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Books - शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म

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शब्द ब्रह्म और उसकी नाद साधना

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ध्वनि (साउन्ड) एक निश्चित भौतिक प्रक्रिया है और जिस प्रकार प्रकृति और प्राणि जगत् में प्रकाश और गर्मी का प्रभाव होता है, उससे उनके शरीर बढ़ते, पुष्ट और स्वस्थ होते हैं। उसी प्रकार ध्वनि में भी तापीय और प्रकाशीय ऊर्जा होती है और वह प्राणियों के विकास में इतना महत्वपूर्ण स्थान रखती है, जितना अन्न और जल। पीड़ित व्यक्ति के लिये तो संगीत उस रामबाण औषधि की तरह है, जिसका श्रवण पान करते ही तात्कालिक शान्ति मिलती है।

लोग कहेंगे यह भावुक अभिव्यक्ति मात्र है, किन्तु वैज्ञानिकों और शोध कर्त्ताओं ने संगीत की उन विलक्षण बातों का पता लगाया है, जो मनुष्य शरीर में शाश्वत चेतना को और भी स्पष्ट प्रमाणित करती हैं।

इस सम्बन्ध में अन्नामलाई विश्व विद्यालय में वनस्पति शास्त्र के विभागाध्यक्ष डा. टी.सी.एन. सिंह और उनकी सहयोगिनी कुमारी स्टेला पुनैया के वनस्पति और प्राणियों पर किये गये संगीत के परीक्षण बहुत उल्लेखनीय हैं। सच बात तो यह है कि ईश्वर आत्मा, जीवन-व्यवस्था समाज-व्यवस्था पर अनेक लोग अनेक जातियों के अनेक मत हो सकते हैं, किन्तु संगीत की उपयोगिता और सम्मोहिनी शक्ति पर किसी भी देश के किसी भी व्यक्ति को विरोध नहीं। शायद ही कोई ऐसा अपवाद हो, जिसे संगीत वाद्य और नृत्य अच्छे न लगते हों। मानव का संगीत के प्रति स्वाभाविक प्रेम ही इस बात का प्रमाण है कि वह कोई नैसर्गिक तत्व और प्रक्रिया है।

ब्रह्म प्रणव संधानं नादो ज्योतिर्भयः शिवः स्वयमाविर्भ वेदात्मा मेधापायेंऽशुमानिव सिद्धासने स्थितो योगी मुद्रां संधाम वैष्णवीम् शृणुयाद्दक्षिणे कर्णें नादभन्तरर्गंतं सदा अभ्यस्यमानो नादोऽयं वाह्यामावृणुते ध्वनिम् पक्षाद्विपर्क्षाखलं जित्वा तुर्यपदं व्रजेत । —नाद् विन्दुपनिषत् 30।31।32

वत्स आत्मा! और ब्रह्म की एकता का जब चिन्तन करते हैं, तब कल्याणकारी ज्योति स्वरूप परमात्मा का नाद रूप में साक्षात्कार होता है। (यह संगीत ध्वनि बहुत मधुर होती है) योगी को सिद्धासन से बैठकर वैष्णवी मुद्रा धारण कर अनाहत ध्वनि को सुनना चाहिये, इस अभ्यास से बाहरी कोलाहल शून्य होकर अन्तरंग तुर्य पद प्राप्त होता है। उपरोक्त कथन में संगीत और ब्रह्म का सायुज्य प्रतिपादित किया गया है, इसलिये उसके अभ्यास से निःसन्देह मानव आत्मा में उन शक्तियों और गुणों का विकास संभव है, जो परमात्मा में हैं। ‘‘जीवन भर जीवित बने रहिये’’ (स्टे अलाइव आल योर लाइफ) के लेखक नार्मन विन्सेन्ट पील नामक विद्वान ने इस पुस्तक में मृत्यु के उपरान्त जीवन की शास्त्रीय पुष्टि के अनेक महत्वपूर्ण उद्धरण दिये हैं—उन्होंने लिखा है कि ‘‘मुझे एक नर्स ने, जिसने अनेकों व्यक्तियों को मरते देखा था, बताया कि मृत्यु के क्षणों में जीव को कुछ अलौकिक दर्शन और श्रवण होता है। कुछ मरने वालों ने बताया कि उन्हें आश्चर्यजनक ज्योति और संगीत सुनाई दे रहा है।

यह दो उद्धरण संगीत को जीवन का शाश्वत उपादान ही प्रमाणित करते हैं पर प्रश्न यह हो सकता है, साधारण गायक और श्रोता, नृत्य आ अभिनय द्वारा अपनी चेतना को लय में बांधने वाले उस असीम सुख को प्राप्त क्यों नहीं करता। दर असल यह विषय मन की तन्मयता से सम्बन्धित है पर उतनी तन्मयता न हो तो भी संगीत का मनुष्य के मस्तिष्क, हृदय और शरीर पर विलक्षण प्रभाव अवश्य होता है और उससे मूल चेतना के प्रति आकर्षण और अनुराग ही बढ़ता है। नास्तिक स्वभाव से जितने रूखे और कटु होते हैं, यह एक विलक्षण सत्य है कि उन्हें संगीत से उतना ही और कम प्रेम होता है। कला के प्रति अनुराग ही अध्यात्म की प्रथम सीढ़ी है, ऐसे व्यक्ति में भावनायें होना स्वाभाविक ही है।

