
गुरुकथामृत - 44 - सिवसक्ति के जनमौं नाँहि, तबै जोग हम सीखा
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अखण्ड ज्योति पत्रिका वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के माध्यम से परिष्कृत अध्यात्म का रूप लिए प्रबुद्ध वर्ग को प्रभावित करती हुई निरंतर प्रकाशित होती रही है। यह प्राण−प्रवाह यों तो गायत्री महाशक्ति के तत्वज्ञान एवं राष्ट्र सहित युग के नवनिर्माण हेतु सतत प्रवाहित होता था, परन्तु पूज्यवर इतने से संतुष्ट नहीं थे। उन्हें सतत यही लगता था कि युवाशक्ति, पढ़ा-लिखा, विज्ञान पढ़ा तबका कैसे मिशन से जुड़ेगा? इसी क्रम में उसने 1967-68 में अपने लेखन को 180 डिग्री का मोड़ देते हुए अखण्ड ज्योति पत्रिका में एक लिखा, जिसमें अभिव्यक्त विचारों का सार-संक्षेप था, ‘हम अपने पाठकों के माध्यम से पढ़ना चाहते हैं। कुँडलिनी, मानवी संरचना आदि के विषय में जो वैज्ञानिक तथ्य जिनके पास हों, वे पुस्तकों से निकालकर हमें भेजें। इस संबंध में एक प्रकोष्ठ यहाँ बनाया गया है। प्रयास रहेगा कि विज्ञान और अध्यात्म के समन्वयात्मक प्रतिपादनों से संबंधित ठोस सामग्री हम जन-जन तक पहुँच सकें।’
यह आमंत्रण कइयों तक पहुँचा। कुछ ने पत्राचार किया, कुछ गुरुवर से उनके प्रवास के दौरान मिले, कुछ मथुरा तपोभूमि में मिलने पहुँचे। क्रमशः वह संकलन होता चला गया एवं क्रमशः उसके निष्कर्ष पत्रिका में प्रकाशित होने लगे। परमपूज्य गुरुदेव ने तो बड़े विनम्र भाव से लिखा था कि हम पढ़ना सीखना चाहते हैं, परन्तु जिसने इन लेखों को पढ़ा, उन्हें लगा कि जैसे आचार्यश्री सब कुछ जानते थे और भी गहरा वैज्ञानिक, दार्शनिक ज्ञान उन्हें है और वही लेखन में उभरा है। लोगों को स्वयं में उन लेखों से एक शिक्षण मिला। जहाँ वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की यह आधारशिला, पठन-पाठन एवं ज्ञानयज्ञ की पृष्ठभूमि बनी, वहाँ से ढूंढ़-तलाश कर कुछ पत्र इस लेख में दे रहे हैं ताकि पता चले कि पूज्यवर किस सीमा तक इस प्रक्रिया में डूब गए थे, न जाने कितनों को ज्ञानगंगा का स्नान करा चुके थे।
चार अक्टूबर, 1969 का एक पत्र हैं, अगले वर्ष के लिए हमें कुँडलिनी तथा दूसरे विषयों की लेखमालाएं कुछ अधिक तैयारी के साथ आरंभ करनी हैं। सो 3-4 महीने अंग्रेजी में जो कुछ अपने काम का है, उसमें से हाथ की पुस्तकों का साराँश निकाल लेना है। इस दृष्टि से पढ़ने का काम बहुत तेजी से करना और जो साहित्य हाथ में है, उसे ढूंढ़ डालना आवश्यक है। इसके लिए समुचित व्यवस्था भी बना ली है।
तुम्हारे पास यहाँ की जो पुस्तकें हैं, उन सबको लौटा देना। 3-4 महीने में यह सभी खाली हो जाएंगी। तब तुम्हें जो उपयोगी प्रतीत हों, उन्हें मंगा लेना। तब तक तुम अपने कॉलेज से मस्तिष्क, नर्वसिस्टम, मनोविज्ञान, प्राणविद्या की पुस्तकें लाइब्रेरी से लेकर अपना उपयोगी ज्ञान संग्रह करती रहना।
षट्चक्रों के संबंध में तुम्हारी बड़ी पुस्तक ‘चक्राज्’ है, सो वहाँ यदि इन दिनों उसका उपयोग नहीं हो रहा हो तो राय साहब से प्राप्त कर 3-4 महीने के लिए भेज देना।
