
जीवनशैली आध्यात्मिक हो
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व्यवहार चिकित्सा के आध्यात्मिक आयाम भी हैं, जो इसे सही अर्थों में सम्पूर्णता देते हैं। और यह आध्यात्मिक व्यवहार चिकित्सा का नया रूप लेती है। इस प्रक्रिया में आध्यात्मिक जीवनशैली की तकनीकों को अपना कर गहरे मन की गाँठें खोली जाती है। इन गाँठों के खुलते ही व्यक्ति की जीवन दृष्टि बदलती है और उसका व्यवहार सँवर जाता है। सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक रूप से यह व्यवहार तकनीकों के कारण कहीं अधिक प्रभावशाली है। इसमें भी मनोचिकित्सा की ही भाँति रोगी के असामान्य व्यवहार और उसके कारणों की गहरी पड़ताल करते हैं। यह पड़ताल सामान्य विश्लेषण द्वारा भी हो सकती है और आध्यात्मिक चिकित्सक की अन्तर्दृष्टि द्वारा भी।
बिगड़े हुए व्यवहार को सभी देखते हैं, पर यह आखिर बिगड़ा क्यों? इसका पता लगाने की जरूरत शायद कोई नहीं करता। जो उद्दण्ड है, उच्छृंखल है, किन्हीं बुरी आदतों का शिकार है और बुरे कामों में लिप्त है, उसे बस बुरा आदमी कहकर छुट्टी पा ली जाती है। यह बुराई उसमें आयी क्यों? इस सवाल का जवाब कोई नहीं तलाशता। बुरी संगत या बुरे कर्मों के अलावा व्यावहारिक गड़बड़ियों के और आयाम भी हैं। उदाहरण के लिए बेवजह भयातुर हो उठना, एकाएक अवसाद से घिर जाना अथवा फिर अचानक दर्द का दौरा पड़ जाना। रोगी जब इन समस्याओं के कारण बताता है, तो या तो उसे डरपोक समझा जाता है, अथवा फिर उसे सिरफिरा कहकर उसकी हँसी उड़ायी जाती है।
ये कारण होते भी अजीब हैं- जैसे कोई प्रौढ़ व्यक्ति कुत्ते की शकल देखकर घबरा जाता है। पूछने पर यही कहता है कि मुझे तो कुत्ते की फोटो भी डरावनी लगती है। सुनने वालो को लगता है कि बच्चे का डर तो समझ में आता है लेकिन यह प्रौढ़ व्यक्ति भला क्यों डरता है? इसी तरह किसी को अँधेरे से डर लगता है तो फिर कोई ऊँची इमारत देखते ही बेहोश हो जाता है। कई तो ऐसे होते हैं जिन्हें भीड़ देखते ही दर्द का दौरा पड़ जाता है। कई बेचारे तम्बाकू- सिगरेट, पान- गुटखा आदि बुरी आदतों के शिकार हैं। ऐसे लोग दुनियाँ में या तो हँसी के पात्र बनते हैं अथवा उनके पल्ले जमाने भर की घृणा, उपेक्षा, तिरस्कार, अवहेलना पड़ती है। कोई भी उनके दर्द को सुनने, बाँटने की कोशिश नहीं करता। जबकि यथार्थ यह है कि ऐसे लोग अपने सीने में अनगिनत गमों को छुपाये रहते हैं। उनके मन की परतों में भारी पीड़ा देने वाले गहरे घाव होते हैं।
