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Books - बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

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बालकों को अपराधी बनाने वाला—अपराधी समाज

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किसी भी बालक को अपराधी कहने से पूर्व यह अवश्य सोच लेना चाहिए कि उस अपराध का उत्तरदायी केवल बालक ही है या जिस समाज और वातावरण में वह पला है वह भी इसका जिम्मेदार है।

कोई भी शिशु जन्मतः, स्वभावतः अपराधी नहीं होता, चाहे वह मानव जगत का हो अथवा पशु जगत का। मानव शिशु और पशु शिशु परस्पर गहरे दोस्त हो सकते हैं लेकिन दो सजातीय बालक परस्पर अच्छे सम्बन्ध नहीं बना पाते। निर्दोष बालक को ऐसी विकृति के लिए उत्तरदायी ठहराना प्रौढ़ लोगों का, अभिभावकों का, अध्यापकों का सबसे बड़ा अपराध है।

बिगड़े हुए बच्चे या समस्या मूलक बच्चों का अध्ययन करते समय हमें एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि कोई भी शिशु एक विशिष्ट वातावरण में जन्म लेता है और उसे वातावरण की भाषा एवं व्यवहार का कुछ भी ज्ञान नहीं होता। उस समय वह एक कोरी कापी की तरह होता है। उसे यह भी ज्ञान नहीं कि जिसने उसे जन्म दिया है उसे क्या कहना चाहिए। उसे जो कुछ सिखाया जाता है उसे सीखता है। और जो कुछ सीखता है वह वही होता है जिसे वह अपने चारों ओर होते देखता है।

व्यक्तिगत सम्पत्ति के सिद्धान्त पर संगठित राजनीतिक और आर्थिक ढांचे वाले समाज में यह बात तो साफ तौर पर प्रकट होती है कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से जिस सम्बन्ध सूत्र से जुड़ा होता है, वह स्नेहिल या प्रिय कतई नहीं होता, इसके विपरीत वह सम्बन्ध दुःखदायी और अपमान जनक होता है। मनुष्य-मनुष्य के बीच आर्थिक खाई इतनी गहरी है कि उसे कोरी भावुकता दिखावटी प्रेम या सम्मान से नहीं भरा जा सकता।

आज की परिस्थिति में एक मजदूर अपने मालिक से प्रेम नहीं कर सकता, एक क्लर्क अपने ‘बोस’ की चापलूसी भर कर सकता है मगर सम्मान नहीं। वह हो भी कैसे सकता है। सच्चे मानवीय व्यवहारों या सम्बन्धों का आदान-प्रदान तो समान स्तर के मनुष्यों में ही हो सकता है। यदि दो मनुष्यों के सम्बन्धों का कारण आर्थिक नहीं तो वही सम्बन्ध मानवीय और सच्चा तो होना ही चाहिये।

इसी आर्थिक अन्तर को समाज की बस्तियां, स्कूल और सरकारी संस्थाएं व्यक्त करती हैं। एक ही शहर की दो बस्तियों में कितना अन्तर होता है? एक ही शहर के दो स्कूलों में कितना अन्तर होता है? एक ही शहर की दो सरकारी संस्थाओं में कितना अन्तर होता है? परिवार, समाज और सरकारी संस्थाओं का यह परस्पर संघर्ष और दूरियां अभिभावकों को जिस रूप में प्रभावित करती हैं। उसी प्रकार उनके शिशुओं को भी।

एक बालक यह सोचता है कि मैं मजदूर का लड़का हूं, दूसरा सोचता है मैं मालिक का लड़का हूं—दोनों एक दूसरे से बातें करने में हिचकिचाते हैं, दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी हैं, और एक दूसरे से घृणा करने लगते हैं। संशय, घृणा और अजनबीपन की इस प्रवृत्ति को कोई नहीं रोक सकता, जब तक परिवार, समाज और राज्य की दूरियां नहीं मिट जातीं, शहर और गांव का फर्क कम नहीं होता। जब तक व्यक्तिगत सम्पत्ति पर आधारित ढांचा निर्मित नहीं कर लिया जाता तब तक स्वस्थ शिशु को स्वस्थ मनुष्य के रूप में विकसित कर पाना असम्भव है।

