
मानवी जीवन आध्यात्मिक रहस्यों से भरा
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मानव जीवन के आध्यात्मिक रहस्य अद्भुत हैं। अनुभव कहता है कि ये इतने आश्चर्यों से भरे हैं कि सामान्य बुद्धि इन पर भरोसा करने में स्वयं को असहाय पाती है। जिस देह से हमें जीवन का परिचय मिलता है, उसके बारे में हमारी जानकारी बड़ी आधी- अधूरी है। ऊपर से देखने पर भले ही यह मांस और चमड़े से मढ़ा हुआ हड्डियों का ऐसा ढाँचा नजर आता हो, जिसके भीतर रक्त और प्राण चक्कर लगा रहे हैं। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि कहती है कि इसके भीतर अनेकों ऐसी सूक्ष्मताएँ हैं, जिसके बारे में आधुनिकतम शोध भी कुछ कह पाने में असमर्थ है। अंतःस्रावी ग्रन्थियों की संरचनाएँ, मांस पेशियों में लिपटे तन्त्रिकाओं के गुच्छक, मस्तिष्क की आधे से अधिक कोशिकाओं की निष्क्रिय स्थिति ने तीसरी सहस्राब्दी के महावैज्ञानिकों को हैरान कर रखा है।
इनमें से कइयों का तो यह मानना है कि विज्ञान और वैज्ञानिकता देह की जिस सूक्ष्म संरचनाओं को भेद पाने में अक्षम है, सम्भव है वही आध्यात्मिक रहस्यों के प्रवेश द्वार हो। अभी कुछ सालों पहले तीसरी सहस्राब्दी के प्रवेश की शुभ घड़ी में एक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है ‘प्रेडिक्शन फॉर द नेक्स्ट मिलेनियम’। इस ग्रन्थ का सम्पादन डेविड क्रिस्टॉफ एवं टॉड डब्ल्यू निकरसन नाम के विशेषज्ञ वैज्ञानिकों ने किया है। इस ग्रन्थ में दो सौ सत्तर विशिष्ट वैज्ञानिकों के विचार प्रकाशित किए गए हैं। जिनके माध्यम से भविष्य के मानव विकास पर दृष्टि डाली गयी है। संक्षेप में इस पुस्तक का सार कहें तो इसमें यह उम्मीद जतायी गयी है कि भविष्य का मानव अपने जीवन के आध्यात्मिक रहस्यों को वैज्ञानिक रीति से जानने योग्य बन सकेगा।
जहाँ तक अभी वर्तमान की बात है तो न केवल देह के रहस्य अनजाने, बल्कि प्राण के प्रवाह भी अबूझ हैं। नाड़ी संस्थान में बहने वाला प्राण विश्व प्राण से कैसे सम्बन्धित है? इस प्रश्र का कोई सटीक वैज्ञानिक उत्तर नहीं है। जबकि आध्यात्मिकता के भव्य भवन की समूची नींव प्राण विद्या पर ही टिकी हुई है। प्राण के भेद, उपभेद, इसके भावनाओं एवं विचारों पर प्रभाव इतने अनोखे हैं, जिसकी अनुभूति पर कोई भी जीवन की डेार अपने हाथें में ले सकता है।
