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Books - शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म

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पशु पक्षी पौधों का संगीत प्रेम

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मनुष्यों तक ही संगीत का प्रभाव सीमित नहीं है वरन् उसे पशु पक्षी भी उसी चाव से पसन्द करते हैं और प्रभावित होते हैं। संगीत सुनकर प्रसन्नता व्यक्त करना और उसका आनन्द लेने के लिए ठहरे रहना यही सिद्ध करता है कि वह उन्हें रुचिकर एवं उपयोगी प्रतीत होता है। अन्य जीवों की जन्मजात प्रवृति यही होती है कि उनकी स्वाभाविक पसन्दगी उनके लिए लाभदायक ही सिद्ध होती है। पशु-पक्षियों पर संगीत का अच्छा प्रभाव देखते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि वह मनुष्यों की तरह अन्य जीवों के लिए भी न केवल प्रिय वरन् उपयोगी भी है।

पशु मनोविज्ञानी डा. जार्जकेर वित्स ने छोटे जीव जन्तुओं की शारीरिक और मानसिक स्थिति पर पड़ने वाले प्रभाव का लम्बे समय तक अध्ययन किया है। घर में बजने वाले पियानो की आवाज सुनकर चूहों को अपने बिलों में शान्ति पूर्वक पड़े हुए उन्होंने कितनी ही बार देखा है। बेहिसाब उछल-कूद करने वाली चूहों की चाण्डाल चौकड़ी मधुर वाद्य यंत्र सुनकर किस प्रकार मन्त्र मुग्ध होकर चुप हो जाती है यह देखते ही बनता है।

दुधारू पशुओं को दुहते समय यदि संगीत ध्वनि होती रहे तो वे अपेक्षाकृत अधिक दूध देते हैं।

सील मछली का संगीत प्रेम प्रसिद्ध है। कुछ समय पूर्व पुर्तगाल के मछुआरे अपने नावों पर वायलिन बजाने की व्यवस्था बनाकर निकलते थे। समुद्र में दूर-दूर तक वह ध्वनि फैलती तो सील मछलियां सहज ही नाव के इर्द-गिर्द इकट्ठी हो जाती और मछुआरे उन्हें जाल में पकड़ लेते।

घरेलू कुत्ते संगीत को ध्यान पूर्वक सुनते और प्रसन्नता व्यक्त करते पाये जाते हैं। वन विशेषज्ञ जार्ज ह्वेस्हे ने अफ्रीका के कांगों देश में चिंपैंजी तथा गुरिल्ला वन मानुष को संगीत के प्रति सहज ही आकर्षित होने वाली प्रकृति का पाया है। उन्होंने इन वानरों से सम्पर्क बढ़ाने में मधुर ध्वनि वाले टेप रिकार्डरों का प्रयोग किया और उनमें से कितनों को ही पालतू जैसी स्थिति का अभ्यस्त बनाया। नार्वे के कीट विज्ञानी डा. हडसन शहद की मक्खियों को अधिक मात्रा में शहद उत्पन्न करने के लिए संगीत को अच्छा उपाय सिद्ध किया है। अन्य कीड़ों पर भी वाद्य यन्त्रों के भले बुरे प्रभावों का उन्होंने विस्तृत अध्ययन किया है और बताया है कि कीड़े भी संगीत से बिना प्रभावित हुए नहीं रहते। ह्यूज फ्रेयर ने जुलूलेण्ड फार्म हाउस की एक घटना का विवरण छपाया है जिसके अनुसार एक महिला वायलिन वादन को उस जंगल की झोंपड़ी में दो भयंकर सर्पों की सामना करना पड़ा था और वह मरते-मरते बची थी। बात यों ही कि उसे आधी रात बीत जाने पर भी नींद न आई तो उठकर वायलिन बजाने लगी इतने में कोबरा सर्पों का एक अधेड़ जोड़ा उस स्वर लहरी पर मुग्ध होकर घर में घुस आया और फन फैला कर नाचने लगा। वादन में व्यस्त महिला को पहले तो कुछ पता न चला पर जब उसे दो छायाएं लगातार हिलती-जुलती दीखीं तो उसने पीछे मुड़कर देखा और पाया कि दोनों सर्प मस्ती के साथ संगीत पर मुग्ध होकर लहरा रहे हैं।

