
संगीत एक महाशक्ति
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प्राचीनकाल में समीपवर्ती तीर्थ-यात्राओं देव-दर्शनों और मेलों पर गाते हुये जाने की प्रथा थी। अभी भी गीत गाते हुए परिक्रमा आदि देने की प्रथा है, मथुरा यात्रा पर आने वाले कुछ बुन्देलखण्डी-तीर्थयात्री बिरहे गाते हुए और कुछ शिव उपासक ‘भोला तेरी बम’ गाते हुये निकलते हैं, उनका कहना है कि गीतों के माध्यम से वे यहां की धार्मिक भावनायें खींच ले जाते हैं। तीर्थ यात्राओं और पर्व-त्योहारों पर गांव-गांव संगीत और भजनों का प्रचलन था, उससे एक बार तमाम भारतवर्ष संगीत से मुखरित हो उठता था, उसी का फल था कि वृक्ष वनस्पति अधिक और मीठे फल देते थे। दूषित तत्वों का संहार होता था और उससे बीमारियां आदि कम फैलती थीं।
गीत से जो उल्लास पैदा होता था, वह गन्दे स्थानों से गुजरने पर भी वहां की प्रतिक्रिया रोक देता था और संगीत के प्रभाव से यात्री स्वस्थ और प्रसन्नचित्त लौट आता था, उस पर किसी प्रकार की बीमारी का असर नहीं होता था। आज गाने का शौक कम होता जा रहा है, उसी कारण लोग तरह-तरह के दुर्गुणों में ग्रस्त होते, स्वास्थ्य खोते चले जा रहे हैं। संगीत जैसी उत्पादक सत्ता से सम्बन्ध विच्छेद कर मनुष्य जाति ने अपनी ही हानि की है।
सामूहिक संगीत के महत्व पर डाक्टरों का मत है कि जब कई व्यक्ति एक साथ गाते हैं तो सब लोगों का स्वर प्रवाह एवं आन्तरिक उल्लास मिलकर एक ऐसी तरंग शृंखला उत्पन्न करता है, जो वातावरण में मिलकर सबको उल्लसित कर देती है। फाल्गुन के महीने में फाग की धूम होती है, तब बच्चे-बूढ़ों में भी उल्लास फूट पड़ता है और वे युवकों की तरह उत्फुल्ल दिखाई देने लगते हैं। सामूहिक गायनों में सभी को अपने प्रयत्न से अधिक ही लाभ मिलता है और वह लाभ इतने व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करता है कि प्रत्येक श्रोता चाहे वह गाने में भाग न भी ले रहा हो, उस आनंद सरोवर में डूब जाता है।
गाने की धुनों के साथ हाथ-पांव अनायास ही गति करने लगते हैं, इसका तात्पर्य ही यह है कि संगीत का मनुष्य जीव और आत्मा से सीधा सम्बन्ध है। आत्मा उसके बिना कुण्ठित हो जाती है, इसलिये आत्मिक प्रगति के प्रत्येक इच्छुक को गाने और संगीत सुनने का लाभ अवश्य लेना चाहिये।
योग-शास्त्रों में संगीत की बड़ी चर्चा है। तत्ववेत्ताओं का कथन है कि अदृश्य जगत् की सूक्ष्म कार्य प्रणाली पर जिधर भी दृष्टि डालते हैं, उधर ही यह प्रतीत होता है कि एक दिव्य संगीत से सभी दिशायें और विश्व भुवन झंकृत हो रहा है। यह स्वर लहरियां वीणा, भ्रमर, झरना, नागरी भेरी, बंशी आदि की तरह सुनाई देती हैं। जिस तरह सर्प नाद को सुनकर मस्त हो जाता है, उसी तरह चित्त उन स्वर लहरियों में आसक्त होकर सभी प्रकार चपलतायें भूल जाता है। नाद से संलग्न होने पर मन ज्योतिर्मय हो जाता है और जो स्थिति कठिन साधनाओं से भी कठिनाई से मिलती है, वह स्वर योग के साधक को अनायास ही मिल जाती है।
