
मंत्रविद्या असम्भव को सम्भव बनाती हैं
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मंत्र चिकित्सा अध्यात्म विद्या का महत्त्वपूर्ण आयाम है। इसके द्वारा असाध्य रोगों को ठीक किया जा सकता है। कठिनतम परिस्थितियों पर विजय पायी जा सकती है। व्यक्तित्व की कैसी भी विकृतियाँ व अवरोध दूर किये जा सकते हैं। अनुभव कहता है कि मंत्र विद्या से असम्भव- सम्भव बनता है, असाध्य सहज साध्य होता है। जो इस विद्या के सिद्धान्त एवं प्रयोगों से परिचित हैं वे प्रकृति की शक्तियों को मनोनुकूल मोड़ने में समर्थ होते हैं। प्रारब्ध उनके वशवर्ती होता है। जीवन की कर्मधाराएँ उनकी इच्छित दिशा में मुड़ने और प्रवाहित होने के लिए विवश होती हैं। इन पंक्तियों को पाठक अतिशयोक्ति समझने की भूल न करें। बल्कि इसे विशिष्ट साधकों की कठिन साधना का सार निष्कर्ष मानें।
मंत्र है क्या? तो इसके उत्तर में कहेंगे- ‘मननात् त्रायते इति मंत्रः’ जिसके मनन से त्राण मिले। यह अक्षरों का ऐसा दुर्लभ एवं विशिष्ट संयोग है, जो चेतना जगत् को आन्दोलित, आलोड़ित एवं उद्वेलित करने में सक्षम होता है। कई बार बुद्धिशील व्यक्ति मंत्र को पवित्र विचार के रूप मं परिभाषित करते हैं। उनका ऐसा कहना- मानना गलत नहीं है। उदाहरण के लिए गायत्री महामंत्र सृष्टि का सबसे पवित्र विचार है। इसमें परमात्मा से सभी के लिए सद्बुद्धि एवं सन्मार्ग की प्रार्थना की गयी है। लेकिन इसके बावजूद इस परिभाषा की सीमाएँ सँकरी हैं। इसमें मंत्र के सभी आयाम नहीं समा सकते। मंत्र का कोई अर्थ हो भी सकता है और नहीं भी। यह एक पवित्र विचार हो भी सकता है और नहीं भी। कई बार इसके अक्षरों का संयोजन इस रीति से होता है कि उससे कोई अर्थ प्रकट होता है और कई बार यह संयोजन इतना अटपटा होता है कि इसका कोई अर्थ नहीं खोजा जा सकता।
दरअसल मंत्र की संरचना किसी विशेष अर्थ या विचार को ध्यान में रख कर की नहीं जाती। इसका तो एक ही मतलब है- ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की किसी विशेष धारा से सम्पर्क, आकर्षण, धारण और उसके सार्थक नियोजन की विधि का विकास है। मंत्र कोई भी हो वैदिक अथवा पौराणिक या फिर तांत्रिक इसी विधि के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इस क्रम में यह भी ध्यान रखने की बात है कि मंत्र की संरचना या निर्माण कोई बौद्धिक क्रियाकलाप नहीं है। कोई भी व्यक्ति भले ही कितना भी प्रतिभावान् या बुद्धिमान क्यों न हो, वह मंत्रों की संरचना नहीं कर सकता। यह तो तप साधना के शिखर पर पहुँचे सूक्ष्म दृष्टाओं व दिव्यदर्शियों का काम है।
