
संगीत के दुरुपयोग की निन्दा भर्त्सना
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स्वरयोग की साधना—शब्दब्रह्म का अभ्यास वस्तुतः एक साधना है जिसका अवलम्ब लेकर मनुष्य अपने भीतर से ‘सुन्दर’ को ही नहीं ‘शिव’ और ‘सत्य’ को भी उल्लसित कर सकता है और उस आन्तरिक तृष्णा की तृप्ति कर सकता है जिसकी लालसा से उसे विविध विधि कामनाएं और प्रवृत्तियां अपनानी पड़ती हैं। ‘संगीत’ के योगसूत्र में यही स्पष्ट किया गया है कि योग साधना के अनेक प्रकारों में नादयोग की स्वर-साधना का भी महत्वपूर्ण स्थान है।
गीता में भगवान ने अपने को वेदों में सामवेद बताया है। ‘वेदानां सामवेदोऽस्मि ।’
सामवेद में भी संगीत ही है पर उसमें पवित्र उद्देश्य और आदर्शों का समावेश है इसलिए उस स्वर लहरी को वन्दनीय और उपयोगी कहा गया है—
सामवेदः स्मृतः पित्र्य स्तस्यात् तस्याशचिर्ध्वनिः । मनु. 4।124
रुद्रः साममयोऽन्तेच तस्यात्तस्याशुचि र्ध्वनिः । मार्कण्डेय पुराण 102।109
चिरअतीत में मनीषियों ने उसका विकास, विस्तार इस दृष्टि से किया था। लय और ताल का समन्वय करके वाद्य यन्त्रों को नहीं—अन्तरंग की स्वर वीणा को झंकृत करने का उपक्रम किया गया था। संगीत किसी समय भगवदोपासना का ही एक माध्यम था। सुनाने वालों में वह आत्मोल्लास जगाता था और उसे ‘कुत्सा’ से ऊंचा उठा कर ‘भूमा’ में प्रतिष्ठित करता था। अपनी इसी विशेषता के कारण वह लोकश्रद्धा का माध्यम रहा। सन्तों ने उसे प्राणप्रिय माना और उसके सहारे लक्ष्य पूर्ति की दिशा में सफल प्रयाण किया। इसमें इनका ही नहीं वरन् सुनने वालों का भी आत्मोत्कर्ष जुड़ा हुआ रहता था। सामगान के दिव्यदर्शियों से लेकर देवर्षि नारद तक और अन्ततः वह पवित्र धारा अनेक सन्त साधकों में प्रवाहित होती हुई हरिदास एवं तानसेन तक चली आई। यह प्रवाह यथाक्रम चलता रहता और अपना स्तर यथा स्थान बनाये रहता तो उससे—भावनात्मक महानता की स्थिति उत्कृष्ट स्थिति में ही बनी रहती।
दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि पतन के सर्वभक्षी आक्रमण से संगीत भी बच नहीं सका। वह योगाभ्यास से नीचे उतरा और कला बना। इससे भी नीचे गिरा तो नटविद्या मात्र बनकर रह गया। आज वह इसी दयनीय दुर्दशा की स्थिति में पड़ा है।
संगीत को कला इसलिए बनना पड़ा कि वह लोक रुचि के पीछे चल कर आजीविका और प्रशंसा का माध्यम बन सके। यहां तक भी गनीमत थी। अन्य व्यवसायों की तरह ही संगीत भी किन्हीं पेशेवरों का पेशा रहे तो उन्हें व्यावहारिक जीवन की एक आवश्यकता मानकर गायक वादकों को साधक तो नहीं पर श्रमजीवी कहा जा सकता था। दुखद स्थिति तब उत्पन्न हुई जब वह साधना तो दूर कला भी न रही और कुत्साओं के हाथ का खिलौना बनकर व्यसनी और व्यभिचारियों की तुष्टि-पुष्टि के काम आने वाला एक नशा भर बनकर रह गया। सामन्तों और अमीरों की पशु प्रवृत्ति को अधिकाधिक उत्तेजित करने पर ‘पशु’ को अधिकाधिक उग्र बनाने भर के लिए जब उसने अपनी आत्मा को बेच दिया तो उस तत्वदर्शी की आत्मा बिलख-बिलख कर रोई होगी जिसने स्वर विज्ञान द्वारा नर को नारायण बनाने के सपने देखे होंगे।
महाभारत के बाद एक ऐसा युग आया जिसमें राष्ट्र को दीर्घ काल तक पराधीन रहना पड़ा। पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा राष्ट्र भौतिक अत्याचारों से पीड़ित तो हुआ ही, उसके सांस्कृतिक मूल्यों पर भी गहरा कुठाराघात हुआ। जहां एक ओर आतताइयों ने अपने आतंक द्वारा धन-सम्पत्ति का शोषण किया वहीं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया। धर्म संस्कृति, सभ्यता, कला, संगीत, कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं रहा जिस पर प्रहार करने का प्रयास न किया गया हो। परतंत्रता न केवल बाह्य गतिविधियों, चेष्टाओं की स्वतंत्रता पर रोक लगाती अपितु स्वतंत्र चिन्तन एवं विचारों को भी प्रभावित करती है। मौलिक एवं स्वतन्त्र चिन्तन के अभाव में कोई भी राष्ट्र अपने सांस्कृतिक मूल्यों को स्थिर बनाये रखने में समर्थ सिद्ध नहीं होता है। फलस्वरूप स्वतन्त्र चिन्तन के प्रवाह के अवरुद्ध