
संगीत द्वारा संवेदना-संचार
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‘दि ग्लैण्ड रेगुलेटिंग पर्सनैलिटी’ पुस्तक के लेखक डा. लुई वैरमोन ने स्वर विज्ञान का विवेचन करते हुए कण्ठ नली से सम्बद्ध एक शक्तिशाली पुंल्लिक ग्रन्थि की चर्चा की है और लिखा है थाइराइड ग्रन्थि केवल रक्त ताप और रक्तचाप का नियंत्रण करती है वरन् प्रेम और सहानुभूति बढ़ाने में तथा विकृत स्थिति में, ईर्ष्या द्वेष उभारने में भी उत्तरदायी होती है। उचित मात्रा में रक्त ताप तभी बना रह सकता है जब थाइराइड से निसृत होने वाले थाइरोक्सिन स्राव का अनुपात सही रहे। उसका संतुलन बिगड़ने से न केवल रक्त की ऊष्मा एवं गति में गड़बड़ी उत्पन्न होती है वरन् तरह-तरह की दुर्भावनाओं का भी मनुष्य शिकार हो जाता है। थाइराइड की विकृति से शरीर की स्थिति इस प्रकार घोर अशान्ति ग्रस्त बन जाती है। उस स्थिति में घिरे हुए व्यक्ति को किस प्रकार से शारीरिक, मानसिक व्यथाएं सहनी पड़ती हैं इसका विस्तृत विवेचन उन्होंने हाइपर थाइरोडिज्म प्रकरण में किया है।
संगीत, मात्र मनोरंजन नहीं है यदि उसे भावनाओं और प्रेरणाओं से सुसज्जित रखा जा सके तो इसका परिणाम न केवल गाने सुनने वालों के लिए वरन् सुविस्तृत वातावरण को श्रेयस्कर परिस्थितियों से भरा पूरा बनाने में सहायक हो सकता है।
मनुष्य की कोमल भावनाओं को झंकृत, तरंगित करने पर उसमें देवत्व का उदय होता है। इस प्रयोजन की पूर्ति में नादयोग द्वारा शब्दब्रह्म की साधना करना एक उत्कृष्ट योगाभ्यास है। उससे जन मानस के परिष्कार का लक्ष्य प्राप्त करने में अच्छी सहायता मिल सकती है।
अमेरिका की कला पत्रिका ‘दि अदर ईस्ट विलेज’ में भारतीय संगीत की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा है—मनुष्य की भीतरी सत्ता को राहत देने और तरंगित करने की भारतीय संगीत के ध्वनि प्रवाह में अपने ढंग की अनोखी क्षमता है।
संगीत का कठोर मन वालों पर भी कैसा प्रभाव पड़ता है। इस संदर्भ में ट्राबनकोर दरवार के वायलिन वादक कडिवेल्लु एक बार कहीं प्रवास में जा रहे थे। रास्ते में डाकुओं ने उन्हें पकड़ लिया और जो कुछ पास था सभी लूट लिया। लूट जाने के बाद वडिवेल्लु ने अनुनय विनय करके अपना वायलिन वापिस ले लिया और वहीं बैठ कर बजाने लगे। स्वर लहरी पर विमोहित डाकू भाव विभोर हो गये। उन्होंने लूटा हुआ सारा माल वापिस कर दिया और कई दिन तक अपने पास रख कर उस वादन का रस पान किया अन्त में बहुत पुरस्कार देकर उन्हें यथा स्थान सुरक्षा पूर्वक पहुंचा दिया।
लेकिन स्मरण रहे संगीत की उपयोगिता तभी है जब उसे उच्च उद्देश्य के लिए प्रयुक्त किया जाय। कलाएं दुधारी तलवारें हैं यदि उन्हें पशु प्रवृत्तियां भड़काने के लिए काम में लाया जाय तो वे घातक भी कम सिद्ध नहीं होतीं।