आध्यात्मिक चिकित्सक उनके इस दर्द को अपने दिल की गहराइयों में महसूस करते हैं। क्योंकि उन्हें इस सच्चाई का पता है कि यथार्थ में कोई भी बुरा या डरपोक नहीं है। सभी में प्रभु का सनातन अंश है। प्रत्येक व्यक्ति अपने भूल रूप में परम दिव्य होने के साथ साहस और सद्गुणों का भण्डार है। बस हुआ इतना ही है कि किन्हीं कारणों से उसकी अन्तर्चेतना में कुछ गाँठें पड़ गई है, जिसकी वजह से उसकी आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रवाह रुक गया है। यदि ये गाँठें खोल दी जाय तो फिर स्थिति बदल सकती है। हाँ इतना जरूर है कि ये गाँठें बचपन की भी हो सकती हैं और पिछले जीवन की भी। पर यह सौ फीसदी सच है कि व्यक्ति को बुरा या डरपोक बनाने में इन्हीं का प्रभाव काम करता है।
इस सच को अधिक जानने के लिए हमें व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया में प्रवेश करना पड़ेगा। किसी का बचपन उसके व्यक्तित्व का अंकुरण है। इसके बढ़तेक्रम में व्यक्तित्व भी बढ़ता है। इस अवधि में कोई भी घटना का मन- मस्तिष्क पर गहरा असर होता है। अब यदि किसी बच्चे को बार- बार अँधेरे से अथवा कुत्ते से डराय जाय और यदि यह डर गहरा होकर किसी मनोग्रंथि का रूप ले ले तो फिर यह बच्चा मन अपनी पूरी उम्र अँधेरे और कुत्तों से डरता रहेगा। यही स्थिति भावनात्मक आघात के बारे में है। जिन्हें हम बुरे और असामाजिक लोग कहते हैं, उनमें से कोई बुरा और असामाजिक नहीं होता। भावनात्मक प्रतिक्रियाओं से उपजे विरोध के स्वर, उपजी विकृतियाँ उन्हें बुरा बना देती हैं। यदि इन मनोग्रंथियों को खोल दिया जाय तो सब कुछ बदल सकता है।
आध्यात्मिक व्यवहार चिकित्सा में चिकित्सक सबसे पहले उसकी पीड़ा- परेशानी को भली प्रकार समझता है। अपने आत्मीय सम्बन्धों व अन्तर्दृष्टि के द्वारा उसकी मनोग्रन्थि के स्वरूप व स्थिति का आँकलन करता है। इसके बाद किसी उपयुक्त आध्यात्मिक तकनीक के द्वारा उसकी इस जटिल मनोग्रन्थि को खोलता है। इस पूरी प्रक्रिया में सबसे यह जरूरी है कि चिकित्सक के व्यक्तित्व पर रोगी की गहरी आस्था हो। फिर सब कुछ ठीक होने लगता है। उदाहरण के लिए यदि बात किसी अँधेरे भयग्रस्त रोगी की है तो चिकित्सक सब से पहले अँधेरे के यथार्थ से वैचारिक परिचय करायेगा। फिर इसके बारे में और भी अधिक गहराई बतायेगा। बाद में उसे स्वयं लेकर उस अँधेरे स्थान पर ले जायेगा। जहाँ उसे डर लगा करता है। इस पूरी प्रक्रिया में जप या ध्यान की तकनीकों का उपयोग भी हो सकता है, क्योंकि इससे मनोग्रंथियाँ आसानी से खुलती हैं।
यहाँ परम क्रान्तिवीर चन्द्रशेखर आजाद के बचपन चर्चा प्रासंगिक होगी। यूँ तो वह बचपन से साहसी थे। पर कुछ चीजें उन्हें डरा देती थी। इनमें से एक अँधेरा था और एक दर्द। दस- बारह साल की उम्र में उनके यहाँ एक महात्मा आये। यह महात्मा महावीर हनुमान जी के भक्त थे। हनुमान जी की पूजा करना और रामकथा कहना यही उनका काम था। चन्द्रशेखर के गाँव में भी उनकी रामकथा हो रही थी। रामकथा के मर्मिक अंश बालक चन्द्रशेखर को भावविह्वल कर देते थे। तो कुछ प्रसंगों को सुनकर वह रोमाँचित हो जाता। अपनी भावनाओं के उतार- चढ़ावों के बीच बालक चन्द्रशेखर ने सोचा कि ये महात्मा जी जरूर हमारी समस्या का समाधान कर सकते हैं।