होने से बाह्य विचार हावी होने लगते हैं। हमारी संगीत कला के क्षेत्र में भी यही हुआ, सामन्तों शासकों ने इस सशक्त माध्यम का उपयोग व्यक्तिगत क्षुद्र हास-परिहास के लिए किया। पैसे के द्वारा कला को क्रय किया जाने लगा। कमजोर एवं लचीले मनोभूमि के संगीतज्ञों ने राजाओं, शासकों के हाथ अपनी कला को बेच दिया। राजाओं के गुणगान, सौन्दर्य अभिव्यक्ति, वासनात्मक अभिरुचियों को बढ़ाने में संगीत की तान थिरकने लगी। कितने ही कला के साधकों ने अपनी आराधना को विक्रय करने से इंकार किया उनके ऊपर अत्याचार किया जाने लगा। आतंक एवं दबाव ने अनेकों को अपनी कला को महलों में कैद होने के लिए बाध्य किया। जिन्होंने इन्कार किया उनका आस्तित्व समाप्त कर दिया गया। इस तरह महान् संगीत साधना एक व्यवसाय बन गयी। जो कभी स्वान्तः सुखायः से अभिप्रेरित, लोकरंजन और परमार्थ साधना का अंग थी, वह निम्न प्रवृत्तियों, वासनाओं को भड़काने की एक माध्यम बन कर रह गयी। मध्यकालीन इतिहास पर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि अपवादों को छोड़कर अधिकांशतः ने अपनी साधना का राजा, शासकों, के गुणानुवाद, चापलूसी के लिए दुरुपयोग किया। इतिहास में नादयोग के माध्यम संगीत का पतन यहां से होता है। अपवाद स्वरूप कुछ साधक ऐसे भी थे जिन्होंने अपनी साधना को इन तुच्छ प्रवृत्तियों के लिए घुटने नहीं टेके। इन साधकों को महापुरुष के रूप में इतिहास सदा याद करेगा, सूर, तुलसी, कबीर, मीरा के उद्गारों ने न केवल तत्कालीन संस्कृति को पतन के गर्त में गिराने से बचाया अपितु उनके योगदान युग-युग तक प्रेरणा देते रहेंगे। ‘सूरदास’ के गुरु श्री बल्लभाचार्य का नाम भी इन महापुरुषों की श्रेणी में आता है। श्रीकृष्ण की भक्ति में अपनी संगीत की लहरी द्वारा जो लय छेड़ी उससे प्रभावित होकर ‘सूरदास’ ऐसे ‘भक्तिरस’ के मूर्तिमान स्वरूप निकल पड़े।
तत्कालीन स्वर-साधकों में तानसेन एवं ‘बैजू बावरा’ को भी विशेष ख्याति मिली। तानसेन के स्वर में आकर्षण तो था किन्तु ‘परान्त सुखाय’ के लिए उसकी कला का उपयोग होने के कारण किसी को प्रेरणा देने में असमर्थ थी। कहा जाता है कि एक बार अकबर ने तानसेन से उनके गुरु ‘हरिदास’ का संगीत सुनने की इच्छा प्रकट की। किन्तु हरिदास ने अकबर को सपना संगीत सुनाने से इन्कार कर दिया। अकबर ने उनका संगीत सुनने का दूसरा रास्ता अपनाया लुकछिपकर जब ‘हरिदास’ संगीत-साधना में डूबे थे, उनके प्रभावशाली संगीत को सुना। सम्राट ने अपने जीवन में इतना आकर्षक स्वर कभी नहीं सुना था। तानसेन से उन्होंने पूछा कि ‘तुम्हारे गुरु के स्वर में तुम से भी अधिक प्रभाव एवं आकर्षण क्यों है?’
तानसेन ने उत्तर दिया महाराज! ‘‘मेरी संगीत साधना स्वान्तः सुखाय के लिए होती है जबकि हमारे गुरुदेव उससे परमात्मा की स्तुति गाते हैं। अन्तर का कारण यही है।’’ इस तरह मध्य कालीन युग संगीत कला को अवनति का युग बना और तब से निरन्तर उसका स्वरूप अधोगामी बना रहा। आज तो क्या गायक क्या वादक सरस्वती के उपासक लक्ष्मी के क्रीतदास बन गये हैं मुट्ठी भर लोगों ने जीवन के नितान्त संवेदनशील और गोपनीय पक्ष को मानवीय दुर्बलता के रूप में पहचाना और उसे अर्थ-दोहन का माध्यम बना लिया। इस समाज का बौद्धिक दिवालियापन और तथाकथित कलाकारों को ब्लैक मेल ही कहना चाहिए कि इन दिनों सिनेमा जैसी कैद में वह पात्र काम क्षुधा भड़काने का माध्यम बन गया है। यह मध्य युग से उत्तरोत्तर पतन क्रम है।
अपने समाज में भगवद् भक्ति का भावोद्दीपन मनुष्य के देवत्व के जागरण का अविच्छिन्न अवलम्बन माना जाता रहा है। तदनुसार सन्तों, ब्राह्मणों, मनीषियों, धर्मोपदेशकों को भूसुर कहकर उनकी चरण धूलि मस्तक पर चढ़ाने की परम्परा रही है। संगीतकार इसी पंक्ति में बैठता था उसकी गणना इसी वर्ग में की जाती थी। स्वर-साधक को योग-साधकों के बीच ही माना जाता था, उसे वैसी ही श्रद्धा प्रदान की जाती थी। कहना न होगा कि कभी किसी श्रद्धास्पद को रोजी-रोटी की शिकायत नहीं करनी पड़ी। रोटी की चिन्ता ने उन्हीं को खाया है जो आत्म विस्मरण के गर्त में