शब्द ब्रह्म की नाद साधना

कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा है—‘‘संगीत का मूल तत्व अतीन्द्रिय और अति मानवी है। दैनिक जीवन के घटना-क्रम में बंधी हुई अन्तःचेतना को वह मुक्ति की अनुभूति तक ले जाता है। क्या गायक, क्या श्रोता—दोनों ही उन क्षणों में वैराग्य की उस भूमिका के समीप जा पहुंचते हैं, जिसे ब्रह्माण्ड की नींव के रूप में तत्ववेत्ताओं ने जाना है।’’

महाकवि होमर कहते थे—असह्य मनोव्यथा का समाधान या तो रुदन-क्रंदन में होता है या फिर संगीत के गुंजन में।

भारतीय तत्ववेत्ता संगीत की गणना मानव-जीवन की महती आवश्यकताओं में करते रहे हैं। उन्होंने इस विभूति से वंचित लोगों को पूंछ रहित पशु की संज्ञा में गिना है।

साहित्य संगीत कला विहीनः । साक्षात् पशुः पुच्छ विषाण हीनः ।। संगीत, साहित्य और कला से रहित मनुष्य बिना पूंछ का साक्षात् पशु है।

खगाः भृङ्गाः पतङ्गाश्च कुरङ्गाद्यपि जन्तवः । सर्व एव प्रगायनते गीतव्याप्ति दिगन्तरे ।। —नारद संहिता

पक्षी, भ्रमर, पतंगे, मृग आदि जीव जन्तु तक गायन करते रहते हैं। गीत ब्रह्माण्ड-व्यापी है।
संगीत मनुष्यों की ही नहीं, सृष्टि के समस्त प्राण-धारियों की सम्पदा है। वे सभी अपने ढंग से उसका उपयोग करते हैं।

सृष्टि का सूक्ष्म निरूपण करने वाले तत्व वेत्ताओं ने बतलाया है कि परा-प्रकृति के अन्तराल में महदाकाश में—अनाहत स्वर की थरथराहट उत्पन्न होती हैं और उस आदि स्वर सूर्य के भी सात अश्व गतिशील होते हैं। सूर्य के रथ में साथ रंग के सात घोड़े जुड़े हैं। स्वर ब्रह्म भी महदाकाश का नाद-ब्रह्म है। जब वह अक्षर से क्षर बनता है तो उसकी परिणति सात विखण्डों में सप्त-स्वरों में दृष्टिगोचर होती है। प्रकृति और पुरुष का अनवरत संयोग—सम्भोग—आघात-प्रत्याघातों के रूप में स्वसंचालित पेण्डुलम गति से नियत निर्धारित क्रम से चलता रहता है। इसी से ब्रह्मांड की घड़ी के समस्त कल-पुर्जे घूमते हैं और विश्व-व्यापी विभिन्न हलचलें गतिशील होती हैं।

भौतिक-विज्ञानी कायिक-हलचलों के कारण स्वर उद्रेक का अस्तित्व बताते हैं। आत्म-विज्ञानी कहते हैं—शब्द विश्व का मूल है—विभिन्न हलचलें उसकी प्रतिक्रिया मात्र हैं। क्रिया कौन? प्रतिक्रिया कौन? इसका निर्णय न भी हो सके, तो भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि दोनों परस्पर अविच्छिन्न हैं। एक का आधार टूटने पर दूसरा भी स्थिर न रह सकेगा। जीवन का अन्त होने पर स्वर समाप्त होगा, अथवा स्वर की तालबद्ध स्थिति में अन्तर आने पर रुग्णता पीछे पड़ेगी और उसमें विकृति आ जाने पर मरण ही सम्मुख आ उपस्थित होगा। आयुर्वेद-विज्ञानी रोग-निदान के लिए नाड़ी-परीक्षा करते हैं, उसे रक्त संचार की हलचल समझने मात्र की बात ही नहीं मानना चाहिए। सितार के तारों पर उंगली रखकर उसकी झंकृति की अनुभूति की जाती है, उसे प्रकृति नाड़ी संचार के साथ चल रहे, स्वर-प्रवाह की स्थिति देखकर भी काम-प्रकृति की सूक्ष्म स्थिति का अन्वेषण किया जाता है।

मनुष्य के अन्तरंग की सरसता जब हुलसती है तो उसे गायन के लिए बाध्य करती है। गान—आत्मा की कला है, न कि कण्ठ की विशेषता। आवश्यक नहीं कि गायक को मयूर-कण्ठ या कोकिला कण्ठी ही होना चाहिए।

भावनाओं का उद्रेक जब गतिक्रम और लय क्रम से प्रस्फुटित होता है तो उसे गायन के रूप में उभरता देखा जाता है। गीत—भावपूर्ण ही हो, यह आवश्यक नहीं। शब्दों में अनगढ़ होते हुए भी गान अपनी विविध अभिव्यक्तियां प्रकट करता हुआ गुंजित रह सकता है, भले ही उसे कोई दूसरा सुनने के लिए मौजूद या तत्पर न हो।

भगवान का नाम यों किसी भी प्रकार के शब्दोच्चार से लिया जा सकता है। पर यदि उसे गीतवाद्य के साथ लिया जाय तो शास्त्रकारों के मतानुसार उसका प्रभाव ‘‘साम-श्रुति-गान के समान अत्यन्त ही प्रभावोत्पादक होता है।’’