संगीत परमात्मा के आशीर्वाद रूप में मनुष्य को मिला है, उस आशीर्वाद की वर्षा अपने ऊपर आप की जा सकती है। धन-सम्पत्ति न मिले न सही पर संगीत का आनन्द तो वायु, जल, सूर्य की ऊष्मा की तरह उन्मुक्त रूप से हर कोई प्राप्त कर सकता है। इस महाशक्ति से सम्बन्ध जोड़कर प्रत्येक व्यक्ति को अपने गुणों और आत्मिक सम्पदा का विकास और दूषित तत्वों से देह, मन और आत्मा की रक्षा करनी चाहिये।
विश्व के यशस्वी गायक एनरिको कारूसो लिखते हैं—‘‘जब कभी संगीत की स्वर लहरियां मेरे कानों में गूंजती, मुझे ऐसा लगता मेरी आत्म-चेतना किसी अदृश्य जीवनदायिनी सत्ता से सम्बद्ध हो गई है। मैं शरीर की पीड़ा भूल जाता, भूख-प्यास और निद्रा टूट जाती, मन को विश्राम और शरीर को हल्कापन मिलता। मैं तभी से सोचा करता था कि सृष्टि में संगीत से बढ़कर मानव-जाति के लिये और कोई दूसरा वरदान नहीं है।’’
कारूसो ने जीवन भर संगीत की साधना की। जबकि एक बार एक शिक्षक ने यहां तक कह दिया कि तुम्हारा स्वर संगीत के योग्य है ही नहीं। तुम्हारा स्वर लड़खड़ाता है। पर निरन्तर अभ्यास और साधना से कारूसो ने संगीत-साधना में अभूतपूर्व सिद्धियां पाईं और यह प्रमाणित कर दिया कि संगीत का सम्बन्ध स्वर से नहीं हृदय और भावनाओं से है। कोई भी मनुष्य अपने हृदय को जागृत कर परमात्मा के इस वरदान में विभूषित हो सकता है।
संगीत से मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होता है और वह सूक्ष्म सत्ता के भाव-संस्पर्श और अनुभूति की स्थिति पाता है, यह परिणाम अन्तर्जगत से सम्बन्ध रखते हैं, इसलिए उस सम्बन्ध में विस्तृत अन्वेषण का क्षेत्र पाश्चात्य जगत के लिये अभी नितान्त खाली है, मस्तिष्क, शरीर और वन्य वनस्पतियों तक में संगीत के जीवनदायी प्रभाव को पाश्चात्य विद्वान और वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं।
एक बार इंग्लैंड के एक अस्पताल में आपरेशन के लिये एक रोगी को ले जाया जा रहा था। उस समय बाहर के किसी मकान से संगीत की मधुर ध्वनि आ रही थी। रोगी के मन में संगीत का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह उठ बैठा और निकलकर अस्पताल के बाहर आकर भौंचक्का-सा देखने लगा कि वह स्वर झंकार कहां से आ रही है। डाक्टरों ने देखा संगीत के प्रभाव ने उसके रोक को ही दबा दिया है।
अमेरिका के कई दन्त चिकित्सक एक विशिष्ट संगीत लहरी, विद्युत वाद्य यन्त्र से बजाकर दांत उखाड़ते हैं। रोगियों से पूछने पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संगीत की मधुर ध्वनि का असर जादू जैसा होता है और वे लोग अपना कष्ट भूल जाते हैं। महिलाओं के प्रसव के समय भी इस प्रकार के प्रयोग किये गये और यह देखा गया कि जिन स्त्रियों को प्रजनन के समय बहुत पीड़ा होती थी, उन्होंने बिना कष्ट के प्रसव किया। इटली में ‘टोरेन्टेला’ नामक नृत्य होता है, तब अनेक मधुर वाद्य बजते हैं, उनसे अनेक पागलपन के रोगी अच्छे होते देखे गये हैं।