गिर चुके। रोटी के नाम पर दौलत की हविस उन्हें सताती है जिन्होंने आन्तरिक गरिमा का विसर्जन करके विलासिताओं, लिप्साओं और अहंता की भौतिक तृप्ति के लिए व्याकुल रहने की दुष्प्रवृत्ति अपनाली। कोई भी क्यों न हो—भले ही वह संगीतकार ही क्यों न हो इस स्तर पर उतरेगा तो वह अपना ही नहीं अपने सम्पर्क में आने वालों को भी पतन के गर्त में धकेलेगा। संगीत के पतन का वह आरम्भ बढ़ते-बढ़ते आज इस सीमा तक पहुंच गया है कि इन दिनों कामुकता भड़काने वाली दुष्प्रवृत्ति का ही दूसरा नाम संगीत बन गया है। स्वर साधना अब कला भी नहीं रही, वह नटिनी, नर्तकी, गायकी वेश्या हरजाई है। उसका तन अब हर कोठे पर किसी भी कोठी के आगे समर्पित होने के लिए सजा बैठा है। सन्त परम्परा—सामन्तों के आश्रय में विकृत हुई तो अब वह कुत्साएं भड़काने वाली विडम्बना मात्र रह गई है। धन, वैभव तो वेश्याएं भी कमाती हैं, तालियां बजने और वाहवाही सुनने का लाभ तो नग्निकाओं और विष कन्याओं को भी मिल जाता है ऐसी ही प्रशंसा यदि आधुनिक गीत वाद्य की कला को मिले तो उसे नियति का क्रूर व्यंग्य ही समझा जाना चाहिए। संगीत में सम्मोहन है। इसे ऋषियों के हाथ में ही रहना चाहिए। कुत्साओं की खिलवाड़ के लिए उसका प्रयुक्त किया जाना जनजीवन को विषपान ही करा सकता है। का वध करने के लिए अहेरी और सपेरे भी संगीत का प्रयोग करते हैं। हिरनों को, सांपों को पकड़ने के लिए भी संगीत सम्मोहन का प्रयोग होता है पर वह न शुभ है और न श्रेयस्कर। शालीनता की दृष्टि से यह उचित नहीं कहा जा सकता कि संगीत जैसे शब्दयोग को दौलत अथवा वाहवाही लूटने के प्रलोभन में लोक मानस का विनाश करने में प्रयोग किया जाय।
कामुकता एवं कुत्सा भड़काने जैसे दुष्ट प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया गया स्वर कितना अहितकर होता है इसकी एक कथा शतपथ ब्राह्मण में इस प्रकार आती है—त्वष्टा ऋषि ने ऋचा का उच्चारण करने में भूल की, उसका अवांछनीय रीति से दुरुपयोग किया। इसका फल बड़ा विपरीत निकला। त्वष्टा ने जिस प्रयोजन के लिए उच्चारण किया था वह तो पूरा न हुआ वरन् वृत्रासुर नामक एक देवघाती विकट महादैत्य उपज कर खड़ा हो गया और उसने भयंकर विभीषिकाएं उत्पन्न कर दीं। आज ऐसे ही संगीत के दुरुपयोग ने समाज में अवांछनीय परिस्थितियां उत्पन्न की हैं।
जब कुत्साओं का पर्यायवाची संगीत बन गया तो विज्ञ समाज में उसकी सर्वत्र भर्त्सना की जाने लगी। औरंगजेब ने एक बार अपने राज्य में से वाद्य यन्त्रों का जनाजा निकाल कर उन्हें कब्रिस्तान में दफना देने का आदेश दिया था और संगीतकारों को जन मानस को विलासी एवं पतनोन्मुख बनाने का अपराधी घोषित करके उन्हें देश निकाले की सजा दी थी।
पतनोन्मुख वासना प्रिय विलासी संगीत को भारतीय धर्म ग्रंथों में भी घृणित त्याज्य एवं गर्हित घोषित किया है और इस प्रकार के विष मिश्रित दूध को पीने से बचने के लिए ही सर्वसाधारण को निर्देश दिया है। ऐसे अनेक अभिवचन यत्र-तत्र भरे पड़े हैं। सभ्रान्त विज्ञ व्यक्तियों को भगवान् मनु ने संगीत व्यसन से दूर रहने का परामर्श दिया है।
कामं क्रोधे च लोभं च नर्तन गीत वादनम् । —मनु. 2।178
न नृत्ये दथवा गायेन्न वादि-त्राणि वादयेत् । मनु. 4।64
इन अभिवचनों से काम, क्रोध, लोभ, जैसे दुर्गुणों की पंक्ति में ही गीत-नृत्य की गणना की गई है और उनसे बचने की शिक्षा दी गई है।
आगे चलकर उन्होंने संगीत जीवी व्यक्ति अनाचारी, अधम, गर्हित, बताते हुए कहा है कि न तो उनके साथ पंक्ति में बैठकर भोजन करें और न उनका अन्न जल ही ग्रहण करें। उन्हें ब्राह्मण होने पर भी शूद्रवत् समझें। यह अभिप्राय व्यक्त करने वाले मनुस्मृति में निम्न श्लोक हैं—
कुशील वो ऽ वकीर्णी च वृषली पति रवेच । एतान् विगर्हिताचारानां पांक्तेयात् द्विजा धमान् । द्विजाति प्रवरो विद्वानुभयन्न विवर्जयेत् । —मनु. 3।155, 167
स्तेन गायन योश्चान्नं तक्षणों वार्धुषिकस्य च । —मनु. 4।210 प्रेष्यान् वाधुषिकांश्चैव विप्रान् शूद्र वदाचरेत् । 8।102
ब्राह्मणो नैव गायेन्न नृत्येत् । —गोपथ 2।21
