
वातावरण की दिव्य आध्यात्किम प्रेरणाएँ
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
आध्यात्मिक वातावरण में रहने से व्यक्ति के तन, मन व जीवन की आध्यात्मिक चिकित्सा स्वतः होती रहती है। बस यहाँ रहने वाले व्यक्ति ग्रहणशील भर हों। अन्यथा उनकी स्थिति गंगा जल में रहने वाले मछली, कछुओं जैसी बनी रहती है। वे गंगाजल का भौतिक लाभ तो उठाते हैं, पर उनकी चेतना इसके आध्यात्मिक संवेदनों से संवेदित नहीं होती। इसके विपरीत गंगा किनारे रहने वाले, गंगा- जल से पूजा अर्चना करने वाले तपस्वी, योगी पल- पल शरीर के साथ अपने अन्तर्मन को भी इससे धुलते रहते हैं। उनमें आध्यात्मिक जीवन की ज्योति निखरती रहती है। श्रद्धा और संस्कार हों, विचार व भावनाएँ संवेदनशील हों तो आध्यात्मिक वातावरण का सान्निध्य जीवन में चमत्कार पैदा किए बिना नहीं रहता।
बरसात हो तो मैदान हरियाली से भर जाते हैं। हवा का रूख सही हो तो नाविक की यात्रा सुगम हो जाती है। यही स्थिति वातावरण की वैचारिक एवं भावनात्मक ऊर्जा के बारे में है। यदि यह ऊर्जा प्रेरक व सकारात्मक है तो वहाँ रहने वालों के मन स्वयं ही खुशियों से भरे रहते हैं। अन्तर्मन में नयी- नयी प्रेरणाओं का प्रवाह उमगता रहता है। जीवन सही दिशा में गतिशील रहता है और उसकी दशा संवरती- निखरती रहती है। इसके विपरीत स्थिति होने पर मन में विषाद व अवसाद के चक्रव्यूह पनपते हैं। प्राणशक्ति स्वयं ही क्षीण होती रहती है। जीवन को अनेकों आधियाँ- व्याधियाँ घेरे रहती हैं। इस सत्य को वे सभी अनुभव करते हैं, जिन्हें वातावरण की सूक्ष्मता का ज्ञान है।
प्रत्येक स्थान स्थूल, सूक्ष्म व कारण तत्त्वों के क्रमिक आवरण से घिरा होता है। इनमें स्थूल तत्त्व जो सभी को खुली आँखों से दिखाई देते हैं, परिवेश की सृष्टि करते हैं। आस- पास की स्थिति, बिल्डिंग- इमारतें, स्कूल- संस्थाएँ, वहाँ रहने वाले लोग इसी से परिवेश का परिचय मिलता है। इस स्थूल आवरण के अलावा प्रत्येक स्थान में पर्यावरण का सूक्ष्म आवरण भी होता है। यह स्थिति पंचमहाभूतों- पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु व आकाश के समन्वय व सन्तुलन पर निर्भर करती है। इस समन्वय व सन्तुलन की स्थिति कितनी संवरी या बिगड़ी है। इसी के सत्प्रभाव या दुष्प्रभाव उस स्थान पर दिखाई देते हैं। पर्यावरण यदि असन्तुलित है, तो वहाँ अनायास ही शारीरिक बीमारियाँ, मनोरोग पनपते रहते हैं। सभी जानते हैं कि इन दिनों विशिष्टों, वरिष्ठों व विशेषज्ञों के साथ सामान्य जनों की पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ी है और वे इसके प्रभावों को अनुभव करने लगे हैं।
इन स्थूल एवं सूक्ष्म आवरणों के अतिरिक्त प्रत्येक स्थान में एक कारण आवरण की परत चढ़ी रहती है। यह परत वहाँ के वातास् यानि कि हवाओं में व्याप्त विचारों, भावनाओं व प्राण प्रवाह की होती है। इसी से व्यक्ति की सोच प्रेरित व प्रभावित होती है। इस सार के अनुरूप ही व्यक्तित्व विनिर्मित होते हैं। सामान्य क्रम में यह स्तर सकारात्मक व नकारात्मक विचारों, अच्छी व बुरी भावनाओं एवं प्रायः प्रदूषित प्राण प्रवाह का मिला- जुला मिश्रण होता है। इन दिनों इसकी स्थिति और भी बुरी हो गयी है। यही वजह है कि जन सामान्य प्रदूषित प्रेरणाओं से ग्रसित है। वह भ्रमित व भटका हुआ है। उसका तन- मन व जीवन बुरी तरह से बीमारियों की लपेट व चपेट में है।
