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Books - शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म

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संगीत की जीवनदात्री क्षमता

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First 5 7 Last
पाश्चात्य देशों में पिछले दिनों संगीत द्वारा रोग निवारण की दिशा में बहुत शोध कार्य हुआ है। तदनुसार ऐसे सूत्र ढूंढ़ निकाले गये हैं कि जिनके सहारे विभिन्न रोगों के रोगियों की चिकित्सा विभिन्न स्वर प्रवाहों और वाद्य यंत्रों की सहायता से की जाती है। इंग्लैण्ड के डॉक्टर मीड़ और अमेरिका के एडवर्ड पोडीलास्की ने अपनी लम्बी शोध का निष्कर्ष यह बताया कि संगीत से नाड़ी संस्थान में एक विशेष प्रकार की उत्तेजना उत्पन्न होती है। जिसके सहारे शरीर गत मल विसर्जन की शिथिलता दूर होती है। मल, मूत्र, स्वेद, कफ आदि मल जब मन्द गति से रुक-रुक कर निकलते हैं तो ही विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। यदि मलों का विसर्जन ठीक तरह होने लगे तो फिर रोगों की जड़ ही कट जाये। इस संदर्भ में किस मल का विसर्जन आवश्यक है इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए तदनुरूप गीत-वाद्य की व्यवस्था की जा सके तो रोगों के निवारण में सहज ही सफलता मिलेगी। संगीत चिकित्सा का यही आधार है।

सोवियत रूस के अस्पतालों में प्रो. एस.वी. फैकफ ने संगीत के प्रभाव का अन्वेषण करके यह पाया है कि उस उपचार का प्रभाव नाड़ी संस्थान की विकृतियों पर और मनोविकारों पर बहुत ही सन्तोष जनक मात्रा में होता है। डा. वाल्टर एच. वालसे के अनुसार जुकाम, पीलिया, अपच, यकृत शोथ, रक्तचाप जैसे रोगों की स्थिति में उपयोगी संगीत का अच्छा प्रभाव होता है। जर्मनी के मनःरोग चिकित्सक डा. वाल्टर क्यूग का कथन है कि मनोविकारों के निवारण में संगीत को सफल उपचार के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है।

लन्दन की हास्पिटल एण्ड हैल्थमैन ‘मैनेजमेंट’ नामक पत्रिका में इंग्लैण्ड के छह ऐसे अस्पतालों द्वारा संगीत का रोगियों पर प्रभाव विषय पर किये गये प्रयोग परीक्षणों का विवरण छपा है। जिसमें बताया गया है प्रसूति ग्रहों में जच्चा बच्चा की मनःस्थिति में उत्साह बनाये रहने में संगीत ने बहुत योगदान दिया और अन्य कष्ट पीड़ितों की उदासी दूर करके उनकी जीवनी शक्ति को रोग निवारण कर सकने की दृष्टि से अधिक समर्थ बनाया। अमेरिका के डॉक्टर एस.जे. लोडन ने गायकों, वादकों के स्वास्थ का परीक्षण करके यह पाया है कि वे दूसरों की अपेक्षा कहीं कम बीमार पड़ते हैं।

संगीत को कभी मनोरंजन का एक साधन समझा जाता था पर अब वैसी स्थिति नहीं रही। वैज्ञानिकों का ध्यान उसकी जीवन दात्री क्षमता की ओर गया है और उसे शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की विकृतियों के निराकरण के लिए प्रयुक्त करने के प्रयोग बड़े उत्साह पूर्वक हो रहे हैं।