ब्राह्मण न तो गाये और न नाचे । मनुस्मृति में नृत्य गान वाद्य को ‘तौर्यत्रिक’ संज्ञा देते हुए उसे त्याज्य कामज व्यसन कहा गया है।
तौर्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः । —मनु. 7।47
व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत् । —मनु. 7।45
इन दोनों ही निर्देशों में संगीत की भर्त्सना की गई है और उससे बचने के लिए कहा गया है।
वाल्मीकि रामायण में रावण की स्त्रियों के अनेक दूषणों में से एक वह भी गिनाया है कि वे संगीत परायण थीं।
नृत्य वादिन्न कुशला राक्षसेन्द्र भुजांकगाः । —वा. रा. सुन्दर काण्ड 10।32
काचिद् वीणां परिष्वज्य प्रसुप्ता सम्प्रकाशिते । 10।37
अन्या कक्ष गते नैव कड्डुके नासिते क्षणा । 10।38
विपंची परिगह्यान्यां नियता नृत्य शालिनी ।
इन सभी विवरणों में राक्षसियों को नाचने, गाने वाली, अनेक प्रकार के वाद्य यन्त्रों को साथ लटकाये रहने वाली, उन्हें साथ लेकर सोने वाली बताया गया है।
एक ओर असुर ललनाओं की इस कामज संगीत व्यसन से ग्रस्त स्थिति का वर्णन है। दूसरी ओर भगवान राम भरतजी को अयोध्याकाण्ड 100।68 में संगीत व्यसन से सर्वथा दूर रहने का उपदेश देते हैं।
गायक वादकैश्चानथ्यैः संयोगः कामः । —कौटिल्य अर्थशास्त्र 8।1।4
अर्थात् गायन, वादन कामोत्तेजक और अनर्थमूलक हैं।
उपरोक्त अभिवचनों में केवल कुत्सित संगीत की—वासना भड़काने में संलग्न कुरुचिपूर्ण संगीतकारों की ही भर्त्सना की गई है सत्संगीत पर इस प्रकार के आक्षेप नहीं हैं। वह तो जन जीवन में भावनात्मक उत्कर्ष का ही पथ प्रशस्त कर सकता है। संसार भर के मनीषियों ने सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त होने वाले संगीत की महत्ता और आवश्यकता का एक स्वर से प्रतिपादन किया है। इस प्रकार के अभिवचनों में से कुछ इस प्रकार हैं—
संगीत से आत्मा की मलीनता धुलती है।
—आवेर वेच
गहराई में उतरो तुम्हें हर पदार्थ के अन्तरंग में एक दिव्य संगीत उभरता दिखाई देगा। —कार्लाईल संगीत आत्मा के ताप को शान्त कर सकता है। —महात्मा गांधी
संगीत में क्रूर हृदय को भी कोमल बनाने वाला जादू भरा पड़ा है। —जेम्स वाटसन
कितने ही महा मानकों ने संगीत के सम्बन्ध में अपना अभिप्राय इस प्रकार व्यक्त किया है—
संगीत मानव की विश्व भाषा है। —लांग फैलो
संगीत के पीछे-पीछे खुदा चलता है। —शेखसादी
संगीत टूटे हुए हृदय की औषधि है। —ए. हन्ट
संसार मुझसे चित्रों में बात करता है—मेरी आत्मा उसका उत्तर संगीत में देती है। —रवीन्द्रनाथ
संगीत अपने मूल उद्देश्य को पूरा कर सके, अपने सनातन स्वरूप को स्थिर रख सके इसके लिए हमें पूरा प्रयत्न करना चाहिए और उसे सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त होने देना चाहिए।
महात्मा गान्धी के संस्मरणों पर प्रकाश डालने वाली मनु बहिन की डायरी में एक स्थान पर बापू का वह कथन छपा है जिसमें उन्होंने कहा था—‘‘नृत्य कला के प्रति मेरे मन में आदर है। संगीत मुझे बहुत प्रिय है। लेकिन जिन गीत वाद्यों ने लोगों के मन विकृत कर दिये हैं उन पर तो रोक लगाऊंगा ही।’’
दूध में मक्खी पड़ जाने पर वह अभक्ष्य बन जाता है संगीत भी तभी तक ग्राह्य है जब तक उसके साथ सदाशयता जुड़ी हुई है। यदि वह पशु प्रवृत्तियों को भड़काता है—नीति सदाचार और मर्यादा पालन पर हमला करता है तो उसकी विषाक्तता अग्राह्य ही होगी। तब ऐसे लक्ष्य भ्रष्ट संगीत का बहिष्कार ही करना पड़ेगा। संगीत एक शक्ति है इसलिए जहां उसका उपयोग है, वहां दुरुपयोग भी सम्भव है। आज-कल संगीत के नाम पर अश्लीलता और भोंड़ापन बढ़ा है, उसे अच्छे सुमधुर और शास्त्रीय-संगीत से स्थानापन्न करना और उसका लाभ उठाया बहुत आवश्यक हो गया है।
ध्वनि एक वैज्ञानिक शक्ति है। एक पौराणिक कथा है कि ‘‘त्वष्टा ऋषि से मन्त्रोच्चारण में एक स्वर की गलती हुई थी और उसका परिणाम विपरीत हो गया था। त्वष्टा इन्द्र को मारने वाला पुत्र उत्पन्न करना चाहते थे, किन्तु स्वर सम्बन्धी उच्चारण की त्रुटि से जिसे इन्द्र ने ही मार डाला, ऐसा वृत्र नामक महाअसुर उत्पन्न हो गया। स्वर लहरियों की शक्तियां असाधारण हैं उनका दुरुपयोग करके जनमानस और समाज को दिग्भ्रान्त किया जा सकता है और लोगों को कल्याण की दिशा में भी अग्रसर किया जा सकता है। हमें चाहिये कि स्वयं भी संगीत-शक्ति का लाभ प्राप्त करें और समाज को भी उस पुण्य-धारा में स्नान का सुख प्रदान करें।