वैज्ञानिक खोजों से यह पता चला है कि शून्य सृष्टि की निराकार स्थिति जहां है वहां से एक प्रकार का शब्द उत्पन्न होता है, जैसे कि कांसे की थाली में चोट करें तो एक प्रकार का कम्पन पैदा होता है, वह देर तक झन-झनाती रहती है। ऐसी झंकृतियां प्रकृति के अदृश्य अन्तराल से पानी में लहरों की भांति निरन्तर उठती रहती हैं, इन झंकृतियों के आघात से इलेक्ट्रान परमाणु (विद्युत घटकों) में गति उत्पन्न होती है और वे अपनी धुरी पर उसी प्रकार घूमने लगते हैं, जिस तरह सृष्टि के अन्यान्य बड़े-बड़े ग्रह, उपग्रह, पृथ्वी, नक्षत्र आदि अपनी धुरी पर घूमते हैं।
इलेक्ट्रान परमाणुओं में एक विशेष गति उत्पन्न होने से सृष्टि का काम उसी तरह चलने लगता है, जिस तरह चाभी भर देने से घड़ी चलने लगती है। सृष्टि का संचालन इन अदृश्य कम्पनों से ही चल रहा है, उनमें इतनी मधुरता, दिव्यता शांति है, जिसे अमृत कहा जा सकता है। स्वर जितना सूक्ष्म और अन्तराल से प्रस्फुटित हुआ होगा, वह विश्व-नाद को उतना ही स्पर्श कर रहा होगा, अर्थात् उससे उसी अंश में मधुरता, आत्मसुख, दिव्यता, पुलक और शान्ति की अनुभूति हो रही होगी।
भौतिक सृष्टि का सारा खेल संगीत की शक्तिशाली झंकृतियों के आधार पर चल रहा है। चैतन्य सृष्टि की साकारता भी संगीत के आधार पर है। मस्तिष्क के विद्युत कोषों से प्रति सेकिंड लगभग 31 विचार-तरंगें निकलती हैं। सिनेमा के पर्दे पर एक सेकिंड में सोलह चित्र सामने से गुजर जाते हैं। इतनी तेजी से चित्र घूमने के कारण दृष्टि भ्रम होता है और ऐसा लगता है कि चित्र न होकर वह कोई जीवित प्राणी काम कर रहा है। उसी प्रकार विद्युत कोषों में 31 कम्पन्न एक सेकिंड में निकलते हैं, तो उस मूल प्रेरक प्रक्रिया (नाद-ब्रह्म) का आभास नहीं हो पाता वरन् वह क्रियाशीलता एक निरन्तर चलने वाले ‘‘विचार’’ के रूप में प्रकट हो जाती है। मनुष्य कुछ न कुछ सोचता ही रहता है, यह विचार तरंगें ईश्वरीय कम्पन्न की मनोजन्य झंकृति ही होती है, वह जितनी स्थूल होगी विचार भी उतने ही स्थूल होंगे, किन्तु यदि मन को एकाग्र कर लिया जाय और अधिक सूक्ष्म कम्पनों तक पहुंचने का प्रयास किया जाये तो बड़े निर्मल, दिव्य आनन्द और शान्ति एवं सन्तोष दायक विचारों का सान्निध्य मिलने लगता है। संगीत साधना का यह एक बड़ा भारी आध्यात्मिक लाभ है।
विचार की सूक्ष्मतम स्थिति तक पहुंचने पर शब्द-विद्या के पण्डितों का कहना है कि—प्राण-वायु जब सहस्रार कमल (मस्तिष्क स्थिति) से टकराती है तो ‘ओम्’ की झंकृति से मिलता-जुलता शब्द उत्पन्न होता है। यही अजपा जप है, उसे शास्त्रीय भाषा में ‘सोऽहं’ ध्वनि कहा गया है। ब्रह्माण्ड स्थिति सहस्रार से जाकर प्राण वायु न टकराये और यह ‘सोऽहम्’ की ध्वनि न हो तो मस्तिष्क की चेतना का—स्नायविक विद्युत-शक्ति का अन्त हो जायेगा और क्षण भर के अन्दर मृत्यु हो जायेगी।
