
सद्गुरु की कृपा से तरते हैं भवरोग
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यामि गुरुं शरणं भववैद्यम्- जीवन के सभी सांसारिक रोगों के आध्यात्मिक चिकित्सक वही सद्गुरु मेरे आश्रय हैं। जीवन की प्रकृति, समय और परिस्थितियों के विपरीत होने से कई बार प्रदूषित होती है। उसमें विकृति एवं विकार पनपते हैं। कई तरह के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक रोग उसे घेर लेते हैं। सामान्य चिकित्सक न तो इनकी तह तक पहुँच पाते हैं और न इनका समाधान कर पाते हैं। वजह एक ही है कि इनका समाधान सामान्य औषधियाँ नहीं बल्कि उपयुक्त जीवन साधना है। जिसे केवल समर्थ आध्यात्मिक चिकित्सक ही बता सकता है। संक्षेप में कहें तो सद्गुरु के स्वरों में ही समाधान के सूत्र होते हैं।
सवाल पूछा जा सकता है कि सद्गुरु कौन? तो इस महाप्रश्र का सरल उत्तर यह है कि सद्गुरु वे हैं जो मनुष्य जीवन के दृश्य एवं अदृश्य सभी आयामों के मर्मज्ञ होते हैं। मानवीय चेतना की सम्पूर्णता का उन्हें विशेषज्ञ अनुभव होता है। वे हमारे वर्तमान को जानने की जितनी गहन क्षमता रखते हैं, अतीत के बारे में भी वे उतनी ही जानकारी रखते हैं। साथ ही उन्हें हमारे भविष्य का पारदर्शी ज्ञान होता है। शरीर की कार्यक्षमता, मन की विचार शैली, चित्त में समाये जन्म- जन्मान्तर के कर्म संस्कार, अहंकार की उलझी गाँठें, सद्गुरु इन सभी के बारे में बखूबी जानते हैं। उनमें इनके परिमार्जन, परिष्कार की अपूर्व क्षमता होती है। यही कारण है कि सद्गुरु का मिलन हमारे महासौभाग्य का सूचक है। यह इस सत्य का उद्घोष है कि हमारे जीवन की सम्पूर्ण आध्यात्मिक चिकित्सा की शुभ घड़ी आ गयी।
जिन्हें यह अवसर मिला है, उनकी अनुभूति में हम इस सच्चाई का अहसास पा सकते हैं। जिन पलों में इस अनुभूति को घटित होने का क्रम प्रारम्भ हुआ, उन दिनों हमारे अपने सद्गुरु गायत्री तपोभूमि- मथुरा को केन्द्र बनाकर अपनी योजना को आकार दे रहे थे। यह १९५५ का वर्ष था। तपोभूमि में विशिष्ट यज्ञों की शृंखला चल रही थी। इसमें १. चारों वेदों का पारायण यज्ञ, २. महामृत्युञ्जय यज्ञ, ३. रुद्र यज्ञ, ४. विष्णु यज्ञ, ५. शतचण्डी यज्ञ, ६. नवग्रह यज्ञ ,, ७. गणपति यज्ञ, ८. सरस्वती यज्ञ, ९. ज्योतिष्टोम, १०. अग्रिष्टोम आदि अनेक यज्ञों की प्रक्रियाएँ शामिल थीं।
कर्मकाण्ड के महान् विद्वानों का विशिष्ट सम्मेलन था यह। मंत्रविद्या के अनेकों महारथी पधारे थे। कर्मकाण्ड के स्थूल प्रयोग सूक्ष्म को किस तरह प्रभावित करते हैं? किस विधि जीवन चेतना रूपान्तरित होती है? मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियों के जागरण के प्रयोग सफल कैसे हों? आदि अनेक गम्भीर प्रश्रों पर चर्चा चल रही थी। परम पूज्य गुरुदेव इस चर्चा को मौन भाव से सुन रहे थे। सुनते- सुनते जहाँ कहीं आवश्यक होता, वहाँ वह अपनी अनुभूति का स्वर जोड़ देते। उनकी मौलिकता से इस विशद् चर्चा में नवप्राणों का संचार हो जाता।