संगीत चिकित्सा का प्रचलन अब क्रमशः बढ़ता ही जा रहा है। मनोविकारों के समाधान में उसके आधार पर भारी सफलता मिल रही है। शरीरगत रुग्णता पर नियन्त्रण प्राप्त करने में भी निकट भविष्य में संगीत की स्वर लहरियां महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करने जा रही हैं। इन दिनों गीत-वाद्य का उथला उपयोग मनोरंजन और लोक रंजन तक सीमित होकर रह गया है। भविष्य में उसे एक कदम आगे बढ़कर मनुष्य की शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्यता का सन्तुलन बनाये रखने का उत्तरदायित्व वहन करना है। उससे आगे उसे आत्मा के महासागर में से उल्लास और आनन्द के मणिमुक्तक ढूंढ़कर बाहर लाने हैं।

डा. ऐरोल्ड आईवर का एक लेख लन्दन की मेडीकल न्यूज-पत्रिका में छपा है जिसमें उन्होंने संगीत द्वारा स्वास्थ्य संरक्षण और दीर्घ जीवन की सम्भावनाओं पर शोधपूर्ण प्रकाश डाला है। उन्होंने कुछ विश्व प्रसिद्ध गायकों की सूची प्रस्तुत की है और बताया है कि पूछने पर वे लोग अपने अच्छे स्वास्थ्य का आधार अपनी संगीत प्रिय अभिरुचि को ही बताते हैं। ऐसे लोगों में उन्होंने स्विट्जरलैंड के 88 वर्षीय पियेरे मोन्टी, जर्मनी के 78 वर्षीय ओट्टो क्लेंपर, इटली के 80 वर्षीय सरकेट वेर्डी के नाम का विशेष रूप से उल्लेख किया है। इन लोगों ने न केवल सिद्धान्त रूप से वरन् प्रयोग परीक्षणों द्वारा भी यह सिद्ध किया है कि संगीत को स्वास्थ्य संवर्धन का एक महत्वपूर्ण आधार बनाया जा सकता है और उससे औषधि उपचार जैसा ही लाभ उठाया जा सकता है।

रूस के क्रीजिया स्वास्थ्य केन्द्र ने चिकित्सा में औषधि उपचार के साथ-साथ संगीत को भी एक उपाय माना है। इस संदर्भ में वहां देर से प्रयोग चल रहे हैं जिनमें उत्साह वर्धक सफलता मिल रही है। अनिद्रा, उदासी, सनक जैसे मस्तिष्कीय रोगों में तो इस उपचार ने औषधि प्रयोग की सफलता को कहीं पीछे छोड़ दिया है।

शरीर पर संगीत का प्रभाव पड़ता है यह तथ्य स्वीकार करने के साथ-साथ मनोविज्ञान वेत्ताओं का प्रतिपादन यह है कि इस आधार पर मनोविकारों के नियन्त्रण पर अधिक और अच्छी सफलता प्राप्त की जा सकती है। सनक और पागलपन के निवारण में संगीत को आवश्यक उपचार क्रम में सम्मिलित करने के लिए जोर दिया जा रहा है। न्यूयार्क के ख्याति नामा चिकित्सक डा. एडवर्ड पोडीलास्की ने अपने रोगियों को गायन की शिक्षा देकर उनके फेफड़ों को मजबूत बनाने और रक्त संचार को व्यवस्थित बनाने में अच्छी सफलता पाई है। वे कहते हैं—स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से संगीत एक बहुत मृदुल और सुखद व्यायाम है उसका लाभ बाल-वृद्ध, दुर्बल, समर्थ सभी अपने-अपने ढंग से प्राप्त कर सकते हैं।

एक दूसरे डॉक्टर वाल्टर एच. वालसे ने जिगर, आमाशय, आंतें और गुर्दे की बीमारी पर संगीत का उपयोगी प्रभाव स्वीकार किया है। पाचन और मल विसर्जन की क्रिया को उत्तेजित और व्यवस्थित करने में उन्होंने संगीत के प्रभाव को स्वीकार किया है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञ डा. बर्नर मैकफेडन भी संगीत को उपयोगी व्यायाम मानते थे। डा. लीक का कथन है कि यदि संगीत को एक दैनिक शारीरिक एवं मानसिक आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया जा सके तो मनुष्य जाति का बहुत हित साधन हो सकता है। दार्शनिक फैथागोरस ने संगीत की उपयोगिता स्वास्थ्य संरक्षण, चरित्र गठन और आत्मिक प्रगति के इन तीनों प्रयोजनों को पूरा कर सकने की तीनों दृष्टियों से स्वीकार किया है।

