
इक्कीसवीं सदी की चिकित्सा पद्धति : आयुर्वेद
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आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति अत्यंत उन्नत, वैज्ञानिक एवं समृद्ध है। चरक ने आयुर्वेद को शाश्वत एवं सनातन माना है। उनकी मान्यता है कि जब वे जीवन (आयु) का प्रादुर्भाव हुआ, तभी से आयुर्वेद की सत्ता प्रारंभ होती है। सुश्रुत ने तो इसका रचनाकाल सृष्टि से पूर्व बताया है। आयुर्वेद के सृजनकर्त्ता स्वयं सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा ने उल्लेख किया है कि आयुर्वेद सृष्टि से आदिकाल से विद्यमान है। इसे उपवेद भी कहा जाता है। कुछ विद्वान इसे ऋग्वेद का तथा अधिकाँश मनीषी इसे अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। इस वैभिन्यता में भी इसकी चिर पुरातन परंपरा एवं वैज्ञानिकता परिलक्षित होती है, जो आज विश्वव्यापी लोकप्रियता अर्जित कर रही है।
चरक ने इसे अपने अनुभूतिजन्य ज्ञान से प्राप्त किया था। उनके अनुसार, ‘हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम-। मानञ्च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते।’ ‘जिस शास्त्र में हित-अहित, सुख-दुःख, आयु एवं आयु के लिए उपयोगी-अनुपयोगी द्रव्य, गुण-कर्म आदि के प्रमाण एवं लक्षण का विवेचन-विश्लेषण होता है, उसका नाम आयुर्वेद है।’ अतः आयुर्वेद वैयक्तिक जीवन के सभी प्रकार दुःख, कष्ट, क्लेशों की पूर्ण निवृत्ति का शास्त्र है। यह मानव शरीर को कष्ट से मुक्त करता है, क्योंकि इस मर्त्यभूमि में शरीर ही एकमात्र ऐसा दिव्य साधन है, जिससे भौतिक एवं आत्मिक प्रगति प्राप्त की जा सकती है। इस चिकित्सा का मुख्य एवं प्रमुख सिद्धाँत है कि शरीर में जो अनुपयोगी है, उसे दूर करना है तथा जिसका अभाव है, उसकी पूर्ति करना एवं साम्य स्थापित करना।
आयुर्वेद शरीर का कायाकल्प कर देता है। यह न केवल रोगों को दूर करता है, बल्कि शरीर को नैसर्गिक एवं प्राकृतिक स्वास्थ्य प्रदान करता है। इस चिकित्सा पद्धति से शारीरिक स्वास्थ्य लाभ के साथ-साथ मानसिक प्रसन्नता की उपलब्धि होती है। इस उपचार प्रक्रिया में दुष्प्रभाव एवं हानि का भयावह भय नहीं होता। इसी विशेषता एवं महत्ता के कारण आयुर्वेद को अन्य चिकित्सा पद्धतियों से सर्वोपरि एवं सर्वोत्तम ठहराया गया है, क्योंकि यह निरापद है। इसमें कोई आपद नहीं है। अपनी इस शाश्वत एवं अद्भुत उपादेयता की वजह से आयुर्वेद न केवल अपने देश में ही प्रचलित है, बल्कि पाश्चात्य देशों में भी इसकी उपयोगिता एवं लोकप्रियता बढ़ती जा रही है।
आज भारतीय वैदिक स्वास्थ्य प्रणाली आयुर्वेद की स्वीकारोक्ति विश्व स्तर पर बढ़ रही है। इसकी पुष्टि विगत वर्ष अमेरिका और इंग्लैण्ड में दो शासकीय घोषणाओं से होती है। पहली है, पिछले वर्ष इंग्लैण्ड द्वारा ‘काम्पलीमेंट्री एण्ड अल्टरनेटिव मेडिसिन’ (ष्ट्नरु) की श्रेणी में प्रयुक्त चिकित्सा पद्धति को वैज्ञानिकता प्रदान करने के लिए ‘हाउस ऑफ लाडर्स’ समिति का गठन। इस समिति का गठन अपने आप में अद्भुत है, क्योंकि इससे आयुर्वेद के पुरातन स्वरूप को नए वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में प्रयोग किया जाएगा और इसमें कोई संदेह नहीं कि आयुर्वेद में निहित गंभीर वैज्ञानिकता पुनः प्रकट होगी तथा प्राचीनता को नवीनता के आधार पर कसा-परखा जाएगा। इससे पुरातन चिकित्सा नए स्वरूप में प्रकट होगी। दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रयास है- अमेरिका के एक प्रभावशाली आयोग द्वारा भारतीय आयुर्वेद चिकित्सा को पश्चिमी चिकित्सा पद्धति की तुलना में अधिक कारगर एवं प्रभाव बताना और नए वैज्ञानिक ढंग से इसका प्रचार-प्रसार एवं प्रयोग करने पर बल देना।
