
बच्चों को अधिक आदेश न दें
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प्रायः, बच्चे इसलिये अवज्ञाकारी बन जाते हैं कि हम उन्हें अत्यधिक आज्ञाकारी बनाना चाहते हैं। यदि बच्चों को दी जाने वाली आज्ञाओं की केवल एक वर्ष की सूची बनाई जावे, तो वह इतनी बड़ी होगी, जितनी बड़ी शायद कानून की सब किताबें भी न हों। उन्हें उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते, खेलते-कूदते हर समय आज्ञा ही देते रहते हैं और यह भी चाहते हैं कि वह उन सब आशाओं का अक्षरशः पालन भी करे। हमारा यह भाव इतना बढ जाता है, कि यदि, सौ आज्ञाओं में से बच्चे ने किसी परिस्थितिवश एक की भी अवज्ञा करदी, कि बस हम आपे से बाहर हो जाते हैं, उसे न जाने कितनी उपाधियां दे डालते हैं, और अवज्ञाकारी मानकर, उसके प्रति निराश होकर एक अशान्ति पनपा लेते हैं। हमने बच्चों के अच्छे बुरे होने का मापदण्ड केवल अपनी आज्ञाकारिता ही बना लिया है। जो बच्चा कोई भी आज्ञा पाने पर तत्काल उसका पालन करता है, वह तो बड़ा अच्छा, लायक और होनहार है, और जो ऐसा नहीं कर पाता, वह मानो बिल्कुल निकम्मा और नालायक है। हमारी आज्ञा पालन होनी ही चाहिये, फिर चाहे वह उसके अनुकूल हो या प्रतिकूल। मनुष्य को आज्ञा चलाने और उसको पूरा देखने की बड़ी चाह होती है। इससे उसके अहं को बड़ा सन्तोष मिलता है। इसलिये बहुधा देखने में आता है कि जो बच्चा अधिक आज्ञानुवर्ती रहता है, वह अन्य बच्चों से अधिक प्यारा होता है। उसका लिहाज भी बहुत रखा जाता है। उसे चीज और पैसे भी अधिक मिल जाते हैं। उसके दोषों की उपेक्षा कर दी जाती है, और एक तरह से वह अन्य बच्चों का मानीटर मान लिया जाता है, और बच्चे कम आज्ञानुवर्ती रह पाते हैं वे बेचारे इन सब बातों से वंचित रह जाते हैं। बच्चा तो बच्चा, आज्ञाकारी पशुओं तक को विशेषता मिलने लगती है। जो पशु आज्ञानुसार परिचालित होते हैं उन्हें हम बहुत चाहने लगते हैं। अपने हाथ से खिलाते-पिलाते और नहलाते तक हैं। कोई नुकसान कर देने पर उन्हें क्षमा कर देते हैं। उसे मारने पर बच्चों तक को डांटने-फटकारने लगते हैं। उसकी उपेक्षा करने पर घर वालों पर नाराज हो उठते हैं इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी को आज्ञानुवर्ती रखने की हमें कितनी उत्सुकता रहती है। हमें बच्चों अथवा अपने अधीनस्थों पर आज्ञा चलाने का अधिक अवसर रहता है। इसलिये हम अपने इस अहं को सन्तुष्ट करने में उनको ही लक्ष्य बना लेते हैं। चूंकि बच्चे छोटे भी होते हैं, हमारा जन्मजात उन पर अधिकार भी होता है और हर समय उपलब्ध भी रहते हैं, इसलिये वे ही हमारे इस अहं के सबसे अधिक वाहक बनते हैं। प्रारम्भिक आज्ञाओं में भी अनुभव किया जा सकता है, कि जिन आज्ञाओं को हम, प्यार का द्योतक और बच्चे के प्रशिक्षण की विधि समझते हैं, उसमें भी हमारा अहं किस सीमा तक निहित रहता है। यदि हमारे एक बार कहने से अपनी मौजवश वह हाथ नहीं उठाता या नहीं करता तो हम जहां तक संभव होता है, बार-बार कहकर, प्यार से पुचकार कर, खुद करके दिखलाकर, वैसा कराकर ही पीछा छोड़ते हैं। और यदि बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी वह वैसा नहीं करता तो हम में एक खिन्नता का कुछ न कुछ भाव आ जाता है, और हम उसे प्यार से गाल पर या पीठ पर थपथपा कर