महिला एक बार तो कांप उठी पीछे उसने विवेक से काम लिया और खड़े होकर वायलिन बजाती हुई उलटे पैरों दरवाजे की ओर चलने लगी। दोनों सांप भी साथ साथ चल रहे थे। दूसरे कमरे में उसका पति सो रहा था। वहां उसने जोर से वायलिन बजाया—वह जगा। इशारे में महिला ने वस्तुस्थिति समझाई। पति ने बन्दूक भरी और किवाड़ों के पीछे निशाना साध कर बैठा। सांप जब सीध में आ गये तब उसने गोली चलाई एक तत्काल मर गया, दूसरा घायल हो गया तब कहीं उस काल रज्जु के रूप में आये हुए मृत्यु से महिला का पीछा छूटा।

भीलवाड़ा राजस्थान के एक गांव सलेमपुर का समाचार है कि वहां का निवासी एक युवक ट्रांजिस्टर बजाता हुआ गांव लौट रहा था तो संगीत की ध्वनि से मोहित एक सर्प पीछे-पीछे चलने लगा। बहुत दूर साथ चलने पर जब सांप का आभास युवक को हुआ तो वह डर गया और ट्रांजिस्टर पटक कर भागा। सर्प ट्रांजिस्टर के निकट बैठा रहा, जब तक कि संगीत बजता रहा। बन्द होने पर चला गया। पीछे सर्प की लकीर देखने से प्रतीत हुआ कि वह एक मील तक इस संगीत श्रवण के लिए पीछे-पीछे चला आया था। पूर्वी जर्मनी के गोटिंगन नगर के संगीत से इलाज करने वाले प्रो. डा. जोहोंस एन. शूमिलिन ने यह सिद्ध कर दिया है कि बीमार भी मानव की भांति संगीत से लाभ ही नहीं उठा सकते वरन् उन्हें रोग-मुक्त भी किया जा सकता है। उन पर संगीत का अनुकूल प्रभाव पड़ता है। गोटिंगन से प्रकाशित एक पत्रिका में उन्होंने लिखा है—‘‘दुःखती आंखों में संगीत प्रसन्नता की चमक पैदा कर देता है। मैंने ऐसे कुत्ते और बिल्ली देखे हैं, जो लोमवाद्यों के साथ थिरकने लगे हैं। यदि मनुष्येत्तर प्राणियों के जीवन-स्पन्दन को संगीत की सामर्थ्य से मोड़ा जा सकता है तब तो मनुष्य जैसे भावनाशील प्राणी पर उसके प्रभाव का तो कहना ही क्या?’’

कोई 15 वर्ष पूर्व लखनऊ के एक वैज्ञानिक डॉक्टर सी.टी.एम. सिंह ने स्लाइडों के द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया था कि गायें, भैसें संगीत सुनकर अधिक दूध देने लगती हैं। कटक और दिल्ली के कृषि अनुसंधान केन्द्रों में भी ऐसे प्रयोग और परीक्षण हुए हैं और यह देखा गया है संगीत का प्रभाव पेड़ पौधों तक में उत्पादन शक्ति के रूप में होता है। कोयम्बटूर के सरकारी कालेज में भी इस प्रकार के परीक्षण चल रहे हैं। विदेशों से ऐसे समाचार मिल रहे, जिनमें दावा किया जाता है कि राग-रागनियों का प्रभाव गन्ने, धान, सकरकन्द, नारियल आदि पर भी पड़ता है। उत्तर भारत में अभी भी धान की रोपाई के लिये विशेष रूप से गांव की उन स्त्रियों को ले जाया जाता है, जो अच्छे और मधुर-स्वरों में गीत गा सकती हों और फिर सामूहिक स्वरों में गीत गाते हुए, धान की रोपाई की जाती है। ऐसे खेतों में और खेतों की अपेक्षा फसल अच्छी तैयार होती है।

यह घटनाएं बताती हैं कि सर्प जैसे भयंकर और क्रोधी प्रकृति के प्राणी को संगीत कितना अधिक प्रभावित एवं भाव विभोर बना देने में समर्थ है।