इन प्रयास-पुरुषार्थों से आयुर्वेद का स्वरूप विश्वव्यापी हो सकता है। इसको अपनाने-स्वीकारने के पीछे एक तथ्य और भी है कि आज विश्व मानव समुदाय ऐलोपैथी दवाओं के दुष्प्रभाव से त्रस्त हैं, हैरान-परेशान है। एलोपैथी दवाओं का अभ्यस्त पश्चिमी जगत आज इसी कारण घोर निराशा एवं हताशा से भर गया है, क्योंकि जिस रोग के लिए इन दवाओं का प्रयोग किया जाता है, वह रोग ठीक होना तो दूर, दूसरे अन्य पहचान में न आने वाले रोगों का प्रादुर्भाव हो जाता है। परिणामतः पश्चिमी जनमानस में इन दवाओं के प्रति गहरी अरुचि एवं संदेह का भाव घर करने लगा है। ऐसे में पूर्णतया निरापद चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद को अपनाने, प्रयोग-उपयोग करने की प्रक्रिया चल पड़ी है और इसी का प्रभाव-परिणति है कि ब्रिटेन में आयुर्वेद एवं अन्य वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति से उपचार करने वाले चिकित्सकों की संख्या 50 हजार है। वर्ष 1999 में इन चिकित्सकों ने 50 लाख से अधिक बीमार लोगों का उपचार किया था। यह रिपोर्ट स्वयं ब्रिटिश संसद की विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी की 67वीं सेलेक्ट कमेटी द्वारा प्रस्तुत की गई है। बी.बी.सी. द्वारा कराए गए एक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार ब्रिटेन में लोग वैकल्पिक दवा हेतु प्रतिवर्ष 1.6 अरब पौंड खर्च करते हैं। इनमें से 5 करोड़ पौंड आयुर्वेदिक दवा के लिए नियोजित होता है। वहाँ पर विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियों के प्रयोगों का प्रचलन बढ़ने लगा है।
ब्रिटेन के समान अमेरिका में भी आयुर्वेद उपचार पद्धतियों के प्रति रुझान व रुचि में अभिवृद्धि हुई है। अमेरिका के स्वास्थ्य मंत्री के नेतृत्व में गठित व्हाइट हाउस के एक आयोग की रिपोर्ट के अनुसार पश्चिमी चिकित्सा प्रणाली की अपेक्षा पूर्वी स्वास्थ्य प्रणाली ज्यादा उपयोगी व उपादेय सिद्ध हो रही है। आयोग का मानना है कि अधिकाँश अमेरिकी अब ऐलोपैथी की बजाय आयुर्वेद, योग आदि की ओर अधिक आकर्षित हो रहे हैं। यह आकर्षक अमेरिका में आयुर्वेद की लोकप्रियता को प्रदर्शित करता है और इसी का प्रभाव है कि अमेरिका में सन 1990 से 1997 के बीच कराए गए एक स्वास्थ्य सर्वेक्षण में इस चिकित्सा पद्धति से उपचार कराने वालों की संख्या 33.8 प्रतिशत से बढ़कर 42.1 प्रतिशत हो गई है। विशुद्ध रूप से आयुर्वेदिक उपचार में 2.5 से 12.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसी कारण अमेरिका ने वर्ष 1997 में इस चिकित्सा पद्धति पर 27 अरब डॉलर खर्च किया। अमेरिकी जनमानस में आयुर्वेद के प्रति बढ़ती रुचि, रुझान एवं विश्वास को देखकर ही वहाँ के स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने मेडिकल पाठ्यक्रम में आयुर्वेद को शामिल करने का मानस बना लिया है।
आयुर्वेद की इस निरापद एवं उत्कृष्ट चिकित्सा प्रणाली से रूस भी अछूता नहीं है। वहाँ पर भी यह प्रणाली खूब लोकप्रिय हो रही है। इसी वजह से पिछले वर्ष रूसी सरकार ने भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा पंचकर्म को शासकीय मान्यता प्रदान कर दी है। यही नहीं, रूसी प्रशासन एवं सरकार ने भारत सरकार ने आयुर्वेद और पंचकर्म से संबंधित पाठ्य पुस्तकों, साहित्यों आदि को रूसी भाषा में अनूदित प्रकाशित करने का भी अनुरोध आग्रह किया है। इसके अलावा पोलैंड भी भारत सरकार के सहयोग से आयुर्वेद के अनेक पहलुओं पर अनुसंधान-अन्वेषण कर रहा है। वहाँ भी यह उपचार प्रक्रिया विकसित होने लगी है। इस प्रकार कनाडा, जर्मनी, फ्राँस, हाँगकाँग, आस्ट्रेलिया तथा कई अरब देशों में भी आयुर्वेदिक उपचार प्रक्रिया को प्रश्न मिला है।
भारत में उपजी-बढ़ी आयुर्वेदिक उपचार प्रक्रिया की विश्वव्यापी स्वीकृति एवं उपयोग इसके पीछे निहित वैज्ञानिकता एवं समग्रता को मान्यता प्रदान करते हैं। यह पुरातन चिकित्सा पद्धति अपने आप में संपूर्ण एवं समग्र है। इसमें निरोगी काया एवं मानसिक स्वास्थ्य का समग्र विधान भरा पड़ा है। इसी कारण भारत द्वारा अनुभव अहसास की गई इस प्राचीन व पुरातन पद्धति की ओर पश्चिमी जनता भी उन्मुख आकर्षित हो रही है। अतः आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को इक्कीसवीं सदी की चिकित्सा पद्धति की उपाधि से अलंकृत किया जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। ऋषियों द्वारा खोजी गई इस चिकित्सा पद्धति में ही आधुनिक मानव के परिपूर्ण स्वास्थ्य, नीरोगता एवं प्रसन्नता का मर्म छिपा पड़ा है।