चर्चा के इस क्रम में बड़ा विचित्र व्याघात हुआ। सभी की दृष्टि उन रोते- कलपते प्रौढ़ दम्पति की ओर गयी, जो अपने किशोर पुत्र को लेकर आए थे। उनका यह किशोर बालक कई जीर्ण बीमारियों से पीड़ित था। लगभग असहाय एवं अपाहिज स्थिति थी उसकी। निस्तेज मुख, बुझी हुई आँखें, कृशकाय, लड़खड़ाते कदम। बस जैसे उसके मां- पिता ने उसे लाकर गुरुदेव के पाँवों में डाल दिया। आप ही बचा सकते हैं- मेरे बेटे को। यही एक रट थी उन दोनों की। गुरुदेव ने बड़ी आत्मीयता से उनकी बातें सुनी। फिर उन्हें थोड़ा समझाया- बुझाया और उनके ठहरने की उचित व्यवस्था कर दी।
क्या होगा इस असाध्य रोग से घिरे किशोर का? उपस्थित सभी महान् विद्वानों को जिज्ञासा थी। किस विधि से आचार्य श्री चिकित्सा करेंगे इसकी? ऐसे अनेक प्रश्र उन सभी के मन में उभर रहे थे। उधर परम पूज्य गुरुदेव पूर्णतया आश्वस्त थे। जैसे उन्होंने उसकी चिकित्सा पद्धति खोज ली हो। वह सहज ही उपस्थित जनों को उनकी अनुत्तरित जिज्ञासाओं के साथ छोड़कर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए। दिन के यज्ञीय कार्यक्रम, विद्वानों की चर्चाएँ एवं आने वाले परिजन- आगन्तुकों से भेंट, सब कुछ चलता रहा। पर कहीं अपने मन के किसी कोने में सभी को अगले दिन की प्रतीक्षा थी।
अगले दिन प्रातः अरूणोदय के साथ ही वेदमंत्रों के स्वर गूंजने लगे। स्वाहा के घोष के साथ सविधि यज्ञीय आहुतियाँ यज्ञकुण्डों में पड़ने लगीं। भगवान् जातवेदस् अपने प्रखर तेज के साथ भुवन भास्कर को चुनौती सी दे रहे थे। इतने में सभी ने देखा कि कल आया हुआ वह किशोर बालक अपने पाँवों से चलकर अपने माता- पिता के साथ आ रहा है। एक रात्रि में यह अपूर्व चमत्कार। सभी अचरज में थे। उनके इस अचरज को और अधिक करते हुए उस किशोर वय के बालक ने कहा, आप मुझे शिष्य के रूप में अपना लीजिए गुरुदेव।
गुरुदेव ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- बेटा, तुम मेरे अपने हो। तुम हमेशा से मेरी आत्मा के अभिन्न अंश हो। परेशान न हो सब ठीक हो जाएगा। पर किस तरह आचार्य जी, एक विद्वान ने पूछ ही लिया। उत्तर में गुरुदेव उनसे बोले- मिश्र जी, बीमारियाँ दो तरह की होती हैं,
१. असंयम से उपजी,
२. प्रारब्ध से प्रेरित।
यह बालक रामनारायण प्रारब्ध से प्रेरित बीमारियों की जकड़ में है। जब तक यह अपने प्रारब्ध से ग्रसित रहेगा, इसे कोई औषधि फायदा नहीं करेगी। सा इसकी एक मात्र चिकित्सा अध्यात्म है। हाँ औषधियाँ, शरीर के तल पर इसमें सहयोगी साबित हो सकती हैं।
यह कहते हुए गुरुदेव उस बालक के माँ- पिता की ओर मुड़े और उनसे बोले, आप चिन्ता न करें। आपका बेटा रामनारायण आज से मेरा बेटा है। आपने इसके शरीर को जन्म दिया है। मैं इसकी जीवात्मा को नया जन्म दूँगा। उसे पूर्वकृत दुष्कर्मों के प्रभाव से मुक्त करूँगा। गुरुदेव की बातों ने माता- पिता को आश्वस्ति दी। वैसे भी वे एक रात्रि में काफी कुछ परिवर्तन देख चुके थे। गुरुदेव के तप के अंश को पाकर कुछ ही महीनों में न केवल उस किशोर रामनारायण के न केवल शारीरिक रोग दूर हुए, बल्कि उसकी मानसिक चेतना भी निखरी। उसकी बौद्धिक शक्तियों का भारी विकास हुआ। यही नहीं रुचियाँ- प्रवृत्तियाँ भी परिष्कृत हुईं। उसमें गायत्री साधना के प्रति भारी अनुराग जाग पड़ा। उसमें ये सारे परिवर्तन सद्गुरु की कृपा से आए। वही सद्गुरु जो मानवीय जीवन के आध्यात्मिक रहस्यों के मर्मज्ञ थे।