स्नेह का पुट देते हुए कोई न कोई उपाधि दे देते हैं, जैसे, ‘बड़ा बदमाश’ ‘बड़ा मनमौजी’ आदि किन्तु यह बात माननी पड़ेगी कि उसकी उस अवज्ञानुकारिता से हमें कुछ न कुछ अरुचिकर निराशा अवश्य होती है। जब गोद के अबोध शिशुओं के सम्बन्ध में हमारी यह दशा है, जो बच्चे सयाने होते हैं उनकी मन-मौज को सहन कर सकना कहां तक हमारे वश की बात होगी? बहुत कुछ स्वाभाविक होने पर भी यह अहंभाव श्रेयस्कर नहीं है। क्योंकि इसकी अतिरेकता बच्चों और अभिभावकों के बीच, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में तनाव उत्पन्न कर देती है। अस्तु एक ओर आज्ञाओं की वृद्धि और दूसरी ओर स्वच्छन्द बुद्धि के विकास में संघर्ष बचाने के लिये अभिभावकों को, बच्चों को प्रत्येक परिस्थिति में, एक लकड़ी से हांकने का हठ न करना चाहिये। बहुधा देखने में आया है कि कोई काम करते वक्त अभिभावक बच्चों से अर्दली की तरह काम लेते हैं। जरा वह उठाना, यह उधर रखना, इसे हटाना, वहां चले जाना, मां को बुलाना, पानी लाना, यह कर देना, वह कर देना आदि—आदेशों का एक सिलसिला लगा देते हैं। बहुत बार तो बच्चे से एक काम छुड़वा कर दूसरी आज्ञा दे दी जाती है। पढ़ने से उठाकर काम के लिए दौड़ाया जाता है, खेलने से बुलाकर सेवा ली जाती है। यही नहीं कि कोई एक व्यक्ति ही आज्ञा चलाता हो, उसे उससे जो भी बड़े व्यक्ति होते हैं समान रूप से आज्ञाकारी रखना चाहते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अभी पिता की आज्ञा का पालन हो ही रहा था कि माता का आदेश हो गया। माता का आदेश पूरा नहीं हुआ कि बड़ी बहन या भाई ने कुछ काम बता दिया। कभी-कभी बहुत से लोग एक साथ काम बतला देते हैं। तो या तो बेचारा, सब का काम सबकी इच्छानुसार कर नहीं पाता, या कुछ न कुछ बिगड़ जाता है, जिससे उसे अनेकों का कोप भाजन बनना पड़ता है। कभी-कभी कुछ काम बिना कोई निर्देश दिये आदेशित कर दिये जाते हैं जैसे—यह पुस्तकें अलमारी में रख दो, या अमुक वस्तु को अनेक वस्तुओं से स्थानांतरित करदो और जब वह काम उनकी इच्छा से साम्य नहीं खाता तो उसे कम अक्ल या बेशऊर होने की अनेक, उपाधियां दे डाली जाती हैं। बहुत बार ऐसी भ्रामक और विपरीत आज्ञायें भी दी जाती हैं, जिनका ठीक-ठीक पालन कर सकना उसके लिये सर्वथा कठिन होता है। जैसे—वहां चले जाना, अमुक से यह कहना, और यदि वह यह उत्तर दे तो यह नहीं तो यह बात कहना, और फिर जो कुछ वह कहे वह अमुक से बतलाकर, उसका जवाब अपनी माता या मुझे बतलाना आकर। अथवा आज तुम खेलने बिल्कुल नहीं जाओगे और अगर जाओ तो थोड़ा बहुत खेल कर अपने घर आ जाना। कभी-कभी माता व पिता की परस्पर विरोधी आज्ञाओं से असमंजस में पड़ जाता है, जैसे पिता का आदेश है अमुक व्यक्ति के यहां कतई न जाया करो मां का कहना है कि जब उनके बच्चे आते हैं तो इसके जाने में क्या हर्ज है, कभी-कभी ही आया करो, बेटे। कभी-कभी उसे माता की इस स्पर्धा के बीच फंसना पड़ता है कि देखें बच्चा किसकी बात अधिक मानता है। पिता कहता है अंग्रेजी की पुस्तक सुनाओ, मां कहती है हिन्दी की कविता, वह बेचारा उन दोनों का मुंह ताकता हुआ असमंजस में पड़ जाता है कि किसकी बात मानें किसकी न मानें। एक की बात मानने से दूसरा नाराज होगा और यदि किसी की बात नहीं मानता तो दोनों की नाराजगी उठानी पड़ती