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Books - शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म

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नादयोग—दिव्य सत्ता के साथ आदान प्रदान

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नाद ब्रह्म अथवा शब्द ब्रह्म का अभिप्राय उस अनाहत ध्वनि से है जो प्रकृति और पुरुष के संयोग स्थल से निरन्तर प्रसृता और निनादित होती रहती है। ॐ कार वही स्वयंभू ब्रह्मनाद है। उससे सप्त स्वर प्रस्फुटित हुए। श्रुति शास्त्र में प्रयुक्त होने वाले उदात्त अनुदात्त स्वरूप उसी के आरोह अवरोह हैं। संगीत शास्त्र में आगे चलकर वे ही सा रे ग म प ध नि के स्वर सप्तक बन गये। सूर्य रथ के सप्त अश्व उसके प्रभा किरणों में सन्निहित रंग हैं। उसी प्रकार ब्रह्मनाद का ध्वनि गुंजन सप्तधा स्वर लहरी में निनादित होता है।

यों सुनने में सप्तस्वर और उनके आरोह अवरोह मात्र शब्द ध्वनि का उतार चढ़ाव प्रतीत होते हैं और उनका उपयोग वाद्य गायन में प्रयुक्त होना भर लगता है पर वस्तुतः उसकी सीमा इतनी स्वल्प नहीं है। मनुष्य कृत स्वर लहरी के अतिरिक्त प्रकृतिगत स्वर प्रवाह जीवधारियों द्वारा विविध विधि उच्चारण भी कम महत्व के नहीं हैं। मेघ गर्जन, समुद्र तर्जन, विद्युत कड़क, वायु सनाहट, निर्जन की सांय-सांय, अग्नि शिखा की धू धू, निर्झर निनाद, प्रकृतिगत ध्वनियां हमें समय-समय पर सुनने को मिलती रहती हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न पशु-पक्षी आवश्यकतानुसार अपनी-अपनी बोलियां बोलते हैं। रात्रि की नीरवता में झिल्ली की झंकार सुनते ही बनती है। सूर्योदय के समय पक्षियों के कंठ कितने प्रकार की कितनी मधुर स्वर लहरियां प्रस्तुत करते हैं, उन्हें सुनकर मुग्ध हो जाना पड़ता है। लगता है स्वर ब्रह्म अपने अगणित ध्वनि प्रवाहों में न जाने कितने भाव भरे संकेतों और संदेशों को इस विश्व ब्रह्माण्ड में भरता बहाता रहता है।

यह सब आहत ध्वनियां हैं जो कानों से सुनी जा सकती हैं। विज्ञान की पकड़ में वे ध्वनियां भी आ गई हैं, जो मनुष्य के कानों से सुनी जा सकने वाली मर्यादा से या तो ऊंची है या नीची। हमारे खुले कान उन्हें सुन नहीं सकते फिर भी साधन उपकरणों द्वारा उन्हें उसी प्रकार सुना जा सकता है जैसे खुली आंख से दीखने वाले लघुकाय जीवाणु माइक्रोस्कोप जैसे सूक्ष्म दर्शक यन्त्रों से भली प्रकार देखे जा सकते हैं। यह प्रकृतिगत ध्वनियां हैं। कान की पकड़ से बाहर होने के कारण ही इन्हें सूक्ष्म कहा जाता है, अन्यथा वस्तुतः यह स्थूल ही है क्योंकि यन्त्रों के माध्यम से उन्हें हमारे कान भी सुन समझ सकते हैं।

इसमें ऊंचे स्तर की ध्वनियां वे ही हैं जिन्हें जड़ जगत के अण्ड परमाणुओं द्वारा स्पन्दित नहीं कहा जा सकता। उनका सम्बन्ध चेतन जगत के जीवन प्रवाह से है। उन्हें एक प्रकार से अतीन्द्रिय भी कह सकते हैं। उनका मूल स्रोत चेतना तत्व है। इसलिए उन्हें ब्रह्म वाणी भी कहते हैं। इन्हीं ध्वनियों का अलंकारिक वर्णन शिव के डमरू घोष, सरस्वती के वीणा वादन एवं कृष्ण की वंशी दुर्गा के निनाद ताल नृत्य एवं भैरव नाद जैसे सरस उपाख्यानों और घटनाक्रमों के रूप में किया गया है।

यह दिव्य ध्वनियां अनन्त अन्तरिक्ष में बिना किसी प्रकृतिगत हलचल का आश्रय लिये स्वयमेव विनिसृत होती रहती हैं। ये चेतन हैं, दिव्य हैं, अलौकिक, अभौतिक और अतीन्द्रिय हैं। इसलिये उन्हें देववाणी भी कहते हैं। उन्हें ध्यान योग के माध्यम से हमारा चेतन अन्तःकरण सुन सकता है। श्रवण का सम्बन्ध कर्णेन्द्रिय से है, अस्तु सूक्ष्म एवं चेतन श्रवण भी शब्द संस्थान के सी प्रतिनिधि केन्द्र का सहारा लेकर सुना जाता है। प्रत्येक इन्द्रिय की तन्मात्राएं स्थूल से सूक्ष्म का सम्बन्ध बनाती हैं। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श शरीर की पांच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से पांच तत्व के सान्निध्य से उत्पन्न होने वाली अनुभूतियों से ही हमें अवगत कराती है। यह स्थूल का सूक्ष्म की ओर गति का एक चरण हुआ। उसके अगले चरण विशुद्ध चेतन एवं अभौतिक हो जाते हैं। जिन दिव्य ध्वनि प्रवाहों की चर्चा इन पंक्तियों में हो रही है। वह उसी चेतन जगत के उच्चस्तर से सम्बन्धित हैं। ब्रह्म वाणी—देवध्वनि को इसी रूप में समझा जाय।

नादयोग का केन्द्र बिन्दु उपरोक्त पंक्तियों के आधार पर सरलता पूर्वक जाना जा सकता है। योगशास्त्र के साधना विधानों में एक महत्वपूर्ण धारा नादयोग की भी है। कानों को उंगलियों से, शीशी वाले कार्क से कपड़े की गोली से इस प्रकार बन्द किया जाता है कि बाहर की वायु या स्थूल आवाजें भीतर प्रवेश न कर सकें। इस स्थिति में कानों को बाहरी ध्वनि आधार से विलग किया जाता है। और ध्यान को एकाग्र करके यह प्रयत्न किया जाता है कि अतीन्द्रिय जगत से आने वाले शब्द प्रवाह को अन्तःचेतना द्वारा सुना जा सके। यों इसमें भी कर्णेन्द्रिय का—उसकी शब्द तन्मात्रा का योगदान तो रहता है पर वह श्रवण है, वस्तुतः उच्चस्तरीय चेतन जगत की ध्वनि लहरी सुनने के लिए, कर्णेन्द्रिय और अन्तःकरण का इसे संयुक्त प्रयास भी कह सकते हैं।

कानों से सुनी जाने वाली ध्वनियां इतनी उथली और हलकी होती हैं कि उनका किसी प्राणी या पदार्थ पर जानकारी देने के अतिरिक्त और कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। यों श्रवण ध्वनियों के साथ जुड़े हुए घटना क्रम एवं घुले हुए भाव प्रवाह अपना महत्व रखते हैं और यत्किंचित् प्रभाव भी डालते हैं, पर वह सब मिला कर भी श्रवणातीत ध्वनियों की क्षमता के समतुल्य नहीं हो सकता। प्रकृति का अनुग्रह ही है कि वे सूक्ष्म ध्वनियां हमारे कानों की जीव सत्ता को बिना प्रभावित किये ही अन्तरिक्ष में उड़ती रहती हैं। यदि वे सुनाई देने लगतीं तो कोलाहल से कान बहरे हो जाते। यदि वे प्रभावित करने लगतीं तो उनके प्रहार से शरीर सत्ता का अस्तित्व ही संदिग्ध बन जाता। कानों की ग्रहण शक्ति बहुत ही भौंड़ी और थोड़ी है। हमारे कान मात्र एक सैकिंड में 20 से लेकर 20 हजार तक कंपन उत्पन्न करने वाली ध्वनियों को ही सुन सकते हैं। इससे न्यूनाधिक कम्पनों की ध्वनियां पकड़ में नहीं आतीं, श्रवणातीत अति स्वन ध्वनियां 10 लाख से लेकर 1000 करोड़ कम्पनों तक की तरंगें हर सैकिंड उत्पन्न करने वाली पाई गई हैं। इनकी सामर्थ्य उनकी सूक्ष्मता के आधार पर अधिकाधिक होती चली जाती है।

श्रवणातीत ध्वनियों का उपयोग जब से वैज्ञानिकों ने जाना है तब से वे उनके अत्यन्त प्रभावशाली उपयोग करने लगे हैं। शल्य चिकित्सा, कीटाणु संहार, ऋतु परिवर्तन, मोटे धातु खण्डों को गला देना, जैसे प्रचण्ड कार्य उनसे लिये जा रहे हैं। कल कारखानों के लिए तो उन्हें बिजली एवं अणुशक्ति की तरह काम में लाया जा रहा है।

वैज्ञानिक सोचते हैं कि भविष्य में मानवी आवश्यकता की अभीष्ट ऊर्जा, श्रवणातीत ध्वनि तरंगों से उपलब्ध की जा सकेगी। तब मनुष्य को परम शक्तिशाली कहला सकने का अवसर मिल जायगा।

धरती पर हो रही हलचलों से जो ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं उनके अतिरिक्त ऐसी तरंगें भी पाई गई हैं, जिनका जागतिक हलचलों से सीधा सम्बन्ध नहीं है। उनका स्तर, स्वरूप एवं प्रभाव अलौकिक है। विज्ञानी सोचते हैं कि यह विलक्षण अन्तर्ग्रही ध्वनि प्रवाह ब्रह्माण्ड के किसी अज्ञान केन्द्र से धरती पर आता है और उसी की सामर्थ्य से अपने भूलोक के विभिन्न पदार्थों एवं क्रिया-कलापों का सूत्र संचालन होता है।

शब्द की महत्ता को अध्यात्म शास्त्र आरम्भ से ही प्रतिपादित करते रहे हैं। नादयोग का पूरा ढांचा इसी निमित्त खड़ा किया गया है कि सूक्ष्म शरीर के संयंत्र को विकसित करके दिव्य ध्वनियों को पकड़ने, समझने में सफलता प्राप्त की जा सके। इस आधार पर प्रकृतिगत उन भौतिक हलचलों को जाना जा सकता है। जो सामान्य मनुष्य के ज्ञान क्षेत्र से ऊपर की हैं। इसके अतिरिक्त परा प्रकृति से सम्बन्धित सूक्ष्म जगत की वे सचेतन हलचलें हैं जो ध्वनि रूप में परिभ्रमण करती हैं और समस्त प्राणिजगत को प्रभावित करती हैं। नाद योग के अभ्यास से आत्म चेतना को परिष्कृत और सूक्ष्म शरीर की कर्णेंद्रिय तन्मात्रा शब्द को परिष्कृत किया जाता है। इस आधार पर अदृश्य एवं अविज्ञात से सम्पर्क साधा जाता है और अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त करने का लाभ उठाया जाता है।