सवाल पूछा जा सकता है कि सद्गुरु कौन? तो इस महाप्रश्र का सरल उत्तर यह है कि सद्गुरु वे हैं जो मनुष्य जीवन के दृश्य एवं अदृश्य सभी आयामों के मर्मज्ञ होते हैं। मानवीय चेतना की सम्पूर्णता का उन्हें विशेषज्ञ अनुभव होता है। वे हमारे वर्तमान को जानने की जितनी गहन क्षमता रखते हैं, अतीत के बारे में भी वे उतनी ही जानकारी रखते हैं। साथ ही उन्हें हमारे भविष्य का पारदर्शी ज्ञान होता है। शरीर की कार्यक्षमता, मन की विचार शैली, चित्त में समाये जन्म- जन्मान्तर के कर्म संस्कार, अहंकार की उलझी गाँठें, सद्गुरु इन सभी के बारे में बखूबी जानते हैं। उनमें इनके परिमार्जन, परिष्कार की अपूर्व क्षमता होती है। यही कारण है कि सद्गुरु का मिलन हमारे महासौभाग्य का सूचक है। यह इस सत्य का उद्घोष है कि हमारे जीवन की सम्पूर्ण आध्यात्मिक चिकित्सा की शुभ घड़ी आ गयी।
जिन्हें यह अवसर मिला है, उनकी अनुभूति में हम इस सच्चाई का अहसास पा सकते हैं। जिन पलों में इस अनुभूति को घटित होने का क्रम प्रारम्भ हुआ, उन दिनों हमारे अपने सद्गुरु गायत्री तपोभूमि- मथुरा को केन्द्र बनाकर अपनी योजना को आकार दे रहे थे। यह १९५५ का वर्ष था। तपोभूमि में विशिष्ट यज्ञों की शृंखला चल रही थी। इसमें १. चारों वेदों का पारायण यज्ञ, २. महामृत्युञ्जय यज्ञ, ३. रुद्र यज्ञ, ४. विष्णु यज्ञ, ५. शतचण्डी यज्ञ, ६. नवग्रह यज्ञ ,, ७. गणपति यज्ञ, ८. सरस्वती यज्ञ, ९. ज्योतिष्टोम, १०. अग्रिष्टोम आदि अनेक यज्ञों की प्रक्रियाएँ शामिल थीं।
कर्मकाण्ड के महान् विद्वानों का विशिष्ट सम्मेलन था यह। मंत्रविद्या के अनेकों महारथी पधारे थे। कर्मकाण्ड के स्थूल प्रयोग सूक्ष्म को किस तरह प्रभावित करते हैं? किस विधि जीवन चेतना रूपान्तरित होती है? मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियों के जागरण के प्रयोग सफल कैसे हों? आदि अनेक गम्भीर प्रश्रों पर चर्चा चल रही थी। परम पूज्य गुरुदेव इस चर्चा को मौन भाव से सुन रहे थे। सुनते- सुनते जहाँ कहीं आवश्यक होता, वहाँ वह अपनी अनुभूति का स्वर जोड़ देते। उनकी मौलिकता से इस विशद् चर्चा में नवप्राणों का संचार हो जाता।
चर्चा के इस क्रम में बड़ा विचित्र व्याघात हुआ। सभी की दृष्टि उन रोते- कलपते प्रौढ़ दम्पति की ओर गयी, जो अपने किशोर पुत्र को लेकर आए थे। उनका यह किशोर बालक कई जीर्ण बीमारियों से पीड़ित था। लगभग असहाय एवं अपाहिज स्थिति थी उसकी। निस्तेज मुख, बुझी हुई आँखें, कृशकाय, लड़खड़ाते कदम। बस जैसे उसके मां- पिता ने उसे लाकर गुरुदेव के पाँवों में डाल दिया। आप ही बचा सकते हैं- मेरे बेटे को। यही एक रट थी उन दोनों की। गुरुदेव ने बड़ी आत्मीयता से उनकी बातें सुनी। फिर उन्हें थोड़ा समझाया- बुझाया और उनके ठहरने की उचित व्यवस्था कर दी।
