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Magazine - Year 2003 - Version 2

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Language: HINDI
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चाहिए आचार्य शंकर जैसा मस्तिष्क एवं बुद्ध जैसा हृदय

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अध्यात्म क्षेत्र की दो प्रमुख धाराएं हैं-एक का नाम है ज्ञान और दूसरी का भक्ति। दोनों की अपनी महत्ता एवं उपयोगिता है। एक को मस्तिष्क की उपज कहा जा सकता है तो दूसरे को हृदय के भाव-संस्थान से निस्सृत माना जा सकता है। दूसरे अर्थों में ज्ञान को यदि मनुष्य का मस्तिष्क कहा जाए तो भक्ति को हृदय कहा जा सकता है। इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। मानवी काया में स्थित हृदय एवं मस्तिष्क में से जब कोई एक अंग कार्य करना बंद कर देता है, तो जीवन की सारी कार्यप्रणाली अस्त-व्यस्त हो जाती है। ठीक इसी तरह जब भक्ति या ज्ञान में से किसी एक को अधिक महत्व दिया जाने लगता है और अपने पक्ष को श्रेष्ठतम सिद्ध करने का प्रयास चल पड़ता है, तो प्रायः जीवन में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। अध्यात्म क्षेत्र की महान उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए दोनोँ में संतुलन-समन्वय आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।

आध्यात्मिक क्षेत्र में समग्र उन्नति के लिए भक्ति और ज्ञान दोनों की अनिवार्य आवश्यकता है। वस्तुतः अपने उच्चस्तरीय आयाम में इन दोनों में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं। अपनी उत्कृष्टतम कृति ‘रामचरितमानस’ के 7/115/13 में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है, ‘भगतिहि ग्यानहि नहिं कुछ भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा॥’ अर्थात् भक्ति और ज्ञान में कोई अंतर नहीं है। दोनोँ मिलकर, संसारजनित दुःख का हरण करते हैं। ज्ञानरहित भक्ति से अथवा भक्तिरहित ज्ञान से भवदुःख का अंत नहीं हो सकता। दोनों के संयोग से ही भौतिक दुःखों का निवारण होता है।

इसे विडंबना ही कहा जाना चाहिए कि बहुत दिनों से अध्यात्म क्षेत्र की इन दोनों अविच्छिन्न धाराओं को परस्पर विरोधी माना जाता रहा है और कहा जाता रहा है कि दोनों में समन्वय नहीं है। एक ओर जहाँ ज्ञानमार्गी दर्शन में विश्वास करता है और तत्वदर्शन ही उसका लक्ष्य होता है। वह तर्क एवं तथ्यों के आधार पर सत्य का अन्वेषण करता तथा प्राप्त तथ्यों के आधार पर सत्य को स्वीकारता है। सृष्टि के रहस्यों को समझने के लिए वह बुद्धि को परिमार्जित करता और चिंतन को प्रखर बनाता है। भावनाओं के उफान में बहना उसे विवेकसम्मत नहीं लगता। हृदय के भाव-उद्गारों की तुलना में वह बुद्धि को अधिक महत्व देता है और चिंतन मनन द्वारा आत्मतत्त्व, परमात्मतत्त्व को जानने का प्रयास करता है।

दूसरी ओर भक्ति मार्ग का साधक भक्तिभावना में ही अपने को तन्मय रखना चाहता है और भाव-संवेदनाओं को ईष्ट प्राप्ति का सशक्त माध्यम मानता है। उपासना, प्रार्थना, अभ्यर्थना के संपूर्ण उपचारों का प्रयोग वह भाव-संवेदनाओं के विकास में करता है। दर्शन के रूखेपन में उसे रस नहीं आता। तर्क एवं बुद्धि को साधनामार्ग का, सत्य प्राप्ति का अवरोध मानने के कारण वह उनका अवलंबन नहीं चाहता। परिणामस्वरूप तत्त्वदर्शन की बौद्धिक गवेषणाओं में वह अपना समय और श्रम नहीं गंवाता। उसकी समस्त चेष्टाएं भाव-समुद्र में इष्ट से भावनात्मक तादात्म्य स्थापित करने और उसी भाव-समुद्र में डूबने रहने में नियोजित रहती हैं।

वस्तुतः यह दोनों ही मान्यताएं एकाँगी, अपूर्ण एवं अतिवादी हैं। मानवी काया में मस्तिष्क भी है और हृदय भी, बुद्धि भी है और भाव-संवेदनाएं भी। दोनोँ परस्पर विरोधी नहीं, पूरक हैं। बुद्धि अपना कार्य करती है और हृदय अपना। अतः महत्ता और उपयोगिता विचारों और भावनाओं दोनों की है। कार्य अलग-अलग दीखते हुए भी दोनों एक-दूसरे से अन्योन्याश्रित रूप से जुड़े हुए हैं। चाहते हुए भी इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। हृदय की भाव-संवेदनाएं ही अपनी कोमलता द्वारा विचारों को सुनियोजित करती हैं। बुद्धि को प्रज्ञा बनाती हैं। विचार कितने भी सशक्त एवं प्रभावशाली क्यों न हों, जब तक उनमें संवेदनशीलता न जुड़ी हो, कल्याणकारी नहीं हो सकते। भावनाशून्य महान ज्ञानी, तत्त्वदर्शी किसी काम का? उसका ज्ञान तो पुस्तकों, ग्रंथों एवं शास्त्रों जैसा नीरस एवं निष्प्राण होगा।

