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Books - बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

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सभ्यता व संस्कृति

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एक अनुभवी शिक्षक का कथन है कि हम लोग अपने बालकों की शिक्षा के सम्बन्ध में भी उदासीन हो गये हैं। माता-पिता को समय नहीं मिलता कि बालकों की ओर समुचित ध्यान दें। वे चाहते हैं कि बालक को पाठशाला में भर्ती करादें और आगे का सब काम अध्यापक ही कर लेंगे, पर आज के अध्यापक को कोई परवाह नहीं। यह एक कारण है जिससे बालकों की शिक्षा दूषित होती है।

मान लीजिए कि जब आप कहीं आमोद-प्रमोद के लिए जाते हैं तो वहां पड़ाव डालकर अपना सारा काम स्वयं करते हैं। झाड़ू देकर जमीन साफ करते हैं लकड़ियां बीन आग जलाते, बर्तन साफ करते, चाय बनाते, पत्तों पर भोजन करते हैं। यह सब काम बड़ी रुचि से करते हैं जिसमें एक प्रकार का आनन्द आता है। वही काम यदि घर पर करना पड़ जाय तो सम्भवतः आप यह कर इंकार कर देंगे कि ‘यह हमारा काम थोड़े ही है।’ बच्चे को सभ्य व सुसंस्कृत बनाना माता-पिता की जिम्मेदारी है उस जिम्मेदारी के पालन से ही बच्चे समाज के लिए उपयोगी बन पाते हैं।

जिस प्रकार इमारत का ख्याल रख कर हम नींव डालते हैं, उसी प्रकार बच्चे की समझ तथा पढ़ने की कठिनाई को समझकर हमें पहले उस ओर बच्चों की दिलचस्पी पैदा करनी आवश्यक है। बहुतेरे माता-पिता की यह शिकायत होती है कि बच्चा स्वयं नहीं पढ़ता, उसको एक साल स्कूल जाते हो गया परन्तु उसने कुछ नहीं सीखा है। घर पर भी मार मार कर पढ़ाना पड़ता है। अब भला बताइए जिस काम के कारण शुरू में ही बच्चे का खेलना बन्द हो जाय, तीन घंटे कक्षा में कैदी के समान बंध कर बैठना पड़े, न हंस सके, न बोल सके न कहीं इधर-उधर जा सके, पढ़ाई कुछ समय में न आने पर मास्टर से तथा घर पर मारपीट अलग सहनी पड़े, उस काम में बच्चे की दिलचस्पी कैसे हो सकती है? वह तो मास्टर को एक हऊआ तथा पढ़ाई को मुसीबत समझने लगते हैं। लड़का जब घर पर कुछ शरारत करता है तो मां-बाप धमका कर कहते हैं ‘यह मेरा कहना नहीं मानता, दिन भर घर में ऊधम मचाये रहता है अगले महीने से इसे स्कूल भेजूंगी। तब इसकी तबियत ठीक होगी, सारी बदमाशी भूल जायगा। जहां भी पढ़ाई के विषय में बच्चे का आरम्भिक अनुभव बुरा हुआ, बड़ा होने तक दूर नहीं होता। यही कारण है कि मेधावी बच्चों में दिलचस्पी की कमी बनी रहने से वह उतना अच्छा नतीजा नहीं दिखा पाते।

इससे यह सिद्ध होता है कि एक ही काम भिन्न-भिन्न तरीकों से दिलचस्प भी हो सकता है और अरुचिकर भी। बच्चों के विषय में भी यही बात है कि उनको जब आप कोई काम सिखायें तो उसके प्रति बच्चों को उत्सुकता तथा शौक बनायें रखें, फिर आप देखें कि बच्चे अपना खाना-पीना भूल कर किस प्रकार ध्यान से आपकी बात सुनते हैं।

