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Books - बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

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बच्चे क्यों झगड़ालू हो जाते हैं?

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जो मातायें गर्भावस्था में खान-पान और आचार विचार पर नियंत्रण नहीं रखतीं, अर्थात् चरपरे कड़ुवे, खट्टे, गरिष्ठ, व गर्म आदि, तामसी वस्तुयें खाती-पीती और लड़ती झगड़ती रहती हैं, उनके बच्चे बहुधा क्रोधी, चिड़चिड़े और झगड़ालू होते हैं। क्योंकि उनके रक्त और स्वभाव का, बच्चे के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ता है।

बहुधा मातायें उस दशा में अपनी स्थिति, सामान्य स्थिति की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण, और अधिकार पूर्ण समझने लगती हैं। ठीक होते हुए भी, इसकी अभिव्यक्ति कभी-कभी कलह का कारण बन जाती है। क्योंकि, परिवार के लोग उसे, उनका अभिमान समझ कर, असहयोग को स्थान देने लगते हैं। उनको यह ज्ञान ही नहीं रहता, इस प्रकार के व्यवहार से आगामी सन्तान के स्वभाव पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

प्रायः गर्भावस्था में मातायें कुछ अलसाई और थकी-थकी सी रहने के साथ, ऐसी मनोदशा के आश्रित हो जाती हैं, जो बड़ी चंचल, और चटोर होती है। अपनी उस चंचलता की पूर्ति न होने से, उनके मन में एक कुढ़न, झल्लाहट और नाराजगी रहने लगती है, जिससे वे बात-बात पर लड़ने, झगड़ने और कलह करने लगती हैं, जिससे बच्चे के संस्कारों पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता।

गर्भावस्था में माताओं को कैसे रहना चाहिये, और उन्हें किस प्रकार रखना चाहिये, इस पर विचार करके व्यवहार करने की आवश्यकता तो एक प्रकार से भारतीय समाज से लोग हो गई है। बहुत शिक्षित परिवारों और माता-पिताओं की बात तो कही नहीं जा सकती, सामान्य परिवारों में तो इस बात पर विचार करने के भाव का जन्म ही नहीं होता। निदान ऐसे परिवारों में, जिनकी कि संख्या भी अधिक है, अधिकतर बच्चे जिद्दी और झगड़ालू होते हैं। जो आगे चलकर, क्या परिवार और क्या समाज सभी के लिये एक समस्या बन जाते हैं।

गर्भावस्था की बात ही नहीं, बच्चे के जन्म के बाद भी उन बातों का ध्यान नहीं रखा जाता है, जिनसे उस पर अवांछनीय प्रभाव पड़ता है। सौर काल में मातायें, कुछ समय के लिये एक स्थान पर बंध कर रहने को विवश होती हैं। एक स्थान पर उनकी आवश्यकताओं की और इच्छाओं की पूर्ति करने के कर्त्तव्य, और कुछ अपने अनुभव जन्य निर्देशक के अधिकार से, सौर-गृह की सहायिकायें, बड़ी बूढ़ियां, माता को शान्त चित्त, और प्रसन्न नहीं रहने देतीं, जिसका फल यह होता है कि सौर समय में कभी-कभी कलह और कहा सुनी हो जाती है। जिससे उस शिशु का चेतन अबोध अवस्था में भी अदृश्य रूप से वातावरण का प्रभाव ग्रहण करने लगता है।

पथ्यपूर्वक खान-पान के अभाव से दूध के माध्यम से जो तामस तत्व बच्चे के रक्त में संचित होते रहते हैं, वे आगे चलकर उसके बुरे स्वभाव के रूप में प्रकट होते हैं। इसलिए गर्भ से लेकर पय-पान पर्यन्त माता को स्वयं, और समस्त घर वालों को ऐसे आहार-विहार एवं आचार विचार की व्यवस्था रखने का प्रयत्न करना चाहिए, जिससे बच्चे के निर्माणोन्मुख संस्कार, तामसिक विकारों से सुरक्षित रहें।

बच्चे के कुछ खाने पीने और हंसने-खेलने के समय से लेकर, जब तक वह स्वयं समझ की अवस्था में न पहुंच जाये तब तक उससे जो व्यवहार किया जाता है, उसका प्रभाव पूर्वापेक्षा कुछ अधिक शीघ्र और स्थायी पड़ता है। अस्तु, उस काल में खूब समझ-बूझकर व्यवहार करने की आवश्यकता है।

जो माता-पिता हर तरह की अच्छी बुरी चीजें हर समय प्रेमवश खाते रहने की छूट दे देते हैं उनके बच्चों का मन और मस्तिष्क स्वस्थ रूप में विकसित नहीं होता और न उनका शारीरिक स्वास्थ्य ही ठीक रहने पाता है, जिससे उनके अन्दर, एक क्षोभ और क्रोध स्थायी रूप से घर कर लेता है, जो बात-बात पर लड़ने-झगड़ने और दुराग्रह के रूप में सामने आता है।