परिवेश के परिदृश्य की चिन्ता सभी करते हैं, पर्यावरण को भी लेकर आन्दोलन खड़े किए जाते हैं, किन्तु प्रेरणाओं के स्रोत वातावरण की ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। जबकि प्राचीन भारत इस दृष्टि से पूरी तरह समृद्ध व सम्पन्न था। स्थान- स्थान पर स्थापित तीर्थ, महामानवों की तपस्थली, सिद्धपीठ इस महान् आवश्यकता को पूरा करते थे। यहाँ के आध्यात्मिक वातावरण के सम्पर्क में व्यक्ति अपने जीवन के उच्च स्तरीय प्रेरणाओं से लाभान्वित होता था। आज तो तीर्थ स्थानों को भी हास- विलास व मनोरंजन का केन्द्र बना दिया गया है। भाव भरी प्रेरणाएँ वहाँ से नदारद हैं। यही वजह है कि मानवीय व्यक्तित्व दिन प्रतिदिन रुग्ण होता जा रहा है।
इसकी चिकित्सा के लिए आध्यात्मिक वातावरण का समर्थ सम्बल चाहिए, जैसा कि भारत के स्वाधीनता संघर्ष के दौर में था। इस सम्बन्ध में योगिवर महर्षि श्री अरविन्द के भ्राता वारीन्द्र ने अपने संस्मरणों को सुन्दर ढंग से संजोया है। उन्होंने लिखा था अपने व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाने के लिए हम युवाओं की आध्यात्मिक चिकित्सा भूमि दक्षिणेश्वर थी। इस पवित्र स्थान का स्मरण ही हम सबको नवस्फूर्ति से भर देता था। इसका कारण केवल यही था कि भगवान् श्री रामकृष्ण ने यहाँ पर अद्भुत व अपूर्व तपस्याएँ सम्पन्न की थी। यहाँ की मिट्टी में उनके तप के संस्कार थे। यहाँ की वृक्ष- वनस्पतियों में उच्चस्तरीय जीवन की भावनाएँ समायी थी। यहाँ की हवाओं में हम लोग उन महामानव के महाप्राण की अनुभूति पाते थे।
दक्षिणेश्वर की पावन मिट्टी को अपने माथे पर लगाकर, यहाँ के पेड़ों के नीचे बैठकर हम सभी के मन का अवसाद दूर होता था। वारीन्द्र इस कथा को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि स्वाधीनता संघर्ष का वह दौर हममें से किसी के लिए आसान नहीं था। विपरीतताएँ- विपन्नताएँ भयावह थी। कदम- कदम पर भारी संकट थे। कब क्या हो जाय कोई ठिकाना नहीं। ऐसे में अच्छा खासा व्यक्ति भी मनोरोगी हो जाए। जीवन शैली ऐसी कि खाना- सोना यहाँ तक कि जीना भी हराम। ऐसे में देह का रोगों से घिर जाना कोई आश्चर्य की बात न थी। पर हम सभी को दक्षिणेश्वर की मिट्टी पर गहरी आस्था थी। इस मिट्टी से तिलक कर हम ऊर्जावान होते थे। यह भूमि हमारी सब प्रकार से चिकित्सा करती थी।
इस आश्चर्यजनक किन्तु सत्य का मर्म आस्थावान समझ सकते हैं। यह अनुभव कर सकते हैं कि वातावरण की आध्यात्मिक प्रेरणाएँ किस तरह से व्यक्तित्व को प्रेरित, प्रभावित व परिवर्तित करती हैं। वारीन्द्र की इस अनुभूति कथा की अगली कड़ी का सच यह है कि महर्षि श्री अरविन्द को जब अंग्रेज पुलिस कप्तान गिरफ्तार करने उनके कमरे में आया तो उसे एक डिबिया मिली। इस डिबिया में दक्षिणेश्वर की मिट्टी थी। साधारण सी मिट्टी इतने जतन से रखी गई थी, अंग्रेज कप्तान को इस पर बिल्कुल भरोसा न हुआ। उसने कई ढंग से पूछ- ताछ की, जाँच- पड़ताल की, पर कोई उसके मन- मुताबिक निष्कर्ष न निकला। क्योंकि उस मिट्टी को वह बम बनाने का रसायन समझ रहा था। उसने उसे प्रयोगशाला में परीक्षण के लिए भेज दिया।