यूनान के चिकित्सक गोलमन तथा मोरिनन अपने समय के प्रख्यात संगीत चिकित्सक थे और गायन और वाद्य के विविध उतार-चढ़ावों का आश्रय लेकर कतिपय रोगों के कष्टसाध्य बीमारों को व्यथा ग्रस्त स्थिति से छुड़ाते थे। सर्प, बिच्छु जैसे विषैले जन्तुओं के काटने पर उसके दुष्प्रभाव से मुक्ति दिलाने के लिए अभी भी विशेष वाद्य यन्त्रों का प्रयोग किया जाता है।

योरोप के इतिहास में ऐसे तीन सम्राटों का वर्णन मिलता है जिन्हें पागलपन की स्थिति से छुटकारा दिलाने में औषधियां असफल रहीं किन्तु संगीत ने उस प्रयोजन को पूरा किया। इंग्लैण्ड के सम्राट् जार्ज तृतीय को अन्यमनस्कता—मेलेन कोलिया—ने धर दबोचा था इसी प्रकार इसराल के शासक-साल और स्पेन के बादशाह फिलिप पंचम लगभग पागल ही हो चुके थे। उनकी चिकित्सा कुशल कलावन्तों ने संगीत के माध्यम से की—फलस्वरूप उन्हें विपत्ति से छुटकारा भी मिल गया।

सुप्रसिद्ध संगीतकार तानसेन के बारे में यह कहा जाता है कि वे जन्मतः गूंगे थे। सात वर्ष की आयु तक उन्हें बोलना बिलकुल नहीं आता था। उनके पिता मकरन्द और माता कालन्दीबाई ने अपने पुत्र के गूंगेपन का उपचार करने के लिए सामर्थ्य भर उपाय कर लिया पर कोई सफलता न मिली। अन्त में एक उपाय कारगर हुआ जिन्हें तत्कालीन मूर्धन्य गयाक मुहम्मद गोस की कृपा प्राप्त हुई। वे अपने साथ-साथ तानसेन को भी गाने के लिए प्रोत्साहित करते थे इस पर बच्चे की वाणी खुली, वह न केवल बोलने की लगा वरन् मधुर कंठ से गाने भी लगा। मुहम्मद गोस के बारे में कहा जाता है कि उनने अन्य कई कष्टसाध्य रोगों से ग्रसित व्यक्तियों को अपने संगीत की मधुर ध्वनियां सुनाने का उपचार करके रोग मुक्त किया था।

उत्तर प्रदेश की रामपुर स्टेट के नवाब के यहां सुरजखां नामक एक गायक आते थे उन्होंने संगीत के आधार पर नवाब को लकवे से मुक्ति दिलाई थी। इसी प्रकार उनने अन्य कितने ही रोगी विभिन्न राग रागनियां सुनाकर रोग मुक्त किये थे।

संगीत का मनुष्य जीवन को सरस बनाने में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। यदि संगीत का अस्तित्व मिट जाये तो दुनिया बड़ी ही नीरस, रूखी, और कर्कश प्रतीत होने लगेगी। साधारण पशु की अपेक्षा मनुष्य को जो आनन्दमयी स्थितियां प्राप्त हैं उनमें संगीत, साहित्य और कला का बहुत बड़ा भाग है।

जड़ पदार्थों में गति उत्पन्न करने के लिए गर्मी का कार्य प्रधान हैं। अन्य तत्वों से भी गति का संचार होता है परन्तु प्रधानता अग्नि तत्व की ही है। इसी प्रकार चैतन्य तत्वों में जो हलचलें होती हैं उसके कारण यद्यपि अन्य भी हैं पर संगीत की उनमें प्रधानता है। प्राणियों के अन्दर जो चैतन्य तत्व है वह संगीत के द्वारा गति प्राप्ति करता है, आगे बढ़ता है, विकसित होता है।

