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Books - बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

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बच्चों में अच्छी आदतें पैदा कीजिए

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First 10 12 Last

अभिभावकों, खासकर माता पिता पर बच्चों में अच्छी आदतें डालने, उन्हें सुयोग्य बनाने का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। और सभी मां-बाप यह चाहते भी हैं कि उनके बच्चे योग्य बनें। किन्तु बच्चों का निर्माण एक पेचीदा प्रश्न है। इसके लिए अभिभावकों में काफी विचारशीलता, विवेक, संजीदगी एवं मनोवैज्ञानिक जानकारी का होना आवश्यक है।

बहुत से मां-बाप तो बच्चों को पैदा करने, खिलाने पिलाने, स्कूल आदि में पढ़ने की व्यवस्था तक ही अपने उत्तरदायित्व की इतिश्री समझते हैं। किन्तु इससे बच्चों के निर्माण की सम्पूर्ण समस्या का हल नहीं होता, हालांकि बच्चों के विकास में इनका भी अपना स्थान है। बच्चों में अच्छी आदतें डालना उनमें सद्गुणों की वृद्धि करके सुयोग्य बनाना एक महत्वपूर्ण बात है। यह असुरता से देवत्व उत्पन्न करने, पशुत्व को मनुष्यता में बदलने की प्रक्रिया है, एक सूक्ष्म विज्ञान है। बच्चों को प्यार करना, खिलाना पिलाना उनका संरक्षण करना तो पशुओं में भी पाया जाता है।

बच्चों में बढ़ती हुई उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता, स्वेच्छाचार एवं अन्य बुराइयों की जिम्मेदारी बहुत कुछ मां-बाप, अभिभावकों के ऊपर ही होती है। उनकी सामान्य सी गलतियों, व्यवहार की छोटी-सी भूलों के कारण बच्चों में बड़ी-बड़ी बुराइयां पैदा हो जाती हैं। अनेकों बुरी आदतें बच्चों मैं पड़ जाती हैं। स्वयं मां-बाप जिसे सुधार समझते हैं वही बात बच्चों के बिगाड़ने का कारण बन जाती है।

बच्चों में अनुशासन और आज्ञा पालन की आदत पैदा करने के लिए अधिकांश मां-बाप फौजी नियमों का अनुसरण करते देखे जाते हैं। किसी भी काम के लिए अधिकार पूर्वक बच्चों को आदेश देते हैं। रौब दिखाकर, दबाव के द्वारा उनसे कोई काम कराना चाहते हैं। कदाचित बच्चों ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया अथवा अनसुना कर दिया तो उनकी मारपीट करना, चीखना, चिल्लाना, गाली देना शुरू हो जाता है। किन्तु वे मां-बाप यह नहीं जानते कि इससे बच्चों में विरोधी भावना, द्वेष बुद्धि घर कर जाती है और बच्चे जानबूझ कर उपेक्षा टालमटोल करने वाले, किसी बात पर ध्यान न देने वाले अनुशासनहीन और उच्छृंखल बन जाते हैं।

किसी तरह की आज्ञा देते समय अथवा अनुशासन पालन की आदत के लिए यह जानना और समझना भी आवश्यक है कि बच्चा उस समय क्या कर रहा है। उदाहरणार्थ बच्चा अपने किसी दिलचस्प खेल में लग रहा है, एकाग्रता के साथ पढ़ रहा है अथवा अपने बाल मित्रों के साथ खेलकूद में मस्त है तो ऐसे समय उसे किसी तरह की आज्ञा नहीं देनी चाहिए। ऐसी स्थिति में प्रायः बच्चे आज्ञा नहीं माना करते। यदि उनके साथ जबरदस्ती और रौब दबाव का व्यवहार किया गया तो उनमें रूठने, चिल्लाने मचलने की आदतें पड़ जायेंगी और फिर हर बात में बच्चे विपरीतता अर्थात् आज्ञा उल्लंघन, अनुशासन-हीनता का परिचय देंगे।

जब बच्चे मां के पास शान्त तथा स्वस्थ मानसिक स्थिति में हों तो उन्हें आवश्यकतानुसार आदेश दिया जाय और जहां तक बने उस आदेश को खेल मनोरंजन के रूप में अथवा कोई नवीनता में परिणित कर देना अधिक श्रेष्ठ रहेगा। आदेश भी रचनात्मक होने चाहिए “अमुक करेगा”, “वह लावेगा”, “वहाँ जावेगा” आदि “यह काम मत कर”। “वहाँ मत जाना” “उसे मत छूना” आदि के रूप में नकारात्मक आदेश बच्चों में वैसा ही करने का कौतूहल पैदा कर देते हैं और वे उन्हें ही करने लगते हैं जिनके लिए मना किया जाता है।