भारतवर्ष में शास्त्रीय संगीत की शक्ति और महत्ता के सम्बन्ध में इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। अब उस दिशा में नई खोजें की जाने की आवश्यकता है, पर सामान्य व्यक्तियों को कथा, कीर्तन, भजन, रेडियो-संगीत, छोटे-छोटे वाद्य यन्त्रों के वादन और गायन के द्वारा उसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का लाभ अवश्य उठाना चाहिये। संगीत स्पन्दन शरीर पर बड़ा अनुकूल प्रभाव डालते हैं।
गायन को ‘योगिक स्वास्थ्य साधन’ भी कहते हैं। गाते समय मुंह, जीभ और होंठ ही काम नहीं करते वरन् आवाज नाभि से खिंचती है और ब्रह्म-रंध्र तक पहुंचती है, फिर तालुओं से खींचकर गले से उसे निकालते हैं, इस तरह कमर से नीचे के हिस्से को छोड़कर शेष सम्पूर्ण शरीर का भीतरी व्यायाम हो जाता है, उससे बाहरी व्यायाम से भी अधिक प्रभावी परिणाम दिखाई देते हैं।
गायन से शरीर और मस्तिष्क की कमर नाड़ियों का शोधन होता है। ज्ञान-तन्तु सजग होते हैं। द्रुत, विलम्बित और मध्यम लय में गाये जाने वाले गीतों के अभ्यास से जीभ, वक्षस्थल, हृदय, श्वांस और स्वर-वाहिनी नलिकाओं, स्नायु-मण्डल और नाड़ी संस्थान और हृदय की रक्तवाहिनी धमनियों में प्रभाव पड़ता है। यह अंग स्वस्थ नीरोग और बलवान् बनते हैं।
गाने से नाड़ी संस्थान में लहरें उठती हैं, उससे प्रभावित होकर मन भी लहराने लगता है। इस प्रकार की तरंगावली शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिये बहुत लाभ दायक होती है। गाने से फेफड़े और स्वर यन्त्र मजबूत होते हैं। तपेदिक आदि बीमारियों का भय नहीं रहता। जबड़े और आमाशय का भी अच्छा व्यायाम हो जाता है और यह सभी संस्थान नीरोग हो जाते हैं। वाद्य संगीत के साथ गायन अथवा नृत्य का भी अभ्यास किया जाता है तो उससे सिर, गर्दन, कन्धा, छाती, पेट और पैर का भी व्यायाम हो जाता है और सारे शरीर में खून का संचार ठीक प्रकार से होने लगता है और शरीर में स्फूर्ति रहती है। बांसुरी, शहनाई, बीन आदि मुंह से बजाये जाने वाले वाद्यों से जीभ, श्वांस-नली और फेफड़े स्वस्थ और मजबूत होते हैं।
संगीत का अभ्यास करना ही लाभदायक नहीं, श्रवण करना भी उतना ही प्राणप्रद होता है। सुनने से और भी स्फूर्ति, चैतन्यता और रोमांच होता है। गायन और वादन की श्रोताओं पर जो प्रतिक्रिया होती है, उसके फलस्वरूप अधिक प्यास लगना, शरीर की जलन, नशे के प्रभाव, दुर्बलता, विष का प्रभाव, मूर्छा, नींद न आना, मानसिक विक्षिप्तता, आलस्य, पीड़ा, बुखार, बार-बार दस्त और पेशाब होना, आन्तरिक दाह, रक्त-चाप, खांसी, पाण्डुरोग, कान के दर्द, हृदय की धड़कन, श्वांस रोग आदि को आराम मिलता है। कई बार कुछ रोग असाध्य हो जाते हैं और उन पर संगीत का प्रभाव धीरे-धीरे पड़ता है। धीरे-धीरे विष का शमन होता है पर यह निश्चित है कि नियमित रूप से गायन का अभ्यास करने से इनसे छुटकारा अवश्य मिलता है।