गीता में भगवान ने अपने को वेदों में सामवेद बताया है। ‘वेदानां सामवेदोऽस्मि ।’
सामवेद में भी संगीत ही है पर उसमें पवित्र उद्देश्य और आदर्शों का समावेश है इसलिए उस स्वर लहरी को वन्दनीय और उपयोगी कहा गया है—
सामवेदः स्मृतः पित्र्य स्तस्यात् तस्याशचिर्ध्वनिः । मनु. 4।124
रुद्रः साममयोऽन्तेच तस्यात्तस्याशुचि र्ध्वनिः । मार्कण्डेय पुराण 102।109
चिरअतीत में मनीषियों ने उसका विकास, विस्तार इस दृष्टि से किया था। लय और ताल का समन्वय करके वाद्य यन्त्रों को नहीं—अन्तरंग की स्वर वीणा को झंकृत करने का उपक्रम किया गया था। संगीत किसी समय भगवदोपासना का ही एक माध्यम था। सुनाने वालों में वह आत्मोल्लास जगाता था और उसे ‘कुत्सा’ से ऊंचा उठा कर ‘भूमा’ में प्रतिष्ठित करता था। अपनी इसी विशेषता के कारण वह लोकश्रद्धा का माध्यम रहा। सन्तों ने उसे प्राणप्रिय माना और उसके सहारे लक्ष्य पूर्ति की दिशा में सफल प्रयाण किया। इसमें इनका ही नहीं वरन् सुनने वालों का भी आत्मोत्कर्ष जुड़ा हुआ रहता था। सामगान के दिव्यदर्शियों से लेकर देवर्षि नारद तक और अन्ततः वह पवित्र धारा अनेक सन्त साधकों में प्रवाहित होती हुई हरिदास एवं तानसेन तक चली आई। यह प्रवाह यथाक्रम चलता रहता और अपना स्तर यथा स्थान बनाये रहता तो उससे—भावनात्मक महानता की स्थिति उत्कृष्ट स्थिति में ही बनी रहती।
दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि पतन के सर्वभक्षी आक्रमण से संगीत भी बच नहीं सका। वह योगाभ्यास से नीचे उतरा और कला बना। इससे भी नीचे गिरा तो नटविद्या मात्र बनकर रह गया। आज वह इसी दयनीय दुर्दशा की स्थिति में पड़ा है।
संगीत को कला इसलिए बनना पड़ा कि वह लोक रुचि के पीछे चल कर आजीविका और प्रशंसा का माध्यम बन सके। यहां तक भी गनीमत थी। अन्य व्यवसायों की तरह ही संगीत भी किन्हीं पेशेवरों का पेशा रहे तो उन्हें व्यावहारिक जीवन की एक आवश्यकता मानकर गायक वादकों को साधक तो नहीं पर श्रमजीवी कहा जा सकता था। दुखद स्थिति तब उत्पन्न हुई जब वह साधना तो दूर कला भी न रही और कुत्साओं के हाथ का खिलौना बनकर व्यसनी और व्यभिचारियों की तुष्टि-पुष्टि के काम आने वाला एक नशा भर बनकर रह गया। सामन्तों और अमीरों की पशु प्रवृत्ति को अधिकाधिक उत्तेजित करने पर ‘पशु’ को अधिकाधिक उग्र बनाने भर के लिए जब उसने अपनी आत्मा को बेच दिया तो उस तत्वदर्शी की आत्मा बिलख-बिलख कर रोई होगी जिसने स्वर विज्ञान द्वारा नर को नारायण बनाने के सपने देखे होंगे।
महाभारत के बाद एक ऐसा युग आया जिसमें राष्ट्र को दीर्घ काल तक पराधीन रहना पड़ा। पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा राष्ट्र भौतिक अत्याचारों से पीड़ित तो हुआ ही, उसके सांस्कृतिक मूल्यों पर भी गहरा कुठाराघात हुआ। जहां एक ओर आतताइयों ने अपने आतंक द्वारा धन-सम्पत्ति का शोषण किया वहीं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया। धर्म संस्कृति, सभ्यता, कला, संगीत, कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं रहा जिस पर प्रहार करने का प्रयास न किया गया हो। परतंत्रता न केवल बाह्य गतिविधियों, चेष्टाओं की स्वतंत्रता पर रोक लगाती अपितु स्वतंत्र चिन्तन एवं विचारों को भी प्रभावित करती है। मौलिक एवं स्वतन्त्र चिन्तन के अभाव में कोई भी राष्ट्र अपने सांस्कृतिक मूल्यों को स्थिर बनाये रखने में समर्थ सिद्ध नहीं होता है। फलस्वरूप स्वतन्त्र चिन्तन के प्रवाह के अवरुद्ध होने से बाह्य विचार हावी होने लगते हैं। हमारी संगीत कला के क्षेत्र में भी यही हुआ, सामन्तों शासकों ने इस सशक्त माध्यम का उपयोग व्यक्तिगत क्षुद्र हास-परिहास के लिए किया। पैसे के द्वारा कला को क्रय किया जाने लगा। कमजोर एवं लचीले मनोभूमि के संगीतज्ञों