विष्णु नामानि पुण्यानि सुस्वरै रन्वितानिचेत् । भवन्ति साम तुल्यानि कीर्तितानि मनीषिभिः ।। —सङ्गीत पारिजात

यदि ताल सहित सस्वर भगवान का नाम गाया जाय तो वह साम-गान की तरह फलप्रद होता है।

संगीत के आदि-इतिहास पर दृष्टि डालें तो वह विनय, भक्ति, करुणा और ममत्व की अनुभूतियों के साथ उद्भूत हुआ प्रतीत होगा। ईश्वर भक्ति के पीछे उदात्त प्रेम की—आत्मार्पण की—लय तादाम्य की धारा बहती दिखाई देगी। संगीत का आदि उद्गम भी इसी स्रोत के सन्निकट है। कला की उत्कृष्टता ही काल-जयी बनती है। संगीत को विलास और विनोद का माध्यम बनना जरूर पड़ा, पर वस्तुतः उसकी मूल सत्ता वैसी है नहीं। आत्मा की अभिव्यंजना ने ही क्रमशः संगीत की शाखा प्रशाखाओं के रूप में विकास किया है।

वेदकाल के ऋषियों से लेकर अद्यावधि भक्तजनों ने अपनी अनुभूतियां प्रायः छन्दबद्ध रूप में ही विनिर्मित की हैं। भक्तिकाल के प्रायः सभी साधनारत महामानव या तो कविताएं रचते रहे हैं, या फिर छन्द-स्वरों में भगवान के गुणानुवाद गाते रहे हैं। महर्षि नारद से लेकर सूर, तुलसी, मीरा कबीर तक वही परम्परा क्रमबद्ध शृंखला के रूप में चली आई है।

वीणा पुस्तक- धारणी —भगवती सरस्वती के दो उपकरणों में शब्द-शास्त्र का विभाजन है। उनके एक हाथ में वीणा और दूसरे में पुस्तक है। उन्हें ज्ञान की दो धारायें कह सकते हैं। स्वर-शास्त्र और शब्द-शास्त्र के माध्यम से ही हमारी विचारणाएं और भावनाएं प्रदीप्त होती हैं। आचार्य आनन्दवर्धन ने इस प्रतीक अलंकार पर अधिक प्रकाश डाला है। भगवान शंकर के डमरू और भगवान कृष्ण की बांसुरी में भी संगीत-गरिमा का ही संकेत है।

इन दिनों शास्त्रीय संगीत ‘क्लासिकल म्यूजिक’ और सुगम-संगीत—‘लाइट-म्यूजिक’ के दो भागों में संगीत को विभक्त किया जाता है। गीत के चार अंग माने गये हैं—स्वर, पद, लय और मार्ग। स्वरवान् अर्थात्—गायन के रूप में प्रयुक्त होने वाला और ‘अभिधानावान्’ अर्थात्—वार्तालाप के रूप में व्यक्त होने वाला, इस रूप में भी शब्द का विभाजन है। इसी को गेय पक्ष और वाक् पक्ष भी कहते हैं।

संगीत रत्नाकर-ग्रन्थ में नादब्रह्म की गरिमा पर प्रकाश डालते हुए कुछ ऊहा-पोह किया गया है—

चैतन्यं सर्व भूतानां विवृतं जगदात्मना । नादोब्रह्म तदानन्दंमन्दिलीयमुपास्महे ।। नाद पासनयादेवा ब्रह्मविष्णु महेश्वराः । भवन्त्युपासितानूनं यस्मादेते तदात्मकाः ।।

नाद-ब्रह्म समस्त प्राणियों में चैतन्य और आनन्दमय है। उसकी उपासना करने से ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों की सम्मिलित उपासना हो जाती है। वे तीनों नाद-ब्रह्म के साथ बंधे हुए हैं।

नकारं प्राण नामानं दकारमनलविदुः । ज्ञातः प्राणाभिसंयोगा तेनानाहैऽभिधीयते ।।

प्राण का नाम ‘ना’ है और अग्नि को ‘द’ कहते हैं। अग्नि और प्राण के संयोग से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे नाद कहते हैं।

संगीत रत्नाकर में नाद को बाईस श्रुतियों में विभक्त किया गया है। ये श्रुतियां कान से अनुभव की जाने वाली विशिष्ट शक्तियां हैं। इनका प्रभाव मानवी-काया और चेतना पर होता है। इन बाईस शब्द-श्रुतियों के नाम हैं—(1) तीव्रा, (2) कुमह्वाति, (3) मन्दा, (4) छन्दोवती, (5) दयावती, (6) रंजनी, (7) रब्तिका, (8) रौही, (9) क्रोधा, (10) वडिनका, (11) प्रसारिणी, (12) प्रीति, (13) यार्जनी, (14) क्षति, (15) रक्ता, (16) संदीपनी, (17) अलापिनी, (18) मदन्ति, (19) रोहिणी, (20) रम्पा, (21) उग्रा, (22) क्षोभिणी।

इन बाईस ध्वनि-शक्तियों को सप्त स्वरों के साथ सम्बद्ध किया गया है। यह विभाजन इस प्रकार है—