गायन में स्तुति, मंगलाचरण, भगवान का ध्यान, माता का ध्यान, छोटे बच्चों को पास बैठाकर गाना, सजावट और सौन्दर्य पूर्ण स्थान जैसे देव मन्दिर, तीर्थ अथवा जलाशयों के किनारे सामूहिक रूप से गाने का प्रयोग और भी प्रभावोत्पादक होता है। प्राचीनकाल में ऐसे अवसरों पर्व-त्यौहार, पूजन, तीर्थ-यात्रा, मन्दिरों आदि में संगीत अभ्यास और गायन की व्यवस्था इसलिये की जाती थी कि उन पर्वों और स्थानों के सूक्ष्म प्रभाव को तरंगित कर उसका भी लाभ उठाया जा सके है।
संगीत का प्रभाव मनुष्यों पर ही नहीं पशु-पक्षियों पर भी पड़ता है। वेणुनाद सुनकर सर्प अपनी कुटिलता भूलकर लहराने लगता है। कई प्रान्तों में बहेलिये बीन बजाते हैं, उससे मुग्ध हुए हिरण, मृग निर्भय होकर पास चले आते हैं। हालैण्ड में गायें दुहते समय मधुर संगीत सुनाया जाता है। वहां की सरकार ने ऐसा प्रबन्ध किया है कि जब गायें दुहने का समय हो तब मधुर संगीत ब्रॉडकास्ट किया जाय, ग्वाले लोग रेडियो सेट दुहने के स्थानों पर रख देते हैं। संगीत को गायें बड़ी मुग्ध होकर सुनती हैं और उनके स्नायु संस्थान पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे 15 से लेकर 20 प्रतिशत तक अधिक दूध दे देती हैं।
अभी शक्ति तत्व के अनुसंधान का क्षेत्र बहुत विस्तृत और अव्यक्त है और जानकारी बढ़ेगी तो यह भी सम्भव हो जायेगा कि रीछ, भालू व शेर, बाघ जैसे खूंखार जानवरों को भी संगीत के प्रभाव से सात्विक और कोमल मनोवृत्ति का बनाया जाना सम्भव होगा। कहते हैं साम-संगीत को सुनकर चर-अचर सभी निर्विकार और अचेतन स्थिति को पहुंच जाते हैं, उसका लाभ भी तब मिल सकेगा।
संगीत का प्रभाव जीव जगत तक ही नहीं, वृक्ष और वनस्पति भी उससे प्रभावित होते हैं। अन्नमय विश्व-विद्यालय के वनस्पति शास्त्र के प्रधान डा. टी.सी.एन. सिंह ने ध्वनि तरंगों के द्वारा पौधों को उत्तेजित व वर्धित किये जाने की बात स्वीकार की।
केले और धान की खेती में संगीत की स्वर लहरियां डाली जायं तो उनके वजन और उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती देखी गई है।
गाना-नाचना, गीत-संगीत निश्चित रूप से प्रसन्नता की वृद्धि करते हैं यह शरीर की स्थूल प्रक्रिया है। संगीत को हृदय और भावनाओं में उतार लेने से तो मनुष्य का आत्मिक काया-कल्प ही हो सकता है। संगीत एक प्रकार की स्वर साधना और प्राणायाम है जिससे शरीर के भीतरी अवयवों का व्यायाम भी होता है और ऑक्सीजन की वृद्धि भी, फलस्वरूप पाचन-शक्ति, गहरी नींद, चौड़ी छाती और हड्डियों की मजबूती का स्थूल लाभ तो मिलता ही है। दया, प्रेम, करुणा, उदारता, ममता, आत्मीयता सेवा और सौजन्यता के भावों का तेजी से विकास होता है यह सद्गुण अपनी प्रसन्नता और आनन्द का कारण आप हैं, वैसे ऐसे व्यक्ति के लिये सांसारिक प्रेम और सहयोग का भी अभाव नहीं रहता।