प्राण की ही भाँति मन के आध्यात्मिक रहस्यों से मनोवैज्ञानिकों का समुदाय अपरिचित है। मन सोच- विचार के संस्थान से कुछ ज्यादा है। इसी तरह से इसके अवचेतन- अचेतन की परतों की गहराई वर्तमान जीवन से कहीं अधिक है। इसमें असंख्य ऐसे गहरे भेद समाए हैं, जिन्हें केवल आध्यात्मिक साधनाओं से ही उभारा उकेरा और जगाया जा सकता है। ऐसा होने पर यही मन हमें अतीन्द्रिय झलकें दिखाने लगता है। किसी अनजाने झरोखे से भविष्य की झाँकी मिलने लगती है। जीवन की परतें बहुतेरी हैं, इनके रहस्य भी असंख्य हैं, पर इन्हें जान वही सकता है, जो सचमुच में जिज्ञासु है। जिसमें स्वस्थ जीवन का सही अर्थ खोजने की लालसा है। जो इस सत्य को समझता है कि आध्यात्मिक चिकित्सा से ही स्वस्थ एवं सफल जीवन के वरदान पाए जा सकते हैं।
ऐसे ही एक सच्चे जिज्ञासु सन् १९५३ में श्री अरविन्द आश्रम में साधना के लिए आए। हालाँकि उनका पाण्डिचेरी से पुराना रिश्ता था। वह यहाँ पर फ्रांसीसी औपनिवेशिक सरकार में पहले सेवारत रहे थे। और तभी उनका श्री अरविन्द एवं श्री मां से भाव भरा सम्बन्ध बना था। ‘मानव जीवन में अनन्त आध्यात्मिक रहस्य समाए हैं’- इस एक बात ने उनकी गहरी हृततन्त्री को छू लिया। उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। और गियाना के लिए रवाना हो गए। वहाँ उन्होंने अमेजान के जंगलों में अपनी साहसिक साधना में एक वर्ष बिताया। इसके बाद ब्राजील होते हुए अफ्रीका पहुँचे। इस साहस भरी खोज में उन्हें सद्गुरु के मार्गदर्शन की गहरी आवश्यकता महसूस हुई।
यही अहसास उन्हें श्री मां की शरण में ले आया। अपनी ३० वर्ष की आयु में वे श्री मां के समर्पित शिष्य हो गए। मां ने उन्हें सत्प्रेम कहकर सम्बोधित किया। साधना के लिए साहसिक संकल्प एवं सद्गुरु के प्रति सघन श्रद्धा के सुयोग ने उन्हें नयी शुरूआत दी। वे अपनी डगर पर चल पड़े। इस डगर पर चलते हुए उनके सामने एक के बाद एक नए- नए आध्यात्मिक रहस्य उजागर होने लगे। सबसे पहले उन्होंने अनुभव किया कि सृष्टि और मानव जीवन का मूल ऊर्जा है। इस ऊर्जा ने अपने निश्चित क्रम में विभिन्न आकार लिए हैं। लोकों की सृष्टि भी इसी तरह से हुई है और मानव जीवन भी इसी भांति अस्तित्व में आया है।
अपनी इस अनुभूति के बाद उन्होंने कहा- आइन्स्टीन का सूत्र E=mc2 वैज्ञानिक ही नहीं आध्यात्मिक सूत्र भी है। आध्यात्मिक अनुभव भी यही कहता है कि पदार्थ और ऊर्जा आपस में रूपान्तरित होते हैं। मानव जीवन भी इसी रूपान्तरण का परिणाम है। जिसे हम देह, प्राण एवं मन, अन्तःकरण एवं अन्तरात्मा के संयोग से बना व्यक्तित्व कहते हैं वह दरअसल कुछ विशिष्ट ऊर्जा तरंगों का सुखद संयोग है। कर्म, इच्छा एवं भावना के अनुसार इन ऊर्जा तरंगों में न्यूनता व अधिकता होती रहती है। स्थिति में होने वाले इस परिवर्तन के लिए वर्तमान जीवन के साथ अतीत में किए गए कर्म, इच्छाएँ व भावनाएँ जिम्मेदार होती हैं।