अनुशासन, आज्ञापालन से सम्बन्धित बातों पर स्वयं बच्चों की राय लेना भी उत्तम होता है। इससे वे बड़े प्रसन्न होते है और तत्परता के साथ उनके लिए प्रयत्न भी करते हैं क्योंकि उन बातों में उनका भी एक अधिकारमय स्थान होता है। बच्चों को पुकार कर, दूर से चिल्लाकर कोई आदेश न दिये जायें बल्कि नजदीक बुलाकर और अच्छा तो यह हो कि उनके पास पहुंच कर ही उनसे कोई बात कही जाय। इससे बच्चे उसके मूल्य, महत्व को समझेंगे और उसी तत्परता, तन्मयता से उस पर अमल करेंगे।

अनावश्यक रूप से बच्चों को बार-बार टोकना अच्छा नहीं। वैसे बच्चे स्वतः ही किसी काम पर अधिक नहीं टिकते। थोड़े से समय में ही वे उससे विरत हो जाते हैं। टोकने से तो उनकी थोड़ी बहुत एकाग्रता, तन्मयता में विक्षेप पड़ता है। इतना ही नहीं आगे चलकर ऐसे बच्चे किसी भी काम पर एकाग्र एवं तन्मय नहीं हो पाते। अपने सामने आये हुए काम पर भी नहीं जम पाते जिससे जीवन में अनेकों असफलताओं का सामना करना पड़ता है।

बच्चे को किसी खेल आदि से विरत करने के लिए सीधी निषेधात्मक आज्ञा नहीं देनी चाहिए। वरन् उनके साथ लगकर सुझाव एवं प्रस्ताव रूप में अपनी बात रखकर उन्हीं से ऐसा निर्णय कराना उत्तम होता है।

बच्चों को दिए जाने वाले आदेश सरल एवं स्पष्ट भाषा में हों, साथ ही उनके साथ अपना प्रभावशाली वजन भी हो। किसी काम को करने की आज्ञा देने से पूर्व बच्चे से यह पूछना कि “ तुम अमुक काम करोगे” तो उससे “ना” में ही उत्तर मिलेगा। और किसी की बात के लिए एक बार ना कह देने पर बच्चों से वह काम कराना और भी कठिन हो जाता है। बच्चों को आकर्षक एवं प्रभावशाली ढंग से आज्ञा देनी चाहिए “ हमारा मुन्ना अमुक काम करेगा फिर वहां जायगा, इसके बाद यह लायेगा” आदि। इस रूप में आदेश आकर्षक, रचनात्मक प्रभावशाली वजनदार होते हैं और वह काम बच्चों के लिए कौतूहल, मनोरंजन के रूप में भी बदल जाता है।

बहुत से मां-बाप बच्चों के लिए नियमित व्यवस्थित जीवन बिताने के लिए बड़े ही सख्त और रूखे नियम बना देते हैं किन्तु इससे अनुकूल परिणाम प्राप्त नहीं होते। बहुत से बच्चे उन नियमों के अनुसार चलेंगे नहीं या जो थोड़ा बहुत नियम पालन करेंगे उनकी मौलिकता, आत्मविश्वास की शक्ति कुन्द हो जायेगी। अतः बच्चों पर नियम लादे नहीं जाने चाहिए वरन् स्वयं उन्हीं की राय को महत्व, प्रोत्साहन देकर बच्चों के खाने पीने, सोने पढ़ने, खेलने आदि का समय निश्चित कर देना चाहिए। यदि किन्हीं नियमों के कारण बच्चों को किसी तरह की कठिनाई हो तो उन्हें सरल भी बना देना चाहिए। बच्चों को नियमानुवर्ती बनाने से पूर्व स्वयं मां बाप को भी नियमित और बंधा हुआ जीवन बिताना आवश्यक है। जो मां बाप स्वयं अनियमित जीवन बिताकर बच्चों को नियमानुवर्ती बनाना चाहते हैं वे भूल करते हैं। यदि बच्चे अभ्यासवश नियम पालन में कोई गड़बड़ी अथवा भूल करें तो उन्हें एक दम धमकाना नहीं चाहिए। बहुत बार एक-सी भूल करने पर कह देना चाहिए।

केवल नियमादि बनाकर बच्चों पर कर्तव्य एवं जिम्मेदारी डालने से काम नहीं चलता। समय-समय पर बच्चों के साथ विचार विमर्श करना, उनकी बात पूछना, उनके कार्यक्रम जीवनक्रम आदि के बारे में दिलचस्पी प्रकट करना, अपनी सूझबूझ से बच्चों को नवीन तथ्यों का ज्ञान देना भी आवश्यक है।