प्रयोगशाला के निष्कर्षों ने भी उसे बेचैन कर दिया। क्योंक ये निष्कर्ष भी उसे मिट्टी बता रहे थे। पर वह मानने के लिए तैयार नहीं था कि यह मिट्टी हो सकती है। सभी क्रान्तिकारियों ने इस पर उसका खूब मजाक बनाया। वारीन्द्र ने इस घटना पर अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा था कि वह अंग्रेज कप्तान एक अर्थो में सही था। वह मिट्टी साधारण थी भी नहीं। वह एकदम असाधारण थी, क्योंकि उसमें दक्षिणेश्वर के परमहंस देव की चेतना समायी थी, जो हम सभी के जीवन की औषधि थी। अध्यात्मिक वातावरण के इस सच के दिव्य प्रभाव बहुत सघन है किन्तु इन्हें वही अनुभव कर सकता है, जो संयम व सदाचार के प्रयोगों में संलग्र हो।
बरसात हो तो मैदान हरियाली से भर जाते हैं। हवा का रूख सही हो तो नाविक की यात्रा सुगम हो जाती है। यही स्थिति वातावरण की वैचारिक एवं भावनात्मक ऊर्जा के बारे में है। यदि यह ऊर्जा प्रेरक व सकारात्मक है तो वहाँ रहने वालों के मन स्वयं ही खुशियों से भरे रहते हैं। अन्तर्मन में नयी- नयी प्रेरणाओं का प्रवाह उमगता रहता है। जीवन सही दिशा में गतिशील रहता है और उसकी दशा संवरती- निखरती रहती है। इसके विपरीत स्थिति होने पर मन में विषाद व अवसाद के चक्रव्यूह पनपते हैं। प्राणशक्ति स्वयं ही क्षीण होती रहती है। जीवन को अनेकों आधियाँ- व्याधियाँ घेरे रहती हैं। इस सत्य को वे सभी अनुभव करते हैं, जिन्हें वातावरण की सूक्ष्मता का ज्ञान है।
प्रत्येक स्थान स्थूल, सूक्ष्म व कारण तत्त्वों के क्रमिक आवरण से घिरा होता है। इनमें स्थूल तत्त्व जो सभी को खुली आँखों से दिखाई देते हैं, परिवेश की सृष्टि करते हैं। आस- पास की स्थिति, बिल्डिंग- इमारतें, स्कूल- संस्थाएँ, वहाँ रहने वाले लोग इसी से परिवेश का परिचय मिलता है। इस स्थूल आवरण के अलावा प्रत्येक स्थान में पर्यावरण का सूक्ष्म आवरण भी होता है। यह स्थिति पंचमहाभूतों- पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु व आकाश के समन्वय व सन्तुलन पर निर्भर करती है। इस समन्वय व सन्तुलन की स्थिति कितनी संवरी या बिगड़ी है। इसी के सत्प्रभाव या दुष्प्रभाव उस स्थान पर दिखाई देते हैं। पर्यावरण यदि असन्तुलित है, तो वहाँ अनायास ही शारीरिक बीमारियाँ, मनोरोग पनपते रहते हैं। सभी जानते हैं कि इन दिनों विशिष्टों, वरिष्ठों व विशेषज्ञों के साथ सामान्य जनों की पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ी है और वे इसके प्रभावों को अनुभव करने लगे हैं।
इन स्थूल एवं सूक्ष्म आवरणों के अतिरिक्त प्रत्येक स्थान में एक कारण आवरण की परत चढ़ी रहती है। यह परत वहाँ के वातास् यानि कि हवाओं में व्याप्त विचारों, भावनाओं व प्राण प्रवाह की होती है। इसी से व्यक्ति की सोच प्रेरित व प्रभावित होती है। इस सार के अनुरूप ही व्यक्तित्व विनिर्मित होते हैं। सामान्य क्रम में यह स्तर सकारात्मक व नकारात्मक विचारों, अच्छी व बुरी भावनाओं एवं प्रायः प्रदूषित प्राण प्रवाह का मिला- जुला मिश्रण होता है। इन दिनों इसकी स्थिति और भी बुरी हो गयी है। यही वजह है कि जन सामान्य प्रदूषित प्रेरणाओं से ग्रसित है। वह भ्रमित व भटका हुआ है। उसका तन- मन व जीवन बुरी तरह से बीमारियों की लपेट व चपेट में है।
परिवेश के परिदृश्य की चिन्ता सभी करते हैं, पर्यावरण को भी लेकर आन्दोलन खड़े किए जाते हैं, किन्तु प्रेरणाओं के स्रोत वातावरण की ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। जबकि प्राचीन भारत इस दृष्टि से पूरी तरह समृद्ध व सम्पन्न था। स्थान- स्थान पर स्थापित तीर्थ, महामानवों की तपस्थली, सिद्धपीठ इस महान् आवश्यकता को पूरा करते थे। यहाँ के आध्यात्मिक वातावरण के सम्पर्क में व्यक्ति अपने जीवन के उच्च स्तरीय प्रेरणाओं से लाभान्वित होता था। आज तो तीर्थ स्थानों को भी हास- विलास व मनोरंजन का केन्द्र बना दिया गया है। भाव भरी प्रेरणाएँ वहाँ से नदारद हैं। यही वजह है कि मानवीय व्यक्तित्व दिन प्रतिदिन रुग्ण होता जा रहा है।