और बस उसने अपनी समस्याएँ महात्मा जी को कह सुनायी। उसने कहा- स्वामी जी! मुझे अँधेरे से डर लगता है। महात्मा जी बोले- क्यों बेटा? तो उन्होंने कहा कि अँधेरे में भूत रहते हैं इसलिए। यह सुनकर महात्मा जी बोले- और भी किसी चीज से डरते हो। बालक ने कहा हाँ महाराज- मुझे मार खाने बहुत डर लगता है। उनकी यह सारी बातें सुनकर महात्मा जी ने उन्हें साँझ के समय झुरमुटे में बुलाया। और अपने पास बिठाकर बातें करते रहे। जब रात थोड़ी गाढ़ी हो चली तो वह उन्हें लेकर गाँव के बाहर श्मशान भूमि की ओर ले चले। जहाँ के भूतों के किस्से गाँव के लोग चटखारे लेकर सुनाते थे।
राह चलते हुए महात्मा जी ने उनसे कहा- जानते हो बेटा- भूत कौन होते हैं? बालक ने कहा नहीं महाराज। तो सुनो, वे स्वामी जी बोले- भूत वे होते हैं जिनकी अकाल मृत्यु होती है। जो जिन्दगी से डरकर आत्महत्या कर लेते हैं। जो आदमी अपनी जिन्दगी में डरपोक था वह पूरे जीवन कुछ ढंग का काम न कर सका। वह भला मरने के बाद तुम्हारा क्या बिगाड़ेगा? रही बात मार खाने से डरने की तो शरीर तो वैसे भी एक दिन मरेगा और मन- आत्मा मरने वाले नहीं है। इन बातों को करते हुए वे महात्मा गाँव के बाहर श्मशान भूमि में आ गये। श्मशान भूमि में कहीं कोई डर का कारण न था। इस अनुभव ने बालक चन्द्रशेखर को परम साहसी बना दिया। हाँ यह जरूर है कि महात्मा जी ने उन्हें रामभक्त हनुमान जी की भक्ति सिखायी। महात्मा जी की इस आध्यात्मिक चिकित्सा ने उन्हें इतना साहसी बना दिया कि अंग्रेज सरकार भी उनसे डरने लगती। उन महात्मा जी का यह भी कहना था कि यदि कोई विशिष्ट आध्यात्मिक प्रयोग करने हों तो किसी तपस्थली का चयन करना चाहिए, क्योंकि ये आध्यात्मिक चिकित्सा के केन्द्र होते हैं।
बिगड़े हुए व्यवहार को सभी देखते हैं, पर यह आखिर बिगड़ा क्यों? इसका पता लगाने की जरूरत शायद कोई नहीं करता। जो उद्दण्ड है, उच्छृंखल है, किन्हीं बुरी आदतों का शिकार है और बुरे कामों में लिप्त है, उसे बस बुरा आदमी कहकर छुट्टी पा ली जाती है। यह बुराई उसमें आयी क्यों? इस सवाल का जवाब कोई नहीं तलाशता। बुरी संगत या बुरे कर्मों के अलावा व्यावहारिक गड़बड़ियों के और आयाम भी हैं। उदाहरण के लिए बेवजह भयातुर हो उठना, एकाएक अवसाद से घिर जाना अथवा फिर अचानक दर्द का दौरा पड़ जाना। रोगी जब इन समस्याओं के कारण बताता है, तो या तो उसे डरपोक समझा जाता है, अथवा फिर उसे सिरफिरा कहकर उसकी हँसी उड़ायी जाती है।