—षडज (स) तीव्रा, कुमह्वात, मन्दा, छन्दोवती। —रिषव (रे) दयावती, रंजनी, रब्तिका। —गान्धार (ग) रौही, क्रोधा। —मध्यम (म) बड़िनका, प्रसारिणी, प्रीति, मार्जनी। —पंचम (प) क्षिति, रक्ता, संदीपिनी, अलापिनी। —धैवत (ध) मदन्ति, रोहिणी, रम्पा। —निषाध (नि) उग्रा, क्षोभिणी।

इन बाईस शक्तियों की ध्वनि के द्वारा उत्पन्न होने वाले भौतिक एवं चेतनात्मक प्रभाव ही समझना चाहिए। औषधियां जिस प्रकार मूल द्रव्यों के रासायनिक सम्मिश्रण से उत्पन्न होने वाले अतिरिक्त प्रभाव के कारण विभिन्न रोगों पर अपना प्रभाव डालती है। इसी प्रकार इन बाईस शक्तियों का—उनके सम्मिश्रण का वस्तुओं तथा प्राणियों पर प्रभाव पड़ता है। प्राचीनकाल में इस रहस्यमय विज्ञान के ज्ञाता नाद-ब्रह्म के उपासक कहलाते थे। वे विभिन्न गीत-वाद्यों के—भाव मुद्राओं के और रसानुभूतियों के आधार पर अपने अन्तराल में दबी हुई शक्तियों को जगाते थे और सम्पर्क में आने वाले श्रोताओं की व्यथा वेदनाएं हरते थे। जड़-चेतन प्रकृति को प्रभावित करके वे अवांछनीय परिस्थितियों को बदलकर अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने में भी चमत्कारी सफलता प्राप्त करते थे। नाद-योग का स्थान किसी भी उच्चकोटि की योग-साधना से कम न था।

नाद-योग में अनाहत स्वर सूर्य ऊंकार का आश्रय लिया जाता है, और उसके वाहन अन्य स्वरों को घन्टा, शङ्ख, बंशी, भेरी, मृदंग गुंजन, कंपन, गर्जन आदि के रूप में सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय के माध्यम से सुना जाता है, इस आधार अवलम्बन के सहारे योगीजन भगवद्-वाणी का अवगाहन करते हैं। प्रकृति के अन्तराल में चल रही हलचलों को समझते हुए वर्तमान और भविष्य की स्थिति एवं सम्भावनाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं।

ब्रह्माण्ड में चल रहे स्वर-प्रवाह की तरह ही पिण्ड-रूपी सितार के तार भी अपने क्रम से झंकृत होते रहते हैं। मेरुदण्ड स्पष्टतः वीणा-दण्ड है। सात धातुओं के सात तार इसमें जुड़े हैं। सप्त-विधि अग्नियों का पाचन परि-पाक चलते रहने से ही तो प्राण को पोषण मिलता है और जीवन को स्थिर रखा जाता है। यह अग्नियां सात धातुओं को पकाती हैं और परिपाक को तेजस् में बदलती हैं। (1) पेशियों का आकुंचन-प्रकुंचन, (2) नाड़ियों का रक्ताभिषरण, (3) फुफ्फुसों का श्वास-प्रश्वास, (4) हृदय की धड़कन (5) मस्तिष्कीय विद्युत का ऋण धन, आरोह-अवरोह, (6) चित्त का विश्राम जागरण, (7) कोशिकाओं का जन्म-मरण—यह सात क्रियाकलाप ही जीवनविद्या के मूलभूत आधार हैं। इन्हीं को सप्त-ऋषि, सप्त-लोक, सप्त-दीप, सप्त-सागर, सप्त-मेरु, सप्त-सरित, सप्त-शक्ति के नाम से पुकारते हैं। शब्द सूर्य के यही सप्त-अश्व हैं। स्वर-सप्तक इन्हीं की प्रत्यक्ष अनुभूति हैं। ब्रह्माण्ड-व्यापी शब्द ब्रह्म का गुंजन काय-पिण्ड के अन्तर्गत भी सुना जा सकता है।

नाद के दो भेद हैं—आहात और अनाहत। स्वच्छन्द तन्त्र ग्रन्थ में इन दोनों के अनेकों भेद-उपभेद बताये हैं। आहात और नाद को आठ भागों में विभक्त किया है। घोष, राव, स्वन, शब्द, स्फुट, ध्वनि, झंकार ध्वंकृति। अनाहत की चर्चा महाशब्द के नाम से की गई है। इन्हें स्थल कर्णेंद्रिय नहीं सुन पाती, वरन् ध्यान धारणा द्वारा अन्तःचेतना में ही इनकी अनुभूति होती है।

विकृत, वादी, संवादी, अनुवादी और विवादी स्वरो का—उनके ग्रह अंश और न्याय-पक्षों का तिरेसठ अलंकारों का उनचास कूट तानों का संगीत रत्नाकर में उल्लेख है। मध्यकाल में राज्याश्रय पाकर संगीत का स्वर पक्ष काफी विकसित हुआ था। इससे पूर्व वह सन्तों और योगियों का प्रिय विषय था। तब उसकी गणना श्रेय-साधना के रूप में की जाती थी।