इन्हीं की उपयुक्त एवं अनुपयुक्त स्थिति के अनुसार जीवन में सुखद एवं दुःखद परिवर्तन आते हैं। किसी विशिष्ट ऊर्जा तरंग की न्यूनता जब जीवन में होती है, तो स्वास्थ्य, मानसिक स्थिति, पारिवारिक एवं सामाजिक परिस्थिति में तदानुरूप परिवर्तन आ जाते हैं। इस स्थिति को तप, योग, मंत्रविद्या आदि प्रयासों से ठीक भी किया जा सकता है। सत्प्रेम ने ये सभी प्रयोग एक वैज्ञानिक की भाँति किए। साथ ही उन्होंने अपने निष्कर्षों को लिपिबद्ध भी किया। जो भी मानव जीवन के आध्यात्मिक रहस्यों को विस्तार से जानना चाहते हैं उनके लिए सत्प्रेम की रचनाएँ मार्गदर्शक प्रदीप की भाँति हैं।
प्रयोगिक निष्कर्ष के क्रम में उन्होंने सबसे पहले ‘श्री अरविन्द ऑर द एडवेन्चर ऑफ कॉन्शसनेस’ लिखा। इसके कुछ ही बाद उन्होंने ‘ऑन द वे ऑफ सुपरमैनहुड’ प्रकाशित किया। श्री मां के संग साथ की अनुभूतियों को उन्होंने ‘मदर्स एजेण्डा’ के १३ खण्डों में लिखा। इसके बाद ‘द डिवाइन मैटीरियलिज़्म,’ ‘द न्यू स्पेसीज़, द म्यूटेशन ऑफ डेथ’ की एक ग्रन्थ त्रयी लिखी। इसके बाद ‘द माइण्ड ऑफ सेल्स’ प्रकाश में आया। सन् १९८९ में अपनी साधना कथा को ‘द रिवोल्ट ऑफ अर्थ’ नाम से प्रकाशित किया।
सत्प्रेम ने अपना सम्पूर्ण जीवन मानव जीवन के आध्यात्मिक रहस्यों की खोज में बिताया। एक गम्भीर वैज्ञानिक की भाँति उन्होंने अपने शोध निष्कर्ष प्रस्तुत किए। सार रूप में उनके निष्कर्षों के बारे में दो बातें कही जा सकती हैं-
१. हम सभी, सृष्टि एवं स्रष्टा के साथ एक दूसरे से गहराई में गुँथे हैं।
२. कर्म चक्र ही हम सबके जीवन को प्रवर्तित, परिवर्तित कर रहा है।
इन दो बातों के साथ दो बातें और भी हैं- १. इच्छा, संकल्प, साहस एवं श्रद्धा के द्वारा हम सभी अपनी अनन्त शक्तियों को जाग्रत् कर सकते हैं। २. आध्यात्मिक चिकित्सा ही मानव व्यक्तित्व का एक मात्र समाधान है। इसे आस्तिकता के अस्तित्त्व में अनुभव किया जा सकता है।
इनमें से कइयों का तो यह मानना है कि विज्ञान और वैज्ञानिकता देह की जिस सूक्ष्म संरचनाओं को भेद पाने में अक्षम है, सम्भव है वही आध्यात्मिक रहस्यों के प्रवेश द्वार हो। अभी कुछ सालों पहले तीसरी सहस्राब्दी के प्रवेश की शुभ घड़ी में एक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है ‘प्रेडिक्शन फॉर द नेक्स्ट मिलेनियम’। इस ग्रन्थ का सम्पादन डेविड क्रिस्टॉफ एवं टॉड डब्ल्यू निकरसन नाम के विशेषज्ञ वैज्ञानिकों ने किया है। इस ग्रन्थ में दो सौ सत्तर विशिष्ट वैज्ञानिकों के विचार प्रकाशित किए गए हैं। जिनके माध्यम से भविष्य के मानव विकास पर दृष्टि डाली गयी है। संक्षेप में इस पुस्तक का सार कहें तो इसमें यह उम्मीद जतायी गयी है कि भविष्य का मानव अपने जीवन के आध्यात्मिक रहस्यों को वैज्ञानिक रीति से जानने योग्य बन सकेगा।