यह पत्र जिस साधिका को संबोधित है, वे पिछले दिनों साठ वर्ष पूरे कर भोपाल के एक प्रतिष्ठित महाविद्यालय से रिटायर हुई है। राय साहब उनके पिता थे। निर्मला राय उनका नाम है। अध्यात्म और विज्ञान के समन्वयात्मक प्रतिपादनों के संग्रह में उनका बड़ा योगदान रहा है। निश्चित रूप से सतत गुरुसत्ता से प्राप्त प्रेरणाओं ने ही उनसे यह कार्य कराया कि क्रमशः 1970 के बाद की अखण्ड ज्योति तर्क, तथ्य, प्रमाणों के साथ प्रस्तुत होने लगी। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना (1971) इसी पृष्ठभूमि पर हुई है। उन्हीं को संबोधित एक पत्र और है, जो पूज्यवर की अपने शोध-साधनों पर मजबूत पकड़ को प्रमाणित करता है। 10-1-61 को यह पत्र महासमुद्र (छत्तीसगढ़) से प्रवास के दौरान लिखा गया था।
तुम कुँडलिनी का वह अंश इकट्ठा कर लो, जिसका सीधा शरीर विज्ञान से संबंध है। जिसमें साधारण सिद्धाँतवाद है उसे दूसरों के लिए रखा जा सकता है। हमने दो आदमी मथुरा में नियुक्त किए हैं। वे दोनों आर्ट के हैं। रु.न. होने से वे सिद्धाँत संबंधी बातें आसानी से ढूंढ़ सकेंगे। तुम्हारा विषय साइंस है, सो अच्छा यही है कि तुम केवल साइंस अपने हाथ में लो। अधिकाँश पुस्तकें साइंस की ही हैं। जीव विज्ञान से लेकर अन्य सभी विषय अध्यात्म का प्रतिपादन करते हैं। तुम्हारे लिए साइंस का अति व्यापक क्षेत्र पड़ा है। तीन-चौथाई साहित्य तो इसी विषय का है, जो अपने विषयों का प्रतिपादन करता है।
कुँडलिनी में जो भी शरीर-रचना अथवा मनोविज्ञान से संबंधित है, उसे तुम इस महीने ढूंढ़ने की कोशिश करना।
पत्र की भाषा पढ़कर लगता है कि मानो कोई पाठ्यक्रम बनाया जा रहा हो। एक विद्यार्थी अपनी थीसिस के लिए किसी से मदद माँग रहा हो, किन्तु वास्तविकता यह नहीं है। वास्तविक तथ्य यह है कि परमपूज्य गुरुदेव हर विधा में निष्णात थे, किन्तु हर व्यक्ति को जीवनभर एक विद्यार्थी रहना चाहिए, इस तथ्य को लौकिक दृष्टि से उसने प्रमाणित किया। कई बार तो तथ्य लिखकर आते, उसके पूर्व पूज्यवर उन्हीं तथ्यों को उद्धृत कर लिख चुके होते। मॉलीक्यूलर बायोलॉजी, अणुविज्ञान एवं जैव भौतिकी पर गहन विश्लेषणात्मक प्रतिपादनपरक लेख हमने स्वयं देखे हैं, जो मौलिक चिंतन के आधार पर लिखे गए हैं। वस्तुतः पूज्यवर पढ़ने वाले, स्वाध्याय करने वाले के मन-मस्तिष्क को पढ़ लेते थे, अपने निज के गहन अध्ययन व विलक्षण स्मृति को आधार बनाकर लिखते थे। वही आज हमारे समक्ष विराट वाङ्मय के रूप में उपलब्ध है। साधनाजन्य यह उपलब्धि ऐसी है, जिस पर गहन शोध जरूरी है। संत चाहे पढ़े हों, अनपढ़ हों, वे अंतर में इस ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं, जो वर्षों तक पढ़ने वाला नहीं प्राप्त कर पाता।
श्री कबीरदास कहते हैं-
ब्रह्मा नहिं जब टोपी दीन्हा, बिस्नु नहीं जब टीका।
सिवसक्ति के जनमौं नाहीं, तबै जोग हम सीखा॥
क्या इससे हमें आभास नहीं होता कि हमारी गुरुसत्ता कौन थी।