ये महासाधक अपनी साधना के माध्यम से ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की विभिन्न व विशिष्ट धाराओं को देखते हैं। इनकी अधिष्ठातृ शक्तियाँ जिन्हें देवी या देवता कहा जाता है, उन्हें प्रत्यक्ष करते हैं। इस प्रत्यक्ष के प्रतिबिम्ब के रूप में मंत्र का संयोजन उनकी भावचेतना में प्रकट होता है। इसे ऊर्जाधारा या देवशक्ति का शब्द रूप भी कह सकते हैं। मंत्र विद्या में इसे देव शक्ति का मूल मंत्र कहते हैं। इस देवशक्ति के ऊर्जा अंश के किस आयाम को और किस प्रयोजन के लिए ग्रहण- धारण करना है उसी के अनुरूप इस देवता के अन्य मंत्रों का विकास होता है। यही कारण है कि एक देवता या देवी के अनेकों मंत्र होते हैं। यथार्थ में इनमें से प्रत्येक मंत्र अपने विशिष्ट प्रयोजन को सिद्ध व सार्थक करने में समर्थ होते हैं।
प्रक्रिया की दृष्टि से तो मंत्र की कार्यशैली अद्भुत है। इसकी साधना का एक विशिष्ट क्रम पूरा होते ही यह साधक की चेतना का सम्पर्क ब्रह्माण्ड की विशिष्ट ऊर्जा धारा या देवशक्ति से कर देता है। यह इसके कार्य का एक आयाम है। इसके दूसरे आयाम के रूप में यह साथ ही साथ साधक के अस्तित्व या व्यक्तित्व को उस विशिष्ट ऊर्जाधारा अथवा देव शक्ति के लिए ग्रहणशील बनाता है। इसके लिए मंत्र साधना द्वारा साधक के कतिपय गुह्य केन्द्र जागृत हो जाते हैं। ऐसा होने पर ही वह सूक्ष्म शक्तियों को ग्रहण करने- धारण करने एवं उनका नियोजन करने में समर्थ होता है। ऐसा होने पर ही कहा जाता है कि मंत्र सिद्ध हो गया।
यह मंत्र सिद्धि केवल मंत्र को रटने या दुहराने भर से नहीं मिलती। और यही वजह है कि सालों- साल किसी मंत्र की साधना करने वालों को बुरी तरह से निराश होना पड़ता है। पहले तो उनको कोई फल ही नहीं मिलता और यदि किसी तरह कुछ मिला भी तो वह काफी नगण्य व आधा- अधूरा सा होता है। इस स्थिति के लिए दोष मंत्र का नहीं, स्वयं साधक का है। ध्यान रहे किसी मंत्र की साधना में साधक को मंत्र की प्रकृति के अनुसार अपने जीवन की प्रकृति बनानी पड़ती है। मंत्र साधना के विधि- विधान के सम्यक् निर्वाह के साथ उसे अपने खानपान, वेश- विन्यास, आचरण- व्यवहार देवता या देवी की प्रकृति के अनुसार ढालना पड़ता है। उदाहरण के लिए कहीं तो श्वेत वस्त्र, श्वेत खानपान आवश्यक होते हैं, तो कहीं यह रंग पीला हो जाता है। आचरण- व्यवहार में भी पवित्रता का सम्यक् समावेश जरूरी है।
यदि सब कुछ सही रीति से निभाया जाय तो मंत्र का सिद्ध होना अनिवार्य है। मंत्र सिद्ध होने का मतलब है कि मंत्र की शक्तियों का साधक की चेतना में क्रियाशील हो जाना। यह स्थिति कुछ इसी तरह से है जैसे कि कोई श्रमशील किसान किसी महानदी से पर्याप्त बड़ी नहर खोदकर उसका पानी अपने खेतों तक ले आये। जेसे नदी से नहर आने पर किसान के समूचे क्षेत्र में जलधाराएँ उफनती- उमड़ती रहती हैं। उसी तरह से मंत्र सिद्ध होने पर देव शक्ति का ऊर्जा प्रवाह हर पल- हर क्षण साधक की अन्तर्चेतना में उफनता- उमड़ता रहता है। इसका वह मनचाहे ढंग से अपने संकल्प के अनुसार नियोजन कर सकता है। मंत्र की शक्ति व प्रकृति के अनुसार वह असाध्य बीमारियों को ठीक कर सकता है।