दीपक-राग, मेघ-राग जैसे स्वर ब्रह्म के नगण्य से स्थूल प्रकृति से सम्बन्धित चमत्कार है सूक्ष्म प्रकृति को तरंगित और उत्तेजित करने में उसकी धाराएं बदलने में भी संगीत का प्रभाव स्वल्प दृष्टिगोचर नहीं होगा। अन्य योगों की साधना का अवलम्बन लेकर जिस प्रकार उच्चकोटि की सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं, उसी प्रकार स्वर-योग की साधना से भी उच्च अध्यात्म की भूमिका में प्रवेश करके दिव्य विभूतियों को करतलगत किया जा सकता है। जिस प्रकार ब्रह्माण्ड के अन्तराल में नाद-ब्रह्म का गुंजन संव्याप्त है, उसकी प्रतिध्वनि से पिण्ड की अन्तःस्थिति भी गूंजती रहती है। संगीत की स्वर-साधना इस अव्यक्त गुंजन को व्यक्त बनाती है—मुखर करती है। गान नदि उच्च स्तर का हो तो अन्तरात्मा की भावसत्ता को तरंगित करके ब्रह्मानन्द की आत्मानन्द की रसानुभूति करा सकता है।

प्रसिद्ध है तानसेन दीपक-राग गा कर बुझे हुए दीपक जलाते थे और मेघ-राग गाकर छितराये बादलों को घटा बनाकर बरसाते थे। यह विद्या उन्होंने स्वामी हरिदास के चरणों में बैठकर योग-साधना के रूप में सीखी थी। प्राणायाम के उच्च-स्तरीय अभ्यास ने उन्हें शब्द-ब्रह्म का वेत्ता बनाया था। आहात-नाद और अनाहत-नाद की अत्यन्त सूक्ष्म प्रवाह शृंखला को नाद-योग के आधार पर ही अनुभव में लाया जाता है। स्वर-साधना प्रकारान्तर से नाद-ब्रह्म की वैसी ही आराधना है, जैसी ब्रह्म-विद्या के अन्तर्गत अद्वैत-ब्रह्म चिन्तन की।

संगीत को अब तक उस कला के रूप में देखा जाता रहा है, जिससे मनोरंजन होता है और मन को स्फूर्ति मिलती है पर अब विज्ञान धीरे-धीरे इस विश्वास पर उतर रहा है कि संगीत एक बड़ा महत्वपूर्ण शक्ति-केन्द्र है। यदि उस शक्ति का यथेष्ट अनुसंधान एवं उपयोग किया जा सका तो अनेक आश्चर्यजनक रहस्य सामने आयेंगे और उनका मानव-जाति के कल्याण में भारी उपयोग किया जा सकेगा।

आज का संगीत इस प्रकार का सम्मोहन है जिससे मनुष्य असंयम की ओर दिग्भ्रान्त हो रहा है, परन्तु प्राचीनकाल में हमारे पुरखों ने तत्वान्वेषण के आधार पर उसकी प्रबल शक्ति और सामर्थ्य को परखने के साथ यह भी जाना था कि संगीत-शक्ति के दुरुपयोग से मानव-जीवन का अहित भी हो सकता है, इसलिये उसे भी धर्म का एक अंग माना और ऐसे प्रतिबन्ध लगाये जिससे स्वर साधना का निष्कलंक रूप बना रहे और उससे मानव-जाति की भलाई होती रहे।

बीच में एक समय ऐसा आया जब शास्त्रीय संगीत में विदेशी जातियों का भी हस्तक्षेप हुआ और उन्होंने धीरे-धीरे उसे आज की स्थिति में घसीटना प्रारम्भ कर दिया। आज चारित्रिक दुर्बलता का एक कारण संगीत की सम्मोहक-शक्ति भी है। मीठे स्वर से किसी भी भावुक व्यक्ति को प्रभावित कर उसे अधोगामी बनाने का कुचक्र इन दिनों बहुतायत से फैलता जा रहा है।

अन्यथा संगीत एक महान् साधना है और ब्रह्म प्राप्ति उसकी सिद्धि। नाद् बिन्दूपनिषद् के 42 से 45 मन्त्रों में बताया गया है कि भ्रमर जिस प्रकार फूलों का रस ग्रहण करता हुआ, फूलों की गन्ध की अपेक्षा नहीं करता, उसी प्रकार नाद में रुचि लेने वाला चित्त विषय-वासना में दुर्गन्ध की इच्छा नहीं करता। सर्प नाद को सुनकर मस्त हो जाता है, उसी प्रकार नाद में आसक्त हुआ चित्त सभी तरह की चपलतायें भूल जाता है। संसार की चपलताओं से वियुक्त मन की एकाग्रता बढ़ती है और विषय-वासनाओं से अरुचि होने लगती है। यदि मन को हिरन और तरंग की संज्ञा दें तो यह नाद उस हिरन को बांधने और पकड़ने वाला जाल और तरंग को साधने वाला तट ही माना जायेगा। इसी उपनिषद् में ब्रह्म की अनुभूति-शक्तियों में नाद को भी शक्ति माना है और बताया गया है कि उसका अभ्यास करते हुए साधक एक ऐसे मधुर स्वर-संगीत में निबद्ध हो जाता है, जिससे सारा संसार ही उसे एक प्राण और परमात्मा का प्रतीक अनुभव होने लगता है।

योग तारावली में एक आख्यायिका आती है। देव समूह एक बार भगवान् शिव के पास गये और साधना में शीघ्र सफलता का आधार पूछा तब—