नादयोग के लिये स्थान और समय इस तरह का चयन किया जाता है जहां अधिकतम शान्त एकान्त हो। किन्हीं शीशे की जालियों से प्राकृतिक दृश्य दिखाई दें सकें तो मन को विराट अन्तराल में दूर तक उड़ने का अवसर मिलता है। प्रारम्भ में मीठे लहरदार और शास्त्रीय नादों के रिकार्ड ग्रामोफोन पर बजायें। रिकार्ड थोड़ी देर तक चलने वाला हो। वीणा, एकतार, बैंजों, सरोंद, सारंगी, बंसरी यामौहर ऐसे लहराने वाले नाद और धुनें रहें ताकि मन में नृत्य करने की प्रवृत्ति उमड़े। इस ध्वनि पर मन को एकाग्र करें इसके बाद नाद बंद करदें और उस नाद पर भावनाओं से ध्यान करें। इस अभ्यास से कर्णेन्द्रियों की सूक्ष्म शक्ति जागृति होती है धीरे-धीरे स्वप्नों में गीत संगीत सुनाई देने लगते हैं और प्रकृति में व्याप्त नादों का आभास होने लगता है।

घंटा बजाकर उसके नाद और थरथरी पर ध्यान जमाकर, रेडियो पर प्रातः या सायंकाल प्रसारित होने वाले भक्ति गीतों के साथ भी ध्वनि तरंगों पर मन को लय करने का अभ्यास किया जा सकता है। स्वर की लहरों में मन को लय करने से ही नाद साधना की पूर्ति होती है। इस सम्बन्ध में ब्रह्मवर्चस शान्ति कुंज हरिद्वार किन्हीं साधना सत्रों में भी आकर प्रत्यक्ष मार्ग दर्शन लिया जा सकता है। कारण शरीर की श्रवण शक्ति के विकास के लिये यह साधनायें व्यक्ति की परिस्थिति के अनुरूप यहां बतादी जाती हैं। सूक्ष्म और कारण शरीरों में सन्निहित श्रवण शक्ति को यदि विकसित किया जा सके तो अन्तरिक्ष में निरन्तर प्रवाहित होने वाली उन ध्वनियों को भी सुना जा सकता है जो चमड़े से बने कानों की पकड़ से बाहर हैं। सूक्ष्म जगत की हलचलों का आभास इन ध्वनियों आधार पर हो सकता है।

कराहने की आवाज सुन कर किसी के शोक ग्रस्त होने, दर्द से छटपटाने, सताये जाने आदि की स्थिति का—दूरी का—नर नारी, का बाल वृद्ध का अनुमान लगा लिया जाता है उसी प्रकार कर्णेन्द्रिय की पकड़ से बाहर की सूक्ष्म ध्वनियों को यदि सुना जा सके तो विश्व में विभिन्न स्थानों पर विभिन्न स्तर की घटित होने वाली घटनाओं का विवरण जाना जा सकता है सम्भावनाओं का पता लगाया जा सकता है, तथा लोक लोकान्तरों में हो रही हलचलों को समझा जा सकता है। सर्व साधारण के लिए अविज्ञात जानकारियां सूक्ष्म शरीर की कर्णेन्द्रिय के विकास द्वारा नितान्त सम्भव हैं।

न्यूजर्सी अमेरिका के वेल टेलीफोन प्रयोगशाला के इंजीनियरों और वैज्ञानिकों ने एक ऐसे ‘भवन’ का निर्माण किया जो पूरी तरह शब्द प्रूफ था अर्थात् उसके अन्दर बैठने वाले को बाहर की कैसी भी कोई भी ध्वनि सुनाई नहीं पड़ सकती थी। वैज्ञानिकों को अनुमान था कि उस समय निस्तब्ध नीरवता का आभास होगा, पर जब एक व्यक्ति को प्रयोग के तौर पर उसके अन्दर बैठाया गया तो उसे यह सुनकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि विचित्र प्रकार की ध्वनियां उसके कानों में गूंजने लगीं। एक ध्वनि किसी के सीटी बजाने की थी, एक ध्वनि प्रेस मशीन चलने की तरह धड़-धड़ की थी, एक ध्वनि चटाचट चटकने की थी। पहले तो वह व्यक्ति डरा पर पीछे ध्यान देने पर मालुम हुआ कि सीटी की आवाज नसों में दौड़ने वाले रक्त प्रवाह की ध्वनि थी। आमाशय में पाचन रसों की चट-चट हड्डियों की कड़-कड़ाहट की ध्वनियां भी अलग अलग सुनाई पड़ने लगीं मानो शरीर न हो पूरा कारखाना ही हो।

सामान्यतः यह ध्वनि हर व्यक्ति के शरीर से होती है पर अपने कानों की बाह्यमुखी सम्वेदनशीलता और एकाग्रता की कमी के कारण कोई भी उन्हें सुन नहीं पाता। पर यदि अभ्यास किया जाये और सूक्ष्म कानों की शक्ति जगाई जा सके तो अनन्त ब्रह्माण्ड में होने वाली हलचल पृथ्वी के लचने की आवाज, सौर घोष, उल्काओं की टक्कर के भीषण निनाद मन्दाकिनियों के बहने का स्वर, जीव जन्तुओं के कलरव सब कुछ किसी भी स्थान में बैठकर उसी प्रकार सुने जा सकते हैं जिस प्रकार बेल टेलीफोन, लैबोरेटरी के प्रयोग के समय।

योगी पातंजलि ने लिखा है—‘ततः प्रतिभ श्रावण जायन्ते’ अर्थात् ‘स्वार्थ संयम के अभ्यास से प्रतिभ अर्थात् भूत और भविष्य ज्ञान दिव्य और दूरस्थ शब्द सुनने की सिद्धि प्राप्त होती है।’ योग विभूति में लिखा है—

‘शब्दार्थ प्रत्ययानामितरेतराध्यासात् संकरस्तस्प्रतिभाग संयमात् सर्व भूतरुतज्ञानम्’

अर्थात् शब्द अर्थ और ज्ञान के अभ्यास से अभेद भासता है और उसके विभाग में संयम करने से सभी प्राणियों के शब्दों में निहित भावनाओं का भी ज्ञान होता है।’ यह सूत्र सिद्धान्त सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय की महान महत्ता का प्रतिपादन करते हैं और बताते हैं कि जब तक मनुष्य के पास ऐसा क्षमता सम्पन्न शरीर है जिसके अन्दर विद्यमान विभूतियों का उपयोग करके वह उसे प्राप्त कर सकता है जिसके लिए उसे प्रायः तरसते ही रहना पड़ता है।

नादयोग सूक्ष्म शब्द प्रवाह को सुनने की क्षमता विकसित करने का साधना विधान है। कानों के बाहरी छेद बन्द कर देने पर उनमें स्थूल शब्दों का प्रवेश रुक जाता है। तब ईथर से चल रहे ध्वनि कम्पनों को उस नीरवता में सुन समझ सकना सरल हो जाता है। नाद योग के अभ्यासी आरम्भ में कई प्रकार की दिव्य ध्वनियां कानों के छेद बन्द करके मानसिक एकाग्रता के आधार पर सुनते हैं। शंख, घड़ियाल, मृदंग, वीणा, नफीरी, नूपुर जैसी आवाजें आती हैं और बादल गरजने, झरना झरने, आग जलने, झींगुर बोलने जैसी क्रमबद्ध ध्वनियां भी सुनाई पड़ती हैं। आरम्भ में यह शरीर के अंतरंग में हो रही हलचलों की ही प्रतिक्रिया होती है, पर पीछे दूरवर्ती घटनाक्रमों के संकेत प्रकट करने वाली अधिक सूक्ष्म आवाजें भी पकड़ में आती हैं। अनुभव के आधार पर उनका वर्गीकरण करके यह जाना जा सकता है कि इन ध्वनि संकेतों के साथ कहां किस प्रकार का—किस काल का घटना क्रम सम्बद्ध है। प्रारम्भिक अभ्यासी भी अपने शरीरगत अवयवों की हलचल, रक्त प्रवाह, हृदय की धड़कन, पाचन संस्थान आदि की जानकारी उसी भांति प्राप्त कर सकता है जिस तरह की डॉक्टर लोग स्टेथिस्कोप आदि उपकरणों से हृदय की गति, रक्त चाप आदि का पता लगाते हैं अपने ही नहीं दूसरों के शरीर की स्थिति का विश्लेषण इस आधार पर हो सकता है और तदनुकूल सही निदान विदित होने पर सही उपचार का प्रबन्ध हो सकता है।

‘सूक्ष्म शरीर की कर्णेन्द्रिय को विकसित करके संसार में घटित होने वाले घटनाक्रम को जाना जा सकता है। कारण शरीर का सम्बन्ध चेतना जगत से है। योगों की मनःस्थिति के कारण उत्पन्न होने वाली अदृश्य ध्वनियां जिसकी समझ में आने लगें वे मानव प्राणी की—पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं की मनःस्थिति का परिचय प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार बिना उच्चारण के एक मन से दूसरे मन का परिचय आदान-प्रदान होता रह सकता है। विचार संचालन विद्या के ज्ञाता जानते हैं कि मनःस्थिति के अनुसार भावनाओं के उतार-चढ़ाव में एक विचित्र प्रकार की ध्वनि निसृत करते हैं और उसे सुनने की सामर्थ्य होने पर मौन रहकर ही दूसरों की बात अन्तःकरण के पर्दे पर उतरती हुई अनुभव की जा सकती है और अपनी बात दूसरों तक पहुंचाई जा सकती है।

‘कारण शरीर’ की कर्णेन्द्रिय साधना, दैवी संकेतों के समझने, ईश्वर के साथ वार्तालाप और भावनात्मक—आदान प्रदान करने की समर्थ हो सकती है। साधनात्मक पुरुषार्थ करते हुए अपने इन दिव्य संस्थानों को विकसित करना—अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ना यही नादयोग साधना का उद्देश्य है।