डा. सिंह ने दस वर्ष तक एक बाग को दो हिस्सों में बांटकर एक परीक्षण किया। एक हिस्से के पौधों को कु. स्टेला पुनैया वायलिन बजाकर गीत सुनाती दूसरे को खाद, पानी, धूप की सुविधायें तो समान रूप से दी गईं किन्तु उन्हें स्वर; माधुर्य से वंचित रखकर दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया। जिस भाग को संगीत सुनने को मिला उनके फूल पौधे सीधे, घने, अधिक फूल, फलदार सुन्दर हुए। उनके फूल अधिक दिन तक रहे और बीज निर्माण द्रुत गति से हुआ। डा. सिंह ने बताया कि वृक्षों में प्रोटोप्लाज्मा गड्ढे भरे द्रव की तरह उथल-पुथल की स्थिति में रहता है संगीत की लहरियां उसे उस तरह लहरा देती हैं, जिस तरह वेणुनाद सुनकर सर्प प्रसन्नता से झूमने और लहराने लगता है। मनुष्य शरीर में भी ठीक वैसी ही प्रतिक्रिया होती है। गन्ना, चावल, शकरकन्द जैसे मोटे अनाजों पर जब संगीत अपना चिरस्थायी प्रभाव छोड़ सकता है तो मनुष्य के मन पर उसके प्रभाव का तो कहना ही क्या?

गन्ना, धान, शकरकन्द, नारियल आदि के पौधों और पेड़ों के विकास पर क्रमबद्ध संगीत का उत्साहवर्धक प्रभाव पड़ता है यह प्रयोग भारत के एक कृषि विज्ञानी संगीतकार डॉक्टर टी.एन. सिंह ने कुछ समय पूर्व किया था। कोयम्बटूर के सरकारी कृषि कालेज के अन्वेषण ने पौधों पर संगीत के अनुकूल प्रभाव की रिपोर्ट दी है।

कनाडा के किसान अपने खेतों के चारों ओर लाउडस्पीकर लगाकर रखते हैं, उनका सम्बन्ध रेडियो से जोड़ दिया जाता है और संगीत कार्यक्रम प्रसारण प्रारम्भ कर दिया जाता है। देवातोसा (विस्कानिसन) संगीत शक्ति के व्यापक शोधकर्त्ता श्री आर्थर लाकर का कहना है कि संगीत से जिस तरह पौधों को रोगाणुओं से बचाया जा सकता है, उसी प्रकार मनुष्यों की रोग-निरोधक शक्ति का विकास भी किया जा सकता है।

यह घटनायें देखकर नारद संहिता का वह श्लोक याद आ जाता है, जो भगवान् विष्णु ने नारद जी से कहा था—

खगाः भङ्गाः पतङ्गाश्च कुरश्चाद्योपिजन्तवः । सर्व एव प्रगीयन्ते गीतव्याप्तर्दिगन्तरे ।।

हे नारद! पक्षी, भौरे, पतंगे, हिरण आदि जीव जन्तुओं को भी संगीत से प्रेम होता है। संगीत से संसार का कोई भी स्थान रिक्त नहीं। अर्थात् संगीत एक सर्वव्यापी ईश्वरीय तत्व है और वह परमात्मा के समान ही सम्पूर्ण संसार को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक आरोग्य प्रदान करता है।

मनुष्य, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े ही नहीं वृक्ष वनस्पतियों पर भी संगीत का उपयोगी प्रभाव पड़ता है। इतना ही समस्त चेतना सृष्टि की तरह जड़ सृष्टि भी उससे प्रभावित होती है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर संगीत को विश्व का प्राण कहा गया है।