सदा शिवोक्तनि सपादलक्ष— लयावधानानि वसन्ति लोके । नादानुसन्धानसमाधिमेकम् मन्यामहे मान्यतमम् लयानाम् ।। —योग तारावली

भगवान् शिव ने मन को लय करने की अगणित साधनाओं में नादनुसंधान को सब से सरल और श्रेष्ठ बताया।

सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा । नाद एवानुसन्धेयो योग साम्राज्यमिच्छता ।। —योग तारावली

यदि योग क्षेत्र में प्राप्त करने की आकांक्षा हो तो सब ओर से मन हटा कर नाद साधना में तत्पर होना चाहिए।

अणु परिवार की गतिविधियों की शोध करने पर पता चला है कि अपनी धुरी पर तथा कक्षा पर घूमने वाले परमाणु घटकों को जो दिशा, प्रेरणा एवं क्षमता प्राप्त होती है उसका उद्गम एक अतीव सूक्ष्म शक्ति है जिसे ध्वनि का प्रारूप कह सकते हैं।

प्रकृति की प्रेरक शक्ति के अन्तराल में एक प्रकार के स्पन्दन होते हैं। इनकी घड़ियाल में हथौड़ी मारने से उत्पन्न होने वाली टंकार से तुलना कर सकते हैं। टंकार के बाद जो झनझनाहट होती है उसे दिव्यदर्शियों ने ऊंकार ध्वनि कहा है। निरन्तर यही ध्वनि सूक्ष्म प्रकृति के अन्तराल में गतिशील रहती है। इसी को प्रकृति ब्रह्म का संयोग कहते हैं, इसी आघात प्रतिघात से सृष्टि की समस्त हलचलों का आरम्भ अग्रगमन होता है। अणु को गति यहीं से मिलती है। ऊर्जा की—तरंग श्रृंखला इसी केन्द्र से उत्पन्न होती है। एक सत्ता का बहुसंख्यक विकरण—एकोऽहम् बहुस्याम की उक्ति के अनुसार इसी मर्म बिन्दु से आरम्भ होता है। बिन्दुयोग और नादयोग की नाभि यही है, यही स्वर संस्थान नादयोग है, शब्द ब्रह्म का अपनी माया—स्फुरणा इच्छा के साथ चल रहा यही संयोग ओंकार के रूप में निसृत होकर परा और अपरा प्रकृति के गहन गह्वर में जड़ चेतन गतिविधियों का सृजन करता है।

दीवार घड़ी का चलता हुआ पेंडुलम, एक बार हिला दिया जाय तो घड़ी में चाबी रहते वह अपने क्रम से निरन्तर हिलता ही रहता है। ठीक उसी प्रकार एक बार आरम्भ हुई सृष्टि स्वसंचालित प्रक्रिया के अनुसार अपना कार्य करती रहती—अपनी धुरी पर एक बार घुमाये हुए लट्टू की तरह देर तक घूमती रहती है। इसका संचालक शब्द ब्रह्म की वह मूल ध्वनि है जिसे ऊंकार कहते हैं। जिस प्रकार एक सूर्य में सात रंग की सात किरणें निसृत होती हैं उसी प्रकार स्वरब्रह्म अपने को सात स्वरों में विभक्त करता है। वाद्ययन्त्रों में उसे सरगम प ध नि क्रम से बजाया जाता है। योग साधना में राजयोग, हठयोग, प्राणयोग, शक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, का नाम दिया जाता है। शरीर में इसी को षट्चक्र और सप्तम ब्रह्मरन्ध्र—सहस्र कमल के रूप में गिना जाता है। सप्तऋषि, सप्तलोक, सप्तसागर, सप्तमेरु, सप्तदेव, सप्ततीर्थ, सप्तसाधना के रूप में ब्रह्म विद्या का विस्तार हुआ है। भौतिकी विज्ञान भी सात भागों में ही विभक्त है।