संगीत का अब सम्मोहिनी विद्या के रूप में विदेशों में विकास किया जा रहा है। अनेक डॉक्टर सर्जरी जैसी डाक्टरी आवश्यकताओं में संगीत की ध्वनि-तरंगों का उपयोग करते हैं, अमेरिका में बड़े स्तर पर संगीत की सृजनात्मक शक्ति की खोज की जा रही है। वहां के वैज्ञानिक ध्वनि तरंगों के माध्यम से न केवल विश्व-संसार प्रणाली को सरल और सर्वसुलभ बना रहे हैं
गीत से जो उल्लास पैदा होता था, वह गन्दे स्थानों से गुजरने पर भी वहां की प्रतिक्रिया रोक देता था और संगीत के प्रभाव से यात्री स्वस्थ और प्रसन्नचित्त लौट आता था, उस पर किसी प्रकार की बीमारी का असर नहीं होता था। आज गाने का शौक कम होता जा रहा है, उसी कारण लोग तरह-तरह के दुर्गुणों में ग्रस्त होते, स्वास्थ्य खोते चले जा रहे हैं। संगीत जैसी उत्पादक सत्ता से सम्बन्ध विच्छेद कर मनुष्य जाति ने अपनी ही हानि की है।
सामूहिक संगीत के महत्व पर डाक्टरों का मत है कि जब कई व्यक्ति एक साथ गाते हैं तो सब लोगों का स्वर प्रवाह एवं आन्तरिक उल्लास मिलकर एक ऐसी तरंग शृंखला उत्पन्न करता है, जो वातावरण में मिलकर सबको उल्लसित कर देती है। फाल्गुन के महीने में फाग की धूम होती है, तब बच्चे-बूढ़ों में भी उल्लास फूट पड़ता है और वे युवकों की तरह उत्फुल्ल दिखाई देने लगते हैं। सामूहिक गायनों में सभी को अपने प्रयत्न से अधिक ही लाभ मिलता है और वह लाभ इतने व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करता है कि प्रत्येक श्रोता चाहे वह गाने में भाग न भी ले रहा हो, उस आनंद सरोवर में डूब जाता है।
गाने की धुनों के साथ हाथ-पांव अनायास ही गति करने लगते हैं, इसका तात्पर्य ही यह है कि संगीत का मनुष्य जीव और आत्मा से सीधा सम्बन्ध है। आत्मा उसके बिना कुण्ठित हो जाती है, इसलिये आत्मिक प्रगति के प्रत्येक इच्छुक को गाने और संगीत सुनने का लाभ अवश्य लेना चाहिये।
योग-शास्त्रों में संगीत की बड़ी चर्चा है। तत्ववेत्ताओं का कथन है कि अदृश्य जगत् की सूक्ष्म कार्य प्रणाली पर जिधर भी दृष्टि डालते हैं, उधर ही यह प्रतीत होता है कि एक दिव्य संगीत से सभी दिशायें और विश्व भुवन झंकृत हो रहा है। यह स्वर लहरियां वीणा, भ्रमर, झरना, नागरी भेरी, बंशी आदि की तरह सुनाई देती हैं। जिस तरह सर्प नाद को सुनकर मस्त हो जाता है, उसी तरह चित्त उन स्वर लहरियों में आसक्त होकर सभी प्रकार चपलतायें भूल जाता है। नाद से संलग्न होने पर मन ज्योतिर्मय हो जाता है और जो स्थिति कठिन साधनाओं से भी कठिनाई से मिलती है, वह स्वर योग के साधक को अनायास ही मिल जाती है।
संगीत परमात्मा के आशीर्वाद रूप में मनुष्य को मिला है, उस आशीर्वाद की वर्षा अपने ऊपर आप की जा सकती है। धन-सम्पत्ति न मिले न सही पर संगीत का आनन्द तो वायु, जल, सूर्य की ऊष्मा की तरह उन्मुक्त रूप से हर कोई प्राप्त कर सकता है। इस महाशक्ति से सम्बन्ध जोड़कर प्रत्येक व्यक्ति को अपने गुणों और आत्मिक सम्पदा का विकास और दूषित तत्वों से देह, मन और आत्मा की रक्षा करनी चाहिये।
