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Books - बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

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बच्चों को सभ्य-सामाजिक बनाइये

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अधिकतर देखने में आता है कि लोग अपने बच्चों को हर प्रकार से पारिवारिक ही अधिक बनाना चाहते हैं। वे समझते हैं कि बच्चा जितना पारिवारिक बनेगा, उतना ही परिवार के लिये, उनके लिये और स्वयं बच्चे के लिए हितकर होगा।

पारिवारिक दृष्टिकोण होने से वह अपने भाई बहिनों को प्यार करेगा। सयाना होकर उनकी मदद करेगा और मिलजुल कर रहेगा। उनके कहने पर चलेगा, सारी कमाई घ्र पा लायेगा। बुढ़ापे का सहारा बनेगा, उनका नाम रोशन करेगा और परिवार को आगे बढ़ायेगा।

सामाजिक बनने से वह स्वतन्त्र हो जायेगा, या सारी कमाई समाज के कामों में लगा देगा क्या पता कोई ऐसा काम कर बैठे जो सरकार की आंखों में खटकने लगे। परिवार अथवा परम्पराओं के विरुद्ध चलने लगे। कहीं ऐसा न हो कोई स्वतंत्र विचारधारा अपनाले और हाथ से बे हाथ हो जाये और फिर जिस सन्तान से सुख की आशा करते हैं वह दुःख का कारण बन जाये।

इस प्रकार की विचारधारा रखने वाले माता-पिता या तो सामाजिकता का सही सही अर्थ नहीं समझते, या जानबूझ कर अपने संकीर्ण दायरे से बाहर नहीं आना चाहते। फिर भी इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों में तत्वतः कोई मौलिक अन्तर नहीं है। किसी बात को न समझना या समझ कर भी उसको न करना एक ही बात है।

बच्चे के, या बच्चे से आशा किये जाने वाले सब प्रकार के हितों को एकीभूत करके यदि उसमें किसी सर्वांग पूर्ण प्रतिभा का निर्माण किया जाये, तो जो मूर्ति तैयार होगी, उसको निर्विवाद रूप से सामाजिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।

सामाजिकता एक इतना व्यापक परिवेश है, परिधि में क्या व्यक्ति, क्या परिवार और क्या राष्ट्र, सभी कुछ समा जाता है। जो वैयक्तिक है, जो पारिवारिक है वह केवल पारिवारिक है, किन्तु जो सामाजिक है वह सब कुछ है।

आज यदि बच्चे को सामाजिक न बनाकर किसी संकीर्ण सीमा का अभ्यस्त बना दिया जाता है, तो अवश्य ही कल उसका विकास रुक जायेगा, और उससे की जाने वाली सारी आशायें धूल में मिल जायेंगी। वह एक भीरु, संकुचित और समाज से दूर दूर रहने वाला निरीह प्राणी बन कर रह जायेगा। दुनिया में कहां क्या हो रहा है? लोग क्या कर रहे हैं? उसे क्या करना है इस सब सामान्य ज्ञानों से शून्य जो बच्चे केवल परिवार के कूप-मंडूक बन जाते हैं, उनसे कोई बड़ी आशा रखना केवल एक विडम्बना होगी। अतएव क्या परिवार, और क्या समाज अथवा राष्ट्र, इन सब के हित के लिये यह परम आवश्यक है कि कल के नागरिक बच्चों को आज से ही सामाजिक बनने में सहायता की जावे।

सामाजिक के लिये सभ्यता पहली शर्त है—और सभ्यता का अर्थ है—कुछ भी ऐसा न करना, जिसका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष, किसी प्रकार का भी अवांछनीय प्रभाव, स्वयं उस पर या किसी अन्य पर पड़े।

बस, यदि इस मूल मंत्र का अभ्यास बच्चों को करा दिया जाये तो उनको सभ्यता में ढालने के लिये किसी को बड़े भारी बालविज्ञान की आवश्यकता न पड़ेगी, पर उसके लिये, उससे भी पहले आवश्यक यह है कि बच्चों के अभिभावक स्वयं सभ्य बनें।

साधारणतः माता पिताओं का यह विश्वास होता है कि उनकी सन्तान, उनको ईश्वर प्रदत्त, ऐसी सम्पत्ति है जिसको वे जिस तरह चाहें उपयोग में ला सकते हैं। वे अपने सिवाय, और तो और स्वयं बच्चे का भी अधिकार उस पर नहीं समझते। और अपने इस अधिकार के प्रति सबसे अधिक जागरूक भी रहते हैं। वे सदैव यही चाहते हैं कि उनके बच्चे यंत्रवत् ही आज्ञानुसारी रहें, और यदि किसी प्रकार वे उनके मौन मनोभावों के अनुसार परिचालित हो सकें तब तो उनके संतोष का ठीक ही न रहे।

