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Books - बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

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बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

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लोग कारोबार करते, परिश्रम-पुरुषार्थ करते और जरूरत से कहीं ज्यादा धन-दौलत जमीन-जायदाद इकट्ठी कर लेते हैं। किसलिए? इसलिए कि वे यह सब अपने बच्चों को उत्तराधिकार में दे सकें। बच्चे उनके अपने रूप होते हैं। सभी चाहते हैं कि उनके बच्चे सुखी और समुन्नत रहें, इसी उद्देश्य से वे कुछ न कुछ सम्पत्ति उनको उत्तराधिकार में दे जाने का प्रयत्न किया करते हैं।

किसी हद तक ठीक भी है जिनको कुछ सम्पत्ति उत्तराधिकार में मिल जाती है उनको कुछ न कुछ सुविधा हो ही जाती है। किन्तु यह आवश्यक नहीं कि जिनको धन-दौलत, जमीन-जायदाद उत्तराधिकार में मिल जाए उनका जीवन सुखी ही रहे। यदि जीवन का वास्तविक सुख धन-दौलत पर ही निर्भर होता तो आज भी सभी धनवानों को हर प्रकार से सुखी होना चाहिए था । बहुत से लोग आए दिन धन-दौलत कमाते और उत्तराधिकार में पाते रहते हैं । किन्तु फिर भी रोते-तड़पते और दुःखी होते देखे जाते हैं। जीवन में सुख-शान्ति के दर्शन नहीं होते।

सुख का निवास सद्गुणों में है धन-दौलत में नहीं। जो धनी है और साथ में दुर्गुणी भी, उसका जीवन दुःखों का आगार बन जाता है। दुर्गुण एक तो यों ही दुःख के स्रोत होते हैं फिर उनको धन-दौलत का सहारा मिल जाए तब तो वह आग जैसी तेजी से भड़क उठते हैं जैसे हवा का सहारा पाकर दावानल। मानवीय व्यक्तित्व का पूरा विकास सद्गुणों से ही होता है। निम्नकोटि के व्यक्तित्व वाला मनुष्य उत्तराधिकार में पाई हुई सम्पत्ति को शीघ्र ही नष्ट कर डालता है और उसके परिणाम में न जाने कितना दुःख, दर्द, पीड़ा, वेदना, ग्लानि, पश्चाताप और रोग पाल लेता है।

जो अभिभावक अपने बच्चों में गुणों का विकास करने की ओर से उदासीन रहकर उन्हें केवल, उत्तराधिकार में धन-दौलत दे जाने के प्रयत्न तथा चिन्ता में लगे रहते हैं वे भूल करते हैं। उन्हें बच्चों का सच्चा हितैषी भी कहा जा सकना कठिन है। गुणहीन बच्चों को उत्तराधिकार में धन-दौलत दे जाना पागल को तलवार दे जाने के समान है। इससे वह न केवल अपना ही अहित करेगा बल्कि समाज को भी कष्ट पहुंचाएगा। यदि बच्चों में सद्गुणों का समुचित विकास न करके धन-दौलत का अधिकारी बना दिया गया और यह आशा की गई कि वे इसके सहारे जीवन में सुखी रहेंगे तो किसी प्रकार उचित न होगा। ऐसी प्रतिकूल स्थिति में वह सम्पत्ति सुख देना तो दूर उल्टे दुर्गुणों तथा दुःखों को ही बढ़ा देगी।

यही कारण तो है कि गरीबों के बच्चे अमीरों की अपेक्षा कम बिगड़े हुए दीखते हैं। गरीब आदमियों को तो रोज कुंआ खोदना और रोज पानी पीना होता है। शराबखोरी, व्यभिचार अथवा अन्य खुराफातों के लिये उसके पास न तो समय होता है और न फालतू पैसा। निदान वे संसार के बहुत दोषों से आप ही बच जाते हैं। इसके विपरीत अमीरों के बच्चों के पास काम तो कम और फालतू पैसा व समय ज्यादा होता है जिससे वे जल्दी ही गलत रास्तों पर चलते हैं। इसलिये आवश्यक है कि अपने बच्चों का जीवन सफल तथा सुखी बनाने के इच्छुक अभिभावक उनको उत्तराधिकार में धन-दौलत देने की अपेक्षा सद्गुणी बनाने की अधिक चिंता करें। यदि बच्चे सद्गुणी हों तो उत्तराधिकार में न भी कुछ दिया जाय तब भी वे अपने बल पर सारी सुख-सुविधाएं इकट्ठी कर लेंगे। गुणी व्यक्ति को धन-सम्पत्ति के लिये किसी पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं रहती।