विश्व के यशस्वी गायक एनरिको कारूसो लिखते हैं—‘‘जब कभी संगीत की स्वर लहरियां मेरे कानों में गूंजती, मुझे ऐसा लगता मेरी आत्म-चेतना किसी अदृश्य जीवनदायिनी सत्ता से सम्बद्ध हो गई है। मैं शरीर की पीड़ा भूल जाता, भूख-प्यास और निद्रा टूट जाती, मन को विश्राम और शरीर को हल्कापन मिलता। मैं तभी से सोचा करता था कि सृष्टि में संगीत से बढ़कर मानव-जाति के लिये और कोई दूसरा वरदान नहीं है।’’
कारूसो ने जीवन भर संगीत की साधना की। जबकि एक बार एक शिक्षक ने यहां तक कह दिया कि तुम्हारा स्वर संगीत के योग्य है ही नहीं। तुम्हारा स्वर लड़खड़ाता है। पर निरन्तर अभ्यास और साधना से कारूसो ने संगीत-साधना में अभूतपूर्व सिद्धियां पाईं और यह प्रमाणित कर दिया कि संगीत का सम्बन्ध स्वर से नहीं हृदय और भावनाओं से है। कोई भी मनुष्य अपने हृदय को जागृत कर परमात्मा के इस वरदान में विभूषित हो सकता है।
संगीत से मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होता है और वह सूक्ष्म सत्ता के भाव-संस्पर्श और अनुभूति की स्थिति पाता है, यह परिणाम अन्तर्जगत से सम्बन्ध रखते हैं, इसलिए उस सम्बन्ध में विस्तृत अन्वेषण का क्षेत्र पाश्चात्य जगत के लिये अभी नितान्त खाली है, मस्तिष्क, शरीर और वन्य वनस्पतियों तक में संगीत के जीवनदायी प्रभाव को पाश्चात्य विद्वान और वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं।
एक बार इंग्लैंड के एक अस्पताल में आपरेशन के लिये एक रोगी को ले जाया जा रहा था। उस समय बाहर के किसी मकान से संगीत की मधुर ध्वनि आ रही थी। रोगी के मन में संगीत का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह उठ बैठा और निकलकर अस्पताल के बाहर आकर भौंचक्का-सा देखने लगा कि वह स्वर झंकार कहां से आ रही है। डाक्टरों ने देखा संगीत के प्रभाव ने उसके रोक को ही दबा दिया है।
अमेरिका के कई दन्त चिकित्सक एक विशिष्ट संगीत लहरी, विद्युत वाद्य यन्त्र से बजाकर दांत उखाड़ते हैं। रोगियों से पूछने पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संगीत की मधुर ध्वनि का असर जादू जैसा होता है और वे लोग अपना कष्ट भूल जाते हैं। महिलाओं के प्रसव के समय भी इस प्रकार के प्रयोग किये गये और यह देखा गया कि जिन स्त्रियों को प्रजनन के समय बहुत पीड़ा होती थी, उन्होंने बिना कष्ट के प्रसव किया। इटली में ‘टोरेन्टेला’ नामक नृत्य होता है, तब अनेक मधुर वाद्य बजते हैं, उनसे अनेक पागलपन के रोगी अच्छे होते देखे गये हैं।
भारतवर्ष में शास्त्रीय संगीत की शक्ति और महत्ता के सम्बन्ध में इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। अब उस दिशा में नई खोजें की जाने की आवश्यकता है, पर सामान्य व्यक्तियों को कथा, कीर्तन, भजन, रेडियो-संगीत, छोटे-छोटे वाद्य यन्त्रों के वादन और गायन के द्वारा उसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का लाभ अवश्य उठाना चाहिये। संगीत स्पन्दन शरीर पर बड़ा अनुकूल प्रभाव डालते हैं।