पश्चिम बंगाल के स्वामी निगमानन्द ऐसे ही मंत्र सिद्ध महात्मा थे। उन्होंने अनेकों मंत्रों- महामंत्रों को सिद्ध किया था। उनकी वाणी, संकल्प, दृष्टि व स्पर्श सभी कुछ चमत्कारी थे। मरणासन्न रोगी उनके संकल्प मात्र से ठीक हो जाते थे। एक बार ये महात्मा सुमेरपुकुर नामके गाँव में गये। साँझ हो चुकी थी, आसमान से अँधियारा झरने लगा था। गाँव के जिस छोर पर वह पहुँचे वहाँ सन्नाटा था। आसपास से गुजरने वाले उदास और मायूस थे। पूछने पर पता चला कि गाँव के सबसे बड़े महाजन ईश्वरधर का सुपुत्र महेन्द्रलाल महीनों से बीमार है। आज तो उसकी स्थिति कुछ ऐसी है कि रात कटना भी मुश्किल है। गाँव के वृद्ध कविराज ने सारी आशाएँ छोड़ दी हैं।
इस सूचना के मिलने पर वह ईश्वरधर के घर गये। घरवालों ने एक संन्यासी को देखकर यह सोचा कि ये भोजन व आश्रय के लिए आये हैं। उन्होंने कहा- महाराज आप हमें क्षमा करें, आज हम आप की सेवा करने में असमर्थ हैं। उनकी ये बातें सुनकर निगमानन्द ने कहा- आप सब चिंता न करें। हम आपके यहाँ सेवा लेने नहीं, बल्कि सेवा देने आये हैं। निगमानन्द की बातों का घर वाले विश्वास तो न कर पाये, किन्तु फिर भी उन्होंने उनकी इच्छा के अनुसार आसन, जलपात्र, पुष्प, धूप आदि लाकर रख दिये। निगमानन्द ने मरणासन्न रोगी के पास आसन बिछाया, धूप जलाई और पवित्रीकरण के साथ आँख बन्द करके बैठ गये। घर के लोगों ने देखा कि उनके होंठ धीरे- धीरे हिल रहे हैं।
थोड़ी देर बाद मरणासन्न महेन्द्रलाल ने आँखें खोल दी। कुछ देर और बीतने पर उसके चेहरे का रंग बदलने लगा। आधा- पौन घण्टे में तो वह उठकर अपने बिछौने पर बैठ गया। और उसने पानी माँग कर पिया। उस रात उसे अच्छी नींद आयी। दूसरे दिन उसने अपनी पसन्द का खाना खाया। इस अनोखे चमत्कार पर सभी चकित थे। गाँव के वृद्ध वैद्य ने पूछा- यह किस औषधि से हो सका। निगमानन्द बोले- वैद्यराज यह औषधि प्रभाव से नहीं मंत्र के प्रभाव से हुआ है। यह जगन्माता के मंत्र का असर है। जब औषधियाँ विफल हो जाती हैं। सारे लौकिक उपाय असफल हो जाते हैं, तब एक मंत्र ही है जो मरणासन्न में जीवन डालता है। मंत्र चिकित्सा कभी भी विफल नहीं होती है। हाँ इसके साथ तप के प्रयोग जुड़े होने चाहिए।
मंत्र है क्या? तो इसके उत्तर में कहेंगे- ‘मननात् त्रायते इति मंत्रः’ जिसके मनन से त्राण मिले। यह अक्षरों का ऐसा दुर्लभ एवं विशिष्ट संयोग है, जो चेतना जगत् को आन्दोलित, आलोड़ित एवं उद्वेलित करने में सक्षम होता है। कई बार बुद्धिशील व्यक्ति मंत्र को पवित्र विचार के रूप मं परिभाषित करते हैं। उनका ऐसा कहना- मानना गलत नहीं है। उदाहरण के लिए गायत्री महामंत्र सृष्टि का सबसे पवित्र विचार है। इसमें परमात्मा से सभी के लिए सद्बुद्धि एवं सन्मार्ग की प्रार्थना की गयी है। लेकिन इसके बावजूद इस परिभाषा की सीमाएँ सँकरी हैं। इसमें मंत्र के सभी आयाम नहीं समा सकते। मंत्र का कोई अर्थ हो भी सकता है और नहीं भी। यह एक पवित्र विचार हो भी सकता है और नहीं भी। कई बार इसके अक्षरों का संयोजन इस रीति से होता है कि उससे कोई अर्थ प्रकट होता है और कई बार यह संयोजन इतना अटपटा होता है कि इसका कोई अर्थ नहीं खोजा जा सकता।