इन सबको मिलाकर स्वसंचालित सृष्टिक्रम की अन्तः स्फुरणाओं को ब्रह्म संगीत कह सकते हैं। इसी का अलंकारिक उल्लेख कृष्ण की बंशी, शंकर का डमरू, सरस्वती की वीणा मानवी काया का मेरुदण्ड—कृष्ण की बंशी कण्ठ स्थित स्वर नलिका—शंकर का डमरू धड़कता हुआ हृदय कहा जा सकता है। लप-डप को, धड़कन का, शंकर का डिम-डिम घोष कहा गया है। श्वांस नलिका में वायु का आवागमन ‘सोऽहम्’ की ध्वनि में कृष्ण बांसुरी के रूप में निनादित होता है। इड़ा, पिंगला और आरोह अवरोह मेरुदण्ड की वीणा में सप्त व्याहृतियों के सप्त स्वरों की झंकार उत्पन्न करते हैं। और उसे कुण्डलिनी सर्पिणी की सप्त जिह्वाओं सप्त नादों के रूप में उद्भूत हुआ सुना जाता है। नादयोग के साधक सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय के माध्यम से घण्टा नाद, शंख नाद, वेणु नाद, मेघ नाद, निर्झर प्रवाह आदि के रूप सुनने का प्रयत्न करते हैं और उस आधार पर सूक्ष्म प्रकृति के अन्तराल में चल रही अगणित गतिविधियों के ज्ञाता बनते हैं। इन स्वर निनादों के साथ जो अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है वह प्रकृति पर आधिपत्य स्थापित करने और उसे अपनी अनुयायी—संकेत गामिनी बनाने में सफलता प्राप्त करता है। योगविद्या का अपना स्थान है। स्वर शास्त्र स्वर योग का साधनाविज्ञान में महत्वपूर्ण स्थान है। नासिका द्वारा चलने वाले सूर्य चन्द्र स्वरों को माध्यम बनाकर कितने ही साधक प्रकृति के अन्तराल में प्रवेश करते हैं और वहां से अभीष्ट मणिमुक्तक उपलब्ध करते हैं। पशु-पक्षियों से लेकर छोटे कीड़े-मकोड़े तक के उच्चारण में एक क्रमबद्धता रहती है। संगीतकारों के गायन वादन क्रम से न सही वे सभी एक निर्धारित ध्वनि प्रवाह के अनुसार ही अपना उच्चारण करते हैं। प्रातःकाल चिड़ियों की चहचहाहट में एक स्वर क्रम रहता है उसी से वह कर्णप्रिय लगती है। मुर्गे की बांग, कोयल की कूक, मोर, कौआ, पपीहा, तीतर आदि पक्षियों की वाणी अपने ढंग और अपने क्रम से चलती है। पशुओं में भेड़ का मिमियाना, गधे का रेंकना, घोड़े का हिनहिनाना, हाथी का चिंघाड़ना, शेर का दहाड़ना, कुत्ते का भौंकना क्रमबद्ध रहता है। किसी भी पशु की—किसी भी पक्षी की आवाजें सुनी जायें उनमें एक व्यवस्थित स्वर क्रम जुड़ा हुआ प्रतीत होगा। छोटे कीड़ों में भी यही बात देखी जाती है, झींगुर रात भर बोलते हैं, झिल्ली की झंकार उठती है उसे सुनने वाले अनुभव कर सकते हैं कि निद्रा लगने वाली एक मनोरम स्वर लहरी इन तुच्छ से कीटकों के माध्यम से सुनाई जाती है। मनुष्य के कानों की पकड़ से बाहर की ध्वनियां प्रायः प्रत्येक जीवधारी द्वारा निसृत होती हैं और पेड़ पौधों से लेकर जड़ समझे जाने वाले पदार्थों तक से एक श्वास प्रश्वास जैसी निरन्तर स्वसंचालित स्वर क्रम निरन्तर निनादित होता रहता है।