गायन को ‘योगिक स्वास्थ्य साधन’ भी कहते हैं। गाते समय मुंह, जीभ और होंठ ही काम नहीं करते वरन् आवाज नाभि से खिंचती है और ब्रह्म-रंध्र तक पहुंचती है, फिर तालुओं से खींचकर गले से उसे निकालते हैं, इस तरह कमर से नीचे के हिस्से को छोड़कर शेष सम्पूर्ण शरीर का भीतरी व्यायाम हो जाता है, उससे बाहरी व्यायाम से भी अधिक प्रभावी परिणाम दिखाई देते हैं।
गायन से शरीर और मस्तिष्क की कमर नाड़ियों का शोधन होता है। ज्ञान-तन्तु सजग होते हैं। द्रुत, विलम्बित और मध्यम लय में गाये जाने वाले गीतों के अभ्यास से जीभ, वक्षस्थल, हृदय, श्वांस और स्वर-वाहिनी नलिकाओं, स्नायु-मण्डल और नाड़ी संस्थान और हृदय की रक्तवाहिनी धमनियों में प्रभाव पड़ता है। यह अंग स्वस्थ नीरोग और बलवान् बनते हैं।
गाने से नाड़ी संस्थान में लहरें उठती हैं, उससे प्रभावित होकर मन भी लहराने लगता है। इस प्रकार की तरंगावली शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिये बहुत लाभ दायक होती है। गाने से फेफड़े और स्वर यन्त्र मजबूत होते हैं। तपेदिक आदि बीमारियों का भय नहीं रहता। जबड़े और आमाशय का भी अच्छा व्यायाम हो जाता है और यह सभी संस्थान नीरोग हो जाते हैं। वाद्य संगीत के साथ गायन अथवा नृत्य का भी अभ्यास किया जाता है तो उससे सिर, गर्दन, कन्धा, छाती, पेट और पैर का भी व्यायाम हो जाता है और सारे शरीर में खून का संचार ठीक प्रकार से होने लगता है और शरीर में स्फूर्ति रहती है। बांसुरी, शहनाई, बीन आदि मुंह से बजाये जाने वाले वाद्यों से जीभ, श्वांस-नली और फेफड़े स्वस्थ और मजबूत होते हैं।
संगीत का अभ्यास करना ही लाभदायक नहीं, श्रवण करना भी उतना ही प्राणप्रद होता है। सुनने से और भी स्फूर्ति, चैतन्यता और रोमांच होता है। गायन और वादन की श्रोताओं पर जो प्रतिक्रिया होती है, उसके फलस्वरूप अधिक प्यास लगना, शरीर की जलन, नशे के प्रभाव, दुर्बलता, विष का प्रभाव, मूर्छा, नींद न आना, मानसिक विक्षिप्तता, आलस्य, पीड़ा, बुखार, बार-बार दस्त और पेशाब होना, आन्तरिक दाह, रक्त-चाप, खांसी, पाण्डुरोग, कान के दर्द, हृदय की धड़कन, श्वांस रोग आदि को आराम मिलता है। कई बार कुछ रोग असाध्य हो जाते हैं और उन पर संगीत का प्रभाव धीरे-धीरे पड़ता है। धीरे-धीरे विष का शमन होता है पर यह निश्चित है कि नियमित रूप से गायन का अभ्यास करने से इनसे छुटकारा अवश्य मिलता है।
गायन में स्तुति, मंगलाचरण, भगवान का ध्यान, माता का ध्यान, छोटे बच्चों को पास बैठाकर गाना, सजावट और सौन्दर्य पूर्ण स्थान जैसे देव मन्दिर, तीर्थ अथवा जलाशयों के किनारे सामूहिक रूप से गाने का प्रयोग और भी प्रभावोत्पादक होता है। प्राचीनकाल में ऐसे अवसरों पर्व-त्यौहार, पूजन, तीर्थ-यात्रा, मन्दिरों आदि में संगीत अभ्यास और गायन की व्यवस्था इसलिये की जाती थी कि उन पर्वों और स्थानों के सूक्ष्म प्रभाव को तरंगित कर उसका भी लाभ उठाया जा सके है।