वैज्ञानिक खोजों से यह पता चला है कि शून्य सृष्टि की निराकार स्थिति जहां है वहां से एक प्रकार का शब्द उत्पन्न होता है यह शब्द ऐसा है जैसे कि थाली में एक हल्की चोट मार दी जाय तो वह बहुत देर तक झनझनाती रहती है। ऐसी झंकृतियां पानी की लहरों की भांति बार-बार अदृश्य अन्तराल में से उठती हैं। उनकी झंकृतियों के आघातों से इलेक्ट्रोन परमाणु (विद्युत घटकों) में गति उत्पन्न होती है और वे अपनी धुरी पर उसी प्रकार घूमने लगते हैं; जैसे कि सृष्टि के बड़े-बड़े ग्रह नक्षत्र, पृथ्वी आदि अपनी धुरी पर बड़ी तीव्र गति से घूम रहे हैं। इलेक्ट्रोन परमाणुओं में गति उत्पन्न होने से दुनिया का सारा काम चलने लगता है। घड़ी की चाबी का पुर्जा चलने से उसके अन्य पुर्जे भी चलने लगते हैं इसी प्रकार इलेक्ट्रोन कणों में हरकत होने से संसार की समस्त दृश्य-अदृश्य क्रियाएं होने लगती हैं।

इस वैज्ञानिक खोज से प्रतीत होता है कि अदृश्य झंकृति के संगीत मय कम्पन्न की प्रेरणा से ही समस्त सृष्टि का काम चल रहा है यदि यह संगीत बन्द हो जाय तो प्रलय में तनिक भी विलम्ब न समझना चाहिए। संगीत द्वारा सृष्टि संचालन के उपरोक्त सिद्धान्त को आधुनिक वैज्ञानिकों ने ही ढूंढ़ निकाला है ऐसी बात नहीं है, भारतीय तत्वदर्शी आचार्य इन सब बातों को चिर प्राचीन काल से अनुभव करते आ रहे हैं। योग की दिव्य दृष्टि द्वारा उन्होंने ढूंढ़ा कि सृष्टि को कौन चलाता है? उन्हें मालूम हुआ कि पंच तत्वों से ऊपर की भूमिका में एक घन्टा नाद के समान झंकृत हो रहा है उसके कम्पनों की प्रेरणा से विश्व में गति विधि जारी हैं। पंच तत्व जड़ हैं इसलिए वे स्वेच्छा पूर्वक निरंतर ऐसी प्रेरक गति अविचल रूप से सदैव जारी नहीं रख सकते अतएव यह कार्य किसी चैतन्य और नित्य शक्ति का होना चाहिए। गुण के अनुसार नाम रखा जाता है। जैसे जिसमें शूर वीरता होती है उसे ‘बहादुर’ जो अंटशंट बकता है उसे ‘पागल’ जो चिकित्सा करता है उसे ‘वैद्य’ कहते हैं उसी प्रकार उस संचालक, चैतन्य, नित्य, ईश्वर सत्ता का नामकरण करने के लिए भी ऋषियों को उसके गुण का आश्रय लेना पड़ा। घड़ियाल में चोट मार देने के बाद जो बहुत देर तक झंकृति होती है उस झंकृति का उच्चारण करीब-करीब ‘‘ओम्’’ जैसा होता है। सृष्टि संचालन शब्द भी इसी प्रकार का है। इसलिए उसका नाम ॐ रखा गया। ॐ अक्षर का प्राचीन कालीन रूप स्वास्तिक " था। अब उसकी बनावट में सुधार हो जाने के कारण ‘‘"’’ को ‘‘ॐ’’ लिखा जाने लगा है। योगाभ्यास में कान बन्द करके दिव्य कर्णेन्द्रिय से ‘अनहद नाद’ सुनने की जो साधना है उसका तात्पर्य अपनी चेतना को सूक्ष्म परमात्म तत्व के निकटवर्ती प्रदेश तक पहुंचा देना है।