जहाँ तक अभी वर्तमान की बात है तो न केवल देह के रहस्य अनजाने, बल्कि प्राण के प्रवाह भी अबूझ हैं। नाड़ी संस्थान में बहने वाला प्राण विश्व प्राण से कैसे सम्बन्धित है? इस प्रश्र का कोई सटीक वैज्ञानिक उत्तर नहीं है। जबकि आध्यात्मिकता के भव्य भवन की समूची नींव प्राण विद्या पर ही टिकी हुई है। प्राण के भेद, उपभेद, इसके भावनाओं एवं विचारों पर प्रभाव इतने अनोखे हैं, जिसकी अनुभूति पर कोई भी जीवन की डेार अपने हाथें में ले सकता है।
प्राण की ही भाँति मन के आध्यात्मिक रहस्यों से मनोवैज्ञानिकों का समुदाय अपरिचित है। मन सोच- विचार के संस्थान से कुछ ज्यादा है। इसी तरह से इसके अवचेतन- अचेतन की परतों की गहराई वर्तमान जीवन से कहीं अधिक है। इसमें असंख्य ऐसे गहरे भेद समाए हैं, जिन्हें केवल आध्यात्मिक साधनाओं से ही उभारा उकेरा और जगाया जा सकता है। ऐसा होने पर यही मन हमें अतीन्द्रिय झलकें दिखाने लगता है। किसी अनजाने झरोखे से भविष्य की झाँकी मिलने लगती है। जीवन की परतें बहुतेरी हैं, इनके रहस्य भी असंख्य हैं, पर इन्हें जान वही सकता है, जो सचमुच में जिज्ञासु है। जिसमें स्वस्थ जीवन का सही अर्थ खोजने की लालसा है। जो इस सत्य को समझता है कि आध्यात्मिक चिकित्सा से ही स्वस्थ एवं सफल जीवन के वरदान पाए जा सकते हैं।
ऐसे ही एक सच्चे जिज्ञासु सन् १९५३ में श्री अरविन्द आश्रम में साधना के लिए आए। हालाँकि उनका पाण्डिचेरी से पुराना रिश्ता था। वह यहाँ पर फ्रांसीसी औपनिवेशिक सरकार में पहले सेवारत रहे थे। और तभी उनका श्री अरविन्द एवं श्री मां से भाव भरा सम्बन्ध बना था। ‘मानव जीवन में अनन्त आध्यात्मिक रहस्य समाए हैं’- इस एक बात ने उनकी गहरी हृततन्त्री को छू लिया। उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। और गियाना के लिए रवाना हो गए। वहाँ उन्होंने अमेजान के जंगलों में अपनी साहसिक साधना में एक वर्ष बिताया। इसके बाद ब्राजील होते हुए अफ्रीका पहुँचे। इस साहस भरी खोज में उन्हें सद्गुरु के मार्गदर्शन की गहरी आवश्यकता महसूस हुई।
यही अहसास उन्हें श्री मां की शरण में ले आया। अपनी ३० वर्ष की आयु में वे श्री मां के समर्पित शिष्य हो गए। मां ने उन्हें सत्प्रेम कहकर सम्बोधित किया। साधना के लिए साहसिक संकल्प एवं सद्गुरु के प्रति सघन श्रद्धा के सुयोग ने उन्हें नयी शुरूआत दी। वे अपनी डगर पर चल पड़े। इस डगर पर चलते हुए उनके सामने एक के बाद एक नए- नए आध्यात्मिक रहस्य उजागर होने लगे। सबसे पहले उन्होंने अनुभव किया कि सृष्टि और मानव जीवन का मूल ऊर्जा है। इस ऊर्जा ने अपने निश्चित क्रम में विभिन्न आकार लिए हैं। लोकों की सृष्टि भी इसी तरह से हुई है और मानव जीवन भी इसी भांति अस्तित्व में आया है।