इसी तरह एकाँगी भावनाएं भी उतनी उपयोगी सिद्ध नहीं होती। विचारों से शून्य भावनाओं के अतिरेक में बहता हुए हृदय भी वैज्ञानिक दृष्टि से हानिकारक है। एक से काम चलता होता तो भावनाओं के केन्द्र हृदय एवं विचारों के केन्द्र मस्तिष्क को परमात्मा एक ही शरीर में क्यों संजोता? यह इस बात का प्रमाण है कि भाव संवेदनाओं के साथ विचारों की भी उतनी ही उपयोगिता एवं महत्ता है। आवश्यकता दोनों में संतुलन एवं समन्वय की है। अध्यात्म का समुचित लाभ दोनों पक्षों को समान रूप से अपनाने से ही मिल पाता है।

अध्यात्म क्षेत्र की महान विभूतियों के जीवन दर्शन का अध्ययन करने पर यह तथ्य भलीभाँति उजागर हो जाता है कि विश्व में जितने भी महान अध्यात्मवादी संत, महात्मा, ऋषि, मनीषी हुए हैं, वे इन दोनों ही विशेषताओं की, करुणा की धाराएं बहती थीं, वहीं विवेक से ज्ञान का प्रवाह फूटता था। ज्ञान एवं भक्ति से, बुद्धि और भावना संपदा से वे समस्त विश्व को सिक्त एवं तृप्त करते थे। परस्पर दोनों धाराएं किस प्रकार मिलकर समग्र अध्यात्म का स्वरूप बन सकती हैं, इसके लिए विश्व के महानतम अध्यात्मवादियों पर दृष्टिपात करना होगा।

विश्व में दर्शन के मूर्द्धन्य तत्त्ववेत्ताओं में आद्य शंकराचार्य का नाम अग्रगण्य है। उनका वेदाँत दर्शन अद्वितीय एवं विश्व के सभी दर्शनों में समग्र एवं श्रेष्ठ हैं। ब्रह्मविद्या का इतना सशक्त प्रतिपादन अन्यत्र दुर्लभ है। अद्वैत वेदाँत की साधना की जिस चरम अवस्था तक वे पहुँचे थे, आज तक विश्व का कोई भी दार्शनिक वहाँ तक नहीं पहुँच पाया है। दर्शन के इतने महान एवं मूर्द्धन्य ज्ञाता होते हुए भी उनका हृदय उदात्त भव-संवेदनाओं से लबालब भरा था। उसमें से भक्ति की तरंगें उद्वेलित होती थीं। ‘सौंदर्यलहरी’ ग्रंथ का सृजन इस भक्तिभाव के प्रस्फुटन का ही परिचायक है। एक ओर जहाँ उन्होंने शुष्क, नीरस परन्तु ज्ञान के अविरल स्रोत वेदाँत का प्रचार किया, वहीं दूसरी ओर उनके हृदय से भक्ति की अविच्छिन्न धारा भी प्रवाहित हुई। ईश्वर की स्तुति करते हुए वे कहते हैं-

श्रद्धाभक्तिध्यान शमः धैर्यत मानैः ज्ञातै शक्यो देव इहैवाशु यः ईशः।

दुर्विज्ञेयो जन्म शतैयश्चापि विनातैः संससार ध्याँत विनाश हरिमीडे।

जो परमेश्वर श्रद्धा, भक्ति, ध्यान, शम आदि साधनों द्वारा प्रयत्न करने वालों के लिए यहीं तत्काल गोचर हो सकता है और उन साधनों के अभाव में सैकड़ों जन्मों में भी गोचर होने वाला नहीं है, उस संसार तिमिरहारी हरि की मैं स्तुति करता हूँ।

विश्वभर में वेदाँत की पताका फहराने वाले स्वामी विवेकानंद का जीवन भक्तिरस से सराबोर था। अपनी प्रखर प्रज्ञा के आधार पर उसने भारतीय संस्कृति को विश्वभर में प्रतिष्ठापित किया। इसके पूर्व विदेशों में भारत मात्र अंधविश्वासों में जकड़ा, धर्म के नाम पर मूर्तिपूजक देश के रूप में समझा जाता था। आदिकाल से मनुष्य जाति को सिक्त करते चले आ रहे भारतीय दर्शन का स्पष्ट स्वरूप उन्होंने विदेशों में रखा। तत्त्ववेत्ता दर्शन के प्रकाँड विद्वान के रूप में उनका एक स्वरूप यह था, तो दूसरा पक्ष भी था माँ काली के समक्ष एक अनन्य भक्त का। काली की प्रतिमा में अपने इष्ट का दर्शन करने वाले, अपनी सत्ता को ही भूल जाने वाले विवेकानंद को भला कौन नहीं कहेगा? एक ओर जहाँ उन्होंने भारतीय तत्त्वज्ञान को विश्व के सम्मुख रखा, वहीं दूसरी ओर भक्ति की महत्ता एवं उपयोगिता का प्रतिपादन किया। उनका कहना था, ‘दर्शन की शुष्कता एवं नीरसता को भक्तिरस से उठने वाली भाव-तरंगें ही दूर कर सकती हैं। मानवी अंतराल को छू सकने में भाव-संवेदनाएं ही समर्थ हो सकती है। अतः दर्शन के साथ भक्तिभावना को भी विकसित करना उतना ही आवश्यक है। साधना-पथ की महान उपलब्धियाँ इन दोनों के समन्वय पर ही अवलंबित हैं।’