दरअसल मंत्र की संरचना किसी विशेष अर्थ या विचार को ध्यान में रख कर की नहीं जाती। इसका तो एक ही मतलब है- ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की किसी विशेष धारा से सम्पर्क, आकर्षण, धारण और उसके सार्थक नियोजन की विधि का विकास है। मंत्र कोई भी हो वैदिक अथवा पौराणिक या फिर तांत्रिक इसी विधि के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इस क्रम में यह भी ध्यान रखने की बात है कि मंत्र की संरचना या निर्माण कोई बौद्धिक क्रियाकलाप नहीं है। कोई भी व्यक्ति भले ही कितना भी प्रतिभावान् या बुद्धिमान क्यों न हो, वह मंत्रों की संरचना नहीं कर सकता। यह तो तप साधना के शिखर पर पहुँचे सूक्ष्म दृष्टाओं व दिव्यदर्शियों का काम है।
ये महासाधक अपनी साधना के माध्यम से ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की विभिन्न व विशिष्ट धाराओं को देखते हैं। इनकी अधिष्ठातृ शक्तियाँ जिन्हें देवी या देवता कहा जाता है, उन्हें प्रत्यक्ष करते हैं। इस प्रत्यक्ष के प्रतिबिम्ब के रूप में मंत्र का संयोजन उनकी भावचेतना में प्रकट होता है। इसे ऊर्जाधारा या देवशक्ति का शब्द रूप भी कह सकते हैं। मंत्र विद्या में इसे देव शक्ति का मूल मंत्र कहते हैं। इस देवशक्ति के ऊर्जा अंश के किस आयाम को और किस प्रयोजन के लिए ग्रहण- धारण करना है उसी के अनुरूप इस देवता के अन्य मंत्रों का विकास होता है। यही कारण है कि एक देवता या देवी के अनेकों मंत्र होते हैं। यथार्थ में इनमें से प्रत्येक मंत्र अपने विशिष्ट प्रयोजन को सिद्ध व सार्थक करने में समर्थ होते हैं।
प्रक्रिया की दृष्टि से तो मंत्र की कार्यशैली अद्भुत है। इसकी साधना का एक विशिष्ट क्रम पूरा होते ही यह साधक की चेतना का सम्पर्क ब्रह्माण्ड की विशिष्ट ऊर्जा धारा या देवशक्ति से कर देता है। यह इसके कार्य का एक आयाम है। इसके दूसरे आयाम के रूप में यह साथ ही साथ साधक के अस्तित्व या व्यक्तित्व को उस विशिष्ट ऊर्जाधारा अथवा देव शक्ति के लिए ग्रहणशील बनाता है। इसके लिए मंत्र साधना द्वारा साधक के कतिपय गुह्य केन्द्र जागृत हो जाते हैं। ऐसा होने पर ही वह सूक्ष्म शक्तियों को ग्रहण करने- धारण करने एवं उनका नियोजन करने में समर्थ होता है। ऐसा होने पर ही कहा जाता है कि मंत्र सिद्ध हो गया।
यह मंत्र सिद्धि केवल मंत्र को रटने या दुहराने भर से नहीं मिलती। और यही वजह है कि सालों- साल किसी मंत्र की साधना करने वालों को बुरी तरह से निराश होना पड़ता है। पहले तो उनको कोई फल ही नहीं मिलता और यदि किसी तरह कुछ मिला भी तो वह काफी नगण्य व आधा- अधूरा सा होता है। इस स्थिति के लिए दोष मंत्र का नहीं, स्वयं साधक का है। ध्यान रहे किसी मंत्र की साधना में साधक को मंत्र की प्रकृति के अनुसार अपने जीवन की प्रकृति बनानी पड़ती है। मंत्र साधना के विधि- विधान के सम्यक् निर्वाह के साथ उसे अपने खानपान, वेश- विन्यास, आचरण- व्यवहार देवता या देवी की प्रकृति के अनुसार ढालना पड़ता है। उदाहरण के लिए कहीं तो श्वेत वस्त्र, श्वेत खानपान आवश्यक होते हैं, तो कहीं यह रंग पीला हो जाता है। आचरण- व्यवहार में भी पवित्रता का सम्यक् समावेश जरूरी है।