सेनाएं जब किसी पुल को पार करती हैं तो उन्हें आज्ञा दी जाती है कि लैफ्ट राई क्रम के अनुसार कदम मिलाकर चलने में एक ऐसी प्रचण्ड शक्तिशाली ध्वनि उत्पन्न होती है जो अमुक स्थिति में उन पुलों को ही गिरा सकती है। शब्द शक्तिमान तत्व है। बिजली की तड़कन शब्द से बड़ी-बड़ी आलीशान इमारतें कोठियां फट जाती हैं। धड़ाके की आवाज से कानों के पर्दे फट जाते हैं। इस शक्ति का यदि क्रमबद्ध व्यवस्थित रूप से उपयोग किया जा सके तो शारीरिक मानसिक स्वस्थता के लिए ही नहीं सृष्टि के अनेक पदार्थों और संसार की बहुमुखी परिस्थितियों एवं वातावरणों को आश्चर्यजनक रीति से प्रभावित किया जा सकता है। वेदों का अवतरण शब्द ब्रह्म के सहित हुआ है। स्वर अपौरुषेय है इसलिए वेदों को अपौरुषेय कहा जाता है। वेद मन्त्र को ऋचा एवं छन्द कहा जाता है उससे उसकी स्वरबद्धता स्पष्ट की गई है। वेदों के गायन की ध्वनि पद्धतियों को ही सामगान कहते हैं। सामवेद के अपने मन्त्र तो उंगलियों पर गिनने जितने ही हैं शेष प्रायः सभी अन्य तीन वेदों से लिये गये हैं और उनका संकलन विशिष्ट स्वर लिपियों के साथ किया गया है। किसी समय सामगान की एक हजार स्वर ध्वनियां थीं इन्हें साम शाखाएं कहा जाता था अब उनमें से बहुत थोड़ी ही शेष रह गई हैं। किसी समय सामगान वैदिक साधना पद्धति का प्रधान अंग था। इसी आधार पर स्व, पर कल्याण के अनेकों प्रयोजन सिद्ध होते थे। वेद मन्त्र में जो शिक्षाएं सन्निहित हैं वे तो साधारण हैं, उनसे भी अधिक स्पष्ट और प्रभावी शिक्षाएं, स्मृतियों तथा अन्यान्य धर्मग्रन्थों में मौजूद हैं। वेद मन्त्रों का महत्व मात्र उनके अर्थों या निर्देशों तक सीमित नहीं है वरन् उसकी गरिमा उन शक्तियों में अंतर्निहित है जो इन ऋचाओं के सस्वर उच्चारण से प्रादुर्भूत होती है। सूक्ष्म विज्ञानी जानते हैं कि रक्ताभिषरण, श्वास-प्रश्वास आकुंचन प्रकुंचन का शरीर में निरन्तर चलने वाला क्रिया-कलाप विभिन्न प्रकार की स्वर ध्वनियां उत्पन्न करता है और उन्हीं के तरंग प्रवाह से जीवन गति चलती है नाद योग के पूर्वार्ध में साधक अपनी कर्णेन्द्रिय का संयम करके इन्हीं ध्वनियों को सुनता है और सपेरे एवं अहेरों की रीति अपनाकर मन रूपी मृग एवं सर्प को वश में करता है। कहा जा चुका है कि सृष्टि के विभिन्न क्रियाकलापों को संचालित करने वाली भौतिक शक्तियां तथा भावनात्मक अभिव्यंजनाएं सूक्ष्म प्रकृति के अन्तराल में मूलतः ध्वनि प्रवाह बनकर ही कार्य कर रही हैं। यह ध्वनि प्रवाह संख्या में सात हैं। उनके परस्पर सम्मिश्रण से वह संख्यक ध्वनि तरंगें भी बनती हैं। शरीर में भी इनकी संख्या सात है और सृष्टि के अन्तराल में भी वे सात ही हैं वेद मंत्रों की स्वर संरचना इसी तथ्य को ध्यान में रखकर हुई है। उनका विधिवत् उच्चारण जहां प्राण-धारियों में विभिन्न स्तर की स्फुरणाएं उत्पन्न करता है वहां सृष्टिगत हलचलों के मूल में चल रहे स्पन्दनों के साथ भी अपना सम्बन्ध बनाता है। इसी आधार पर वेद मन्त्रों के आश्चर्य जनक प्रभाव होते हैं। शाप वरदान की—शुभ के अभिवर्धन और अशुभ के निराकरण की जो शक्ति श्रुति में भरी पड़ी है, उसका आधार यह वैदिक स्वर विज्ञान ही है। लय योग के साधक ‘अनहद नाद’ के नाम से इसकी व्याख्या करते हैं और नाद बिन्दुयोग को आधार बनाकर परब्रह्म के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करते हैं। सिद्धियां और विभूतियां स्पष्टतः इसी तादात्म्य से उत्पन्न होती है। शब्द योगी—नादब्रह्म का साधक इस प्रक्रिया को अपनाकर सिद्धयोगी बन सकता है और न केवल अपना वरन् अपने श्रोताओं का भी कल्याण कर सकता है। प्राचीन काल में समय-समय पर वेद मन्त्रों के सस्वर उच्चारण का प्रयोग स्वर विद्या के रूप में—मानवी व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए उससे उत्पन्न अवरोधों का समाधान करने के लिए किया जाता रहा है। प्रयत्न किया जाय तो उस विज्ञान को पुनर्जीवित करके वैसा ही लाभ फिर उठाया जा सकता है जिससे व्यक्तित्व में देवत्व का उदय और समाज में स्वर्गीय परिस्थितियों का अवतरण किया जा सके।

फ्रांसीसी प्राणिशास्त्री वास्तोव आन्द्रे ने थलचरों, जलचरों, और नभचरों पर विभिन्न ध्वनि प्रवाहों की—स्वर लहरियों की होने वाली प्रतिक्रियाओं का गहरा अन्वेषण किया है तदनुसार वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि संगीत प्रायः प्रत्येक जीवधारी के मस्तिष्क एवं नाड़ी संस्थान पर आश्चर्यजनक प्रभाव डालता है। उनकी प्रकृति और मनःस्थिति के अनुरूप यदि संगीत बने तो उन्हें मानसिक प्रसन्नता और शारीरिक उत्साह प्राप्त होता है। किन्तु उनकी कर्णेन्द्रिय को कर्कश लगने वाली अरुचिकर ध्वनियां बजाई जायें तो उससे उन्हें अप्रसन्नता होती है और स्वास्थ्य सन्तुलन भी बिगड़ता है। किस प्राणी की किस स्थिति में किस प्रकार का संगीत क्या प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है इसका अध्ययन करने वाले जर्मन प्राणिशास्त्री यह आशा करते हैं कि भविष्य में विभिन्न जीवधारियों की मनः स्थिति में आशाजनक परिवर्तन समय-समय पर किया जा सकेगा हिंस्र पशुओं को भी कुछ समय के लिए शान्त किया जा सकेगा और अवांछनीय जीवों को उनके लिए अरुचिकर सिद्ध होने वाली ध्वनियां करके उन्हें दूर भगाया जा सकता है। इसी प्रकार उन्हें कई प्रवृत्तियों में संलग्न एवं उदासीन बनाने का कार्य भी संगीत के माध्यम से किया जा सकता है।

सांप का बीन की नाद पर मुग्ध होकर लहराने लगना हिरनों का अहेरी का वाद्य सुनकर खड़े हो जाना, प्रसिद्ध है। वाद्य बाल वृद्ध सभी को आकर्षित करता है। उसे प्रत्येक उत्सव आयोजन में स्थान दिया जाता है। मनोरंजन में तो उसका स्थान किसी न किसी प्रकार रहता ही है। थके हारे लोग इस माध्यम से नवीन स्फूर्ति प्राप्त करते हैं। संगीत शब्द ब्रह्म की स्वर साधना है उससे मनुष्यों का ही नहीं समस्त प्राणियों का श्रेय साधन हो सकता है और सर्वत्र उल्लास, आनन्द का विस्तार हो सकता है।
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