कृष्ण द्वारा रात्रि की नीरवता में वंशी बजाये जाने और गोपियों के घर-बार छोड़कर उस रास आह्वान के लिए निकल पड़ने का सविस्तार वर्णन भागवत आदि पुराणों में वर्णित है। यह व्यावहारिक, सामाजिक भौतिक व्यवस्था के सर्वथा प्रतिकूल होते हुए भी अध्यात्म परम्परा के पूर्णतया अनुकूल भी है। वस्तुतः कथा गाथाओं में रहस्यमय पहेली की तरह गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों का ही उद्घाटन किया गया है। रासलीला के पीछे नादयोग की व्याख्या विवेचना ही सन्निहित है। भगवान वंशी बजाते हैं—मधुर रस चखाने का आह्वान करते हैं। गोपियां समस्त सांसारिक बंधनों को तोड़कर उस ओर दौड़ पड़ती हैं। संकेत आह्वान का स्वागत करती है, और उसी के लिए आकुल व्याकुल होकर अपना समर्पण कर देती हैं। अपना आपा खोकर दिव्य ध्वनि के साथ थिरकन, नाचना आरम्भ कर देती हैं। यही तो रास लीला है। कृष्ण अर्थात् परमात्मा—वंशी ध्वनि अर्थात् ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए चल पड़ने का संकेत—गोपियां अर्थात् आत्मा की भौतिक एवं आत्मिक सम्पदायें—रास नृत्य अर्थात् दिव्य संकेतों के अनुरूप कठपुतली जैसे भाव-विभोर आचरण हैं।

रासलीला में सम्मिलित गोपियों के आनन्द मुग्ध होने का तथ्य सर्वविदित है। उसी का स्थूल रूप देखने दिखाने के लिए जहां-तहां रासलीला के अभिनय किये जाते हैं। यों एक पुरुष के साथ इतनी नारियों का कामुक नृत्य न तो अभिनन्दनीय हो सकता है और न अभिनीय। फिर भी आत्मा और परमात्मा के बीच आदान-प्रदान का जो भाव भरा अलंकारिक चित्रण रासलीला में किया गया है वह पहेली जैसा लगते हुए भी अर्थपूर्ण और तथ्यपूर्ण ही कहा जायगा। रास की प्रधान नायिका राधा है और अन्य सभी सखियां सहेलियां उसके साथ पूर्ण स्नेह सहयोग के साथ सहनृत्य में तल्लीन होती हैं।

राधा अर्थात् आत्मा—उनकी सहयोगिनी सखियां—अन्तरंग की सत्प्रवृत्तियां—बौद्धिक विभूतियां और सांसारिक सम्पदाएं—क्षमताएं, प्रतिभाएं—यह सभी आत्मा की आकांक्षा में स्नेहित सहयोग देती हैं। कोई अवरोध उत्पन्न नहीं करतीं अर्थात् आत्मा के परमात्मा से मिलने के सदुद्देश्य सत्प्रयत्नों को सफल बनाने के लिए अपना पूर्ण समर्पण—समग्र नियोजन प्रस्तुत कर देती हैं। आत्मा की दिव्य आकांक्षा की पूर्ति के लिए उनका पूरा-पूरा समर्थन मिलता है। यह स्थिति प्राप्त हो सके तो हर आत्मा को—हर राधा को—रासलीला का दिव्य आनन्द मिल सकता है। आत्मा और परमात्मा के मिलन का ब्रह्मानन्द उपलब्ध हो सकता है।

नादयोग में कान को सूक्ष्म चेतना की दिव्य ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं। कई बार ये अतिमन्द होती हैं। कई बार कुछ प्रखर। इनमें प्रायः कृष्ण की वंशी जैसी—सर्प पकड़ने में काम आने वाली बीन जैसी ध्वनियां रहती हैं। रास में प्रयुक्त वेणुनाद की चर्चा ऊपर हो चुकी है। कुमार्गगामी—भौतिक तृष्णा और वासना का विष पिण्ड मन—एक प्रकार से विषधर सर्प है। उसे भी आनन्द उल्लास की—दिव्य प्रेरणाओं के अनुगमन के रूप में लहराने का अवसर इस वेन की ध्वनि सुनने से मिल सकता है सपेरा विषधर सर्पों को पकड़ने के लिए बीन बजाता है। जब वह लहराने लगता है तो उसे चुपके से पकड़कर पिटारे में बंद कर लेता है। मन के निग्रह में—प्राणों के निरोध में—नादयोग का ध्वनि प्रवाह बहुत सफल रहता है। दिव्य ध्वनि श्रवण के साथ-साथ उपरोक्त दो विचार धाराओं का अदल-बदल कर समन्वय करना चाहिए। भगवान के वेणुनाद पर राधा और उसकी सखियों का रासनृत्य करना और मन सर्प का इस दिव्यनाद में तन्मय होकर अपना आत्म-समर्पण कर बैठना, यही है नादयोग की विधि साधना के साथ जुड़ा हुआ अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व दर्शन।

बंशी और बीन के अतिरिक्त और भी कई प्रकार की ध्वनियां नादयोग के साधकों को सुनाई पड़ती हैं। इनकी संगति इस प्रकार बिठाई जा सकती है—भगवती सरस्वती अपनी वीणा झंकृत करते हुए ऋतम्भरा प्रज्ञा और अनासक्त भूर्मा के मृदुल मनोरम तारों को झनझना रही है और अपनी अन्तःचेतना में वही दिव्य तत्व उभर रहे हैं। भगवान शंकर का डमरू बज रहा है। उससे प्रलय के—मरण संकेत आ रहे हैं और सुझाया जा रहा है कि इस नश्वर काया का अन्त करने वाला ताण्डव किसी भी क्षण सम्मुख आ सकता है इसलिए प्रमाद से न उलझा जाय, लक्ष की प्राप्ति में आलस्य एवं उपेक्षा भाव न बरता जाय। माया मोह छोड़कर यथार्थता को समझा जाय। शंखनाद की ध्वनि को महाभारत के पांचजन्य का महाकाल के भैरवनाद का—उद्घोष माना जाय और अनुभव किया जाय कि अब महाप्रयाण का ऐसा समय आ पहुंचा है जिसमें आनाकानी या सोच विचार करने की गुंजाइश नहीं है। युग की कर्तव्य की पुकार गूंज रही है और उभर रही है कि अविलम्ब जीवनोद्देश्य की दिशा में कदम बढ़ाया जाय। बिजली की कड़क-दावानल की धू-धू बादलों की गर्जन—समुद्र का तर्जन इस संकेत को लेकर आते हैं कि अपनी गतिविधियों का कायाकल्प होना ही चाहिए और उस उलट-पुलट में जो उफान प्रस्तुत होते हैं उनका सामना किया ही जाना चाहिए। कभी झिल्ली की झंकार कभी चिड़ियों की चहचहाट के शब्द सुनाई पड़ते हैं इन्हें छोटे जीवों द्वारा मानवी प्रमाद को हिला देने वाला उद्बोधन समझा जाय। जब इतने छोटे जीव अपने नियत-नियमित आनन्द बिखेरने वाले क्रिया-कलाप में निरत रहते हैं तो मनुष्य के लिए वह कैसे शोभनीय होगा कि वह जीवनोद्देश्य के साथ जुड़े हुए महान कर्तव्य का परित्याग करके मात्र पेट और प्रजनन के लिए जीवन सम्पदा को कौड़ी मोल गंवा देने की मूर्खता अपनाये?

नादयोग में कितने प्रकार की ध्वनियां सुनाई पड़ सकती हैं इनकी कोई सीमा नहीं। प्रायः परिचित ध्वनियां ही सुनाई पड़ती हैं सो सूक्ष्मदर्शी साधक उनके पीछे उच्च संकेतों को विवेक बुद्धि के द्वारा सहज संगति बिठा सकते हैं। कोयल की कूकन—मुर्गे की बांग—मयूर की पीक—सिंह की दहाड़—हाथी की चिंघाड़, शब्द सुनाई पड़ें तो उनमें इन प्राणियों को उच्चारण समय की मनःस्थिति की कल्पना करते हुए अपने लिए प्रेरक संकेतों का तालमेल बिठाया जा सकता है। कई बार रुदन, क्रंदन, हर्षोल्लास, अट्टहास, उच्छ्वास जैसी ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं उसे अपनी अन्तरात्मा का सन्तोष समझा जा सकता है। कुमार्गगामी गतिविधियों से असन्तोष और सत्प्रवृत्तियों का सन्तोष स्पष्ट है। आत्म निरीक्षण करते हुए आत्मा को समय-समय पर अपनी भली-बुरी गतिविधियों पर संतोष असन्तोष प्रकट करने के अवसर आते हैं इन्हीं की प्रतिध्वनि, हर्ष क्षोभ व्यक्त करने वाले स्वरों में सुनाई पड़ती रहती है। किस ध्वनि के पीछे क्या संकेत, संदेश, तथ्य हो सकता है उसे नादयोगी की सहज बुद्धि ही समयानुसार निर्णय करती चलती है। उसकी विस्तृत चर्चा यहां अभीष्ट नहीं। तथ्य इतना भर है कि इन दिव्य ध्वनियों में किसी न किसी स्तर की प्रेरणाएं होती है और उन सब का प्रयोजन एक ही रहता है कि हमें आत्मा की स्थिति से ऊपर उठकर उच्च भूमिका के लिए द्रुतगति से अग्रसर होना चाहिए—साहस पूर्ण कदम बढ़ाना चाहिए।

कानों के छिद्र बन्द करके अन्तर्गत को दिव्य ध्वनियां सुनने की साधना जब परिपक्व होने लगती है तो भावोत्कर्ष क्षेत्र से आगे बढ़ कर सुविस्तृत अन्तरिक्ष में संव्याप्त हलचलों को समझने का अवसर मिलता है। इस संसार को प्रभावित करने वाली अगणित बाह्य प्रेरणाओं के प्रवाह बहते रहते हैं। उनके स्पन्दन हमारी कर्णेन्द्रिय से शब्दरूप में टकराते हैं। उन्हें पहचानने और पकड़ने की सफलता, साधना में परिपक्वता आने के साथ-साथ सहज ही बढ़ने लगती है और यह प्रतीत होने लगता है कि सूक्ष्म जगत में क्या हो रहा है और क्या होने जा रहा है। किसी व्यक्ति विशेष क्षेत्र, देश अथवा लोक के सम्बन्ध में इस प्रकार की यही स्थिति का पूर्वाभास होने लगता है। अविज्ञात को ज्ञात स्तर पर उतारने में नादयोग की साधना बहुत ही उपयोगी एवं प्रभावशाली होती है। यों शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की किसी भी प्रक्रिया के आधार पर बनी हुई साधना पद्धति से भी वही प्रयोजन सिद्ध हो सकता है। पर नादयोग का इसी प्रयोजन के लिए अपना अत्यधिक महत्व है।

नाद संकेत वे सूत्र हैं जिनके सहारे परमात्मा के विभिन्न शक्ति स्रोतों के साथ हमारे आदान-प्रदान संभव हो सकते हैं। टेलीग्राम, टेलीफोन, वायरलैस, टेलीविजन पद्धतियों का आश्रय लेकर हम दूरवर्ती व्यक्तियों के साथ अनुभूतियों का आदान-प्रदान करते हैं।

कुंडलिनी महाविज्ञान नाद साधना की प्रशस्ति से भरा पड़ा है। स्थान-स्थान पर साधना विधान, महत्ता और फल श्रुति के श्लोक भरे पड़े हैं उससे इस साधना के प्रभावी स्वरूप का बोध होता है।

कुंडलिनी जागरण और नादयोग का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध बताते हुए कहा गया है—

कला कुण्डलिनी चैव नाद शक्ति समन्विता । —षट्चक्र निरूपण

कला कुण्डलिनी नाद शक्ति से संयुक्त है। कुण्डल्येव भवेच्छक्तिस्तां तु संचालयेत् वुधः । स्वश्थनादाभ्रुवोर्मध्यं, शक्तिचालन सुच्यते । —योग कुण्डयुपनिषद्

बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह उस सोयी हुई अपनी आत्म शक्ति को चैतन्य करे, गतिशील करे। मूलाधार से स्फूर्ति तरंग उठकर भ्रूमध्य में दिव्य नाद की अनुभूति (श्रवण) कराने लगे, तभी समझना चाहिए कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत-संचालित हो गई है।

श्री आदिनाथ के बतलाते हुए सवा करोड़ ‘लय’ के प्रकार सर्वोत्कर्ष से विद्यमान हैं, उन सब लयों में से नादानुसन्धान को ही मुख्य मानते हैं।

लये नादे यदा चित्तं रमते योगिनो भृशम् । विस्मृत्य सकले बाह्यं नादेन सह शाम्पति ।। —शिव सं.