संगीत का प्रभाव मनुष्यों पर ही नहीं पशु-पक्षियों पर भी पड़ता है। वेणुनाद सुनकर सर्प अपनी कुटिलता भूलकर लहराने लगता है। कई प्रान्तों में बहेलिये बीन बजाते हैं, उससे मुग्ध हुए हिरण, मृग निर्भय होकर पास चले आते हैं। हालैण्ड में गायें दुहते समय मधुर संगीत सुनाया जाता है। वहां की सरकार ने ऐसा प्रबन्ध किया है कि जब गायें दुहने का समय हो तब मधुर संगीत ब्रॉडकास्ट किया जाय, ग्वाले लोग रेडियो सेट दुहने के स्थानों पर रख देते हैं। संगीत को गायें बड़ी मुग्ध होकर सुनती हैं और उनके स्नायु संस्थान पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे 15 से लेकर 20 प्रतिशत तक अधिक दूध दे देती हैं।
अभी शक्ति तत्व के अनुसंधान का क्षेत्र बहुत विस्तृत और अव्यक्त है और जानकारी बढ़ेगी तो यह भी सम्भव हो जायेगा कि रीछ, भालू व शेर, बाघ जैसे खूंखार जानवरों को भी संगीत के प्रभाव से सात्विक और कोमल मनोवृत्ति का बनाया जाना सम्भव होगा। कहते हैं साम-संगीत को सुनकर चर-अचर सभी निर्विकार और अचेतन स्थिति को पहुंच जाते हैं, उसका लाभ भी तब मिल सकेगा।
संगीत का प्रभाव जीव जगत तक ही नहीं, वृक्ष और वनस्पति भी उससे प्रभावित होते हैं। अन्नमय विश्व-विद्यालय के वनस्पति शास्त्र के प्रधान डा. टी.सी.एन. सिंह ने ध्वनि तरंगों के द्वारा पौधों को उत्तेजित व वर्धित किये जाने की बात स्वीकार की।
केले और धान की खेती में संगीत की स्वर लहरियां डाली जायं तो उनके वजन और उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती देखी गई है।
गाना-नाचना, गीत-संगीत निश्चित रूप से प्रसन्नता की वृद्धि करते हैं यह शरीर की स्थूल प्रक्रिया है। संगीत को हृदय और भावनाओं में उतार लेने से तो मनुष्य का आत्मिक काया-कल्प ही हो सकता है। संगीत एक प्रकार की स्वर साधना और प्राणायाम है जिससे शरीर के भीतरी अवयवों का व्यायाम भी होता है और ऑक्सीजन की वृद्धि भी, फलस्वरूप पाचन-शक्ति, गहरी नींद, चौड़ी छाती और हड्डियों की मजबूती का स्थूल लाभ तो मिलता ही है। दया, प्रेम, करुणा, उदारता, ममता, आत्मीयता सेवा और सौजन्यता के भावों का तेजी से विकास होता है यह सद्गुण अपनी प्रसन्नता और आनन्द का कारण आप हैं, वैसे ऐसे व्यक्ति के लिये सांसारिक प्रेम और सहयोग का भी अभाव नहीं रहता।
संगीत का अब सम्मोहिनी विद्या के रूप में विदेशों में विकास किया जा रहा है। अनेक डॉक्टर सर्जरी जैसी डाक्टरी आवश्यकताओं में संगीत की ध्वनि-तरंगों का उपयोग करते हैं, अमेरिका में बड़े स्तर पर संगीत की सृजनात्मक शक्ति की खोज की जा रही है। वहां के वैज्ञानिक ध्वनि तरंगों के माध्यम से न केवल विश्व-संसार प्रणाली को सरल और सर्वसुलभ बना रहे हैं