इसकी चिकित्सा के लिए आध्यात्मिक वातावरण का समर्थ सम्बल चाहिए, जैसा कि भारत के स्वाधीनता संघर्ष के दौर में था। इस सम्बन्ध में योगिवर महर्षि श्री अरविन्द के भ्राता वारीन्द्र ने अपने संस्मरणों को सुन्दर ढंग से संजोया है। उन्होंने लिखा था अपने व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाने के लिए हम युवाओं की आध्यात्मिक चिकित्सा भूमि दक्षिणेश्वर थी। इस पवित्र स्थान का स्मरण ही हम सबको नवस्फूर्ति से भर देता था। इसका कारण केवल यही था कि भगवान् श्री रामकृष्ण ने यहाँ पर अद्भुत व अपूर्व तपस्याएँ सम्पन्न की थी। यहाँ की मिट्टी में उनके तप के संस्कार थे। यहाँ की वृक्ष- वनस्पतियों में उच्चस्तरीय जीवन की भावनाएँ समायी थी। यहाँ की हवाओं में हम लोग उन महामानव के महाप्राण की अनुभूति पाते थे।
दक्षिणेश्वर की पावन मिट्टी को अपने माथे पर लगाकर, यहाँ के पेड़ों के नीचे बैठकर हम सभी के मन का अवसाद दूर होता था। वारीन्द्र इस कथा को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि स्वाधीनता संघर्ष का वह दौर हममें से किसी के लिए आसान नहीं था। विपरीतताएँ- विपन्नताएँ भयावह थी। कदम- कदम पर भारी संकट थे। कब क्या हो जाय कोई ठिकाना नहीं। ऐसे में अच्छा खासा व्यक्ति भी मनोरोगी हो जाए। जीवन शैली ऐसी कि खाना- सोना यहाँ तक कि जीना भी हराम। ऐसे में देह का रोगों से घिर जाना कोई आश्चर्य की बात न थी। पर हम सभी को दक्षिणेश्वर की मिट्टी पर गहरी आस्था थी। इस मिट्टी से तिलक कर हम ऊर्जावान होते थे। यह भूमि हमारी सब प्रकार से चिकित्सा करती थी।
इस आश्चर्यजनक किन्तु सत्य का मर्म आस्थावान समझ सकते हैं। यह अनुभव कर सकते हैं कि वातावरण की आध्यात्मिक प्रेरणाएँ किस तरह से व्यक्तित्व को प्रेरित, प्रभावित व परिवर्तित करती हैं। वारीन्द्र की इस अनुभूति कथा की अगली कड़ी का सच यह है कि महर्षि श्री अरविन्द को जब अंग्रेज पुलिस कप्तान गिरफ्तार करने उनके कमरे में आया तो उसे एक डिबिया मिली। इस डिबिया में दक्षिणेश्वर की मिट्टी थी। साधारण सी मिट्टी इतने जतन से रखी गई थी, अंग्रेज कप्तान को इस पर बिल्कुल भरोसा न हुआ। उसने कई ढंग से पूछ- ताछ की, जाँच- पड़ताल की, पर कोई उसके मन- मुताबिक निष्कर्ष न निकला। क्योंकि उस मिट्टी को वह बम बनाने का रसायन समझ रहा था। उसने उसे प्रयोगशाला में परीक्षण के लिए भेज दिया।
प्रयोगशाला के निष्कर्षों ने भी उसे बेचैन कर दिया। क्योंक ये निष्कर्ष भी उसे मिट्टी बता रहे थे। पर वह मानने के लिए तैयार नहीं था कि यह मिट्टी हो सकती है। सभी क्रान्तिकारियों ने इस पर उसका खूब मजाक बनाया। वारीन्द्र ने इस घटना पर अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा था कि वह अंग्रेज कप्तान एक अर्थो में सही था। वह मिट्टी साधारण थी भी नहीं। वह एकदम असाधारण थी, क्योंकि उसमें दक्षिणेश्वर के परमहंस देव की चेतना समायी थी, जो हम सभी के जीवन की औषधि थी। अध्यात्मिक वातावरण के इस सच के दिव्य प्रभाव बहुत सघन है किन्तु इन्हें वही अनुभव कर सकता है, जो संयम व सदाचार के प्रयोगों में संलग्र हो।