है। निदान उसे एक को निराश करना ही पड़ता है। चूंकि बच्चा इतना चतुर तो होता नहीं कि दोनों की आशा निराशा में संतुलन बनाये रखे, फलस्वरूप एक का पलड़ा भारी होने से दूसरे की दृष्टि में गिरने लगता है। यद्यपि, इस प्रकार की स्पर्धायें पारिवारिक मनोरंजन के अन्तर्गत आती हैं तथापि इनकी बहुतायत ठीक नहीं। इससे मन मुटाव की आशंका रहती है। कभी-कभी अधिक आज्ञायें गुरुजनों के बीच कलह का कारण बन जाती हैं जैसे, एक के अधिक आज्ञाएं देने पर दूसरा तरस खाकर टोक भर देता है, कि बस टोके हुये का नपा-तुला उत्तर बाहर आया नहीं, आप चाहते या चाहती ही हैं, कि वह न तो मेरी कोई बात माने और न कोई काम करे मेरा उस पर अधिकार ही क्या है, बच्चा तो आपका है ना बस-क्रिया प्रतिक्रियाओं का जन्म और कलह का प्रारम्भ और फिर थोड़ी देर बाद घूम फिर कर बच्चे पर ही आ पड़ती है, कि इसके कारण न जाने क्या–क्या सुनना पड़ता है? बेचारा निरपराध अपराधी बन जाता है। बहुत सम्पन्न परिवारों की तो बात नहीं कही जा सकती किन्तु जहां साधारणतः नौकर उपलब्ध नहीं रहते, वहां एक प्रकार से उनकी पूर्ति बच्चों से ही की जाती है। यदि बच्चों के काम और उन पर होने वाले खर्च का अनुपात लगाया जाये तो शायद ही उन पर होने वाला खर्च अधिक बैठे। इस प्रकार हर समय उसको क्षण-क्षण पर आज्ञानुवर्ती बनाये रखना ठीक नहीं। कभी किसी कारण से उसका मन कोई काम न करने का भी हो सकता है। बच्चा ही है, अपनी किसी धुन में अनसुनी भी कर सकता है और तब आप अपनी अवज्ञा समझ कर खीझ उठेंगे। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है, कि बच्चे को कोई आज्ञा न दी जावे और न उससे कोई काम लिया जावे। कहना केवल यह है कि आज्ञाओं का तारतम्य कुछ कम करके उनका रुख बदल दिया जावे और अहं के स्थान पर कुछ नरमाई को संयोजित किया जावे। उसे अपना सहायक और सहयोगी तो बनाइये किन्तु एक मात्र नौकरों की तरह सेवक न बनाइये। सेवक तो वह स्वयं आपका बनेगा ही आप स्वयं अपनी ओर से उसको इस पर पर न मानिये। आशय यह कि सहायक और सहयोगी तो बनाना आपका अपना अधिकार है, और सेवक बना उसकी अपनी श्रद्धा का विषय है। और यदि आपको उसे आज्ञाकारी सेवक देखने से ही संतोष और पितृत्व गौरव अनुभव होता है तो उसे अधिक श्रद्धालु बनने का अवसर दीजिये केवल पालन पोषण की कीमत पर उसे सेवक मानने का विनिमयन भाव प्रशंसनीय नहीं है। यह एक ओछी और अहितकर भावना है इसका आभास मात्र अनुभव हो जाने से बच्चा आजीवन आपको उस श्रद्धा की दृष्टि से न देख पायेगा जिससे उसे देखना चाहिये। क्योंकि इस प्रकार के भावानुबन्ध में पिता पुत्र का सम्बन्ध न रह कर स्वामी सेवक का सम्बन्ध हो जाता है। जो शायद किसी को भी रुचिकर न हो। अस्तु, उसे अश्रद्धालु होकर कर्त्तव्य से गिरने और स्वयं उसकी श्रद्धा से वंचित होने का अवसर न आने दीजिये। कोई बच्चा श्रद्धा लेकर पैदा नहीं होता। वह माता पिता की कृपा, कष्ट, करुणा और कोमलता से बच्चे के हृदय में जन्म पाकर दिनों दिन स्निग्ध और स्नेहिल व्यवहार से बढ़ कर एक दिन पूर्णता हो जाती है। अब प्रश्न यह है कि ऐसी कौन-सी आज्ञायें हैं जो कम करदी जावें और उनका रुख किस प्रकार बदला जावे—इसका एक छोटा सा उत्तर है—कि केवल उसको उस समय वह आशा दीजिये, जिस समय वह किसी अपने काम में निमग्न न हो और जो