
संगीत का प्रबल प्रभाव
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गायन को एक प्रकार का योगाभ्यास एवं वक्ष तथा कण्ठ संस्थान के समीपवर्ती अवयवों का महत्वपूर्ण व्यायाम माना गया है। भारतीय संगीत शास्त्र के आचार्यों के अनुसार गायन में आवाज नाभिकेन्द्र से उठती है ब्रह्मरंध्र तक पहुंचती है, तालु, कंठ, फुफ्फुस, हृदय, आमाशय, यकृत एवं आंतों को प्रभावित करती हुई—एक गति चक्र बनाती हुई पुनः अपने उद्गम स्थान नाभि तक पहुंचती है। यह गतिचक्र अपने प्रभाव क्षेत्र के सभी अवयवों का न केवल व्यायाम प्रयोजन पूरा करती है, वरन् उनमें प्राणवायु का अतिरिक्त अनुदान भी देती है।
यों मोटे तौर से यही प्रतीत होता है कि आवाज कंठ, तालु, जिह्वा, ओष्ठ आदि के सम्मिलित संचालन से निकलती है पर यह बात मात्र वार्तालाप के बारे में ही सत्य है। गायन में एक विशेष प्रकार के खिंचाव तनाव एवं उल्लास की जरूरत पड़ती है और वह एक स्नायु विद्युत के रूप में नाभि केन्द्र से उद्भूत होती है। उस उद्भव के साथ न केवल स्वर संधान होता है वरन् षट्चक्रों के-उपत्यिकाओं के त्रिविध ग्रन्थियों के सुप्त संस्थान भी जागृत होते हैं। इस प्रकार गायन न केवल गायक के लिए भावोद्दोलित करके आनन्दित करता है वरन् आन्तरिक अवयवों का व्यायाम होते रहने से उसके स्वास्थ्य संरक्षण एवं आन्तरिक दिव्य शक्तियों की प्रसुप्त स्थिति को जागरण में परिवर्तित करने का लाभ भी मिलता है। शरीर और मन को उभयपक्षी शक्ति प्रदान करने की जिस सरलता और अधिकता भरी क्षमता गायन में है उतनी और किसी में नहीं। भावनात्मक उल्लास के प्रभाव में उसके मानसिक तनावों एवं अवसादों का भी निवारण होता रहना है।
गायन की तीन लय हैं—द्रुत, विलम्बित, मध्यमाद्रुत अर्थात् तीव्र गति का गायन। इससे जीभ, कंठ, वक्ष और हृदय का विशेष व्यायाम होता है। विलम्बित—अर्थात् श्वर को खींच कर गाना। इसका प्रभाव स्वर वाहिनी नलिकाओं को खोलता और सुदृढ़ बनाता है। मध्यम एवं सामान्य गायन। इसी प्रतिक्रिया—स्नायु मण्डल नाड़ी संस्थान, हृदय एवं रक्त वाहनियों पर होती है। जिनके जो अवयव दुर्लभ हैं वे उसके अनुरूप लय चुनकर इस प्रकार से आन्तरिक अवयवों की सहज चिकित्सा कर सकते हैं। हास्यरस, वीररस, श्रृंगाररस, शान्तरस आदि नौ रस गायन के माने गये हैं, उनके लिये विशेष राग रागनियां और विशेष समय का निर्देश किया गया है। समय राग और रस इनके सम्मिश्रण से एक विशेष प्रकार का ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है और उससे अगणित मानसिक रोगों की चिकित्सा हो सकती है।
शरीर पांच तत्वों से बना माना जाता है। आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार उसकी गति विधियां बात, पित्त, कफ के अनुसार दबती उभरती रहती हैं। वायोकैमिक चिकित्सा से बारह नमक शरीर के संचालक और आयोग्य के आधार हैं। होम्योपैथी में विष तत्वों की विवेचना की गई है। क्रोमो पैथी (सूर्य चिकित्सा) में सात रंगों की न्यूनाधिकता स्वास्थ्य के सन्तुलन असन्तुलन का कारण है। स्वर शास्त्र