जो अभिभावक अपने बच्चों को लाड़-प्यार तो करते हैं उन्हें पढ़ाते-लिखाते और कार-रोजगार से भी लगाते और प्रयत्नपूर्वक उत्तराधिकार में कुछ दे भी जाते हैं किन्तु उनके व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए गुणों का अभिवर्धन उनमें नहीं करते वे मानो अपना सच्चा कर्त्तव्य पूरा नहीं करते। उनका वास्तविक कर्त्तव्य यह है कि वे सन्तान को सभ्य सुशील और सद्गुणी बना कर जावें। उन्हें सात्त्विक स्वभाव, सद्भावनाओं तथा सत्प्रवृत्तियों की वह सम्पत्ति देकर जायें जो उनके इसी जीवन में ही नहीं जन्म-जन्मान्तर तक काम आये। सन्तान को धनवान, बलवान अथवा विद्यावान तो बना दिया गया किन्तु उनमें मानवीय व्यक्तित्व का विकास करने की ओर से उदासीनता बर्ती गई तो निश्चय ही वे अपने जीवन में सुखी नहीं रह सकते। केवल भौतिक साधन जुटा देने से बच्चे सुखी नहीं बन सकते। साधनों से कुछ सुविधा तो बढ़ सकती है किन्तु शान्ति एवं सन्तोष का आधार तो सद्गुण तथा सद्प्रवृत्तियां ही हैं। कुसंस्कारी व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकते, जीवन में उन्हें वास्तविक शान्ति मिल सकना कठिन है। वैभव के कारण वे दूर से दूसरों को सुखी दिखाई दे सकते हैं किन्तु वास्तविकता की दृष्टि से वे बड़े ही अशान्त तथा दुःखी होते हैं। जो उच्च मनःस्थिति वास्तविक शान्ति के लिये अपेक्षित होती है वह दुर्गुणी व्यक्ति में नहीं होती। इसलिए बच्चों के सच्चे हितैषी अभिभावकों का पहला कर्त्तव्य है कि वे उत्तराधिकार में उनके लिये धन-वैभव का भण्डार भले ही न छोड़ें किन्तु उन्हें सद्गुणी अवश्य बना जायें। जो अभिभावक ऐसा करने की बुद्धिमानी करते हैं उनकी सन्तान निर्धनता की स्थिति में भी पूर्ण सुखी तथा सन्तुष्ट रहती है।

सन्तान को उत्तराधिकार में यदि कुछ सम्पत्ति देनी ही है तो उन्हें गुणों की सम्पत्ति अवश्य दीजिए। किन्तु यह सम्पत्ति आप से तभी पायेंगे जब वह आपके पास स्वयं होगी। जो चीज स्वयं आपके पास न होगी वह आप बच्चों को दे भी कहां से सकते हैं। इसलिए बच्चों को उत्तराधिकार में देने के लिये प्रयत्नपूर्वक गुणों का स्वयं उपार्जन करिये।

बच्चों को देने योग्य गुण-सम्पत्ति का पहला रत्न है श्रमशीलता। जो अभिभावक अपने बच्चों में श्रमशीलता का सद्गुण विकसित कर देते हैं मानो उन्हें परोक्ष रूप से संसार की सारी सम्पदाओं का अधिकारी बना देते हैं। ऐसी कौन सी सम्पत्ति इस संसार में है जो श्रम में विश्वास रखने वाले पुरुषार्थी के लिये दुर्लभ हो सकती है। पुरुषार्थी अपने बाहुबल से मरुस्थल में पानी और धरती से धन प्राप्त कर सकता है। परिश्रमी व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थिति में भी उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर लेता है। सारे सुख और सारी सम्पत्तियों का मूल परिश्रम को ही कहा गया है। उद्योगी पुरुष सिंह को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है। इसलिए बच्चों के लिये सम्पत्ति छोड़ने की उतनी चिंता न करिये जितना कि उन्हें श्रमशील तथा उपयोगी बनाने की।