वास्तविक बात तो यह है कि माता ही बच्चे की सर्व प्रथम गुरु है। पांच वर्ष की उम्र में बच्चा योग्य मां से इतना कुछ सीख सकता है, जितना चार साल आगे स्कूल में नहीं सीख सकेगा। कहानी किस्से के रूप में ही बच्चा इतिहास, भूगोल, धर्म विज्ञान, स्वास्थ्य रक्षा, सफाई, कविता, कहानियां, चुटकुले आदि की शिक्षा प्राप्त कर लेता है। बच्चे कहानी सुनने के बड़े शौकीन होते हैं। कहानियों के द्वारा ही बच्चों का चरित्र निर्माण हो सकता है। अब यह तो मां की योग्यता और चरित्र पर निर्भर करता है कि बच्चे को किस प्रकार की कहानी सुनावें। परियों की कहानी जानने वाली मातायें बच्चों को वह सब सुनाती रहती हैं परन्तु माता जीजाबाई बच्चे शिवाजी को रामायण और महाभारत की वीर कहानियां सुनाती रहती थीं। तभी तो आगे चल कर उनका बच्चा धर्म प्रतिपालक आज्ञाकारी और साहसी बना। घर में जब बच्चों की स्मरण शक्ति का इन कहानियों के द्वारा विकास हो जायगा वह बड़ा होकर उन्हीं बातों की चर्चा इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि की पुस्तकों में पढ़ेगा, तब उस विषय के अपने बाल्यकाल के ज्ञान को वह उसी कड़ी में जोड़ देगा। इस प्रकार अवस्था में शिक्षण की जो पहली कड़ी तैयार हुई होगी, आगे का ज्ञान उसी के साथ शृंखलाबद्ध हो जायगा। पहली मजबूत नींव पर ही आगे की इमारत खड़ी कर दी जायगी।

बच्चों को स्कूल तभी भेजना चाहिए, जब अपने संगी-साथियों को स्कूल जाते देख, वहां का मनोरंजक घटनाएं, खेल-तमाशों आदि के विषय में सुन उनके दिल में भी स्कूल जाने की लालसा जाग्रत हो जाय। आप भी बच्चे के दिल में इस भावना को जाग्रत करने में सहायता दें। यह कहने से कि ‘वाह बच्चा अब बड़ा हो गया है अब तो वह भी शान से बस्ता दबाकर स्कूल जाया करेगा, वह भी बड़े भैया की तरह इनाम जीतेगा। अपनी कक्षा में फस्ट रहेगा, भैया ने जो कहानी और कविताएं याद की हैं, उन्हें जब वह अपने मास्टर साहब को सुनायेगा, वह कितने प्रसन्न होंगे। वार्षिक जलसे में उसे सबके सामने कविता सुनाने का अवसर दिया जायगा क्योंकि बच्चा कविता कहने में तनिक भी नहीं शर्माता। देखना तो सही जब हमारा बच्चा स्कूल जायेगा उसकी कितनी शान रहेगी इस प्रकार की बातों से बच्चे की आंखों में एक खुशी की तथा उत्साह की चमक आ जायगी। वह स्वयं ही स्कूल जाने के लिए उतावला रहेगा। अपना नया बस्ता, नयी आकर्षक तस्वीरों वाली पुस्तक, खाना ले जाने के लिए नया डिब्बा, छोटी गिलासी ये सभी चीजें उसमें एक बड़प्पन और विशेषता का अनुभव पैदा करेंगी। व बड़ी दिलचस्पी से स्कूल जायेगा। ऐसी स्थिति में स्कूल जाने का कार्य उस के लिए भार रूप नहीं होगा।

यों तो आधुनिक बाल-मनोविज्ञान एक बहुत बड़ा विषय है किन्तु इस विषय के आधार पर जो माता-पिता अपने बच्चों का पालन पोषण व शिक्षण करेंगे उनके बच्चे निश्चित ही देश के सुसभ्य एवं सुसंस्कृत नागरिक बनेंगे।

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