संगीत कला विहीनः साक्षात् पशु पुच्छ हीनः

‘‘संगीत कला विहीन मनुष्य पुच्छहीन पशु की तरह है।’’ उपर्युक्त श्लोक में एक तरह से संगीत के प्रति श्रद्धा और प्रेम रखने वाले व्यक्ति की निन्दा की गई है, पर ऐसा लगता है श्लोककार ने यह पंक्तियां लिखते हुए यह ध्यान नहीं दिया कि संगीत एक ऐसी वस्तु है, पशु-पक्षी भी जिसके प्रति अपार आदर और प्रेम रखते हैं। फ्रान्सीसी लेखक पेलीसन को एक बार किसी अपराध में पकड़ कर जेल भेज दिया गया। अपने जेल जीवन का एक रोमांचकारी संस्मरण प्रस्तुत करते हुए, श्री पेलीसन ने लिखा है—एक दिन जब में अपनी बांसुरी बजाने में मग्न था तब मैंने देखा जाले के भीतर से एक मकड़ी निकली और बांसुरी के स्वर-तालों के साथ ऐसे घूमने लगी मानो वह नृत्य करना चाहती हो। मैंने उस दिन से अनुभव किया कि संगीत कोई ऐसी शक्ति है जो प्रधानतया- शरीर में रहने वाली चेतना से संसर्ग करती है, तभी तो सृष्टि का इतना तुच्छ जीव भी उसे सुनकर फड़क उठता है।

संगीत एक पराशक्ति है और उसे प्रयोग करने के विविध उपायों का नाम है ‘‘शास्त्रीय संगीत’’। संगीत से मनुष्य की किसी भी भावना को उत्तेजित किया जा सकता है और समाज में व्यवस्था स्थापित की जा सकती है।

मियामी विश्व विद्यालय अमेरिका के वैज्ञानिक डा. जे.डी. रिचार्डचन ने समुद्री मछलियों को पकड़ने के लिए एक विशेष संगीत ध्वनि का आविष्कार किया है। उनका कहना है कि समुद्र के किनारे चारा लगी वंशियां डाल दी जायें और फिर वह स्वर बजाया जाये तो सुनने के लिये सैकड़ों की संख्या में मछलियां दौड़ी चली आती हैं। उससे इस सिद्धान्त की पुष्टि अवश्य होती है कि संगीत विश्व की एक आध्यात्मिकता सत्ता है। संसार का प्रत्येक जीवधारी उसे पसन्द करता है। मनुष्य को तो मानवीय सद्भावनाओं के उत्प्रेरण में उसका सदुपयोग करना ही चाहिये।

समुद्र में पाया जाने वाला शेर्रों जन्तु तो संगीत की स्वर लहरियों पर इतना आसक्त हो जाता है कि यदि उसे कहीं से मधुर स्वर सुनाई दें जाय तो वह अपने जीवन की चिन्ता किये बिना प्राकृतिक प्रकोप और अवरोधों को भी पार करता हुआ वहां पहुंचेगा अवश्य। पाश्चात्य देशों में विद्युत से बजने वाला एक ऐसा यन्त्र बनाया गया है, जिसकी स्वर तरंगें सुनकर मच्छर दौड़े चले आते हैं और उस यन्त्र से टकरा-टकरा कर ऐसे प्राण होम देते हैं जैसे दीपक की ज्योति पर पतंगे प्राण अर्पण कर देते हैं।

अभी कुछ दिन पूर्व न्यूयार्क मेट्रोपोलिटन (म्यूनिस्पैलिटी की तरह नगर प्रशासक संस्था को मेट्रोपोलियन कहते हैं, यह बड़े-बड़े नगरों में जैसे दिल्ली आदि में होती है) के संग्रहालय ने अफगानिस्तान के डा. एम फरीदी से 18 हजार पौण्ड में एक पुस्तक खरीदी है। यह पुस्तक एक भारतीय सूफी संत ख्वाजा फरीदुद्दीन खट्टर द्वारा लिखी गई है उसका नाम है ‘‘सन्त कुबेर’’। इस पुस्तक में लिखा है कि संसार के सैकड़ों जीव विधिवत गाते भी हैं। उनके द्वारा गाये जाने वाले गीत भी 362 पृष्ठों वाली इस पुस्तक में दिये हैं। इस पुस्तक की दो प्रतियां—एक काश्मीर में दूसरी वाराणसी में उपलब्ध बताई जाती है।