अर्थ—जब योगी का चित्त उस नाद में निरन्तर रमण करेगा तब सब प्रकार के विषय से स्मरण रहित होकर चित्त समाधि में ‘लय’ हो जायगा।

नासनं सिद्धसदृशं न कुम्भसदृशं वलम् । न खेचरीसमा मुद्रा न सदृशो लयः ।। —शिव संहिता 5।45

सिद्धासन के समान कोई आसन नहीं, कुम्भक के समान कोई बन नहीं, खेचरी के समान मुद्रा नहीं और नाद के समान लय नहीं।

भगवान् शंकराचार्य ने भी ‘‘योग तारावली’’ में नाद-तत्व की प्रशंसा की है—

सदा शिवोक्तानि सपादलक्ष्य लयावधामानि वसन्ति लोके । नादानुसन्धान समाधिमेकं मन्यामहे मान्यरमं लयानाम् ।। भवत्प्रसादात् पवनेन साधं विलीयते विष्णुपदे मनो मे ।।

भगवान् शिव ने मन के लय के लिए सवा लक्ष साधनों का निर्देश किया है, परन्तु उन सब में नादानुसन्धान सुलभ और श्रेष्ठ है। हे नादानुसन्धान! आपको नमस्कार करता हूं। आप परम पद में स्थिति लाभ कराते हैं। आपकी कृपा से मेरे प्राण और मन दोनों विष्णु के परम पद में लीन हो जायेंगे।

न नादेन विना ज्ञानं न नादेन विना शिवः । नादरूपं परं ज्योतिर्नाद रूपी परो हरिः ।। —योग तरंगिन

नाद के बिना ज्ञान नहीं होता—नाद के बिना शिव नहीं मिलते, नाद के बिना ज्योति का दर्शन सम्भव नहीं, नाद ही परब्रह्म है।

हठयोग प्रदीपिका में नादयोग का महत्व एवं प्रतिफल बताते हुए उसे साधनाओं में अत्यन्त ऊंचा स्थान दिया है। निम्न श्लोक उसी के पृष्ठों से लिये गये हैं—

नादश्रवणतः क्षिप्रमन्तरङ्ग भुजङ्गमः । विस्मृत्य सर्वमेकाग्रः कुमचिन्न हि धावति ।। यह मन रूपी सर्प नाद को श्रवण करने से शीघ्र ही सम्पूर्ण संसार को भूलकर एकाग्र होकर फिर विषयों की तरह नहीं जाता है।

सदा नादानुसन्धानत्क्षोयन्ते पापसंचयाः । निरंजने विलीयते निश्चितं चित्तमारुतौ ।।

अर्थ—सदा नाद के अनुसन्धान करने से संचित पापों के समूह भी नष्ट हो जाते हैं और उसके अनन्तर निर्गुण एवं चैतन्य ब्रह्म में मन व प्राण दोनों निश्चय ही विलीन हो जाते हैं।

अभ्यस्यमानो नादोऽयं बाह्यमातृणुते ध्वनिम् । पक्षाद्विपक्षेपमखलं जित्वा योगी सुखी भवेत् ।। अर्थ—अभ्यास किया गया यह नाद बाहर की ध्वनि को भी ढक देता है, इस प्रकार एक पक्ष में ही योगी चित्त की समस्त चंचलता को जीत कर सुखी हो जाता है।

दिव्यदेहश्च तेजस्वी दिव्यगंधस्त्व रोगवान् । सम्पूर्णहृदयः शून्य आरम्भो योगवान्भवेत् ।। हृदयाकाश में दान के आरम्भ होने पर प्राण वायु से पूर्ण हृदय वाला योगी रूप, लावण्य आदि को से युक्त दिव्य देह वाला हो जाता है। वह प्रतापी हो जाता है और उसके शरीर से दिव्य गन्ध प्रकट हुआ करती है तथा वह योगी रोगों से भी रहित हो जाता है।

अन्तरङ्गस्य यमिनो वाजिनः पिरधायते । नादोपास्तिरतो नित्यमवधार्या हि योमिना ।। अर्थ—नादयोगी के मन रूपी घोड़ों के लिए अश्वशाला के दर्वाजा के अर्गला के समान हैं। इसलिए योगी को प्रतिदिन नाद की उपासना करनी चाहिए।

नादयोग के अभ्यास से मनोनिग्रह जैसा कठिन कार्य सरल हो जाता है। मन के एकाग्र होने पर योगाभ्यास की सफलता निर्भर है। चित्त की चंचलता ही साधना की प्रगति में प्रमुख बाधा है। नादानुसन्धान से यह बाधा सरलता पूर्वक हल हो जाती है।

नाद मेवानुसन्दध्यान्नादे चित्तं विलीयते । नादासक्तं सदा चित्तं विषय नहि कांक्षति ।। —नाद विन्दोपनिषद

नादानुसन्धान से चित्त शान्त हो जाता है। उस साधना में लगा हुआ चित्त विषयों की आकांक्षा नहीं करता।

नादयोग का अभ्यास कैसे करना चाहिए? इसका उत्तर देते हुए—शिव संहिता और हठयोग प्रदीपिका में दोनों कान, दोनों नेत्र एवं दोनों नासिका छिद्र बन्द करने की विधि बताई गई है। ऐसी दशा में सांस मुख से ही लिया जा सकता है। कहा गया है—

अंगुष्ठाभ्यामुखे श्रोत्रे तर्जनीभ्यां द्विलोचने । नासारन्ध्रे च मध्याभ्याम नासाभ्यां मुखं दृढ़म् ।। निरुध्य मारुतं योगी सदैव कुरुते भृशम् । तदा तत्क्षणमात्मानं ज्योति रूपं स पश्यति ।। —शिव सं.

अर्थ—दोनों हस्त अंगूठों से दोनों कर्ण बन्द करें और दोनों तर्जनी से दोनों नेत्रों को, दोनों मध्यमा अंगुलियों से, दोनों नासारन्ध्र को बन्द करें और दोनों अनामिका अंगुली और कनिष्ठा से मुख को बन्द करें। यदि इस प्रकार योगी वायु को निरोध करके इसका बारम्बार अभ्यास करे तो आत्मा ज्योति स्वरूप का हृदयाकाश में भान होता है।

कर्णैपिधाय हस्ताभ्या यं श्रृणोति ध्वनिं मुनिः । तत्र चित्तं स्थिरीकुर्याद्यावत्स्थिर पदं व्रजेत् ।। —हठयोग

अर्थ—मननशील योगी दोनों हाथों से दोनों कानों को बन्द कर जिस ध्वनि को सुनता है, जब तक स्थिर पद को प्राप्त न हो जाय, तब तक उस ध्वनि में चित्त को स्थिर करे। श्रवणपुटनयन युगल घ्राण मुखाना निकोधन । शुद्ध सुम्नासरणौ स्फुटममल श्रयते नादः ।। —हठयोग

अर्थ—दोनों कान, आंख, नासिका और मुख इन सबका निरोध करना चाहिए, तब शुद्ध सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग में शुद्ध नाद प्रगट रूप से सुनाई पड़ने लगता है। ‘योग रसायन’ में सभी छेद बन्द करने की आवश्यकता नहीं समझी गई। मात्र कान के छेद बन्द करने को ही कहा गया है कि यदि साधक चाहे तो छेदों को बीच-बीच में खोलता भी रह सकता है लगातार बन्द रखने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार एक दक्षिण कान से ही नाद श्रवण का भी परामर्श दिया गया है।

पद्मासानं समास्थाय स्वस्तिक वा यथा सुखम् । कर्णरंध्रयुगं पश्चादंगलिभ्यां निरोधयेत् ।। —योग रसायनम्

पद्मासन या स्वस्तिक आसन में सुखपूर्वक बैठकर दोनों कर्णरन्ध्रों को उंगलियों से बन्द कर लें।

कर्णयोस्त्वेकतानेन रोधनं नैव कारयेत् । त्यक्त्वात्यचत्वांगुलिमध्येनादाभ्यासं समाचरेत् ।। —योग रसायनम्

दोनों कानों को लगातार बन्द नहीं किये रहना चाहिए। उंगली बीच-बीच में छोड़ते रहकर नाद का अभ्यास करना चाहिए।

निमील्य नयने चित्त कृत्वैकाग्रमनन्यधीः । श्रृणुभाद्दक्षिणे कर्णे नादमंतमत शुभम् ।। —योग रसायनम

नयन निमीलित कर चित को एकाग्र कर अनन्य बुद्धि से दाहिने कान में शुभ नाद सुनना चाहिए।

श्रूयते प्रथामभ्यासे ध्वनिर्नादस्य मिश्रितः । ततोभ्यासे स्थिरी भूते श्रूयते तु पृथक्-पृथक् ।। —योग रसायनम

प्रथमतः अभ्यास के समय ध्वनि-नाद को मिश्रित रूप में ही सुनना चाहिए। जब अभ्यास दृढ़ हो जाय, तो पृथक्-पृथक् सुनना चाहिए।

नाद श्रवण की पूर्णता अनाहत ध्वनि की अनुभूति में मानी गई है। साधक अन्य दिव्य ध्वनियों को सुनते-सुनते अन्त में अनाहत लक्ष्य तक जा पहुंचता है।