भौतिक सृष्टि का सारा खेल संगीत की शक्तिशाली झंकृतियों के आधार पर चल रहा है। चैतन्य सृष्टि की साकारिता भी संगीत के आधार पर है। मस्तिष्क के विद्युत कोषों में से प्रति सैकिण्ड करीब 30 या 31 विचार तरंगें निकलती हैं। सिनेमा के फिल्म में एक सैकिण्ड में करीब सोलह चित्र आंखों के आगे से निकल जाते हैं आंखें उन चित्रों की प्रथकता को इतनी तेजी से देखने में असमर्थ रहती हैं इसलिये ऐसा भ्रम होने लगता है कि एक ही तस्वीर चल फिर रही है, वास्तव में होता यह है कि एक तस्वीर जरा सी हरकत करती दीखती है उतनी ही देर में उसके सैकड़ों चित्र आंखों के आगे से निकल जाते हैं। इसी प्रकार मस्तिष्क में से भी प्रति सैकिण्ड करीब 30-31 एक प्रकार की तरंगें निकलती हैं इनके सम्मिलन से जो एक बहुत बड़ा समूह बनता है उसे ‘विचार’ कहते हैं। मस्तिष्क के विद्युत कोषों का तरंगित होना भी एक सूक्ष्म संगीत के ऊपर निर्भर है। प्राण वायु सहस्रार कमल से जाकर टकराती है। जिससे ॐ की झंकृति से मिलता जुलता एक दूसरा शब्द उत्पन्न होता है। ऋषियों ने उसे ‘‘सोऽहम्’’ ध्वनि कहा है। यही अजपा जप है। ब्रह्माण्ड में स्थिर सहस्रदल कमल से जाकर प्राणवायु न टकरावे और यह ‘सोऽहम्’ ध्वनि न हो तो मस्तिष्क की चेतना का स्नायविक विद्युत शक्ति का अन्त हो जायेगा और क्षण भर के अन्दर मनुष्य की मृत्यु हो जायगी।

योगी लोग जानते हैं कि शरीर का सूक्ष्म ढांचा-सितार के ढांचे से बिल्कुल मिलता जुलता है। भगवती सरस्वती के हाथ में वीणा का होना एक आध्यात्मिक अर्थ रखता है वह अर्थ यह है कि सद्विवेक का—सरस्वती का प्राकट्य सितार की आकृति के बने हुए सूक्ष्म शरीर द्वारा होता है। मेरु दंड में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के तार लगे हुए हैं। मूलाधार स्थित कुण्डलिनी में यह तार बंधे हुए हैं। षट् चक्र उस सितार के वाद्य स्थान हैं। इनमें से विभिन्न प्रकार की झंकार हर घड़ी निकलती हैं। प्राण विद्या के सूक्ष्म दर्शी आचार्य बतलाते हैं कि गुदा और अंडकोष के बीच मूलाधार चक्र (Pelvic Plexus) में से ‘‘लं’’ की ध्वनि, पेडू के नीचे जननेन्द्रिय के ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र (Hypogastric Ploxus) में से ‘‘बं’’ की ध्वनि, नाभि स्थान के मणिपूर चक्र (Erigastric Plexus) में से ‘‘रुं’’ की ध्वनि हृदय में स्थित अनाहत चक्र (Cardiac Plexus) में से ‘षं’ की ध्वनि, कंठ स्थान के विशुद्ध चक्र (Carotid Plexus) में से ‘‘हं’’ की ध्वनि, तथा भ्रूमध्य भाग के आज्ञाचक्र में से ‘ॐ’ की ध्वनि निकलती है। इस प्रकार यह छह झंकृतियां अनवरत रूप से प्रतिक्षण तरंगित होती रहती हैं। स्थूल जगत में स, रे, ग, म, प, ध, नि, के स्वर वाद्य यन्त्रों पर बजते हैं। हमारे सूक्ष्म यंत्र का सितार अपने तारों से अपनी भाषा में दूसरी ध्वनियां निकालता है। यह ध्वनियां आपस में एक दूसरे से टकराती हैं और मिलती हैं। इस संघर्षण और सम्मिलन से मनुष्य का अन्तर्जगत संगीतमय हो जाता है। इन तरंगों में असाधारण शक्ति भरी पड़ी है, इनके, प्रभाव से शारीरिक और मानसिक जगत के सूक्ष्म घटक गतिशील होते हैं तदनुसार विभिन्न प्रकार की योग्यता रुचि, इच्छा, चेष्टा, निष्ठा, भावना, कल्पना, उत्कंठा, श्रद्धा आदि का आविर्भाव होता है और इन्हीं के आधार पर गुण, कर्म, स्वभाव का शारीरिक मानसिक स्थूल ढांचा दृष्टि गोचर होने लगता है। यह आध्यात्मिक संगीत हमारा पथ प्रदर्शक है, हमें नीचे ऊपर, आगे पीछे, जहां चाहता है ले दौड़ता है।