क्या होगा इस असाध्य रोग से घिरे किशोर का? उपस्थित सभी महान् विद्वानों को जिज्ञासा थी। किस विधि से आचार्य श्री चिकित्सा करेंगे इसकी? ऐसे अनेक प्रश्र उन सभी के मन में उभर रहे थे। उधर परम पूज्य गुरुदेव पूर्णतया आश्वस्त थे। जैसे उन्होंने उसकी चिकित्सा पद्धति खोज ली हो। वह सहज ही उपस्थित जनों को उनकी अनुत्तरित जिज्ञासाओं के साथ छोड़कर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए। दिन के यज्ञीय कार्यक्रम, विद्वानों की चर्चाएँ एवं आने वाले परिजन- आगन्तुकों से भेंट, सब कुछ चलता रहा। पर कहीं अपने मन के किसी कोने में सभी को अगले दिन की प्रतीक्षा थी।
अगले दिन प्रातः अरूणोदय के साथ ही वेदमंत्रों के स्वर गूंजने लगे। स्वाहा के घोष के साथ सविधि यज्ञीय आहुतियाँ यज्ञकुण्डों में पड़ने लगीं। भगवान् जातवेदस् अपने प्रखर तेज के साथ भुवन भास्कर को चुनौती सी दे रहे थे। इतने में सभी ने देखा कि कल आया हुआ वह किशोर बालक अपने पाँवों से चलकर अपने माता- पिता के साथ आ रहा है। एक रात्रि में यह अपूर्व चमत्कार। सभी अचरज में थे। उनके इस अचरज को और अधिक करते हुए उस किशोर वय के बालक ने कहा, आप मुझे शिष्य के रूप में अपना लीजिए गुरुदेव।
गुरुदेव ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- बेटा, तुम मेरे अपने हो। तुम हमेशा से मेरी आत्मा के अभिन्न अंश हो। परेशान न हो सब ठीक हो जाएगा। पर किस तरह आचार्य जी, एक विद्वान ने पूछ ही लिया। उत्तर में गुरुदेव उनसे बोले- मिश्र जी, बीमारियाँ दो तरह की होती हैं,
१. असंयम से उपजी,
२. प्रारब्ध से प्रेरित।
यह बालक रामनारायण प्रारब्ध से प्रेरित बीमारियों की जकड़ में है। जब तक यह अपने प्रारब्ध से ग्रसित रहेगा, इसे कोई औषधि फायदा नहीं करेगी। सा इसकी एक मात्र चिकित्सा अध्यात्म है। हाँ औषधियाँ, शरीर के तल पर इसमें सहयोगी साबित हो सकती हैं।
यह कहते हुए गुरुदेव उस बालक के माँ- पिता की ओर मुड़े और उनसे बोले, आप चिन्ता न करें। आपका बेटा रामनारायण आज से मेरा बेटा है। आपने इसके शरीर को जन्म दिया है। मैं इसकी जीवात्मा को नया जन्म दूँगा। उसे पूर्वकृत दुष्कर्मों के प्रभाव से मुक्त करूँगा। गुरुदेव की बातों ने माता- पिता को आश्वस्ति दी। वैसे भी वे एक रात्रि में काफी कुछ परिवर्तन देख चुके थे। गुरुदेव के तप के अंश को पाकर कुछ ही महीनों में न केवल उस किशोर रामनारायण के न केवल शारीरिक रोग दूर हुए, बल्कि उसकी मानसिक चेतना भी निखरी। उसकी बौद्धिक शक्तियों का भारी विकास हुआ। यही नहीं रुचियाँ- प्रवृत्तियाँ भी परिष्कृत हुईं। उसमें गायत्री साधना के प्रति भारी अनुराग जाग पड़ा। उसमें ये सारे परिवर्तन सद्गुरु की कृपा से आए। वही सद्गुरु जो मानवीय जीवन के आध्यात्मिक रहस्यों के मर्मज्ञ थे।