योगी लोग बताते हैं कि शरीर का सूक्ष्म ढांचा बिलकुल सितार जैसा है। मेरुदण्ड में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के तार लगे हैं, यह तार मूलाधार स्थित कुण्डलिनी से बंध गये हैं। आज्ञा चक्र से लेकर मूलाधार तक के 6 चक्र इसके वाद्य स्थान हैं। इसमें लँ, बँ, रँ, षँ, हँ, और ‘ओम्’ की ध्वनियां प्रतिध्वनित होती रहती हैं। अब स्थूल जगत् में सा, रे, ग, म, प, ध, नी, यह स्वर जब वाद्य यन्त्र से ध्वनियां निकालते हैं, और शरीरस्थ ध्वनियों से, टकराते हैं तो इस संघर्षण और सम्मिलन से मनुष्य का अन्तर्जगत् संगीतमय हो जाता है। इन तरंगों में असाधारण शक्ति भरी पड़ी है।
इन तरंगों के प्रवाह से शारीरिक और मानसिक जगत् के सूक्ष्म प्राण गतिशील होते हैं, तदनुसार विभिन्न प्रकार की योग्यता, रुचि, इच्छा, चेष्टा, निष्ठा, भावना, कल्पना, उत्कण्ठा, श्रद्धा आदि का आविर्भाव होता है। इनके आधार पर गुण-कर्म और स्वभाव का सृजन होता है और उसी प्रकार जीवन की गतिविधियों से सुख-सन्तोष भी मिलता रहता है। तात्पर्य यह है कि शास्त्रीय संगीत की रचना एक ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया पर आधारित है कि उसका लाभ मिले बिना रहता नहीं। इसी कारण संगीत को पिछले युग में धार्मिक और सार्वजनिक समारोहों का अविच्छिन्न अंग माना जाता था। आज भी विवाह-शादियों और मंगल पर्वों पर उसकी व्यवस्था करते और उसके लाभ प्राप्त करते हैं। हम देखते नहीं पर अदृश्य रूप में ऐसे अवसरों पर प्रस्फुटित स्वर-संगीत से लोगों को आह्लाद, शांति और प्रसन्नता मिलती है, लोग अनुशासन में बने रहते हैं।
मिलिटरी की कुछ विशेष परेडों में भी वाद्य यन्त्र प्रयुक्त होते हैं। उससे नौजवानों को कदम तोलने और मिलाकर चलने में बड़ी सहायता मिलती है। कारण उस समय सबके अन्तर्जगत् एक-सी विचार तरंगों से आविर्भूत हो उठते हैं। ऐसे लाभों को देखकर विवाह-शादियों, व्रत, त्योहारों, मंदिरों में पूजन आदि के समय, कथा-कीर्तन की व्यवस्था की गयी थी। अब भी उनका लाभ उठाया जाना चाहिये। जहां यह व्यवस्था प्रतिदिन हो सके वहां दैनिक व्यवस्था रहे तो उससे स्थानीय लोगों की अदृश्य रूप से आत्मिक और आध्यात्मिक सेवा की जा सकती है संयोजन कर्त्ताओं को तो दुहरा लाभ मिलता ही है।
शास्त्रीय संगीत की इस विज्ञान भूत प्रक्रिया को अब पाश्चात्य देश भी अच्छी तरह समझने लगे हैं। अमेरिका फ्रांस, ब्रिटेन और रूस आदि सुविकसित देशों में वर्तमान पीढ़ी के युवक तेजी से भारतीय संगीत सीख रहे हैं और उसके अन्य कारणों में इसी संगीत से उत्पन्न होने वाली शारीरिक एवं मानसिक प्रतिक्रियाओं का प्रभाव मुख्य है। उससे लोगों को बड़ी शान्ति मिली है, फलस्वरूप भारतीय संगीत का अधिक लाभ प्राप्त करने के लिये, वे लोग भारतीय भाषायें सीखना चाहते हैं।
यद्यपि यह विद्यायें अब लुप्तप्राय हैं, तो भी अभी इस दिशा में सब कुछ नहीं खो गया। उत्तर-प्रदेश के पूर्व इलाकों में एक विशेष प्रकार के वाद्य से सर्प का विष दूर किया जाता है। कुछ प्रान्तों में थाली बजाकर विशेष रोगों का उपचार करने की प्रथा अभी भी है। पांच तत्त्वों से बने शरीर में वात, पित्त, कफ को स्वरों और रसों के घटाने बढ़ाने से आशाजनक स्वास्थ्य लाभ मिलता है। बसन्त-ऋतु में बसन्त-राग खून में एक नई जागृति, उमंग तथा प्रसन्नता उत्पन्न करता है। वर्षा ऋतु में राग मल्हार से आनन्द के भाव उत्पन्न होते हैं। यह प्रभाव कई बार बड़ी तीव्रता से भी होते हैं।