ठीक इसी प्रकार ईश्वर के विभिन्न शक्ति केन्द्रों के साथ इस विभिन्न ध्वनियों के माध्यम से सम्बन्ध मिला सकते हैं और इस स्थिति पर पहुंच सकते हैं कि अपनी बात ईश्वर तक पहुंचा सकें और उसके उत्तर प्राप्त कर सकें। इतना ही नहीं यह ध्वनि प्रवाह सड़कों का—भार वाहनों का भी काम करते हैं। व्यक्ति की व्यथाएं लाद कर परमात्मा तक पहुंचाना और परमात्मा के अनुदान वरदान लाद कर व्यक्ति तक पहुंचाना भी इस ध्वनियों के माध्यम से संभव हो सकता है। सिद्ध पुरुष प्रायः ऐसे ही साधना माध्यमों के आधार पर अपने को परमेश्वर के साथ जोड़कर अभीष्ट आदान-प्रदान का लाभ प्राप्त करते हैं।

भावनाशील मनःस्थिति के लोग नादयोग जैसी सुकोमल ध्वनियां भाव संवेदनाओं के आधार पर सुन लेते हैं पर यह हर किसी के लिए आवश्यक अनिवार्य नहीं कि वह उस प्रकार का दिव्य श्रवण कर ही सके, किन्हीं-किन्हीं को बहुत करने पर भी ऐसी कुछ अनुभूतियां नहीं होतीं। उन्हें निराश होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं, वे अपनी अन्तः चेतना को प्रत्यक्ष ध्वनियों के सहारे नादयोग जैसी स्थिति में ही उद्वेलित कर सकते हैं।

विन्दुयोग की प्रारम्भिक साधना प्रकाश दीप के माध्यम से होती है। बराबर दीप शिखा देखने आंखें बन्द करने और भ्रूमध्य भाग में ध्यान जमाने की आवश्यकता पड़ती है जब वह भूमिका परिपक्व हो जाती है तो प्रकाश स्वतः दृष्टिगोचर होता है और दीपक की आवश्यकता नहीं रहती। ठीक इसी प्रकार बाहरी वाद्य यन्त्रों का सहारा लेकर नाद योग साधना क्रम आगे बढ़ाया जा सकता है टेप रिकॉर्डर पर संगीत ध्वनियां भरी रह सकती हैं और उन्हें अपने साधना कक्ष में सुनते हुए उपरोक्त अनुभूतियां जगाई जा सकती हैं। रिकार्ड प्लेयर पर कोई भाव भरे स्वर प्रवाह सुने जा सकते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि एक केन्द्र स्थान पर वाद्ययन्त्र बजते रहें और समीपवर्ती कक्षों में साधनारत साधक उनका श्रवण आनन्द लेते हुए नादयोग का क्रम चलाते रहें। स्वयं भी इकतारा, सितार, जैसे मृदुल वाद्ययन्त्र बजाते हुए उस स्थिति में आत्मविभोर हो सकते हैं। झींगुरों की झंकार, चिड़ियों की चह-चहचहाट सुनने का प्रकृति सान्निध्य मिल सके तो वह सहज वाद्य भी उपयुक्त रहेगा। इस प्रकार के वाह्य माध्यमों का आश्रय लेकर भी नादयोग की साधना हो सकती है और यदि भावना स्तर प्रखर रहे तो उनसे भी उतना ही लाभ मिल सकता है जितना कि कान के छेद बन्द करके अन्तः चेतना द्वारा दिव्य नाद सुनने से उपलब्ध होता है।

विभिन्न व्यक्तियों के मनः स्तर विभिन्न प्रकार के होते हैं। किन्हीं की कल्पना शीलता भावुकता बढ़ी-चढ़ी होती है और वे दिव्य रस, दिव्य स्पर्श का आनन्द अधिक कोमलता पूर्वक उठा सकते हैं पर किन्हीं का भाव स्तर काफी कठोर होता है उन्हें बहुत प्रयास करने पर भी ऐसा कुछ अनुभव नहीं होता। इसमें संरचना मात्र का अन्तर है। यह समझ बैठने का अवसर नहीं कि इनमें से आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में कौन सफल और कौन असफल रह रहा है।

साहसिकता और प्रखर चेतना का एक स्तर है जिसे धन विद्युत आवेशों से बनी मनोभूमि कह सकते हैं। दूसरी मनोभूमि ऋण आवेशों से बनी होती है उसमें भावुकता बढ़ी-चढ़ी होती है—संवेदनाएं बहुत उठती हैं और भावनात्मक अनुभूतियां सहज ही उठती रहती हैं और कई बार वे इतनी प्रबल होती हैं कि निष्ठा को प्रत्यक्ष मूर्तिमान बनने का सहज अवसर मिल जाता है। उन्हें कतिपय प्रकार की दिव्य अनुभूतियां निरन्तर होती रहती हैं। मृदुल और कठोर संरचनाओं का अपना-अपना महत्व है। पर प्रायः होता जन्मजात है। उसमें सुधार यत्किंचित् ही हो पाता है।

जिनकी मानसिक संरचना कोमल होगी उन्हें ध्यान धारणा के स्वल्प प्रयास ही बहुत कुछ अनुभव कराने लगेंगे किन्तु यदि संरचना कठोर हुई तो फिर कुछ अतिरिक्त अनुभव न हो सकेगा। इतना होने पर भी निराशा का कोई कारण नहीं। कठोर संरचना की स्थिति अपने ध्यान प्रयोजन स्थूल उपकरणों के माध्यम से जमानी चाहिए। दिव्य दर्शन का प्रयोजन मूर्तियों अथवा चित्रों को देखकर हो सकता है। दीप शिखा, सूर्य अथवा चन्द्र का आश्रय लेकर भी वही प्रयोजन पूरा हो सकता है। दिव्य गन्ध के लिए कपूर, चन्दन इत्र आदि का प्रयोग हो सकता है। दिव्य रस के लिए मुख में मिश्री या कोई मिठास जैसी गोली रखी जा सकती है। स्पर्श के लिए शीत या ताप के लिए ठण्डे घड़े या गरम अग्नि उपकरण का प्रयोग हो सकता है और नादयोग के लिए स्वयं इकतारा जैसा कोई वाद्य यन्त्र सीख कर अथवा टेपरिकॉर्डर आदि का उपयोग करके वह प्रयोजन पूरा किया जा सकता है।

वायु का दबाव हलका होने और प्रशान्त सागर के पानी में नमक की मात्रा अधिक रहने से उसमें ऊंची लहरें नहीं उठतीं, किन्तु अटलांटिक सागर की स्थिति इससे भिन्न है उसमें तूफानों की भरमार रहती है। कठोर मनःस्थिति की तुलना प्रशान्त महासागर से और कोमल स्थिति को अटलांटिक समतुल्य समझा जा सकता है। दोनों में किसी को श्रेष्ठ निकृष्ट नहीं ठहराया जा सकता है। दोनों की ही अपनी विशेषताएं हैं और दोनों को ही अपना महत्व प्रकट करने तथा प्रगति पथ पर अग्रसर होने का पूरा-पूरा अवसर है। साधना पद्धति उसके माध्यम उपकरण में यह हेर-फेर किया जा सकता है कि व्यक्ति की चेतना स्थिति को ध्यान में रखते हुए उसे अन्तर्मुखी अथवा बहिर्मुखी साधना प्रक्रिया अपनाने के लिए कहा जाय।

शब्द ब्रह्म की साधना के दो चरण

स्थूल जगत में चल रही ध्वनि धाराओं के लाभ हानि से विज्ञान के विद्यार्थी परिचित हैं कि अवांछनीय कोलाहल से अन्तरिक्ष कितना विक्षुब्ध होता है और उसका भयानक प्रभाव प्राणियों और पदार्थों पर किस प्रकार विपत्ति बरसाता है? बड़े शहरों और कारखानों से उत्पन्न कोलाहल के दुष्परिणामों को अब भली प्रकार समझा जाने लगा है और उसकी रोकथाम के लिए गम्भीर विचार हो रहा है। दूसरी ओर उपयोगी ध्वनियों का लाभ उठाने के लिए भी एक से एक बढ़े-चढ़े आविष्कारों की श्रृंखला सामने आ रही है। रेडियो जैसे उपकरणों से सम्वाद प्रेरणा आदि के कार्य लिये जा रहे हैं। इस प्रकार ध्वनियों को समझने, पकड़ने रोकने एवं प्रेषण के लिए भी भरपूर प्रयत्न हो रहे हैं। लाउडस्पीकर, टेपरिकॉर्डर जैसे यन्त्रों की भरमार होती चली जा रही है। संगीत के प्रभाव से मनुष्यों की शारीरिक मानसिक विकृतियों के उपचार होते हैं। उन से सुखद सम्वेदनाएं उभारने का काम लिया जाता है। इतना ही नहीं दुधारू पशुओं का दूध बढ़ाने—बागवानी एवं कृषि कार्य के क्षेत्र में अधिक अच्छी सफलताएं पाने के लिए लय और ताल बद्ध ध्वनि प्रवाहों का उत्साहवर्धक उपयोग हो रहा है। ध्वनि की शक्ति बारूद, भाप, बिजली, अणुशक्ति से अधिक ही आंकी गई है। प्रयत्नपूर्वक ऊर्जा उत्पन्न करना महंगा भी है और कष्ट साध्य भी। प्राकृतिक ऊर्जा जो ध्वनि प्रवाह के रूप में सर्वत्र संव्याप्त है उसको पकड़ने और उपयोग में लाने की आशा विज्ञान क्षेत्र में पुलकन उत्पन्न कर रही है। समझा जा रहा है कि इस क्षेत्र में जिस दिन विज्ञान को कुछ कहने लायक सफलता मिल सकेगी उस दिन वह अब की अपेक्षा असंख्य गुणी शक्ति का अधिपति बन जायगा।

यह तो हुई स्थूल जगत में चलने वाले ध्वनि प्रवाह की क्षमता एवं उपयोगिता की तनिक-सी झांकी। इसके ऊपर सूक्ष्म जगत है। चलने वाले ध्वनि प्रवाह और भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। यद्यपि वे मशीनों की पकड़ में नहीं आते तो भी उनके अस्तित्व को चेतनात्मक उपकरणों की सहायता से समझा जा सकता है। समझा ही नहीं उपयोग में भी लाया जा सकता है। यन्त्रों से तो अब तक परमाणु स्वरूप तक नहीं देखा जा सका। उसकी प्रतिक्रियाओं को देखते हुए उनका स्वरूप कल्पित किया गया है। कल्पना की यथार्थता इसलिए मान्य की गई कि परमाणु से शक्ति उत्पादन की सफलता ने उसके समर्थन में साखी प्रस्तुत करदी। सूक्ष्म जगत की ध्वनियों का विज्ञान भौतिक क्षेत्र की शब्द विद्या से कम नहीं अधिक ही महत्वपूर्ण है। शरीर से प्राण की क्षमता अधिक होने का तथ्य सर्वस्वीकृत है। स्थूल जगत की तुलना में सूक्ष्म जगत की गरिमा को भी ऐसी ही वरिष्ठता देनी होगी। ध्वनि प्रवाह के सम्बन्ध में भी यही बात है। श्रवणातीत ध्वनियां विज्ञान जगत में अपनी गरिमा का प्रभाव समझा चुकी हैं। मनुष्य उनसे सम्पर्क जोड़ने के लिए बेतरह लालायित भी हो रहा है। सूक्ष्म जगत की ध्वनि सम्वेदनाओं का महत्व श्रवणातीत ध्वनियों से उच्चस्तरीय है। भौतिक जगत की ध्वनियों से मात्र भौतिक प्रयोजन ही सिद्ध हो सकते हैं। सूक्ष्म जगत के ध्वनि प्रवाह यदि मनुष्य की समझ एवं पकड़ की सीमा में आ सके तो उसके चेतनात्मक लाभ प्रचुर मात्रा में उठाये जा सकते हैं।