बच्चों को परिश्रमशील बनाने के प्रयत्न के साथ स्वयं भी परिश्रमशील बनिए। अपना सारा काम अपने हाथ से करिये। उन्हें कभी भी आलस्य में पड़े-पड़े आराम मत करने दीजिये। यदि आप ऐसा करेंगे तो अपने प्रयत्न में सफल न हो सकेंगे। बच्चों को परिश्रमपरक कार्यक्रम दीजिए। नियमित समय पर उन्हें अपने पाठों तथा पुस्तकों पर परिश्रम करते रहने की प्रेरणा तो देते ही रहिए साथ ही उन्हें शरीर की सफाई, कपड़ों तथा घर की सफाई में भी लगाइये। यथा सम्भव पानी भरने और बाजार से खुद सामान लेकर आने का अभ्यास डालिये। कहीं यदि पास पड़ोस में कोई कार्य हो तो उन्हें स्वयं सेवक बनाकर काम करने के लिये भेजिए। उन्हें शिक्षा दीजिए कि हाट-बाट में यदि कोई ऐसा अशक्त अथवा वृद्ध व्यक्ति मिल जाये जो अपना बोझ लेकर न चल पाता हो तो थोड़ी दूर तक उसका हाथ बटायें। सार्वजनिक स्थानों में जहां वे खेलने अथवा उठने-बैठने जाते हैं यदि कूड़ा-करकट ईंट-पत्थर पड़े दिखाई दें उन्हें साफ कर डालने में आलस्य न करें। साथ ही उन्हें कताई-बुनाई अथवा सिलाई आदि का कुछ ऐसा काम सिखलायें जो वे अपने खाली समय में कर सकें। बागवानी तथा रसोई वाटिका का काम तो उनके लिए बहुत ही रुचिकर तथा स्वास्थ्यदायक होगा। इसके अतिरिक्त जिस समय उनके खेलने का समय हो उस समय उन्हें घर पर कभी मत बैठा रहने दीजिये उन्हें खेलने के लिए प्रेरित करिये और ऐसे खेल खेलने को दीजिये जिससे स्वास्थ्य, मनोरंजन तथा बुद्धि-विकास तीनों का उद्देश्य सम्पादित होता हो। कहने का तात्पर्य यह है कि बच्चों को रात में आराम के समय को छोड़कर, किसी समय भी बैठे अथवा पड़े रहने का अभ्यास मत पड़ने दीजिये यदि आप के घर में कोई कार रोजगार, दुकानदारी आदि का काम हो तो उन्हें कुछ देर उसमें लगाने के लिये मत भूलिये। इससे उनमें न केवल परिश्रमशीलता ही बढ़ेगी बल्कि वे कार-रोजगार में भी दक्ष होते चलेंगे।