प्रातःकाल राग भारती और राग भैरवी आदि से भक्ति-रस का प्रादुर्भाव होता है, जिससे स्वास्थ्य और मानसिक शुद्धता की प्राप्ति होती है। संगीत सुनकर कई व्यक्तियों को वैराग्य हो जाता है। दीपक-राग गाते समय भावावेश आ जाने के कारण अथवा गति भंग के कारण तानसेन का सारा शरीर काला पड़ गया था। बाद में कुछ महिलाओं के संगीत से ही वह रोग ठीक हुआ और उसे पहले जैसी त्वचा मिल सकी थी।
युवकों के चरित्र निर्माण में संगीत को एक अत्यन्त प्रभावशाली साधन के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। अरस्तू कहा करते थे—‘‘स्वर और लय के योग से कैसी भी भावनायें उत्पन्न की जा सकती हैं।’’ महाराष्ट्र-राज्य के भूतपूर्व राज्यपाल श्री प्रकाश जी ने एक बार कहा—‘‘संगीत की शिक्षा स्कूलों में अनिवार्य कर देनी चाहिये। इससे युवक विद्यार्थी में मानसिक एकाग्रता और जागरूकता का विकास स्वभावतः होगा। यह दो गुण स्वयं उसके व्यक्तित्व में अन्य गुणों की वृद्धि करने में सहायक बन सकते हैं। हमारे प्रत्येक देवता के साथ संगीत का अविच्छिन्न सम्बन्ध होना यह बताता है कि विश्व की सृजन प्रक्रिया में संगीत का चमत्कारिक प्रभाव है। हृषीकेश का पांचजन्य, शंकर का डमरू, भगवान् कृष्ण की मुरली, भगवती वीणा-पाणि सरस्वती की वीणा का रहस्य एक दृष्टि से यह भी है कि सृष्टि का प्रत्येक अणु संगीत शक्ति से गतिशील हो सकता है।
विश्व संगीतमय है, संगीत ही इसकी प्रेरणा और प्राण शक्ति है। यह तत्त्व इतना महत्वपूर्ण और शक्ति सम्पन्न है कि इसके उपयोग से हम मृत्युन्मुख जीवन को अमरत्व की ओर, निराश जीवन को आशा और सन्तोष तथा व्यथित और परिक्लान्त जीवन को शाश्वत शांति और आनन्द की ओर अग्रसर कर सकते हैं।
संगीत, मात्र मनोरंजन नहीं है यदि उसे भावनाओं और प्रेरणाओं से सुसज्जित रखा जा सके तो इसका परिणाम न केवल गाने सुनने वालों के लिए वरन् सुविस्तृत वातावरण को श्रेयस्कर परिस्थितियों से भरा पूरा बनाने में सहायक हो सकता है।
मनुष्य की कोमल भावनाओं को झंकृत, तरंगित करने पर उसमें देवत्व का उदय होता है। इस प्रयोजन की पूर्ति में नादयोग द्वारा शब्दब्रह्म की साधना करना एक उत्कृष्ट योगाभ्यास है। उससे जन मानस के परिष्कार का लक्ष्य प्राप्त करने में अच्छी सहायता मिल सकती है।
अमेरिका की कला पत्रिका ‘दि अदर ईस्ट विलेज’ में भारतीय संगीत की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा है—मनुष्य की भीतरी सत्ता को राहत देने और तरंगित करने की भारतीय संगीत के ध्वनि प्रवाह में अपने ढंग की अनोखी क्षमता है।