तत्वज्ञानी महामनीषियों को मात्र धर्मोपदेशक नहीं मानना चाहिए। वे सूक्ष्म जगत के स्वरूप को समझने और उसके साथ सम्बन्ध जोड़कर अतीन्द्रिय ज्ञान विकसित करने के प्रयास में संलग्न रहे हैं। इस प्रकार उनकी योग साधना एवं तपश्चर्या को आत्म कल्याण और सूक्ष्म विज्ञान के अधिकरण का दुहरा प्रयास कहा जा सकता है। हमारे ऋषि ज्ञानी भी थे और विज्ञानी भी। उनकी साधनाएं आत्म-साक्षत्कार के लिए भी थीं और सूक्ष्म जगत में प्रवेश एवं अधिकार पाने के लिए भी। योग साधना के साथ स्वर्ग मुक्ति की भावनात्मक और ऋद्धि-सिद्धि की शक्ति परक सफलताएं जुड़ी हुई हैं।

योग साधनाओं में सूक्ष्म ध्वनि क्षेत्र से सम्पर्क बनाने और लाभ उठाने के दो प्रयोग होते हैं। शब्द विद्या की दो धाराएं मानी गई हैं, एक तो पकड़ने, समझने और उनके सहारे अविज्ञात सम्भावनाओं से परिचित रहने की है जिसे नादयोग कहा गया है। नादानुसंधान की महिमा योग शास्त्र में विस्तारपूर्वक बताई गई है। उनके सहारे सूक्ष्म जगत की हलचलों की जानकारी प्राप्त करने का लाभ बताया गया है। यह कहने-सुनने में छोटी किन्तु व्यवहार में बहुत बड़ी बात है। स्थूल जगत की वस्तु स्थिति से जो जितना परिचित है उसे उतना ही बड़ा ज्ञानवान कहा जाता है। इस जानकारी के आधार पर ही लोग विभिन्न क्षेत्रों में आशातीत सफलताएं पाते हैं। जिसकी जानकारियां जितनी सीमित हैं वे उतने ही पिछड़े समझे जाते और घाटे में रहते हैं। सूक्ष्म जगत की अद्भुत जानकारियों से परिचित रहने वाले नादयोगी अति महत्वपूर्ण वस्तु स्थिति समझ लेते हैं और उनके सहारे खतरों से बचने एवं अवसरों से लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं। यह लाभ वे अपने लिए भी लेते हैं और दूसरों का भी हित साधन करते हैं। नादयोग के सहारे देव तत्वों से—परब्रह्म से जो सीधा सम्बन्ध बनता है उसका अन्तःक्षेत्र के परिष्कार में कितना बड़ा योगदान मिलता है, यह अनुभव का विषय है। नादानुसंधान के प्रवीण अभ्यासी इस क्षेत्र में प्रवेश पाने से मिली सफलताओं से चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करते देखे गये हैं। नादयोग की—सूक्ष्म जगत की दिव्य ध्वनियों के साथ सम्पर्क बनाने की विद्या का महत्व बहुत ही है। इस विज्ञान का लाभ, स्वरूप एवं प्रयोग समझाते हुए ऋषियों ने बहुत कुछ कहा है।

नादबिन्दूपनिषद में वर्णन है—

ब्रह्म प्रवण सन्धानं नादो ज्योतिर्मय शिवः । स्वयमार्भवेतात्मा मेघापार्येऽशुमानिव ।। यत्र कुत्रापि वा नादे लगति प्रथमं मनः । तत्र तत्र स्थिरीभूत्वा तेन सार्ध विलीयते ।। सर्वचिन्ता समुत्सृज्य सर्वचेष्टा विवर्जितः । नाद मेवानुसन्दध्यान्नादे चित्तं विलीयते ।। नियामन समर्थोऽयं निनादो निशिताङ्कुशः । नादोऽन्तरंगसारंगबन्धने वागुरायते ।।

अर्थात् नादयोग ज्योतिर्मय शिव है। वेदात्मा है। अशुभों का निवृत्ति कर्त्ता है। जब दान के आधार पर मन स्थिर हो जाता है तो वह परमात्मा में विलीन हो जाता है। इसलिए समस्त चिन्ताओं और हलचलों से छुटकारा पाकर शान्तचित्त से नादानुसंधान करना चाहिए। इस प्रयास के फलस्वरूप जो दिव्य शब्द श्रवण की अनुभूतियां होती हैं उससे अन्तःक्षेत्र की दुर्बलताओं और विकृतियों की निवृत्ति होती है। दिव्य क्षमता जगती है।

वायवीय संहिता में नाद को शक्ति का उद्भव कर्त्ता बताते हुए कहा गया है—‘‘नादाच्छक्ति समुद्भवः’’। अन्तःकरण को निर्विषय बना लेने से उसकी दिव्य क्षमताएं उभरती हैं। मन को निर्विषय बनाने के लिए नादयोग का अभ्यास अतीव श्रेयस्कर सिद्ध होता है। कहा गया है—

मकरन्दं पिबन् भृङ्गों गन्ध नापेक्षते यथा । नादासक्तं तथा चित्तं विषया हि कांक्षते ।। —हठयोग

अर्थ—जिस प्रकार पुष्पों के मकरन्द को पान करने वाला भ्रमर दूसरे गन्ध को नहीं चाहता, उसी प्रकार नाद में आसक्त हुआ अन्तःकरण अन्य विषयों की अभिलाषा नहीं करता है।

शब्द की, नाद की, अनुभूति यदि ठीक तरह होने लगे तो उसके सत्परिणाम भौतिक और आत्मिक दोनों ही क्षेत्र के मनोरथों को पूरा करते हैं :— एकः शब्दः सम्यग्ज्ञातः सुष्टु प्रयुक्तः स्वर्गे लोके च काम धुग भवति । —श्रुति

एक ही शब्द की तात्विक अनुभूति हो जाने से समस्त मनोरथों की पूर्ति हो जाती है।

यह नादानुसंधान श्रवण पक्ष हुआ। शब्द विद्या का दूसरा पक्ष है—ध्वनि का अभीष्ट उद्देश्य के अनुरूप उत्पादन एवं प्रयोग। इसे मन्त्र योग कहते हैं। नादयोग से ग्रहण और मन्त्रयोग से प्रेषण की क्षमता उत्पन्न होती है। दोनों को मिला देने से ही एक ऐसा स्वर विज्ञान बनता है जो सूक्ष्म जगत की ध्वनि परिस्थितियों का उभय पक्षीय उपयोग कर सके। घरों में रहने वाले रेडियो यन्त्र मात्र ध्वनि को पकड़ते हैं। इससे एकांगी प्रयोजन पूरा होता है। टेलीफोन की तरह ग्रहण प्रेषण की उभय-पक्षी व्यवस्था जहां होती है वही पूर्णता मानी जा सकती है। नादयोग और मन्त्रयोग की दोनों ही धाराएं मिलकर शब्द ब्रह्म की समग्र क्षमता प्रस्तुत करती हैं। सुने जाने वाले प्रवाह को शब्द ब्रह्म और कहे जाने वाले को परब्रह्म की संज्ञा दी गई है—

आगमोक्तं विवेकाच्य द्विधा ज्ञान तथोच्यते । शब्द ब्रह्मा ऽऽगमय परं ब्रह्म विवेकजम् ।। —अग्निपुराण

एक शब्द ब्रह्म है दूसरा परब्रह्म। शास्त्र और प्रवचन से शब्द ब्रह्म और विवेक, मनन, चिन्तन से परब्रह्म की प्राप्ति होती है।

शब्द ब्रह्म, परब्रह्म भार्गेभ्यां शाश्वती तनु । —भागवत

शब्द ब्रह्म और परब्रह्म यह दोनों ही भगवान के नित्य और चिन्मय शरीर हैं।

तामेतां वाचं यथा धेनुं वत्सनोपसृज्य प्रत्तां दुहीतैवमेव देवा वाचं सर्वान् कामान् अदुह्रन् ।। —जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण

जिस प्रकार बछड़ा गाय का दूध पीता है उसी प्रकार देव पुरुष दिव्य वाणी का आश्रय लेकर समस्त कामनाएं पूर्ण करते हैं।

जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाङ्, नाड़ीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः । तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून्, हृदबलैर्धनुभि र्देवजूतैः ।। —अथर्व 5।18।8

आत्मबल रूपी धनुष, तप रूपी तीक्ष्ण बाण लेकर तप और मन्यु के सहारे जब यह तपस्वी ब्राह्मण मन्त्रशक्ति का प्रहार करते हैं तो अनात्म तत्वों को दूर से ही वेध कर रख देते हैं।

वाक्य सिद्धिर्द्विधा प्रोक्ता शापानुग्रह कारिका । —शक्ति पञ्चकम्

वाक् सिद्धि दो प्रकार की होती है एक शाप देने वाली दूसरी वरदान देने वाली।

यत् त आत्मनि तन्वां घोरमस्ति.... सर्व तद्वाचापहन्मो वयम् । अथर्व 1।18।3

तेरे शरीर में जो अनिष्ट हैं उन्हें मंत्रपूत वाणी से हम नष्ट करेंगे।

योग विभूति में शब्द साधना से प्राणियों को अविज्ञात अन्तःस्थिति का परिचय प्राप्त करने की सिद्धि मिलने का उल्लेख है कहा गया है :—

‘‘शब्दार्थ प्रत्ययानामित रेतराभ्यासात् संकरस्तम्प्रतिभाग संयनात् सर्व भूतरुत ज्ञानम् ।’’

अर्थात् शब्द के तत्व का अभ्यास करने से अभेद भाषता है और प्राणियों के शब्दों में निहित भावनाओं का ज्ञान होता है।

मन्त्राराधन में प्रयुक्त होने वाली वाणी मुख यन्त्र की हलचलों से उत्पन्न होने वाली शब्द शृंखला नहीं है। इतने भर से कुछ बड़ा प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता। कुछ न कुछ अण्ड-बण्ड उच्चारण तो जीभ दिन भर करती रहती है। उससे जानकारियों का आदान-प्रदान, विनोद मनोरंजन जैसे सामान्य कार्य ही बन पड़ते हैं। मन्त्र साधना जिह्वा संचालन द्वारा कुछ शब्दों की पुनरावृत्ति करने रहने भर से सम्भव नहीं हो सकतीं। उसके लिए परिष्कृत वाणी चाहिए, जिसे ‘वाक्’ कहते हैं। वाक् से शब्दोच्चार के कलेवर का उत्कृष्ट व्यक्तित्व और प्रचण्ड मनोबल जुड़ा रहता है। गहन श्रद्धा और पवित्र अन्तरात्मा के समन्वय की शक्ति ही मन्त्र की शब्द शृंखला में प्राण भरती है। और उसी के सहारे मंत्र का प्रहार शब्द वेध की—लक्ष्य वेध की भूमिका सम्पन्न करता है। इसी समन्वय से साधा हुआ शब्द ‘ब्रह्म’ शक्ति से सुसम्पन्न बनाता है।

मन्त्र शक्ति की महिमा ‘वाक्’ शक्ति पर निर्भर है। इस वाक् को स्वर भी कहते हैं—साम भी और सरस्वती भी। यदि इसे शुद्ध एवं सिद्ध कर लिया गया तो फिर मन्त्र के चमत्कार का प्रकट होना सुनिश्चित है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए मन्त्र से भी बढ़कर वाक् की प्रशंसा की गई है। कारण स्पष्ट है। परिष्कृत वाक् ही मन्त्रों की सार्थकता बताता है। भ्रष्ट वाणी से किये हुए मन्त्रानुष्ठानों को सफलता कहां मिलती है?