घड़ी के पेण्डुलम की तरह हृदय की धड़कन अपना ताल ठेका अलग ही बजाती है। लप, डप, का क्रम तारबर्की की गर् गट्ट की समता करता है। इस तारवर्की से नस नस का, पुर्जे पुर्जे का संचालन होता है। डॉक्टर लोग स्टेथिस्कोप यन्त्र लगाकर इस तारवर्की के संगीत की परीक्षा करते हैं कि कहीं यह संगीत बेसुरा तो नहीं हो रहा है वे जानते हैं कि जरा से बेसुरापन आते ही नाना प्रकार के रोगों का उपद्रव उठ खड़ा होगा। चतुर संगीतज्ञ की आंखों से पट्टी बांधकर सितार सुनाया जाय तो वह उसके बेसुरापन आते ही नाना प्रकार के रोगों का उपद्रव उठ खड़ा होगा। चतुर संगीतज्ञ की आंखों से पट्टी बांधकर सितार सुनाया जाय तो वह उसके बेसुरेपन को सुनकर वह बता देगा कि इस बाजे के अमुक तार में अमुक प्रकार की खराबी है। इसी प्रकार से हृदय की धड़कन, या नाड़ी की धड़कन का अनुभव करके उसके बेसुरेपन के आधार पर चिकित्सक लोग यह बताते हैं कि शरीर के किस पुर्जे में क्या खराबी आ गई है, क्या रोग हो गया है।

अदृश्य जगत की सूक्ष्म कार्य प्रणाली पर जिधर भी हम दृष्टि डालते हैं उधर ही यह प्रतीत होता है कि एक दिव्य संगीत से दशों दिशाएं झंकृति हो रही हैं, हर तरफ स्वर लहरी गूंज रही है। हृषीकेश का पांचजन्य, शंकर का डमरू भगवान कृष्ण की मुरली, सरस्वती की वीणा का सत्य, शिव और सुन्दर संगीत निनादित हो रहा है और उसकी स्वर लहरी पर विमुग्ध होकर विश्व की जड़ चैतन्य सत्ता का प्रत्येक परमाणु नृत्य कर रहा है। प्रकृति और पुरुष की रासलीला का यह नृतय वाद्य कितना सुन्दर कितना मोहक और कितना मादक है? इसे कोई योगी साधक ही समझ सकता है।

निस्संदेह विश्व संगीतमय है। संगीत ही इसकी प्रगति, प्रेरणा और प्राण शक्ति है। यह तत्व इतना महत्वपूर्ण और शक्ति सम्पन्न है कि इसके उपयोग से हम जीवन और मृत्यु, अमृत और विष जैसे परिणाम प्राप्त कर सकते हैं।
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