संगीत का कठोर मन वालों पर भी कैसा प्रभाव पड़ता है। इस संदर्भ में ट्राबनकोर दरवार के वायलिन वादक कडिवेल्लु एक बार कहीं प्रवास में जा रहे थे। रास्ते में डाकुओं ने उन्हें पकड़ लिया और जो कुछ पास था सभी लूट लिया। लूट जाने के बाद वडिवेल्लु ने अनुनय विनय करके अपना वायलिन वापिस ले लिया और वहीं बैठ कर बजाने लगे। स्वर लहरी पर विमोहित डाकू भाव विभोर हो गये। उन्होंने लूटा हुआ सारा माल वापिस कर दिया और कई दिन तक अपने पास रख कर उस वादन का रस पान किया अन्त में बहुत पुरस्कार देकर उन्हें यथा स्थान सुरक्षा पूर्वक पहुंचा दिया।
लेकिन स्मरण रहे संगीत की उपयोगिता तभी है जब उसे उच्च उद्देश्य के लिए प्रयुक्त किया जाय। कलाएं दुधारी तलवारें हैं यदि उन्हें पशु प्रवृत्तियां भड़काने के लिए काम में लाया जाय तो वे घातक भी कम सिद्ध नहीं होतीं।
वैज्ञानिक खोजों से यह पता चला है कि शून्य सृष्टि की निराकार स्थिति जहां है वहां से एक प्रकार का शब्द उत्पन्न होता है, जैसे कि कांसे की थाली में चोट करें तो एक प्रकार का कम्पन पैदा होता है, वह देर तक झन-झनाती रहती है। ऐसी झंकृतियां प्रकृति के अदृश्य अन्तराल से पानी में लहरों की भांति निरन्तर उठती रहती हैं, इन झंकृतियों के आघात से इलेक्ट्रान परमाणु (विद्युत घटकों) में गति उत्पन्न होती है और वे अपनी धुरी पर उसी प्रकार घूमने लगते हैं, जिस तरह सृष्टि के अन्यान्य बड़े-बड़े ग्रह, उपग्रह, पृथ्वी, नक्षत्र आदि अपनी धुरी पर घूमते हैं।
इलेक्ट्रान परमाणुओं में एक विशेष गति उत्पन्न होने से सृष्टि का काम उसी तरह चलने लगता है, जिस तरह चाभी भर देने से घड़ी चलने लगती है। सृष्टि का संचालन इन अदृश्य कम्पनों से ही चल रहा है, उनमें इतनी मधुरता, दिव्यता शांति है, जिसे अमृत कहा जा सकता है। स्वर जितना सूक्ष्म और अन्तराल से प्रस्फुटित हुआ होगा, वह विश्व-नाद को उतना ही स्पर्श कर रहा होगा, अर्थात् उससे उसी अंश में मधुरता, आत्मसुख, दिव्यता, पुलक और शान्ति की अनुभूति हो रही होगी।
भौतिक सृष्टि का सारा खेल संगीत की शक्तिशाली झंकृतियों के आधार पर चल रहा है। चैतन्य सृष्टि की साकारता भी संगीत के आधार पर है। मस्तिष्क के विद्युत कोषों से प्रति सेकिंड लगभग 31 विचार-तरंगें निकलती हैं। सिनेमा के पर्दे पर एक सेकिंड में सोलह चित्र सामने से गुजर जाते हैं। इतनी तेजी से चित्र घूमने के कारण दृष्टि भ्रम होता है और ऐसा लगता है कि चित्र न होकर वह कोई जीवित प्राणी काम कर रहा है। उसी प्रकार विद्युत कोषों में 31 कम्पन्न एक सेकिंड में निकलते हैं, तो उस मूल प्रेरक प्रक्रिया (नाद-ब्रह्म) का आभास नहीं हो पाता वरन् वह क्रियाशीलता एक निरन्तर चलने वाले ‘‘विचार’’ के रूप में प्रकट हो जाती है। मनुष्य कुछ न कुछ सोचता ही रहता है, यह विचार तरंगें ईश्वरीय कम्पन्न की मनोजन्य झंकृति ही होती है, वह जितनी स्थूल होगी विचार भी उतने ही स्थूल होंगे, किन्तु यदि मन को एकाग्र कर लिया जाय और अधिक सूक्ष्म कम्पनों तक पहुंचने का प्रयास किया जाये तो बड़े निर्मल, दिव्य आनन्द और शान्ति एवं सन्तोष दायक विचारों का सान्निध्य मिलने लगता है। संगीत साधना का यह एक बड़ा भारी आध्यात्मिक लाभ है।