अस्थि वा ऋक् । —शतपथ 7।4।2।25 मन्त्र तो हड्डियां मात्र हैं। तथ्य को और भी स्पष्ट करते हुए कहा गया है—

वाक् वै विश्व कर्मर्षि वर्चाहीदं सर्व कृतम् । शतपथ

वाणी जब उच्चारण मात्र से ही सब कुछ उत्पन्न और सम्पन्न करती है और तब वह विश्वकर्मा ऋषि बन जाती है।

स यो वाचं ब्रह्मेत्वपास्ते यावद्वाचो गत तत्रास्य यथा कामचारी भावति । —छन्दोग्य

जो वाणी को ब्रह्म समझकर उपासना करता है उसकी वाणी की गति इच्छित क्षेत्र तक हो जाती है।

सक्तुमिवं तित्तउना उन्नतो, अत्र धीरा मनसा वाचमक्रत । अन्नासखायः सख्यानि जानते, खद्रैषा लक्ष्मी निहिताभि वाचि ।। —ऋग्वेद.

जिस तरह छलनी से सत्तू को शुद्ध करते हैं, उसी तरह जो विद्वान ज्ञान से वाणी को शुद्ध कर उसका प्रयोग करते हैं, वे लोक से भिन्न होते हैं। भिन्नता का सुख पाते हैं, उनकी वाणी में कल्याणमयी रमणीयता रहती है।

यह ‘वाक्’ शब्द श्रृंखला एवं ध्वनि प्रवाह भर न होकर साधन के व्यक्तित्व का प्रतिनिधि रहती है। इसलिए किसकी वाणी क्या काम करेगी इसका निश्चय करते समय उच्चारणकर्त्ता के व्यक्तित्व को देखना होता है।

कौषीतकि उपनिषद् में कहा गया है— न वाचं विजिज्ञासीत् । वक्तारं विद्यात् । वाणी के उच्चारण को मत देखो। उच्चारणकर्त्ता के व्यक्तित्व को समझो।

शब्द विद्या के दो आधार, दो साधन नादयोग और मन्त्र योग के नाम से प्रसिद्ध हैं। दोनों विधि-विधान और कर्मकाण्ड सुविदित, सर्वसुलभ और अभ्यास में अति सरल हैं। किन्तु उन्हें बहिरंग आवरण ही समझा जाना चाहिए। इनमें प्राण संचार जीवन साधना द्वारा उपार्जित की गई उत्कृष्ट अन्तःस्थिति से ही सम्भव होता है। मस्तिष्क में दुर्बुद्धि अचिन्त्य चिन्तन विकृत विचार प्रवाह का निराकरण करने से उत्पन्न हुई चित्त स्थिरता से नादानुसन्धान में सफलता मिलती है। व्यावहारिक जीवन में सत्कर्म परायणता—सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन एवं आदर्शवादी चरित्रनिष्ठा से उस वाक् शक्ति का उदय होता है जो मन्त्रों को लक्ष्य बेधी बाण की तरह सामर्थ्यवान बनाती है। साधना विधियां सरल हैं, कठिन तो वह प्रक्रिया है जिसमें क्रिया, विचारणा और भावना को परिष्कृत परिमार्जित करने के लिए निरन्तर आत्म संघर्ष करना पड़ता है। शब्द विद्या का लाभ उठाने के लिए उसके लिए उपयुक्त यन्त्र उपकरण अपना परिष्कृत व्यक्तित्व ही होता है। शब्द को शब्द-ब्रह्म बना सकना ऐसे ही व्यक्तित्व सम्पन्न साधकों के लिए सम्भव होता है।

शब्द ब्रह्म की साधना वाक् शक्ति से

शब्द को ब्रह्म कहा गया है। ‘शब्द ब्रह्म’—‘नाद ब्रह्म’ शब्दों का उपयोग शास्त्र में अनेकों स्थानों पर आया है। यह उक्ति अलंकार नहीं—वरन् यथार्थ है। हां, यदि ध्वनि मात्र को यह उपमा दी जायगी तो उसे उपहासास्पद समझा जायगा। जिह्वा स्वर यन्त्र है। वाद्य यन्त्र पर उलटी-सीधी अंगुलि से आघात लगाये जायं तो आवाज भर होगी। क्रमबद्ध, तालबद्ध, राग-रागिनी निकालनी हो तो उसके लिए सधे हाथ एवं प्रशिक्षित मस्तिष्क का भी योगदान आवश्यक है। जिह्वा से बोले गये मन्त्र वाद्य-यन्त्र पर जैसे-तैसे अंगुली चलाने की तरह हैं, उतने भर से दीपक राग या मेघ मल्हार जैसे प्रभावोत्पादक परिणामों की अपेक्षा नहीं की जा सकती। जिह्वा से उच्चरित शब्द सामान्यतया जानकारियों के आदान-प्रदान का उद्देश्य पूरा करते हैं। एक व्यक्ति शब्द माध्यम से अपनी अनुभूति एवं जानकारी दूसरे तक पहुंचा सकता है। इसमें भी आवश्यक नहीं कि जिससे जो कहा गया है वह उसे उसी रूप में स्वीकार कर ले। कारण कि आजकल वचन छल का दौर दौरा है। लोग एक दूसरे को ठगने की दृष्टि से कपट वचन बोलने की कला में प्रवीण हो चले हैं। अस्तु सुनने वाले को फूंक-फूंक कर कदम रखना होता है और देखना पड़ता है कि कथन में छल, प्रपंच की दुरभि सन्धियां तो घुसी हुई नहीं हैं। कितना कथन संदिग्ध हो सकता है, इसकी खोज करने में सुनने वाला लगता है। जितना अंश गले उतरता है, उतने पर ध्यान देकर शेष को फेंक देता है। जब सामान्य व्यवहार तक में वाणी की यह दुर्गति हो रही हो उच्चारण को अविश्वस्त और अप्रमाणिक मानने की परम्परा चल रही हो तो उससे व्यावहारिक आदान-प्रदान तक की आवश्यकताएं पूरी नहीं होतीं। फिर आध्यात्मिक प्रयोजन तो पूरे हो ही कैसे सकेंगे।

इस कठिनाई को ध्यान में रखते हुए ही मन्त्राराधन में ‘वाणी’ मात्र से सम्भव हो सकने वाले क्रिया-काण्डों को महत्व नहीं दिया गया है। जीभ से तो लोग आये दिन कथा, कीर्तन, भजन, पाठ, जप आदि के माध्यम से तरह-तरह के चित्र-विचित्र वचन बोलते रहते हैं। यदि उतने भर से धर्मचर्या के उद्देश्य पूरे हो जाया करते तो फिर सरलता की अति ही कही जाती। छोटे-छोटे लाभ प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कठोर श्रम करने, साधन जुटाने एवं मनोयोग लगाने की आवश्यकता पड़ती है तब कहीं आधी-अधूरी सफलता का योग बनता है। अध्यात्म क्षेत्र जितना उच्चस्तरीय है उतनी ही उसकी विभूतियां भी बहुमूल्य हैं। निश्चित रूप से उसके लिए प्रयास भी अपेक्षाकृत अधिक कष्ट साध्य ही होते हैं। यदि उतने बड़े लाभ मात्र जिह्वा से अमुक शब्दावली दुहरा देने भर से प्राप्त हो जाया करते तो उन्हें पाने से कोई भी वंचित न रहता, पर इतना सस्तापन है कहां?

महत्व की दृष्टि से हर वस्तु का मूल्य निर्धारित है। अध्यात्म उपलब्धियों में शब्द शक्ति की महत्ता बताई और महिमा गाई गई है। मन्त्राराधन के फलस्वरूप मिलने वाले लाभों का वर्णन विस्तारपूर्वक शास्त्रों में भरा पड़ा है, पर उसे शब्द चमत्कार भर नहीं मान लिया जाना चाहिए। यदि उच्चारण ही सब कुछ रहा होता तो साधन ग्रन्थ पढ़ने वालों से प्रेस कर्मचारी और पुस्तक विक्रेता पहले लाभान्वित हो लेते। पाठक को उनका बचा-खुचा ही शायद कुछ हाथ लगता। शब्दोच्चारण में जप के अति सरल कर्मकाण्ड के लिए थोड़ा-सा समय लगा देने में किसी को क्या कुछ असुविधा होगी? उतना तो कोई बालक-नासमझ या वृद्ध अशक्त भी कर सकता है; फिर समर्थ व्यक्ति तो उसे उत्साहपूर्वक करते और भरपूर लाभ उठाते? ऐसा कहां होता है? लाभों का महात्म्य विस्तार पढ़ते हुए भी कुछ करने के लिए कहां किसी का उत्साह होता है?