जापान में कई सम्पन्न व्यक्तियों के पास विभिन्न जीव-जन्तुओं का रिकार्ड किया हुआ संगीत उपलब्ध है, जब किसी सार्वजनिक उत्सव या किसी विदेशी अभ्यागत का स्वागत होता है तो उसे सुनाया भी जाता है। मादा मेढ़क जब प्रसवकाल में होती है तो वह बड़े मधुर स्वर में गाती है। कहते हैं कि गर्भिणी मेढ़क का विश्वास होता है कि गाने से उसका प्रसव बिना कष्ट के होगा साथ ही पैदा होने वाला नया मेढ़क भी स्वस्थ और बलवान् होगा। इस किंवदन्ती में कितना अंश सच है, यह तो निश्चित नहीं कहा जा सकता, किन्तु मनुष्य के बारे में यह निर्विवाद सत्य है कि गर्भावस्था में माता के हाव-भाव और विचारों का गर्भस्थ बालक पर प्रभाव पड़ता है। यदि गर्भवती स्त्री को नियमित रूप से संगीत सुनने को मिले तो उससे न केवल प्रसवकाल का कष्ट कम किया जा सकता है वरन् आने वाली सन्तति को भी शारीरिक मानसिक तथा आत्मिक दृष्टि से दृढ़ और बलवान् बनाया जा सकता है।

प्रसव के तत्काल बाद ‘‘सोहर’’ संगीत गाने की भारतीय लोक जीवन में अभी भी व्यवस्था है, वह इस बात की प्रतीक है कि यदि बच्चा बुरे संस्कार को भी लेकर आया है तो यदि उसे संगीत के प्रभाव से रखा जाये तो पूर्व जन्मों के असत् और दूषित संस्कारों का पूर्ण प्रच्छालन किया जा सकता है।

कहते हैं तानसेन जिन दिनों अपने गुरु सन्त हरिदास के पास संगीत विद्या का अभ्यास कर रहे थे, एक दिन वह जंगल गये। उन्होंने देखा एक वृक्ष पर अग्नि जलती है और फिर बुझ जाती है। अग्नि के जलने और बुझने की यह घटना तानसेन ने आश्रम में आकर गुरुदेव को सुनाई और उसका रहस्य पूछा। स्वामी हरिदास ने बताया—उस वृक्ष पर एक ऐसा पक्षी रहता है जिसके कण्ठ से निकले हुये स्वर कम्पन दीपक राग के स्वर कम्पनों के समान जिस तरह कोयल एक विशेष लय में कुहू-कुहू गाती है, पपीहरा एक आहत ध्वनि प्रसारित करता है, उसी प्रकार जब वह चिड़िया सहज बोलती है तो वह स्वर लहरियां फूटती है, उसी से अग्नि जलती है और बुझती है। इस विशेष घटना से ही प्रेरित होकर तानसेन ने ‘‘दीपक राग’’ का मनोयोग पूर्वक अभ्यास कर उसमें सिद्धि प्राप्त की।

देखने सुनने में यह घटनायें अतिरंजित होती है, पर जो लोग शब्द और स्वर विज्ञान को जानते हैं उन्हें पता है कि प्राकृतिक परमाणुओं में अग्नि आदि तत्व नैसर्गिक रूप में विद्यमान हैं, उन्हें शब्द -तरंगों के आघात द्वारा प्रज्ज्वलित भी किया जा सकता है। आज पाश्चात्य देशों में शब्द शक्ति के द्वारा जो आश्चर्य जनक कार्य हो रहे हैं वह सब स्वर कम्पनों पर ही आधारित हैं और उनमें वहां कई प्रकार की औद्योगिक क्रान्तियां उठ खड़ी हुई हैं। हम उधर ध्यान न दें तो भी इन आख्यानों को पढ़कर यह तो पता लगा ही सकते हैं कि जीव मात्रा में फैली हुई आत्म-चेतना आनन्द प्राप्ति के एक सर्व मान्य लक्ष्य से बंधी हुई है। उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये योग-साधनायें कठिन हो सकती हैं, पर स्वरों की कोमलता और लयबद्धता में कुछ ऐसी शक्ति है कि वह सहज ही में आत्मा को ऊर्ध्वमुखी बना देती है। उससे शारीरिक, मानसिक लाभ भी हैं, पर आत्मोत्थान का लाभ सबसे बड़ा है, संगीत कला का उपयोग उसी में किया भी जाना चाहिये।
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