विचार की सूक्ष्मतम स्थिति तक पहुंचने पर शब्द-विद्या के पण्डितों का कहना है कि—प्राण-वायु जब सहस्रार कमल (मस्तिष्क स्थिति) से टकराती है तो ‘ओम्’ की झंकृति से मिलता-जुलता शब्द उत्पन्न होता है। यही अजपा जप है, उसे शास्त्रीय भाषा में ‘सोऽहं’ ध्वनि कहा गया है। ब्रह्माण्ड स्थिति सहस्रार से जाकर प्राण वायु न टकराये और यह ‘सोऽहम्’ की ध्वनि न हो तो मस्तिष्क की चेतना का—स्नायविक विद्युत-शक्ति का अन्त हो जायेगा और क्षण भर के अन्दर मृत्यु हो जायेगी।
योगी लोग बताते हैं कि शरीर का सूक्ष्म ढांचा बिलकुल सितार जैसा है। मेरुदण्ड में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के तार लगे हैं, यह तार मूलाधार स्थित कुण्डलिनी से बंध गये हैं। आज्ञा चक्र से लेकर मूलाधार तक के 6 चक्र इसके वाद्य स्थान हैं। इसमें लँ, बँ, रँ, षँ, हँ, और ‘ओम्’ की ध्वनियां प्रतिध्वनित होती रहती हैं। अब स्थूल जगत् में सा, रे, ग, म, प, ध, नी, यह स्वर जब वाद्य यन्त्र से ध्वनियां निकालते हैं, और शरीरस्थ ध्वनियों से, टकराते हैं तो इस संघर्षण और सम्मिलन से मनुष्य का अन्तर्जगत् संगीतमय हो जाता है। इन तरंगों में असाधारण शक्ति भरी पड़ी है।
इन तरंगों के प्रवाह से शारीरिक और मानसिक जगत् के सूक्ष्म प्राण गतिशील होते हैं, तदनुसार विभिन्न प्रकार की योग्यता, रुचि, इच्छा, चेष्टा, निष्ठा, भावना, कल्पना, उत्कण्ठा, श्रद्धा आदि का आविर्भाव होता है। इनके आधार पर गुण-कर्म और स्वभाव का सृजन होता है और उसी प्रकार जीवन की गतिविधियों से सुख-सन्तोष भी मिलता रहता है। तात्पर्य यह है कि शास्त्रीय संगीत की रचना एक ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया पर आधारित है कि उसका लाभ मिले बिना रहता नहीं। इसी कारण संगीत को पिछले युग में धार्मिक और सार्वजनिक समारोहों का अविच्छिन्न अंग माना जाता था। आज भी विवाह-शादियों और मंगल पर्वों पर उसकी व्यवस्था करते और उसके लाभ प्राप्त करते हैं। हम देखते नहीं पर अदृश्य रूप में ऐसे अवसरों पर प्रस्फुटित स्वर-संगीत से लोगों को आह्लाद, शांति और प्रसन्नता मिलती है, लोग अनुशासन में बने रहते हैं।
मिलिटरी की कुछ विशेष परेडों में भी वाद्य यन्त्र प्रयुक्त होते हैं। उससे नौजवानों को कदम तोलने और मिलाकर चलने में बड़ी सहायता मिलती है। कारण उस समय सबके अन्तर्जगत् एक-सी विचार तरंगों से आविर्भूत हो उठते हैं। ऐसे लाभों को देखकर विवाह-शादियों, व्रत, त्योहारों, मंदिरों में पूजन आदि के समय, कथा-कीर्तन की व्यवस्था की गयी थी। अब भी उनका लाभ उठाया जाना चाहिये। जहां यह व्यवस्था प्रतिदिन हो सके वहां दैनिक व्यवस्था रहे तो उससे स्थानीय लोगों की अदृश्य रूप से आत्मिक और आध्यात्मिक सेवा की जा सकती है संयोजन कर्त्ताओं को तो दुहरा लाभ मिलता ही है।