उसके करने योग्य हो और उससे कराये बिना कुछ हर्ज होता हो। केवल आलस्य आरामतलबी अथवा अनावश्यक अधिकार तुष्टि के लिए आज्ञायें न दीजिये। जैसे खाना आप खाने जा रहे हैं—पानी बच्चा रखेगा, नहा आप रहे हैं धोती बच्चा लायेगा, कपड़े आप उतारेंगे टांगेगा बच्चा, बाजार आप चलेंगे वासन-वसन वह वहन करेगा, लौटते समय आप रिक्त हस्त सामान उस पर आदि ऐसी बातें हैं जो बच्चों से करवाने में शोभा नहीं देतीं। हां यदि वह स्वयं करता या करना चाहता है तो खुशी से करने दीजिये, अथवा ऐसा वातावरण उत्पन्न करिये जिससे वह सारे कामों में हाथ बटाने को उत्सुक हो उठे। बहुत से अभिभावकों को कोई एक काम एक बार में पूरा ही नहीं होता। कारण यह है कि उन्हें बच्चे को बार-बार दौड़ाने में कुछ लगता तो है ही नहीं फिर क्या जरूरत है कि काम सोचकर इस ढंग से बताया जाये कि वह एक बार में पूरा हो जाये—जैसे पानी ले आओ वह एक लोटे में पानी ले आया। वाह तुम भी अजीब आदमी हो, तुम्हें मालूम नहीं पानी पियेंगे गिलास में गिलास लाना चाहिये था जाओ लोटा ले जाओ और गिलास में लेकर आओ। जब वह गिलास में लेकर आया तो थोड़ा और ले आओ प्यास बुझी नहीं। यही एक काम ठीक प्रकार से बतलाने से एक बार में ही पूरा हो सकता था और बच्चा बार बार की कवायद से बच जाता जैसे-‘‘पीने के लिये एक बड़े गिलास में पानी ले आओ’’। इस प्रकार दिन में अनेकों बार ऐसी बातें होती रहती हैं और आखिर बच्चा ऊबकर कह ही बैठता है आप तो बार बार दौड़ाते हैं। देखने में तो यह बातें बहुत छोटी मालूम होती हैं किन्तु धीरे-धीरे बच्चे की मनोवृत्तियों पर जो इसका अनदिख प्रभाव संचित होता है उसका बहुत महत्व है। आज्ञाओं का रुख बदलने का अर्थ है—सीधे सीधे आदेश की भाषा में न कहना—जैसे—‘‘पानी ले आओ, वहां चले जाओ, यहां आओ, खेलने मत जाना’’। इन्हीं बातों को इस प्रकार कहने में शायद कोई हर्ज नहीं है—क्या आप पानी पिलायेंगे, क्या वहां चले जाओगे, ज्यादा खेलना ठीक नहीं होता। इस प्रकार बात का थोड़ा सा रुख बदल देने से बच्चा सहर्ष वह काम करने को प्रेरित होगा। इनकार तो किसी दशा में कर ही नहीं सकता। नरमाई रखने का अर्थ है—यदि किसी समय किसी कारण से कोई बात अनसुनी कर देता है तो उसे अपने मान और बड़प्पन का प्रश्न बनाकर बहुत बुरा न मानिये, अपितु उसके कारण की खोज कीजिये और कहिये—क्या बात हो गई बेटे जो तुमने मेरी बात ही सुनना छोड़ दी। इससे वह लज्जित हो जायेगा और भविष्य में आपको ऐसा कहने का मौका न देगा। इन सब बातों से किसी को यह आभास हो सकता है कि यह तो बच्चे को खुशामद करने और उसे सर चढ़ा कर बिगाड़ देने की बात कही जा रही है। किन्तु ऐसी कोई बात नहीं है। यह बातें सिर्फ बच्चों से ऐसा व्यवहार करने की ओर संकेत करती हैं जिनसे कि वे आपकी नैतिक विनम्रता से दबकर ठीक-ठीक विनम्र और आज्ञाकारी बनें। जब हम संसार में सबसे कोमल व्यवहार करना चाहते हैं तो कोई कारण नहीं दीखता कि बच्चों से कर्कश व्यवहार किया जाये। जब कि वे संसार में सब से अधिक कोमलता और स्नेह के अधिकारी हैं। अस्तु, बच्चों को अधिक से अधिक आज्ञाकारी और विनम्र बनाने के लिये कम से कम आज्ञायें दीजिये। क्योंकि यह निश्चित है कि जिन बच्चों को जितने कम और युक्त आदेश दिये जाते हैं वे उनके प्रकाम पालन में सदैव सहर्ष तत्पर रहते हैं।