ने राजाओं, शासकों के हाथ अपनी कला को बेच दिया। राजाओं के गुणगान, सौन्दर्य अभिव्यक्ति, वासनात्मक अभिरुचियों को बढ़ाने में संगीत की तान थिरकने लगी। कितने ही कला के साधकों ने अपनी आराधना को विक्रय करने से इंकार किया उनके ऊपर अत्याचार किया जाने लगा। आतंक एवं दबाव ने अनेकों को अपनी कला को महलों में कैद होने के लिए बाध्य किया। जिन्होंने इन्कार किया उनका आस्तित्व समाप्त कर दिया गया। इस तरह महान् संगीत साधना एक व्यवसाय बन गयी। जो कभी स्वान्तः सुखायः से अभिप्रेरित, लोकरंजन और परमार्थ साधना का अंग थी, वह निम्न प्रवृत्तियों, वासनाओं को भड़काने की एक माध्यम बन कर रह गयी। मध्यकालीन इतिहास पर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि अपवादों को छोड़कर अधिकांशतः ने अपनी साधना का राजा, शासकों, के गुणानुवाद, चापलूसी के लिए दुरुपयोग किया। इतिहास में नादयोग के माध्यम संगीत का पतन यहां से होता है। अपवाद स्वरूप कुछ साधक ऐसे भी थे जिन्होंने अपनी साधना को इन तुच्छ प्रवृत्तियों के लिए घुटने नहीं टेके। इन साधकों को महापुरुष के रूप में इतिहास सदा याद करेगा, सूर, तुलसी, कबीर, मीरा के उद्गारों ने न केवल तत्कालीन संस्कृति को पतन के गर्त में गिराने से बचाया अपितु उनके योगदान युग-युग तक प्रेरणा देते रहेंगे। ‘सूरदास’ के गुरु श्री बल्लभाचार्य का नाम भी इन महापुरुषों की श्रेणी में आता है। श्रीकृष्ण की भक्ति में अपनी संगीत की लहरी द्वारा जो लय छेड़ी उससे प्रभावित होकर ‘सूरदास’ ऐसे ‘भक्तिरस’ के मूर्तिमान स्वरूप निकल पड़े।
तत्कालीन स्वर-साधकों में तानसेन एवं ‘बैजू बावरा’ को भी विशेष ख्याति मिली। तानसेन के स्वर में आकर्षण तो था किन्तु ‘परान्त सुखाय’ के लिए उसकी कला का उपयोग होने के कारण किसी को प्रेरणा देने में असमर्थ थी। कहा जाता है कि एक बार अकबर ने तानसेन से उनके गुरु ‘हरिदास’ का संगीत सुनने की इच्छा प्रकट की। किन्तु हरिदास ने अकबर को सपना संगीत सुनाने से इन्कार कर दिया। अकबर ने उनका संगीत सुनने का दूसरा रास्ता अपनाया लुकछिपकर जब ‘हरिदास’ संगीत-साधना में डूबे थे, उनके प्रभावशाली संगीत को सुना। सम्राट ने अपने जीवन में इतना आकर्षक स्वर कभी नहीं सुना था। तानसेन से उन्होंने पूछा कि ‘तुम्हारे गुरु के स्वर में तुम से भी अधिक प्रभाव एवं आकर्षण क्यों है?’
तानसेन ने उत्तर दिया महाराज! ‘‘मेरी संगीत साधना स्वान्तः सुखाय के लिए होती है जबकि हमारे गुरुदेव उससे परमात्मा की स्तुति गाते हैं। अन्तर का कारण यही है।’’ इस तरह मध्य कालीन युग संगीत कला को अवनति का युग बना और तब से निरन्तर उसका स्वरूप अधोगामी बना रहा। आज तो क्या गायक क्या वादक सरस्वती के उपासक लक्ष्मी के क्रीतदास बन गये हैं मुट्ठी भर लोगों ने जीवन के नितान्त संवेदनशील और गोपनीय पक्ष को मानवीय दुर्बलता के रूप में पहचाना और उसे अर्थ-दोहन का माध्यम बना लिया। इस समाज का बौद्धिक दिवालियापन और तथाकथित कलाकारों को ब्लैक मेल ही कहना चाहिए कि इन दिनों सिनेमा जैसी कैद में वह पात्र काम क्षुधा भड़काने का माध्यम बन गया है। यह मध्य युग से उत्तरोत्तर पतन क्रम है।
अपने समाज में भगवद् भक्ति का भावोद्दीपन मनुष्य के देवत्व के जागरण का अविच्छिन्न अवलम्बन माना जाता रहा है। तदनुसार सन्तों, ब्राह्मणों, मनीषियों, धर्मोपदेशकों को भूसुर कहकर उनकी चरण धूलि मस्तक पर चढ़ाने की परम्परा रही है। संगीतकार इसी पंक्ति में बैठता था उसकी गणना इसी वर्ग में की जाती थी। स्वर-साधक को योग-साधकों के बीच ही माना जाता था, उसे वैसी ही श्रद्धा प्रदान की जाती थी। कहना न होगा कि कभी किसी श्रद्धास्पद को रोजी-रोटी की शिकायत नहीं करनी पड़ी। रोटी की चिन्ता ने उन्हीं को खाया है जो आत्म विस्मरण के गर्त में गिर चुके। रोटी के नाम पर दौलत की हविस उन्हें सताती है जिन्होंने आन्तरिक गरिमा का विसर्जन करके विलासिताओं, लिप्साओं और अहंता की भौतिक तृप्ति के लिए व्याकुल रहने की दुष्प्रवृत्ति अपनाली। कोई भी क्यों न हो—भले ही वह संगीतकार ही क्यों न हो इस स्तर