यदि सब कुछ सही रीति से निभाया जाय तो मंत्र का सिद्ध होना अनिवार्य है। मंत्र सिद्ध होने का मतलब है कि मंत्र की शक्तियों का साधक की चेतना में क्रियाशील हो जाना। यह स्थिति कुछ इसी तरह से है जैसे कि कोई श्रमशील किसान किसी महानदी से पर्याप्त बड़ी नहर खोदकर उसका पानी अपने खेतों तक ले आये। जेसे नदी से नहर आने पर किसान के समूचे क्षेत्र में जलधाराएँ उफनती- उमड़ती रहती हैं। उसी तरह से मंत्र सिद्ध होने पर देव शक्ति का ऊर्जा प्रवाह हर पल- हर क्षण साधक की अन्तर्चेतना में उफनता- उमड़ता रहता है। इसका वह मनचाहे ढंग से अपने संकल्प के अनुसार नियोजन कर सकता है। मंत्र की शक्ति व प्रकृति के अनुसार वह असाध्य बीमारियों को ठीक कर सकता है।
पश्चिम बंगाल के स्वामी निगमानन्द ऐसे ही मंत्र सिद्ध महात्मा थे। उन्होंने अनेकों मंत्रों- महामंत्रों को सिद्ध किया था। उनकी वाणी, संकल्प, दृष्टि व स्पर्श सभी कुछ चमत्कारी थे। मरणासन्न रोगी उनके संकल्प मात्र से ठीक हो जाते थे। एक बार ये महात्मा सुमेरपुकुर नामके गाँव में गये। साँझ हो चुकी थी, आसमान से अँधियारा झरने लगा था। गाँव के जिस छोर पर वह पहुँचे वहाँ सन्नाटा था। आसपास से गुजरने वाले उदास और मायूस थे। पूछने पर पता चला कि गाँव के सबसे बड़े महाजन ईश्वरधर का सुपुत्र महेन्द्रलाल महीनों से बीमार है। आज तो उसकी स्थिति कुछ ऐसी है कि रात कटना भी मुश्किल है। गाँव के वृद्ध कविराज ने सारी आशाएँ छोड़ दी हैं।
इस सूचना के मिलने पर वह ईश्वरधर के घर गये। घरवालों ने एक संन्यासी को देखकर यह सोचा कि ये भोजन व आश्रय के लिए आये हैं। उन्होंने कहा- महाराज आप हमें क्षमा करें, आज हम आप की सेवा करने में असमर्थ हैं। उनकी ये बातें सुनकर निगमानन्द ने कहा- आप सब चिंता न करें। हम आपके यहाँ सेवा लेने नहीं, बल्कि सेवा देने आये हैं। निगमानन्द की बातों का घर वाले विश्वास तो न कर पाये, किन्तु फिर भी उन्होंने उनकी इच्छा के अनुसार आसन, जलपात्र, पुष्प, धूप आदि लाकर रख दिये। निगमानन्द ने मरणासन्न रोगी के पास आसन बिछाया, धूप जलाई और पवित्रीकरण के साथ आँख बन्द करके बैठ गये। घर के लोगों ने देखा कि उनके होंठ धीरे- धीरे हिल रहे हैं।
थोड़ी देर बाद मरणासन्न महेन्द्रलाल ने आँखें खोल दी। कुछ देर और बीतने पर उसके चेहरे का रंग बदलने लगा। आधा- पौन घण्टे में तो वह उठकर अपने बिछौने पर बैठ गया। और उसने पानी माँग कर पिया। उस रात उसे अच्छी नींद आयी। दूसरे दिन उसने अपनी पसन्द का खाना खाया। इस अनोखे चमत्कार पर सभी चकित थे। गाँव के वृद्ध वैद्य ने पूछा- यह किस औषधि से हो सका। निगमानन्द बोले- वैद्यराज यह औषधि प्रभाव से नहीं मंत्र के प्रभाव से हुआ है। यह जगन्माता के मंत्र का असर है। जब औषधियाँ विफल हो जाती हैं। सारे लौकिक उपाय असफल हो जाते हैं, तब एक मंत्र ही है जो मरणासन्न में जीवन डालता है। मंत्र चिकित्सा कभी भी विफल नहीं होती है। हाँ इसके साथ तप के प्रयोग जुड़े होने चाहिए।