजगार तंत्र पर आधारित मूल्य प्रधान शिक्षा व्यवस्था का व्यापक ताना-बाना बुना है।

भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा

वर्ष में मात्र एक बार संपन्न होने वाली इस ज्ञान परीक्षा ने तेजी से मत्स्यावतार का रूप लिया है। 1994 में भोपाल (म.प्र.) में मात्र 4900 बच्चों से यह परीक्षा आरंभ हुई। धीरे-धीरे यह व्यापक होती चली गई एवं इस वर्ष (2002-2003) में इस परीक्षा में पूरे भारत में बत्तीस लाख छात्र-छात्राओं ने भागीदारी की है। मात्र नौ वर्ष में जो यह परिणाम सामने आया है, उससे ज्ञात हुआ है कि बच्चों, किशोरों में अपनी संस्कृति के प्रति कितना झुकाव है। यदि प्रस्तुतीकरण सही हो व ईमानदारी से परिश्रम किया गया हो तो क्या नहीं हो सकता।

भारतीय संस्कृति किशोरों में मानवीय मूल्यों को उभारती-निखारती व उन्हें विकसित करती है। मनुष्य को आमूल-चूल बदलने का यह दिव्य रसायन है, पारस है। मनुष्य मात्र में छिपी अनंत संभावनाओं को उजागर करना एवं उन्हें जाग्रत कर मनुष्य को देवमानव बनाना इसका प्रधान लक्ष्य है। यह संस्कृति हमारे यहाँ परिवार संस्थाओं में घूँटी में पिलाई जाती थी तथा गुरुकुल आश्रम इसका पोषण करके विद्या का, जो अमरत्व की ओर ले जाती हैं, बंधनों से मुक्त कराती है, शिक्षण किशोरावस्था की संधिवेला में दिया जाता था। यह विनम्रता लाती थी, संस्कार व चरित्रनिष्ठा पैदा करती थी तथा किशोरों को आत्मविश्वास से लबालब रखती थी। व्यसनों से हमारी युवाशक्ति मुक्त रहती थी। राष्ट्र गौरव की अनुभूति तथा परिष्कृत भावनाओं के साथ सब जीते थे। प्रखर विचार शक्ति वाले ऐसे प्राणवान ही तैंतीस कोटि देवता कहलाते थे। उन्हें कर्त्तव्य बोध भी था, जिससे उनका व्यक्तित्व सर्वांगपूर्ण विकसित होता था। आज यह सब नहीं हो रहा है तो उसका कारण संस्कृति की उपेक्षा है।

भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा उसी दिशा में आरंभ किया गया एक अणुव्रतरूपी प्रयास है। इससे जुड़े छात्रों में न केवल आध्यात्मिक जिज्ञासाएं पैदा हुई हैं, वे मानवी मूल्यों का विकास कर पाने में सक्षम हो पाए हैं। उनकी साँस्कृतिक चेतना व राष्ट्रबोध जाग्रत हुए हैं। जीवन जीने की कला के शिक्षण के प्रति उनकी अभिरुचि बढ़ी है। वे स्वयं को एक श्रेष्ठ नागरिक बनाने की दिशा में गतिशील हो रहे हैं। इस परीक्षा का मुख्यालय, संचालन केन्द्र शाँतिकुँज, हरिद्वार है। परीक्षा प्रायः अक्टूबर-नवंबर में आयोजित की जाती है। छात्र-छात्राओं को बड़े परिश्रम से तैयार की गई शिक्षण सामग्री उपलब्ध करा दी जाती है। परीक्षा शुल्क (पाठ्यपुस्तक, प्रश्न बैंक मूल्य सहित) मात्र दस रुपया प्रति छात्र/छात्रा लिया जाता है। इसी राशि से तहसील, जिला व राज्य स्तर पर सूची में आने वाले छात्र/छात्रों के पुरस्कारों की भी व्यवस्था हो जाती है। जोन के जिस जिले में सबसे अधिक छात्र-छात्राएं प्रतिभागिता करते हैं, उस जिले की इकाई को एक शील्ड भी दी जाती है। प्रत्येक जोन में प्रायः 5-6 जिले होते हैं जिनमें छठी, सातवीं, आठवीं (माध्यमिक) तथा नवीं, दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं (उच्चतर माध्यामिक) स्तर के विद्यार्थीगण परीक्षा में बैठते हैं। शिक्षाविद् माध्यम की भूमिका गायत्री परिवार के परिजन एवं प्रबुद्ध वर्ग के लोग ही उठाते हैं। ये ही आयोजन करते हैं, प्रेरणा देते हैं एवं ये ही परिणाम निकालने में भूमिका निभाते हैं। सारा कार्य स्वैच्छिक स्तर पर समयदान के आधार पर चलता है। मूलतः हिन्दी भाषा में इसका आयोजन होता है, पर विगत वर्षों से इसे मराठी, गुजराती, तेलुगु एवं अंग्रेजी में भी संपन्न किया ज रहा है। अब भारत की प्रायः सभी मुख्य भाषाओं में भारतीय संस्कृति को जन-जन तक पहुँचाने का मन बन रहा है।