प्रख्यात तत्त्ववेत्ता संत इमर्सन ने अपने अगाध ज्ञान से असंख्यों को प्रेरणा एवं प्रकाश दिया। तत्त्ववेत्ता दार्शनिक होते हुए भी उनका जीवनक्रम भक्तिरस की धाराओं में सदा डूबा रहता था। वे कहा करते थे, ‘परमात्मा को वही प्राप्त कर सकते हैं, जो हृदय से पवित्र हैं। करुण हृदय में ही परमात्मा अवतरित होते हैं।’ प्रार्थना, अभ्यर्थना का उनके अनिवार्य दैनिक कृत्यों में समावेश था। इसी तरह सुप्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात का अधिकाँश समय लोगों के दुःख-दर्दों के निवारण में लगता था। वे कहते थे कि मानव सेवा ही मेरी भक्ति है। महान ज्ञानी एवं दार्शनिक होते हुए भी उन्होंने अपने जीवन में भक्ति को सर्वोपरि स्थान दिया। मानव-सेवा प्रकाराँतर से भक्तिभावना का ही प्रतीक थी।

प्रकृति को परमात्मा का स्वरूप मानने वाले कन्फ्यूशियस न केवल तत्त्वज्ञानी थे, वरन् ईश्वरभक्ति में उनकी प्रगाढ़ आस्था थी। प्रकृति के अनुपम सौंदर्य के अवलोकन में ही उनका अधिकाँश समय व्यतीत होता था। वह कहते थे, ‘देखो, प्रकृति के भीतर से परमात्मा झाँक रहा है।’ प्रकृति में भावनाओं द्वारा परमात्मा का दर्शन करना भक्तिभावना की ही पराकाष्ठा है। कन्फ्यूशियस के जीवनक्रम में ज्ञान एवं भक्ति का अद्भुत समन्वय मिलता है। सेंट आगस्टाइन का कथन है, ‘परमात्मा को बुद्धि द्वारा नहीं, पवित्र हृदय द्वारा पाया जा सकता है, इसलिए बुद्धि का प्रयोग भावनाओं को पवित्र बनाने में करना चाहिए, तभी परमात्मा का अवतरण तुम्हारे हृदय में होगा।’ प्रख्यात फ्रेंच संत ज्यॉ पाल सार्त भी भक्ति को ईश्वरप्राप्ति एवं आत्मपरिष्कार का सशक्त साधन मानते थे। अपने समय के प्रकाँड विद्वान माने जाते हैं। उनकी दार्शनिक विचारधारा ने बौद्धिक वर्ग को विशेष रूप से आकर्षित किया था। उनका हृदय भक्ति भावना से ओत-प्रोत था। प्रार्थना में उनकी अगाध श्रद्धा थी।

वस्तुतः एकाँगी तत्त्वदर्शन या ज्ञान बुद्धि को संतुष्ट तो कर सकता है, पर अंतःकरण को तृप्त नहीं कर सकता। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’, ‘सोऽहम्-सच्चिदानंदोऽहम्’, ‘प्रज्ञानम् ब्रह्म’, ‘तत्त्वमसि’ आदि वेदाँत के महावाक्यों को रटते रहने भर से व्यावहारिक जीवन भावनाओं की दृष्टि से शून्य, कठोर, शुष्क एवं नीरस बना रहता है। इसी प्रकार अकेले भक्ति की विह्वलता में, विचारों में डूबे रहने से मात्र समस्याएं ही उत्पन्न होती हैं। विवेक को ताक पर रख देने वाले अंधविश्वास में जकड़े आज के तथाकथित लाखों भक्तों का निरुद्देश्य जीवनक्रम इस सत्य का प्रत्यक्ष उदाहरण है। अगर विवेकयुक्त ज्ञान का, दार्शनिक विचारों का अवलंबन लिया होता तो भक्ति का वास्तविक लक्ष्य अवश्य दृष्टिगोचर हो रहा होता। इस तथ्य से स्वामी विवेकानंद भली भाँति परिचित थे, तभी तो उनसे कहा था, ‘इस युग के लिए आचार्य शंकर जैसे मस्तिष्क एवं भगवान बुद्ध जैसे हृदय की आवश्यकता है।’ जिसने इन दोनों को प्राप्त कर लिया, वस्तुतः वही सच्चा अध्यात्मवादी है। अंतरात्मा की तृप्ति एवं तुष्टि ज्ञान एवं भक्ति के समन्वित साधना से ही संभव है।

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