शास्त्रीय संगीत की इस विज्ञान भूत प्रक्रिया को अब पाश्चात्य देश भी अच्छी तरह समझने लगे हैं। अमेरिका फ्रांस, ब्रिटेन और रूस आदि सुविकसित देशों में वर्तमान पीढ़ी के युवक तेजी से भारतीय संगीत सीख रहे हैं और उसके अन्य कारणों में इसी संगीत से उत्पन्न होने वाली शारीरिक एवं मानसिक प्रतिक्रियाओं का प्रभाव मुख्य है। उससे लोगों को बड़ी शान्ति मिली है, फलस्वरूप भारतीय संगीत का अधिक लाभ प्राप्त करने के लिये, वे लोग भारतीय भाषायें सीखना चाहते हैं।
यद्यपि यह विद्यायें अब लुप्तप्राय हैं, तो भी अभी इस दिशा में सब कुछ नहीं खो गया। उत्तर-प्रदेश के पूर्व इलाकों में एक विशेष प्रकार के वाद्य से सर्प का विष दूर किया जाता है। कुछ प्रान्तों में थाली बजाकर विशेष रोगों का उपचार करने की प्रथा अभी भी है। पांच तत्त्वों से बने शरीर में वात, पित्त, कफ को स्वरों और रसों के घटाने बढ़ाने से आशाजनक स्वास्थ्य लाभ मिलता है। बसन्त-ऋतु में बसन्त-राग खून में एक नई जागृति, उमंग तथा प्रसन्नता उत्पन्न करता है। वर्षा ऋतु में राग मल्हार से आनन्द के भाव उत्पन्न होते हैं। यह प्रभाव कई बार बड़ी तीव्रता से भी होते हैं।
प्रातःकाल राग भारती और राग भैरवी आदि से भक्ति-रस का प्रादुर्भाव होता है, जिससे स्वास्थ्य और मानसिक शुद्धता की प्राप्ति होती है। संगीत सुनकर कई व्यक्तियों को वैराग्य हो जाता है। दीपक-राग गाते समय भावावेश आ जाने के कारण अथवा गति भंग के कारण तानसेन का सारा शरीर काला पड़ गया था। बाद में कुछ महिलाओं के संगीत से ही वह रोग ठीक हुआ और उसे पहले जैसी त्वचा मिल सकी थी।
युवकों के चरित्र निर्माण में संगीत को एक अत्यन्त प्रभावशाली साधन के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। अरस्तू कहा करते थे—‘‘स्वर और लय के योग से कैसी भी भावनायें उत्पन्न की जा सकती हैं।’’ महाराष्ट्र-राज्य के भूतपूर्व राज्यपाल श्री प्रकाश जी ने एक बार कहा—‘‘संगीत की शिक्षा स्कूलों में अनिवार्य कर देनी चाहिये। इससे युवक विद्यार्थी में मानसिक एकाग्रता और जागरूकता का विकास स्वभावतः होगा। यह दो गुण स्वयं उसके व्यक्तित्व में अन्य गुणों की वृद्धि करने में सहायक बन सकते हैं। हमारे प्रत्येक देवता के साथ संगीत का अविच्छिन्न सम्बन्ध होना यह बताता है कि विश्व की सृजन प्रक्रिया में संगीत का चमत्कारिक प्रभाव है। हृषीकेश का पांचजन्य, शंकर का डमरू, भगवान् कृष्ण की मुरली, भगवती वीणा-पाणि सरस्वती की वीणा का रहस्य एक दृष्टि से यह भी है कि सृष्टि का प्रत्येक अणु संगीत शक्ति से गतिशील हो सकता है।
विश्व संगीतमय है, संगीत ही इसकी प्रेरणा और प्राण शक्ति है। यह तत्त्व इतना महत्वपूर्ण और शक्ति सम्पन्न है कि इसके उपयोग से हम मृत्युन्मुख जीवन को अमरत्व की ओर, निराश जीवन को आशा और सन्तोष तथा व्यथित और परिक्लान्त जीवन को शाश्वत शांति और आनन्द की ओर अग्रसर कर सकते हैं।