ये कारण होते भी अजीब हैं- जैसे कोई प्रौढ़ व्यक्ति कुत्ते की शकल देखकर घबरा जाता है। पूछने पर यही कहता है कि मुझे तो कुत्ते की फोटो भी डरावनी लगती है। सुनने वालो को लगता है कि बच्चे का डर तो समझ में आता है लेकिन यह प्रौढ़ व्यक्ति भला क्यों डरता है? इसी तरह किसी को अँधेरे से डर लगता है तो फिर कोई ऊँची इमारत देखते ही बेहोश हो जाता है। कई तो ऐसे होते हैं जिन्हें भीड़ देखते ही दर्द का दौरा पड़ जाता है। कई बेचारे तम्बाकू- सिगरेट, पान- गुटखा आदि बुरी आदतों के शिकार हैं। ऐसे लोग दुनियाँ में या तो हँसी के पात्र बनते हैं अथवा उनके पल्ले जमाने भर की घृणा, उपेक्षा, तिरस्कार, अवहेलना पड़ती है। कोई भी उनके दर्द को सुनने, बाँटने की कोशिश नहीं करता। जबकि यथार्थ यह है कि ऐसे लोग अपने सीने में अनगिनत गमों को छुपाये रहते हैं। उनके मन की परतों में भारी पीड़ा देने वाले गहरे घाव होते हैं।
आध्यात्मिक चिकित्सक उनके इस दर्द को अपने दिल की गहराइयों में महसूस करते हैं। क्योंकि उन्हें इस सच्चाई का पता है कि यथार्थ में कोई भी बुरा या डरपोक नहीं है। सभी में प्रभु का सनातन अंश है। प्रत्येक व्यक्ति अपने भूल रूप में परम दिव्य होने के साथ साहस और सद्गुणों का भण्डार है। बस हुआ इतना ही है कि किन्हीं कारणों से उसकी अन्तर्चेतना में कुछ गाँठें पड़ गई है, जिसकी वजह से उसकी आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रवाह रुक गया है। यदि ये गाँठें खोल दी जाय तो फिर स्थिति बदल सकती है। हाँ इतना जरूर है कि ये गाँठें बचपन की भी हो सकती हैं और पिछले जीवन की भी। पर यह सौ फीसदी सच है कि व्यक्ति को बुरा या डरपोक बनाने में इन्हीं का प्रभाव काम करता है।
इस सच को अधिक जानने के लिए हमें व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया में प्रवेश करना पड़ेगा। किसी का बचपन उसके व्यक्तित्व का अंकुरण है। इसके बढ़तेक्रम में व्यक्तित्व भी बढ़ता है। इस अवधि में कोई भी घटना का मन- मस्तिष्क पर गहरा असर होता है। अब यदि किसी बच्चे को बार- बार अँधेरे से अथवा कुत्ते से डराय जाय और यदि यह डर गहरा होकर किसी मनोग्रंथि का रूप ले ले तो फिर यह बच्चा मन अपनी पूरी उम्र अँधेरे और कुत्तों से डरता रहेगा। यही स्थिति भावनात्मक आघात के बारे में है। जिन्हें हम बुरे और असामाजिक लोग कहते हैं, उनमें से कोई बुरा और असामाजिक नहीं होता। भावनात्मक प्रतिक्रियाओं से उपजे विरोध के स्वर, उपजी विकृतियाँ उन्हें बुरा बना देती हैं। यदि इन मनोग्रंथियों को खोल दिया जाय तो सब कुछ बदल सकता है।
आध्यात्मिक व्यवहार चिकित्सा में चिकित्सक सबसे पहले उसकी पीड़ा- परेशानी को भली प्रकार समझता है। अपने आत्मीय सम्बन्धों व अन्तर्दृष्टि के द्वारा उसकी मनोग्रन्थि के स्वरूप व स्थिति का आँकलन करता है। इसके बाद किसी उपयुक्त आध्यात्मिक तकनीक के द्वारा उसकी इस जटिल मनोग्रन्थि को खोलता है। इस पूरी प्रक्रिया में सबसे यह जरूरी है कि चिकित्सक के व्यक्तित्व पर रोगी की गहरी आस्था हो। फिर सब कुछ ठीक होने लगता है। उदाहरण के लिए यदि बात किसी अँधेरे भयग्रस्त रोगी की है तो चिकित्सक सब से पहले अँधेरे के यथार्थ से वैचारिक परिचय करायेगा। फिर इसके बारे में और भी अधिक गहराई बतायेगा। बाद में उसे स्वयं लेकर उस अँधेरे स्थान पर ले जायेगा। जहाँ उसे डर लगा करता है। इस पूरी प्रक्रिया में जप या ध्यान की तकनीकों का उपयोग भी हो सकता है, क्योंकि इससे मनोग्रंथियाँ आसानी से खुलती हैं।