शब्द ब्रह्म- शब्द में जो गहन रहस्य छिपा है वह यह है कि अध्यात्म प्रयोजनों में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली को उच्चस्तरीय होना चाहिए। वह इतनी परिष्कृत हो कि उसकी पवित्रता, प्रामाणिकता एवं क्षमता को ईश्वर के समतुल्य ठहराया जा सके। इसके लिए कई लोग स्वर विन्यास की बात सोचते हैं और अनुमान लगाते हैं कि मन्त्रों में उच्चारण का जो स्वर क्रम बताया गया है, उसे जान लेने से काम बन जायगा। यह मान्यता भी तथ्य की दिशा में एक छोटा कदम भर ही है। इस चिन्तन में इतनी-सी ही जानकारी है कि हमारे क्रिया-कृत्यों को अनगढ़ नहीं—सुव्यवस्थित होना चाहिए। भले ही वह उच्चारण ही क्यों न हो? वाणी को शिष्टाचार-सन्तुलन-सभ्यता का अंग माना जाता है। जो ऐसे ही अण्ड-बण्ड बोलते रहते हैं असभ्य कहलाते और तिरस्कार के पात्र बनते हैं। ऐसी दशा में मन्त्र प्रयोजनों में यदि उनके साथ जुड़े हुए व्यवस्था नियमों का पालन किये जाने का निर्देश है तो उसका पालन होना ही चाहिए। इसमें सतर्कता एवं जागरूकता अपनाये जाने की बात दृष्टिगोचर होती है। यह दिशा उत्साहवर्धक है। इसमें प्रमाद पर अंकुश लगने और व्यवस्था अपनाने में उत्साह उत्पन्न होने का बोध होता है, यह उचित भी है और आशाजनक भी।

मन्त्रों का उच्चारण शुद्ध हो। सही हो। गति का ध्यान रहे। स्वर, लय, क्रम, विराम आदि को जाना माना जाय। यह अनगढ़पन से मन्त्राचार की सभ्यता में प्रवेश करने का कदम है। पूजा, उपचार के अन्य कर्मकाण्डों में भी यह सतर्कता बरतनी चाहिए। आलसी प्रमादियों की तरह आधी-अधूरी चिह्न पूजा करने की बेगार भुगत लेने से तो अश्रद्धा ही टपकती है। अन्यमनस्कता एवं उपेक्षापूर्वक किये गये नित्य कर्म तक बेतुके बेढंगे होते हैं, इस स्वभाव से जो आजीविका उपार्जन जैसे काम तक असफल जैसे बने रहते हैं, फिर अध्यात्म मार्ग की उपलब्धियों में तो उसका परिणाम अवरोध उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कुछ हो ही क्या सकता है?

उच्चारण से लेकर विधि-विधान तक में सुव्यवस्था एवं सतर्कता बरती जानी चाहिए किन्तु इतने भर से ही यह नहीं मान लेना चाहिए कि हमारे उच्चारण ‘मन्त्र’ बन गये और उन्हें शब्द ब्रह्म या नाद-ब्रह्म की संज्ञा मिल गई। इसके लिए वाणी का ‘वाक्’ के रूप में परिष्कृत करना होगा। यह स्वर साधना नहीं वरन् जीवन साधना के क्षेत्र में होने वाला प्रयोग है। इसके लिए समूचे व्यक्तित्व को—मन, वचन, कर्म को, गुण, कर्म स्वभाव को, चित्त एवं चरित्र को, उच्चस्तरीय बनाने के भागीरथ प्रयत्न में जुटाना होता है। मंत्रोच्चारण की विधि व्यवस्था कुछ घन्टों में सीधी जा सकती है—उसका परिपूर्ण अभ्यास कुछ दिनों में हो सकता है। किन्तु व्यक्तित्व की मूल सत्ता का स्तर ऊंचा उठाना काफी कठिन है। उसके लिए प्रबल पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। दूसरों को सुधारने में जितनी कठिनाई पड़ती है, अपने को सुधारना उससे भी अधिक कष्ट साध्य और श्रम साध्य है। जिह्वा उच्चारण तन्त्र है। अन्य वाद्य यन्त्रों की तरह उसका सही होना तो प्राथमिक आवश्यकता है। मन्त्र की शब्दावली शुद्ध हो। भाषा की अशुद्धियां न हों। प्रवाह एवं स्वर ठीक हो। इसके अतिरिक्त जिह्वा साधना की दृष्टि से सामान्य व्यवहार के उसके रसना प्रयोजन एवं वार्ताक्रम में साधकों जैसी रीति-नीति का समावेश किया जाय। अनीति की, हराम की कमाई न खाई जाय। परिश्रम और न्याय के सहारे जितना कुछ कमाया जा सके उतने में ही मितव्ययिता पूर्वक गुजारा किया जाय। चटोरेपन की बुरी आदत से लड़ा जाय और सात्विक सुपाच्य पदार्थों को औषधि भाव से उतनी ही मात्रा में लिया जाय जितनी कि पेट की आवश्यकता एवं क्षमता है। इस दृष्टिकोण को अपनाने वाले के लिए मद्य, मांस जैसी अभक्ष्यों को ग्रहण करने की तो बात ही क्या—उत्तेजक मसाले और नशीले पदार्थों—मिष्ठान्न, पकवानों तक से परहेज करने की जरूरत पड़ती है। अन्न का मन पर प्रभाव पड़ने की बात स्पष्ट है। सात्विक आहार से मनःक्षेत्र में सात्विकता बढ़ती है और उससे अनेकों दोष-दुर्गुण जो अभक्ष्य खाते रहने पर छूट नहीं सकते थे, अनायास ही घटते-मिटते चले जाते हैं। अस्वाद व्रत पालन करने वाले के लिए अन्य इन्द्रियों पर काबू रख सकना सरल हो जाता है। आहार को सात्विकता का वाणी की पवित्रता पर गहरा असर पड़ता है। अभक्ष्य आहार से जिह्वा की सूक्ष्म शक्ति नष्ट होती है और उसके द्वारा उच्चारित शब्द आध्यात्मिक प्रयोजन पूरे कर सकने की क्षमता से रहित ही बने रहते हैं। वाणी का दूसरा कार्य है वार्तालाप। हमारे दैनिक जीवन में वार्तालाप का स्तर उच्चस्तरीय एवं आदर्श परम्पराओं से युक्त होना चाहिए। कटुता, घृणा, तिरस्कार, छल, असत्य का पुट उसमें न रहे। दूसरों को भ्रम में डालने, कुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाले, हिम्मत तोड़ने वाले शब्द न बोले। यह नियन्त्रण मात्र सतर्कता बरतने से नहीं हो सकता है। उपचार में भी बार-बार भूल होती रहती है। वस्तुतः हमारे भीतर सद्भावों का इतना गहरा पुट हो कि वाणी पर नियन्त्रण करने की आवश्यकता ही न पड़े। जो भीतर होता है वही बाहर निकलता है। यदि हमारे अन्तःकरण में सद्भावनाएं भरी होंगी—दृष्टिकोण आदर्शवादी होगा तो स्वभावतः वार्तालाप में उच्चस्तरीय श्रेष्ठता भरी होगी। सद्भाव सम्पन्न मनुष्यों का सामान्य वार्तालाप भी शास्त्र वचन के स्तर का होता है उनके मुख से निकलने वाले वाक्य ‘आप्त वाक्य’ कहलाने योग्य होते हैं। इस प्रकार का वार्ता-अभ्यास जिह्वा को दैवी प्रयोजनों के उपयुक्त बनाता चला जाता है। उसके द्वारा जिन मन्त्रों की आराधना की जाती है वे सफल ही होते चले जाते हैं।

मन्त्र को धीमे जपा जाता है। शब्दावली अस्पष्ट एवं धीमी रहती है। बहुत बार तो वाचिक से भी अधिक महत्व मानसिक और उपांशु का होता है। उनमें तो वाणी नाम मात्र को ही होती है। किन्तु इन मौन जपों में भी मध्यमा, परा, पश्यन्ती, वाणियां काम करती रहती हैं। यह तीनों वाणियां मनुष्य के दृष्टिकोण, चरित्र एवं आकांक्षा से सम्बन्धित रहती हैं। यदि व्यक्ति ओछा, घटिया और दुष्ट है। उसकी आकांक्षाएं निकृष्ट, दृष्टिकोण विकृत एवं चरित्र भ्रष्ट है तो तीनों सूक्ष्म वाणियां निम्नस्तरीय ही बनी रहेगी और उनका समन्वय रहने में बैखरी वाणी तक प्रभावहीन, संदिग्ध एवं अप्रामाणिक बनी रहेगी, उसका सांसारिक उपयोग भी कोई महत्वपूर्ण परिणाम उत्पन्न न कर सकेगा फिर उसके द्वारा की गई मन्त्र साधना तो सफल हो ही कैसे सकती है?

मन्त्र जप की सरल विधि के साथ कठिन साधना यह है कि उसके लिए जिह्वा समेत समस्त उपकरणों का परिशोधन करना पड़ता है। जो तथ्य को समझते हैं वे साधनाओं के विधि-विधान तक सीमित न रह कर जीवन-प्रक्रिया को उच्चस्तरीय बनाने की सुविस्तृत रूपरेखा तैयार करते हैं। उस प्रयास में जिसे जितनी सफलता मिलेगी उसके जप तप उसी अनुपात में सफल होते देखे जा सकेंगे। शब्द ब्रह्म का साक्षात्कार इसी मार्ग पर चलने से सम्भव होता है। समूची आत्मसत्ता को परिष्कृत बनाने से वाणी की परिणिति ‘वाक्’ शक्ति में होती है। वाक् शक्ति का प्रभाव असीम है। उसकी सहायता से असम्भव को भी सम्भव किया जा सकता है।

शतपथ ब्राह्मण में शब्द ब्रह्म का विवेचन करते हुए कहा गया है—परावाक् उसका मर्मस्थल है। परा वाक् का रहस्योद्घाटन करते हुए बताया है—वह हृदयस्पर्शी है प्रसुप्त को जगाती है। स्वर्ग, मुक्ति और सिद्धि का आधार वही है। देवताओं के अनुग्रह वरदान का केन्द्र उसी में है। इस विश्व में जो कुछ श्रेष्ठता है वह वाक् की प्रतिध्वनि एवं प्रतिक्रिया ही समझी जानी चाहिए।

बैखरी वाणी जब साधना सम्पन्न होकर ‘‘वाक्’’ बनती है तो उसका विस्तार श्रवण क्षेत्र तक सीमित न हर कर तीनों लोकों की परिधि तक व्यापक होता है। वाणी में ध्वनि में अर्थ। किन्तु ‘वाक्’ शक्ति रूपा है। उसकी क्षमता का उपयोग करने पर वह सब जीता जा सकता है जो जीतने योग्य है।

कौत्स मुनि ने मन्त्र अक्षरों के अर्थ की उपेक्षा की है और कहा है कि उनकी क्षमता शब्द गुन्थन के आधार पर समझी जानी चाहिए। उसमें ‘वाक्’ तत्व ही प्रधान रूप से काम करता है। इस ‘परवाक्’ का स्तवन करते हुए श्रुति कहती हैं—

देवी वाचमजनयन्त देवास्तां, विश्वरूपाः पशवो वदन्ति । सा नो मंद्रेष्षमूर्ग दुहाना, धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुवैतु ।।

परावाक् देवी है। विश्व रूपिणी है। देवताओं की जननी है। देवता मन्त्रात्मक ही हैं। यही विज्ञान है। इस कामधेनु वाक् की शक्ति से हम जीवित हैं। उसी के कारण हम बोलते और जानते हैं।

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