पर उतरेगा तो वह अपना ही नहीं अपने सम्पर्क में आने वालों को भी पतन के गर्त में धकेलेगा। संगीत के पतन का वह आरम्भ बढ़ते-बढ़ते आज इस सीमा तक पहुंच गया है कि इन दिनों कामुकता भड़काने वाली दुष्प्रवृत्ति का ही दूसरा नाम संगीत बन गया है। स्वर साधना अब कला भी नहीं रही, वह नटिनी, नर्तकी, गायकी वेश्या हरजाई है। उसका तन अब हर कोठे पर किसी भी कोठी के आगे समर्पित होने के लिए सजा बैठा है। सन्त परम्परा—सामन्तों के आश्रय में विकृत हुई तो अब वह कुत्साएं भड़काने वाली विडम्बना मात्र रह गई है। धन, वैभव तो वेश्याएं भी कमाती हैं, तालियां बजने और वाहवाही सुनने का लाभ तो नग्निकाओं और विष कन्याओं को भी मिल जाता है ऐसी ही प्रशंसा यदि आधुनिक गीत वाद्य की कला को मिले तो उसे नियति का क्रूर व्यंग्य ही समझा जाना चाहिए। संगीत में सम्मोहन है। इसे ऋषियों के हाथ में ही रहना चाहिए। कुत्साओं की खिलवाड़ के लिए उसका प्रयुक्त किया जाना जनजीवन को विषपान ही करा सकता है। का वध करने के लिए अहेरी और सपेरे भी संगीत का प्रयोग करते हैं। हिरनों को, सांपों को पकड़ने के लिए भी संगीत सम्मोहन का प्रयोग होता है पर वह न शुभ है और न श्रेयस्कर। शालीनता की दृष्टि से यह उचित नहीं कहा जा सकता कि संगीत जैसे शब्दयोग को दौलत अथवा वाहवाही लूटने के प्रलोभन में लोक मानस का विनाश करने में प्रयोग किया जाय।
कामुकता एवं कुत्सा भड़काने जैसे दुष्ट प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया गया स्वर कितना अहितकर होता है इसकी एक कथा शतपथ ब्राह्मण में इस प्रकार आती है—त्वष्टा ऋषि ने ऋचा का उच्चारण करने में भूल की, उसका अवांछनीय रीति से दुरुपयोग किया। इसका फल बड़ा विपरीत निकला। त्वष्टा ने जिस प्रयोजन के लिए उच्चारण किया था वह तो पूरा न हुआ वरन् वृत्रासुर नामक एक देवघाती विकट महादैत्य उपज कर खड़ा हो गया और उसने भयंकर विभीषिकाएं उत्पन्न कर दीं। आज ऐसे ही संगीत के दुरुपयोग ने समाज में अवांछनीय परिस्थितियां उत्पन्न की हैं।
जब कुत्साओं का पर्यायवाची संगीत बन गया तो विज्ञ समाज में उसकी सर्वत्र भर्त्सना की जाने लगी। औरंगजेब ने एक बार अपने राज्य में से वाद्य यन्त्रों का जनाजा निकाल कर उन्हें कब्रिस्तान में दफना देने का आदेश दिया था और संगीतकारों को जन मानस को विलासी एवं पतनोन्मुख बनाने का अपराधी घोषित करके उन्हें देश निकाले की सजा दी थी।
पतनोन्मुख वासना प्रिय विलासी संगीत को भारतीय धर्म ग्रंथों में भी घृणित त्याज्य एवं गर्हित घोषित किया है और इस प्रकार के विष मिश्रित दूध को पीने से बचने के लिए ही सर्वसाधारण को निर्देश दिया है। ऐसे अनेक अभिवचन यत्र-तत्र भरे पड़े हैं। सभ्रान्त विज्ञ व्यक्तियों को भगवान् मनु ने संगीत व्यसन से दूर रहने का परामर्श दिया है।
कामं क्रोधे च लोभं च नर्तन गीत वादनम् । —मनु. 2।178
न नृत्ये दथवा गायेन्न वादि-त्राणि वादयेत् । मनु. 4।64
इन अभिवचनों से काम, क्रोध, लोभ, जैसे दुर्गुणों की पंक्ति में ही गीत-नृत्य की गणना की गई है और उनसे बचने की शिक्षा दी गई है।
आगे चलकर उन्होंने संगीत जीवी व्यक्ति अनाचारी, अधम, गर्हित, बताते हुए कहा है कि न तो उनके साथ पंक्ति में बैठकर भोजन करें और न उनका अन्न जल ही ग्रहण करें। उन्हें ब्राह्मण होने पर भी शूद्रवत् समझें। यह अभिप्राय व्यक्त करने वाले मनुस्मृति में निम्न श्लोक हैं—
कुशील वो ऽ वकीर्णी च वृषली पति रवेच । एतान् विगर्हिताचारानां पांक्तेयात् द्विजा धमान् । द्विजाति प्रवरो विद्वानुभयन्न विवर्जयेत् । —मनु. 3।155, 167
स्तेन गायन योश्चान्नं तक्षणों वार्धुषिकस्य च । —मनु. 4।210 प्रेष्यान् वाधुषिकांश्चैव विप्रान् शूद्र वदाचरेत् । 8।102
ब्राह्मणो नैव गायेन्न नृत्येत् । —गोपथ 2।21
ब्राह्मण न तो गाये और न नाचे । मनुस्मृति में नृत्य गान वाद्य को ‘तौर्यत्रिक’ संज्ञा देते हुए उसे त्याज्य कामज व्यसन कहा गया है।
तौर्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः । —मनु. 7।47
व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत् । —मनु. 7।45