किन्तु वे यह नहीं सोचते कि जहां कोई बच्चा उनकी सन्तान है, वहां वह एक स्वतन्त्र इकाई भी है। जहां उस पर उनका अधिकार है, वहां कुछ अधिकार समाज और राष्ट्र का घटक भी है। किसी का बच्चा होने के साथ-साथ वह समाज का एक भी है। यदि आज वह अपने माता-पिता के सहारे समाज में चलता है तो कल उसे एक स्वतंत्र सदस्य की हैसियत में समाज में व्यवहार करना होगा। यदि उसको व्यवहारिक तैयारी कर समाज में न उतारा गया तो अवश्य ही वह अयोग्य विद्यार्थी की तरह असफल हो जायेगा। और भले ही अनिवार्य आवश्यकतायें उसे कुछ सिखालें, तथापि वह प्रारम्भ से तैयारी किये हुये व्यक्ति की भांति कुशल न हो सकेगा। निःसन्देह वह समाज में पिछड़ा हुआ और घिसट-घिसट कर चलने वाला पंगु सदस्य होगा। जो न तो समाज से ही कुछ लाभ उठा सकेगा और न समाज को ही उससे कुछ लाभ हो सकेगा। अतएव, अपना समझने के साथ-साथ बच्चे को एक स्वतंत्र मान कर पालन-पोषण किया जाना चाहिये।

उससे ठीक-ठीक वैसा ही व्यवहार करना श्रेयस्कर है जैसा एक सभ्य नागरिक से करना है। उसे जन्म–जात अपना अधिशासित समझकर हर समय आदेश की भाषा में न बोला जाय। इससे उसके मानसिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है। हर समय आदेश की भाषा सुनते सुनते उसमें खिन्नता और मलीनता का प्रादुर्भाव होने लगता है। उसे हाथ का बरतन मानकर मिनट-मिनट पर छोटे-छोटे कामों के लिये दौड़ाना ठीक नहीं। इससे कर्तव्यों के प्रति अरुचि और गुरु-जनों के प्रति अश्रद्धा होने लगती है, जिससे वह उनसे मुंह छिपाने की कोशिश करने लगता है।

बच्चों से अरे-तुरे अर्थात् ‘‘तू बड़ा खराब है’’ ‘‘तेरी किताब कहां है’’ ‘‘तुझे कितनी बात समझाया’’ अथवा ‘‘इधर आ’’, ‘‘वहां चला जा’’, ‘‘कहां था’’ आदि बुरे लगने वाले तिरस्कारात्मक शब्दों में न बोलना चाहिये। इससे उनमें आत्म-ग्लानि और हीनता का भाव पैदा होता है, और वे छोटे भाई-बहनों से इसी प्रकार बोलकर जबान खराब कर लेते हैं। बात-बात पर उनकी आलोचना करने, डांटने डपटने, और मारने पीटने से वे विद्रोही हो जाते हैं, जिससे उनमें असहमति और असहयोग की भावना उत्पन्न हो जाती है।

बच्चों को महत्त्वहीन समझ कर व्यवहार करने से वे अपने को नगण्य और अनुपयोगी समझने लगते हैं जिससे आगे चलकर उनमें आत्म-विश्वास की कमी हो जाती है। किसी काम के न कर सकने अथवा बिगड़ जाने पर उनकी खिल्ली उड़ाना अथवा उनके किसी बचपन से मनोरंजन करना उचित नहीं है। इससे वे हतप्रभ और चिड़चिड़े हो जाते हैं। उनकी किसी निर्णय में दी हुई राय, कही हुई बात को, भले ही वह कोई अर्थ न रखती हो एक दम बहिष्कृत कर देने से उनकी हिम्मत टूट जाती है, जिससे ठीक बात कह सकने में भी हिचकने लगते हैं। उनसे बात-बात पर यह कहना—‘अजी तुम क्या जानो अभी बच्चे हो’’ अच्छा स्वभाव नहीं है। उससे आगे बढ़ते हुये उनके बुद्धि-तत्व को धक्का लगता है, जिससे उनमें अयोग्यता अंकुरित हो सकती है।

इस प्रकार के और न जाने कितने व्यवहार हैं जो बच्चों से नहीं किये जाने चाहिये। किन्तु अभिभावक अपनी गुरुता के गर्व में बच्चों सम्बन्धी व्यवहार में सोच-विचार करना अपने गौरव के अनुरूप नहीं समझते, जब कि यही सबसे बड़े गौरव की बात है कि उनके व्यवहार से बच्चे होनहार बन कर समाज में अपना स्थान निर्धारित कर सकें।

बच्चों की सहज अनुकरण बुद्धि और सुकुमार मानसिक धरातल को ध्यान में रखकर ही व्यवहार करना चाहिये। जिससे यदि वे अनुकरण करें तो अच्छी बातों का और यदि कोई संस्कार उनके मन पर पड़े तो अच्छा ही पड़े।

बच्चों के पालन पोषण का अर्थ केवल यही नहीं है कि भूख लगने पर रोटी खिलादी जाये, कपड़े फटने पर कपड़े बनवा दिये जायें, मांगने पर पैसे दे दिये जायें और जरूरत पड़ने पर पुस्तकें आदि ले दी जायें और इससे अधिक कुछ किया तो स्कूल की ओर खदेड़ दिया। बाकी अपना खेलो-कूदो, पढ़ो-लिखो और बड़े होते रहो।