अपनी इस अनुभूति के बाद उन्होंने कहा- आइन्स्टीन का सूत्र E=mc2 वैज्ञानिक ही नहीं आध्यात्मिक सूत्र भी है। आध्यात्मिक अनुभव भी यही कहता है कि पदार्थ और ऊर्जा आपस में रूपान्तरित होते हैं। मानव जीवन भी इसी रूपान्तरण का परिणाम है। जिसे हम देह, प्राण एवं मन, अन्तःकरण एवं अन्तरात्मा के संयोग से बना व्यक्तित्व कहते हैं वह दरअसल कुछ विशिष्ट ऊर्जा तरंगों का सुखद संयोग है। कर्म, इच्छा एवं भावना के अनुसार इन ऊर्जा तरंगों में न्यूनता व अधिकता होती रहती है। स्थिति में होने वाले इस परिवर्तन के लिए वर्तमान जीवन के साथ अतीत में किए गए कर्म, इच्छाएँ व भावनाएँ जिम्मेदार होती हैं।
इन्हीं की उपयुक्त एवं अनुपयुक्त स्थिति के अनुसार जीवन में सुखद एवं दुःखद परिवर्तन आते हैं। किसी विशिष्ट ऊर्जा तरंग की न्यूनता जब जीवन में होती है, तो स्वास्थ्य, मानसिक स्थिति, पारिवारिक एवं सामाजिक परिस्थिति में तदानुरूप परिवर्तन आ जाते हैं। इस स्थिति को तप, योग, मंत्रविद्या आदि प्रयासों से ठीक भी किया जा सकता है। सत्प्रेम ने ये सभी प्रयोग एक वैज्ञानिक की भाँति किए। साथ ही उन्होंने अपने निष्कर्षों को लिपिबद्ध भी किया। जो भी मानव जीवन के आध्यात्मिक रहस्यों को विस्तार से जानना चाहते हैं उनके लिए सत्प्रेम की रचनाएँ मार्गदर्शक प्रदीप की भाँति हैं।
प्रयोगिक निष्कर्ष के क्रम में उन्होंने सबसे पहले ‘श्री अरविन्द ऑर द एडवेन्चर ऑफ कॉन्शसनेस’ लिखा। इसके कुछ ही बाद उन्होंने ‘ऑन द वे ऑफ सुपरमैनहुड’ प्रकाशित किया। श्री मां के संग साथ की अनुभूतियों को उन्होंने ‘मदर्स एजेण्डा’ के १३ खण्डों में लिखा। इसके बाद ‘द डिवाइन मैटीरियलिज़्म,’ ‘द न्यू स्पेसीज़, द म्यूटेशन ऑफ डेथ’ की एक ग्रन्थ त्रयी लिखी। इसके बाद ‘द माइण्ड ऑफ सेल्स’ प्रकाश में आया। सन् १९८९ में अपनी साधना कथा को ‘द रिवोल्ट ऑफ अर्थ’ नाम से प्रकाशित किया।
सत्प्रेम ने अपना सम्पूर्ण जीवन मानव जीवन के आध्यात्मिक रहस्यों की खोज में बिताया। एक गम्भीर वैज्ञानिक की भाँति उन्होंने अपने शोध निष्कर्ष प्रस्तुत किए। सार रूप में उनके निष्कर्षों के बारे में दो बातें कही जा सकती हैं-
१. हम सभी, सृष्टि एवं स्रष्टा के साथ एक दूसरे से गहराई में गुँथे हैं।
२. कर्म चक्र ही हम सबके जीवन को प्रवर्तित, परिवर्तित कर रहा है।
इन दो बातों के साथ दो बातें और भी हैं- १. इच्छा, संकल्प, साहस एवं श्रद्धा के द्वारा हम सभी अपनी अनन्त शक्तियों को जाग्रत् कर सकते हैं। २. आध्यात्मिक चिकित्सा ही मानव व्यक्तित्व का एक मात्र समाधान है। इसे आस्तिकता के अस्तित्त्व में अनुभव किया जा सकता है।