यहाँ परम क्रान्तिवीर चन्द्रशेखर आजाद के बचपन चर्चा प्रासंगिक होगी। यूँ तो वह बचपन से साहसी थे। पर कुछ चीजें उन्हें डरा देती थी। इनमें से एक अँधेरा था और एक दर्द। दस- बारह साल की उम्र में उनके यहाँ एक महात्मा आये। यह महात्मा महावीर हनुमान जी के भक्त थे। हनुमान जी की पूजा करना और रामकथा कहना यही उनका काम था। चन्द्रशेखर के गाँव में भी उनकी रामकथा हो रही थी। रामकथा के मर्मिक अंश बालक चन्द्रशेखर को भावविह्वल कर देते थे। तो कुछ प्रसंगों को सुनकर वह रोमाँचित हो जाता। अपनी भावनाओं के उतार- चढ़ावों के बीच बालक चन्द्रशेखर ने सोचा कि ये महात्मा जी जरूर हमारी समस्या का समाधान कर सकते हैं।
और बस उसने अपनी समस्याएँ महात्मा जी को कह सुनायी। उसने कहा- स्वामी जी! मुझे अँधेरे से डर लगता है। महात्मा जी बोले- क्यों बेटा? तो उन्होंने कहा कि अँधेरे में भूत रहते हैं इसलिए। यह सुनकर महात्मा जी बोले- और भी किसी चीज से डरते हो। बालक ने कहा हाँ महाराज- मुझे मार खाने बहुत डर लगता है। उनकी यह सारी बातें सुनकर महात्मा जी ने उन्हें साँझ के समय झुरमुटे में बुलाया। और अपने पास बिठाकर बातें करते रहे। जब रात थोड़ी गाढ़ी हो चली तो वह उन्हें लेकर गाँव के बाहर श्मशान भूमि की ओर ले चले। जहाँ के भूतों के किस्से गाँव के लोग चटखारे लेकर सुनाते थे।
राह चलते हुए महात्मा जी ने उनसे कहा- जानते हो बेटा- भूत कौन होते हैं? बालक ने कहा नहीं महाराज। तो सुनो, वे स्वामी जी बोले- भूत वे होते हैं जिनकी अकाल मृत्यु होती है। जो जिन्दगी से डरकर आत्महत्या कर लेते हैं। जो आदमी अपनी जिन्दगी में डरपोक था वह पूरे जीवन कुछ ढंग का काम न कर सका। वह भला मरने के बाद तुम्हारा क्या बिगाड़ेगा? रही बात मार खाने से डरने की तो शरीर तो वैसे भी एक दिन मरेगा और मन- आत्मा मरने वाले नहीं है। इन बातों को करते हुए वे महात्मा गाँव के बाहर श्मशान भूमि में आ गये। श्मशान भूमि में कहीं कोई डर का कारण न था। इस अनुभव ने बालक चन्द्रशेखर को परम साहसी बना दिया। हाँ यह जरूर है कि महात्मा जी ने उन्हें रामभक्त हनुमान जी की भक्ति सिखायी। महात्मा जी की इस आध्यात्मिक चिकित्सा ने उन्हें इतना साहसी बना दिया कि अंग्रेज सरकार भी उनसे डरने लगती। उन महात्मा जी का यह भी कहना था कि यदि कोई विशिष्ट आध्यात्मिक प्रयोग करने हों तो किसी तपस्थली का चयन करना चाहिए, क्योंकि ये आध्यात्मिक चिकित्सा के केन्द्र होते हैं।