बच्चों का पालन-पोषण केवल अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझ कर ही नहीं, राष्ट्र एवं समाज की धरोहर मान कर करना चाहिये। समाज की आगामी आवश्यकता को ध्यान में रखकर उसका निर्माण ठीक उस जिम्मेदारी से करना चाहिये जिस प्रकार एक शिल्पी कोई भवन बनाता है अथवा कोई ईमानदार इंजीनियर पुल का निर्माण कराता है।

बच्चों को क्षमता भर सुन्दर से सुन्दर वातावरण में रखना चाहिये। उन से आदत पूर्वक बात की जानी चाहिये जिससे उनके मन पर ऊंचे संस्कारों की छाप पड़े। जहां तक हो अधिक से अधिक उस स्तर की परिमार्जित भाषा में बात करनी चाहिये जिस स्तर की कक्षा में वे पढ़ रहे हों। इससे उन्हें अच्छी भाषा बोलने-समझने का अभ्यास होगा और उनका शब्द-कोष बढ़ेगा। उनसे दिन में अवकाश के समय नियमित रूप से देश-विदेश के ऐसे विषयों पर कुछ न कुछ बात अवश्य करनी चाहिये जिसको वे किसी हद तक समझ सकें और जिनमें उनकी रुचि और हित सन्निहित हो। इससे उनकी विचार परिधि का प्रसार होगा और उनमें सार्वदेशिक एवं सार्वभौमिक चेतना का स्फुरण होगा।

बच्चों को अदब सिखाने के लिये आवश्यक है कि उनका भी अदब किया जाये। उन्हें साधारण सामाजिक शिष्टाचार की शिक्षा दी जाये और परिवार में गुरुजनों तथा भाई-बहनों के साथ अभ्यास कराया जाये, उनकी झिझक दूर करने और मिलनसार बनाने के लिये घर आये अतिथियों और मित्रों का स्वागत करते समय उनके बच्चों का स्वागत बच्चों से कराना अधिक श्रेयस्कर होगा। आगन्तुकों के समक्ष उनसे ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिये जिससे वे अपने को परिवार का महत्वपूर्ण अंग अनुभव कर सकें। इससे परिवार के माध्यम से उनमें सद्भावना का भाव बढ़ेगा और दूसरों के मन में उनके प्रति आदत उत्पन्न होगा। नवागन्तुकों के साथ परिचय कराते समय ऐसी शैली का प्रयोग किया जाना चाहिये जैसे वे एक दूसरे के पूरक हों।

कहने का तात्पर्य यह है कि बच्चों को ऐसे व्यवहार और वातावरण के बीच रखा जाना चाहिये जिससे उनमें बड़प्पन और विनम्रता की भावना बढ़े। अवसर आने पर उन्हें ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सुन्दर स्थानों पर साथ ले जाना चाहिये। इससे उनमें ज्ञान की वृद्धि होने के साथ-साथ नवीन स्थानों के आचार-विचार और रहन-सहन से भी परिचय होगा जो आगे चलकर उनको बहुत काम देगा।

इस प्रकार यदि प्रयत्न करके बच्चों की वर्तमान पीढ़ी को सभ्य सामाजिक बनाकर जीवन-क्षेत्र में उतारा जाये तो कोई कारण नहीं है कि आज का सड़ा-गला समाज सुन्दर और स्वस्थ रूप में न बदल जाये।

बच्चों की इस सामाजिक शिक्षा के लिये परिवार ही सबसे उपयुक्त संस्था है। क्योंकि इसके सब सदस्य एक दूसरे स्वभाव से भली भांति परिचित होते हैं और एक नैसर्गिक सम्बन्ध सूत्र में बंधे होते हैं। भाई बहनों के बीच अपने अभिभावकों की सहायता से वे जितना सुन्दर और स्थायी शिक्षण परिवार में पा सकते हैं उतना किसी बाहरी शिक्षा केन्द्र में नहीं। परिवार में छोटे-बड़े, तरुण, वृद्ध, स्त्री और पुरुष सभी प्रकार के सदस्य स्वभावतः उपलब्ध रहते हैं जिनके बीच क्या मौखिक और क्या व्यावहारिक दोनों प्रकार की शिक्षा सहज रूप में दी जा सकती है। परिवार में शिक्षण के सारे उपादान और साधन पहले से ही मौजूद रहते हैं, उनको नये सिरे से संचय करने अथवा जानबूझ कर शिक्षण के लिये अनुकूल अवसर और अवस्थायें तैयार करने की आवश्यकता नहीं है। परिवार में सब कुछ एक प्राकृतिक प्रवाह में चलता रहता है। कृत्रिमता से रहित जिस सहज स्वाभाविक सामाजिकता की आवश्यकता है, उसका ठीक-ठीक शिक्षण परिवार के अतिरिक्त और कहीं नहीं दिया जा सकता।

इस प्रकार कहना असत्य न होगा कि समय और समाज के अनुकूल जिस नागरिक ने अपना एक भी बच्चा सभ्य–सामाजिकता के साथ आज राष्ट्र को दे दिया उसने मानो एक अश्वमेध यज्ञ करने के बराबर पुण्य प्राप्त कर लिया।

 

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