छोटे-बच्चों के सामने, परिवार में बड़ों के बीच कलह होने से, उसके कीटाणु उनके मस्तिष्क में भी प्रवेश कर जाते हैं, क्योंकि क्रोध और कलह का प्रभाव रोग की तरह ही संक्रामक होता है। साथ ही बच्चों को कलहपूर्ण वातावरण पसन्द नहीं होता। उसमें उन्हें एक परेशानी और तकलीफ होती है। उसे रोक सकने में विवश होने के कारण, वे मजबूरन सहन करते हैं, जिसकी घुटन से उनमें एक आक्रोश भावना उत्पन्न हो जाती है, जो कभी-कभी उनके रो पड़ने के रूप में प्रकट होती है। नित्य प्रति ऐसा वातावरण रहने से उसे सहन करते-करते वे अन्दर ही अन्दर और कर्कश हो जाते हैं, जो उनके झगड़ालू बनने में सहायक होता है।

इस प्रकार जो बच्चे शैशव काल से ऐसे संस्कार लेकर बाल्यकाल में प्रवेश करते हैं, उनकी झगड़ालू वृत्ति जिद और दुराग्रह के रूप में माता-पिता एवं भाई बहनों के साथ धीरे-धीरे उलझाव के रूप में मूर्त होने लगती है। जिससे एक प्रकार से स्थूल झगड़ों का सूत्रपात हो जाता है, जो आगे चलकर बड़ी खराब स्थिति प्राप्त कर लेता है।

बच्चों का हठी होना भी अच्छा नहीं होता। क्योंकि तीन हठों में बाल-हठ भी बहुत विकट होता है। इसलिये सदैव ही बच्चे का हठी स्वभाव ही सारे झगड़ों की जड़ होता है।

बच्चों के हठी बनने के प्रमुख कारण होते हैं। एक तो उनका लाड़ प्यार। तामसी स्वभाव के कारणों का संक्षिप्त उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। अब रही लाड़-प्यार की बात वैसे तो सभी माता-पिता अपने बच्चों को प्यार करते ही हैं। किन्तु कुछ उनकी अनुचित जिद को पूरा करना प्यार मानते हैं। कदाचित वे सोचते होंगे कि उचित बात तो उचित है ही उसका मानना क्या? बात तो तब है जब बच्चे की अनुचित बात भी मान ली जाये। इसका फल यह होता है कि वे जीवन भर के लिये दुराग्रही बन जाते हैं। अपनी गलत बात को मनवाने का प्रयत्न और दूसरे की सही बात को भी न मानना उनके मस्तिष्क की एक विशेषता बन जाती है, जिससे सामाजिक व्यवहार में हर समय विग्रह होने की आशंका रहती है।

बहुत से अभिभावक एक बच्चे से दूसरे बच्चे को पिटवाते हैं जिससे वह मारपीट करने का आदी हो जाता है, और बाहर अपने साथियों से झगड़ा करने लगता है। अनेक अभिभावक मनोरंजन के लिये एक बच्चे को दूसरे बच्चे से भिड़न्त कराते हैं। जिससे उनकी झगड़ालू प्रवृत्तियों को उत्साह मिलता है।

प्रायः अभिभावक बच्चों की उपस्थिति में पास पड़ोसियों से विवाद करने लगते हैं, जिससे रक्त के सम्बन्ध से उन्हें भी जोश आने लगता है और वे अवसर पाकर आपस में लड़ पड़ते हैं।

बहुत से अभिभावकों की यह इच्छा रहती है कि उनके बच्चे अन्य बच्चों पर शेर होकर रहें। इसके लिये या तो वे उन्हें घुमा-फिरा कर शिक्षा देते हैं, या झगड़ा होने पर उनका अनुचित पक्षपात कर साहस बढ़ाते हैं।

कुछ अभिभावक बच्चे से यह शिकायत पाते ही, कि ‘‘अमुक बच्चे ने उसे मारा है या कुछ कहा है’’ तत्काल उसके अभिभावक पर चढ़ दौड़ते हैं, और बिना तथ्य तक पहुंचे ही विवाद करने लगते हैं। इसमें बच्चों को बड़ा मजा आता है, और वे बार-बार ऐसी परिस्थिति पैदा करने का प्रयत्न करते हैं। जिससे बड़े-बड़े झगड़े पैदा हो जाते हैं।

अनेक अभिभावक अवश्य यह चाहते हैं, कि जिन से उनका विवाद हो गया है, उनसे उनके बच्चे भी बुराई मानें और जहां तक हो सके उनके बच्चों को तंग करें। बहुत से तो पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी शत्रुता की थाती आन देकर बच्चों को सौंप जाते हैं। कहना असत्य न होगा कि अभिभावकों की यह मनोवृत्ति, समाज के लिये एक बहुत बड़ा अभिशाप है, जिससे समाज में बड़े-बड़े अपराधों की परम्परा सी पड़ जाती है।