इन दोनों ही निर्देशों में संगीत की भर्त्सना की गई है और उससे बचने के लिए कहा गया है।
वाल्मीकि रामायण में रावण की स्त्रियों के अनेक दूषणों में से एक वह भी गिनाया है कि वे संगीत परायण थीं।
नृत्य वादिन्न कुशला राक्षसेन्द्र भुजांकगाः । —वा. रा. सुन्दर काण्ड 10।32
काचिद् वीणां परिष्वज्य प्रसुप्ता सम्प्रकाशिते । 10।37
अन्या कक्ष गते नैव कड्डुके नासिते क्षणा । 10।38
विपंची परिगह्यान्यां नियता नृत्य शालिनी ।
इन सभी विवरणों में राक्षसियों को नाचने, गाने वाली, अनेक प्रकार के वाद्य यन्त्रों को साथ लटकाये रहने वाली, उन्हें साथ लेकर सोने वाली बताया गया है।
एक ओर असुर ललनाओं की इस कामज संगीत व्यसन से ग्रस्त स्थिति का वर्णन है। दूसरी ओर भगवान राम भरतजी को अयोध्याकाण्ड 100।68 में संगीत व्यसन से सर्वथा दूर रहने का उपदेश देते हैं।
गायक वादकैश्चानथ्यैः संयोगः कामः । —कौटिल्य अर्थशास्त्र 8।1।4
अर्थात् गायन, वादन कामोत्तेजक और अनर्थमूलक हैं।
उपरोक्त अभिवचनों में केवल कुत्सित संगीत की—वासना भड़काने में संलग्न कुरुचिपूर्ण संगीतकारों की ही भर्त्सना की गई है सत्संगीत पर इस प्रकार के आक्षेप नहीं हैं। वह तो जन जीवन में भावनात्मक उत्कर्ष का ही पथ प्रशस्त कर सकता है। संसार भर के मनीषियों ने सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त होने वाले संगीत की महत्ता और आवश्यकता का एक स्वर से प्रतिपादन किया है। इस प्रकार के अभिवचनों में से कुछ इस प्रकार हैं—
संगीत से आत्मा की मलीनता धुलती है।
—आवेर वेच
गहराई में उतरो तुम्हें हर पदार्थ के अन्तरंग में एक दिव्य संगीत उभरता दिखाई देगा। —कार्लाईल संगीत आत्मा के ताप को शान्त कर सकता है। —महात्मा गांधी
संगीत में क्रूर हृदय को भी कोमल बनाने वाला जादू भरा पड़ा है। —जेम्स वाटसन
कितने ही महा मानकों ने संगीत के सम्बन्ध में अपना अभिप्राय इस प्रकार व्यक्त किया है—
संगीत मानव की विश्व भाषा है। —लांग फैलो
संगीत के पीछे-पीछे खुदा चलता है। —शेखसादी
संगीत टूटे हुए हृदय की औषधि है। —ए. हन्ट
संसार मुझसे चित्रों में बात करता है—मेरी आत्मा उसका उत्तर संगीत में देती है। —रवीन्द्रनाथ
संगीत अपने मूल उद्देश्य को पूरा कर सके, अपने सनातन स्वरूप को स्थिर रख सके इसके लिए हमें पूरा प्रयत्न करना चाहिए और उसे सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त होने देना चाहिए।
महात्मा गान्धी के संस्मरणों पर प्रकाश डालने वाली मनु बहिन की डायरी में एक स्थान पर बापू का वह कथन छपा है जिसमें उन्होंने कहा था—‘‘नृत्य कला के प्रति मेरे मन में आदर है। संगीत मुझे बहुत प्रिय है। लेकिन जिन गीत वाद्यों ने लोगों के मन विकृत कर दिये हैं उन पर तो रोक लगाऊंगा ही।’’
दूध में मक्खी पड़ जाने पर वह अभक्ष्य बन जाता है संगीत भी तभी तक ग्राह्य है जब तक उसके साथ सदाशयता जुड़ी हुई है। यदि वह पशु प्रवृत्तियों को भड़काता है—नीति सदाचार और मर्यादा पालन पर हमला करता है तो उसकी विषाक्तता अग्राह्य ही होगी। तब ऐसे लक्ष्य भ्रष्ट संगीत का बहिष्कार ही करना पड़ेगा। संगीत एक शक्ति है इसलिए जहां उसका उपयोग है, वहां दुरुपयोग भी सम्भव है। आज-कल संगीत के नाम पर अश्लीलता और भोंड़ापन बढ़ा है, उसे अच्छे सुमधुर और शास्त्रीय-संगीत से स्थानापन्न करना और उसका लाभ उठाया बहुत आवश्यक हो गया है।
ध्वनि एक वैज्ञानिक शक्ति है। एक पौराणिक कथा है कि ‘‘त्वष्टा ऋषि से मन्त्रोच्चारण में एक स्वर की गलती हुई थी और उसका परिणाम विपरीत हो गया था। त्वष्टा इन्द्र को मारने वाला पुत्र उत्पन्न करना चाहते थे, किन्तु स्वर सम्बन्धी उच्चारण की त्रुटि से जिसे इन्द्र ने ही मार डाला, ऐसा वृत्र नामक महाअसुर उत्पन्न हो गया। स्वर लहरियों की शक्तियां असाधारण हैं उनका दुरुपयोग करके जनमानस और समाज को दिग्भ्रान्त किया जा सकता है और लोगों को कल्याण की दिशा में भी अग्रसर किया जा सकता है। हमें चाहिये कि स्वयं भी संगीत-शक्ति का लाभ प्राप्त करें और समाज को भी उस पुण्य-धारा में स्नान का सुख प्रदान करें।