कई मां-बाप बच्चों को नंगा ही घूमने फिरने देते हैं किन्तु यह आदत बुरी हैं। छोटे-छोटे बच्चे जब नंगे रहते हैं तो उनमें समय से पूर्व ही यौन-भावना जागृत हो उठती है। माता-पिता को अपने अबोध, छोटे से बच्चों के समक्ष भी परस्पर प्रेम प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। इससे बच्चों के अन्तर मन पर सूक्ष्म प्रभाव पड़ता है। समझदार, बोध रखने वाले बालक को तो यह सब देखकर आश्चर्य करते हैं। उनके लिए एक कौतूहल की बात हो जाती है और फिर बच्चे भी परस्पर वैसा ही करने का प्रयास करते हैं। बच्चों में फैलती हुई अपराध प्रवृत्ति, यौन भावना—जघन्य अपराधों के मूल में मां-बापों की यह भूल भी एक मुख्य कारण है। असमय में ही उत्पन्न यौन भावना को बच्चे गलत तरीकों से व्यक्त करते हैं। बच्चों के समझदार हो जाने पर तो उन्हें हमेशा अलग कमरे में, अलग-अलग बिस्तरों पर सुलाना चाहिए। अभिभावकों को इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि अपनी किसी भी चारित्रिक कमजोरी को भूल कर भी बच्चों के समक्ष प्रकट नहीं होने दिया जाय।

बच्चों में सद्गुणों, उत्कृष्ट आदतों की प्रतिष्ठापना के लिए स्वयं अभिभावकों को अपने आप में ही उनकी प्रतिष्ठापना करना आवश्यक है। अपना सुधार किए बिना बच्चों को सुधारने का प्रयत्न विडम्बना मात्र है। स्वयं बीड़ी पीते हुए बच्चों को धूम्रपान न करने का उपदेश देना क्या भूल नहीं है? बच्चों से जिन गुणों की आशा की जाय उन्हीं से सम्बन्धित वातावरण आस-पास होना चाहिए। सच बोलना सिखाने के लिए घर का वातावरण भी सचाई से भरा हुआ होना चाहिए। दवा पिलाने, अस्पताल में फोड़ा चिरवाने अथवा इंजेक्शन लगाने के लिए बच्चों को बहाना करके या झूठ बोल कर ले जाना, बच्चों को धोखा देना उनमें वैसी ही आदतें पैदा करना है। बच्चे फिर उन्हीं बातों का अवलम्बन लेते हैं। उन्हें फिर मां-बापों की आदर्श भरी बातों में भी संदेह होने लगता है और उन्हें झूठ मानने लगते हैं।

चोरी की आदत से बचने के लिए बच्चों को जब से अपने-पराये का ज्ञान होने लगे तभी तो यह सिखला देना चाहिए कि “बिना मांगे किसी की वस्तु लेना चोरी है।” दूसरों की वस्तु बिना मांगे लेना एक बुराई और अपराध है। चोरी की आदत पड़ जाना बच्चों के लिए घातक है। चोरी से दरअसल बच्चे की मनचाही इच्छायें शीघ्र ही पूरी हो जाती हैं। मां-बाप की सतर्कता से बच्चों में चोरी की आदत घर नहीं करती।

छोटी उम्र से ही बच्चों में कोमल भावनाओं का विकास करना चाहिए। बच्चों में सह भावना, सब के हित का ध्यान रखने की वृत्ति पैदा करना मां-बाप के ऊपर ही है। जो मां-बाप दूसरों के बच्चों बीच व्यवहार करते समय कोई भेद-भाव नहीं रखते और न किसी तरह का दुराव, छिपाव ही रखते हैं वे बच्चे अपना ही नहीं सब के अस्तित्व का एक साथ ध्यान रखते हैं। उनमें भेदभाव करने की भावना नहीं रहती।

बच्चों में अनुकरण करने की महत्वपूर्ण प्रवृत्ति होती है। माँ-बाप, अभिभावकों का जीवन उसके लिए निकटतम और आत्मभाव से भरा हुआ प्रतीक, आदर्शों का केन्द्र होता है। इस तरह मां-बाप के ऊपर ही बच्चों के निर्माण का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। मां-बाप अपने इस उत्तरदायित्व को समझें और प्रयत्न करें तो इन खिलते हुए कुसुमों में सद्गुण, सद्भावों, अच्छी आदतें, सदाचार, शील पुरुषार्थ, साहस आदि का सौंदर्य और सुगन्धि भर जाय और सामान्य से बच्चों में ही अनेकों महापुरुष निकल सकते हैं। प्रकृति शरीर देती है किन्तु मनुष्य उसे व्यक्तित्व तथा मनुष्यता देता है।

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