कुछ अभिभावक स्वयं भी बड़े हठी होते हैं। जब तक अकारण ही छोटी-छोटी बातों में बच्चों के आड़े आ जाते हैं। जैसे, वे प्रायः बच्चों को खेलने और घूमने से यों तो मना ही नहीं करते, किन्तु कभी यदि वे विशेष तौर पर ऐसा करना चाहते हैं, तो उन्हें न करने देने के लिये अड़ जाते हैं और किसी प्रकार अपने हठ का जवाब हठ से देने लगते हैं।

कुछ अभिभावकों का अजीब उल्टा स्वभाव होता है। वे ‘‘अब तो ऐसा नहीं करेगा’’ के स्थान पर ‘‘ऐसा और करेगा’’ पर ज्यादा जोर देते हैं। जिससे बच्चों के मस्तिष्क में उल्टे उत्तरों की प्रतिक्रिया होती है।

बहुत से अभिभावक किसी बात को लेकर इतने अधिक सवाल जवाब करते हैं कि एक विवाद जैसा वातावरण पैदा हो जाता है। कभी-कभी तो वे दोनों ओर के सवाल-जवाब स्वयं कर लेते हैं। जैसे ‘‘आप वहां क्यों गये?’’ ‘‘कहो न कि मैं आपकी कोई बात नहीं मानना चाहता ।’’ ‘‘है न यही बात।’’ ‘‘कहते क्यों नहीं कि हां यही बात है।’’ और यदि वह इसके विपरीत उत्तर देता है—‘‘कि नहीं मैं आपकी बात मानना चाहता हूं’’ तो उसे यह कह कर पीटते हैं—कि ‘‘आप झूठ बोलते हैं, न आप मेरी बात मानना चाहते हैं और न मुझ से डरते हैं।’’ और जब तक उससे उल्टी बात का समर्थन नहीं करा लेते तब तक पीछा नहीं छोड़ते। इससे बच्चे में उनकी बात न मानने और न डरने की प्रवृत्ति जाग उठती है, जिससे वे उच्छृंखल और निरंकुश हो जाते हैं।

बहुत से अभिभावक बच्चे को अपने सामने झगड़ते हुए देखकर भी आंख बचा जाते हैं, और जब उनका बच्चा निर्बल पड़ता है तो झट दौड़कर दूसरे बच्चे को झटक देते हैं। इससे बच्चा झगड़ा करने के लिये शह पाता है।

कुछ अभिभावक बच्चे को खूब खाने-पीने को उत्साहित करते हुये कहा करते हैं जो चाहो खूब खाओ पिओ मगर इस खाये पिये को लजा मत देना’’—इससे बच्चा खाये पिये की शक्ति आजमायी के लिये जब-तब साथियों से भिड़ा करता है।

कुछ अभिभावक अपने बच्चे के बल-विक्रम की प्रशंसा उसके मुंह पर ही करने लगते हैं, जिससे वह उसे चरितार्थ करने का अवसर खोजा करता है।

कभी-कभी अभिभावक बच्चे को साहसी और निर्भीक बनाने के लिए ऐसी उत्तेजक उपाधियों से विभूषित करते हैं जिनसे स्वभावतः उसके मन पर झगड़े की प्रतिक्रिया होती है। सामान्यतः इस प्रकार के उद्बोधक वाक्य जैसे ‘‘बड़ा शेर है, ‘‘बड़ा दबंग है’’ अथवा किसी से ‘‘दबना तो जानता ही नहीं’’ बच्चे को झगड़े की ओर अग्रसर करते हैं।

बच्चे की, झगड़ा करने की शिकायत आने पर कोई-कोई अभिभावक, या तो शिकायत करने वाले की बात ही नहीं लगने देते, अथवा उस समय बच्चे को यों ही डांट फटकार देते हैं और बाद में उससे कह देते हैं मैंने तो यों ही उसे दिखाने के लिये डांट दिया था, उसका लड़का खुद बहुत लड़ाका है। इससे बच्चे के मन से शिकायत का भय भी निकल जाता है और कभी-कभी वास्तविक डांट को भी दिखावा समझ लेता है।

इस प्रकार बहुत सी ऐसी बातें हैं जो देखने में तो बड़ी साधारण सी लगती हैं किन्तु बच्चे पर उनका दूषित प्रभाव बहुत दूर तक पड़ता है। इसलिये अभिभावकों को चाहिये कि सूत्रपात से लेकर बच्चों के बाल्य-काल तक उनके सम्बन्ध में जो भी व्यवहार करें सावधानी के साथ करें। यदि उन्होंने इस अवधि में बच्चों को इस प्रकार के दोषों से बचा लिया तो मानो उन्होंने बच्चे का, अपना स्वयं, और समाज, तीनों का बड़ा हित किया। अन्यथा उनके बच्चे उत्तरोत्तर झगड़ालू होकर असाध्य हो जाते हैं जिससे वे उनसे जीवन भर दुःखी ही रहते हैं।

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