संस्कृति मंडल

संस्कृति मंडल परीक्षा के उपराँत संस्कृति में रुचि रखने वाले प्रावीण्य सूची में आने वाले छात्र स्थापित करते हैं। 5 छात्र-छात्राओं का यह मंडल वर्ष भर साँस्कृतिक गतिविधियों का एक कैलेंडर बनाता है। शाँतिकुँज से जुड़कर ज्ञानयज्ञ में भागीदारी करता है। रुचि रचने वालों को शाँतिकुँज की विचारक्राँति अभियान प्रक्रिया से जोड़ता है। नेतृत्व की क्षमता विकसित हो, ऐसे शिविर तथा योग व्यक्तित्व विकास की वर्कशॉप्स आयोजित करता है। इस वर्ष प्रायः तीस हजार विद्यालयों के माध्यम से बत्तीस लाख छात्र-छात्राओं ने भागीदारी की। इस तरह तीस हजार संस्कृति मंडल एवं इनके द्वारा डेढ़ लाख छात्र-छात्राओं को इनसे अनुप्राणित होना था। इस कार्य को आगामी परीक्षा होने तक गति दी जा रही है। इस तंत्र को पुनर्जीवित किया जा रहा है। सारा केन्द्रीय संचालन देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के शिक्षा संकाय द्वारा होता है।

देवसंस्कृति विश्वविद्यालय

प्रत्यक्ष में तो एक छोटी सी शुरुआत है, पर इसने विगत एक वर्ष में शिक्षा क्षेत्र में अभिनव मूल्य-कीर्तिमान स्थापित किए हैं। अभी तक यहाँ योग, मनोविज्ञान एवं धर्म विज्ञान का ही शिक्षण दिया जा रहा था। अब एम.ए. (भारतीय संस्कृति), एम.ए. (संगीत-गायन, संगीत-वादन) की शिक्षा भी जून से आरंभ की जा रही है। एकवर्षीय पी.जी. डिप्लोमा योग विज्ञान, इंग्लिश प्रोफीशिएन्सी, क्लीनिकल साइकोलॉजी एवं पत्रकारिता में आरंभ किया जा रहा है। सार्टीफिकेट कोर्स (छह मासीय) ग्राम प्रबंधन, दृश्य संचार, योग विज्ञान, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति, धर्म विज्ञान एवं अंग्रेजी भाषा का आरंभ हो चुका है या हो रहा है। प्रमाणपत्र के लिए शिक्षा 10/2 अनिवार्य है। शेष के लिए बी.ए. या बी.एस-सी. की शिक्षा जरूरी है। आवेदन पत्र कुलसचिव के नाम 100 रुपये का बैंक ड्राफ्ट भेजकर मंगवा सकते हैं। उन्हें तीन जून तक भरकर जमा कर सकते हैं। प्रवेश परीक्षा 3 जुलाई को प्रस्तावित है। 24 जुलाई के ज्ञानदीक्षा समारोह से अगले सत्र का शुभारंभ हो जाएगा।

यह माना जाना चाहिए कि यह निताँत अनौपचारिक स्तर का पर पूर्णतः मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय है। जन-जन के बूँद-बूँद अंशदान सहयोग से खड़े इस विश्वविद्यालय से निकला छात्र सृजन-शिल्पी होगा जो अपने पैरों पर खड़ा हो सकेगा। अभी इस तंत्र का जब क्षेत्रों में विस्तार होगा, एक्सटेंशन सेंटर खुलेंगे तो क्षेत्र में फैले 200 से अधिक विद्यालय, विद्याभारती के ढेरों शिक्षक, एकल विद्यालयों का समग्र तंत्र, गायत्री तपोभूमि का स्वावलंबन विद्यालय तंत्र एवं पाँच सौ से अधिक जाग्रत जीवंत शक्तिपीठों से, जिनकी कि शिशुकाल से ग्रेजुएशन तक महाविद्यालय खड़ा करने की पात्रता है, जुड़कर शीघ्र ही एक विराट व्यापक तंत्र खड़ा हो जाएगा। 2008 तक यह सारा विकसित स्वरूप सही अर्थों में यूनीवर्स की यूनिवर्सिटी, निखिल ब्रह्माँड के भरद्वाज ऋषि के विश्वविद्यालयीन, नालंदा, तक्षशिला, वल्लभी, विक्रमशिला विश्वविद्यालयीन तंत्र के रूप में दृष्टिगोचर होगा। शिक्षा और विद्या के इस सार्थक समन्वय से ही भारत के 2020 तक विश्व के महानायक बनने की आशा रखी जा सकती है। (कला संस्कृति संबंधी चिंतन आगामी अंकों में)

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