व्यक्तिगत सम्पत्ति की वृद्धि करने के लिए रात-दिन इस गुना या सौ गुना मुनाफा कमाने के लिए होड़ लगी हुई है। छोटे मझोले पूंजीपति इसमें एक ओर तो मालामाल हो उठते हैं, दूसरी ओर मजदूर ‘भूख-भूख’ चिल्लाते हैं। कोई हजार-हजार रुपये वेतन पाता है तो लाखों करोड़ों लोग बेरोजगारी का शिकार होकर सड़क पर धूल फांकते फिरते हैं। कहीं भी किसी तरह का सामंजस्य नहीं रह गया।

ऐसे समाज में शिशु के लिए जो वातावरण मिलता है, उसकी रूपरेखा कितनी भयावनी और अमानवीय होगी, इसकी कल्पना करना किसी भी अभिभावक के लिए कठिन नहीं होनी चाहिए।

बिस्तर भिगो देना यानी शिशु का सोते में मूत्र त्याग कर देना मनोविज्ञान की दृष्टि में एक मनोविकार का संकेत करती है। मनोविज्ञान में जिस तथ्य पर गंभीरता से विचार किया जाना है, उस पर अभिभावक ध्यान ही नहीं देते ऊपर से मारना-पीटना आम बात है। कटी पतंग के लिए बच्चों के झुण्ड के झुण्ड जिस तरह झपटते हैं उससे उनकी मनोवृत्ति का पता चलता है। उसमें सामूहिक प्रवृत्ति जोर पकड़ती है जो किसी भी समाज के लिए भयंकर साबित हो सकती है।

परीक्षाओं में उपयोग की जाने वाली पद्धति, बालकों का परस्पर एक दूसरे का प्रतियोगी बनाने में सहायक होती है। इससे एक ओर स्पर्द्धा से बच्चे पढ़ते हैं तो दूसरी ओर प्रथम द्वितीय और तृतीय श्रेणियां बन जाने से इन बालकों के जीवन के भविष्य को निर्धारित करना व्यवस्था के दोषों में एक और बड़ा दोष है।

इससे न केवल बालकों में ही परस्पर द्वन्द्व बढ़ता है, बल्कि छात्रों और अध्यापकों के बीच भी तनाव बढ़ता है। तीन घंटों में ही विद्यार्थी को उत्तर पुस्तिका पर अपनी योग्यता दिखानी है जिससे उसकी योग्यता का पूर्ण प्रकाशन नहीं हो पाता। परीक्षा के इन्हीं परिणामों पर जीवन की सफलता और असफलता को निर्भर कर देने से, छात्रों में संशय, घबराहट, नकल करने की प्रवृत्ति जोर पकड़ती है, और कभी-कभी इसके इतने भयंकर परिणाम निकलते हैं कि अच्छे अंक न पाने पर या परीक्षा में असफल हो जाने पर उन्हें आत्म-हत्या ही करते देखा गया है।

उनके अन्दर यह भावना भर दी जाती है कि इस समाज में फेल हो जाना मृत्यु के बराबर है। अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी, सम्मान प्राप्त नहीं होगा, अतः वे आत्मघात या रोकने वाले के आत्म हत्या जैसे बुरे विचारों की ओर प्रेरित होते हैं।

किसी भी बालक को अपराधी कहने से पूर्व यह सोच लेना चाहिए कि वह किसी पवित्र समाज में पैदा नहीं हुआ है। उसके जन्म लेने के पहले ही वातावरण में अपराध के विभिन्न रूप उपस्थित रहे हैं। चोरी के अनेक रूप व्यभिचार के अनेक रूप, बेईमानी, घूसखोरी और वेश्यावृत्ति के अनेक रूप समाज में पहले से ही मौजूद हैं। ये सब बालक के साथ जन्म से ही नहीं आते।

यदि समाज में से बाल अपराधों को मिटाना है तो इस ओर पहले उनके अभिभावकों को बढ़ना चाहिए। जब तक वे स्वयं को नहीं सुधार पाते तब तक बालकों को सुधार पाना असम्भव है। बालक तो बड़ों का प्रतिबिम्ब होता है जैसा बड़ों को करता देखता है उसी की प्रति छवि वह उनको दिखा देता है। इस पर भी अगर बालकों को अपराधी कहा जाता है तो वह समाज को धिक्कारने भर की बात है।  

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