परिश्रमशीलता के साथ बच्चों को उदारता का गुण भी देते जाइये जो परिश्रमशील है, वह सुखी और सम्पन्न बनेगा ही। यदि उसमें उदारता का गुण नहीं होगा तो वह स्वार्थी हो जायेगा। सोचेगा कि मैं कुछ परिश्रम पूर्वक कमाता हूं उसे दूसरे को क्यों दूं। साथ ही उसमें हर चीज पर अपना अधिकार समझने का दोष आ जायेगा। उदार बनाने के लिये उन्हें अपने छोटे भाई बहनों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करने की प्रेरणा दीजिये। बहुधा बच्चे खिलौने तथा अन्य खाने पीने की चीजों पर आपस में लड़ने और छीना-झपटी करने लगते हैं। उन्हें ऐसा न करने की प्रेरणा दीजिये और बड़े बच्चे को अपने हाथ से छोटे भाई-बहनों को चीज बांट कर पीछे खुद लेने को कहिए। ऐसा करने से वह चीज के विभाग करने में उत्तरदायी होने के कारण न्यायशील बनना और उनको अधिक भाग देने की उदारता बर्तेगा जिससे उसे जो बड़प्पन का गौरव मिला है वह कलंकित न हो जाये। इस प्रकार जब बड़ा उदारता बर्तेने लगेगा तो छोटे भाई-बहन तो आप से आप उदार हो जायेंगे। किन्तु बच्चों को उदारता की प्रेरणा देने में सफलता मिलेगी तभी जब आप स्वयं भी दूसरों के साथ उदारता बरतें परिवार-प्रमुख एक प्रकार से परिवार में सबसे बड़ा होता है। स्थान महत्व के कारण वह बड़े-बूढ़ों का अभिभावक होता है। इसलिए उसे बच्चे, बूढ़े तथा स्त्रियां सबके साथ उदारता का व्यवहार करना चाहिए। हर चीज सबसे पहले पूरे परिवार में देनी चाहिए। इस विषय में अपने को सबसे पीछे रखना और निःस्वार्थ रहना चाहिए। किसी व्यवहार में स्वार्थ अथवा अधिकार की भावना का पुट नहीं होना चाहिए। इस प्रकार देख कर और प्रेरणा पाकर बच्चे उदारतापूर्वक व्यवहार करने के अभ्यस्त होते चले जायेंगे।

स्वच्छता और सादगी वह तीसरा गुण है जो बच्चों को उत्तराधिकार में दिया जाना चाहिए। स्वच्छता एवं सादगी सज्जनता का गुण है। प्रदर्शन फैशनपरस्त अथवा शान-शौकत वाले बन जाने से बच्चों में न केवल फिजूल खर्ची ही आ जायेगी बल्कि उनमें ईर्ष्या और अहंकार का भी दोष आयेगा। वे तड़क भड़क वाले कपड़े पहने होने से अपने आपको दूसरों से बड़ा आदमी समझेंगे और यदि कोई दूसरा वैसे कपड़े पहले दिखलाई देगा उससे ईर्ष्या करने लगेंगे। फैशनपरस्त बच्चे अपने छोटे भाई-बहनों को भी अच्छे पहने नहीं देख सकते। साथ ही फिजूलखर्ची की आदत हो जाने से वे सबसे पहले और सबसे ज्यादा धन अपने लिये चाहेंगे आगे चल कर अनीति द्वारा कमाई करने का प्रयत्न करने में भी संकोच नहीं करेंगे। इस प्रकार के अनुदार, स्वार्थी, फिजूल खर्ची तथा अनीतिवान व्यक्ति संसार में कभी सुखी नहीं रह सकते।

तन, मन, वस्त्रों तथा स्थान की स्वच्छता मनुष्य की आत्मा में देवत्व का समावेश कर देती है। हर चीज को साथ तथा व्यवस्थित रखने की आदत डाल देने से बच्चे आगे चल कर जीवन के हर क्षेत्र में स्वच्छता तथा व्यवस्था बनाए रखेंगे जो उनको सुखी और सन्तुष्ट बनाए रखने में सहायक होगी।

मितव्ययिता वह तीसरा गुण है जो बच्चे को उत्तराधिकार में अवश्य ही देना चाहिए। मितव्ययी लोगों के जीवन में अनेक दोष आने से बच जाते हैं। एक तो जो मितव्ययी होता है वह धनलिप्सु न होने से बेईमानी करने से बचा रहता है। मितव्ययी व्यक्ति थोड़ी सी पूंजी से बड़े काम चला लेता है और कभी ऋणी नहीं होता मितव्ययी लोग बहुत ही कम व्यसनी हुआ करते हैं जिससे वे न जाने कितने रोगों और अपवादों की वेदना से बचे रहते हैं। मितव्ययी को जीवन में किसी चीज का अभाव नहीं सताता क्योंकि वह लोलुप न होकर सन्तोषी हुआ करता है उसके ऐसे मित्रों की संख्या नहीं बढ़ पाती जो आगे चलकर झूंठे सिद्ध होते हैं और जीवन में अशान्ति के कारण बनते हैं।

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