के अनुसार कार्य कलेवर में सप्त सूक्ष्म नाद उठते रहते हैं। इन्हें जगत में सप्त स्वरों से पहचाना जाता है। सूक्ष्म स्वरूप के दबने उभरने से जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य असन्तुलन उत्पन्न होता है उसे स्वर विज्ञान के आधार पर उपयुक्त गायनों के विधान से सन्तुलित किया जा सकता है। ऋतुओं के अनुरूप विशिष्ठ गायनों के विधान में भी ऐसे ही रहस्य छिपे पड़े हैं। बसन्त ऋतु में बसन्त राग, वर्षा में मेघ मल्हार आदि के लिये संकेत है। जिस प्रकार प्रातःकाल प्रभात राग एवं भक्ति रस की उपयोगिता मानी गई है, उसी प्रकार दिन-रात के विभिन्न समयों में—विभिन्न राग एवं रस उपयोगी माने गये हैं यह व्यवस्था ऐसे ही मनमानी नहीं है। वरन् इसके पीछे शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य के महत्वपूर्ण आधारों का समावेश है।
सामान्यतया गायन को एक आकर्षक, मनोरंजन मात्र माना जाता है। पर यदि उसके सम्बन्ध में अधिक गहराई तक उतरा जाय तो प्रतीत होगा कि वह शारीरिक एवं मानसिक रोग निवारण एवं शक्ति संवर्धन का भी एक महत्वपूर्ण माध्यम है। विभिन्न रोगों में ग्रस्त व्यक्तियों को समय तथा कष्ट के अनुरूप गायन विद्या बताकर लाभान्वित किया जा सकता है। जिनका स्वास्थ्य साधारणतया ठीक है किन्तु हृदय, फुफ्फुस आदि विशेष अवयवों को परिपुष्ट करना हो तो उसके लिए भी गायनों का अवलम्बन लिया जा सकता है। खिलाड़ी एवं पहलवानों की सफलता हृदय एवं फुफ्फसों की बलिष्ठता पर निर्भय रहती है, यह प्रयोजन वे उपयुक्त गायन विधि अपनाकर पूरी कर सकते हैं।
गायन के अतिरिक्त वाद्य संगीत की अपनी महत्ता है। गायन जिन्हें नहीं आता वे वाद्य की ध्वनि लहरियों के सहारे उपयुक्त लाभ प्राप्त कर सकते हैं। यदि स्वयं बजाना आता हो तो उनके सहारे सिर, गर्दन, कन्धे, छाती, पेट आदि का उपयोगी व्यायाम हो सकता है। क्रमबद्ध और तालबद्ध क्रिया कलाप से उत्पन्न होने वाली शक्ति धाराओं के सम्बन्ध में जिन्होंने पढ़ा सुना है वे सहज ही यह समझ सकते हैं कि वाद्य यंत्र बजाने के साथ साथ जो ताल क्रम चलता है उसके कैसे उपयोगी स्पन्दन उठते हैं ओर उससे किस प्रकार मनुष्य लाभान्वित होता है। बांसुरी शहनाई प्रभृति बाजे तो एक प्रका
र से गायन द्वारा प्राप्त हो सकने वाले लाभों की ही आवश्यकता पूरी करते हैं। जो लाभ गायन का है वह मुंह से बजाये जाने वाले बाजे भी दें सकते हैं। गायन और वाद्य यदि स्वर शास्त्र के अनुरूप हों तो उसका सुनने वालों पर उपयोगी प्रभाव पड़ता है। जो न गाना जानते हैं न बजाना वे अपनी शारीरिक मानसिक स्थिति के अनुरूप स्वर लहरी उपयुक्त मात्रा में सुनकर भी बहुत हद तक लाभान्वित हो सकते हैं। संगीत के सम्बन्ध में यदि आवश्यक शोध की जाय तो उससे शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य के अभिवर्द्धन में बहुत सहायता ली जा सकती है। इस प्रकार के प्रयोग योरोप एवं अमेरिका के वैज्ञानिक कर भी रहे हैं और उन्हें आशाजनक सफलता भी मिली है। दुधारू पशुओं को दुहते समय अमुक ध्वनि का संगीत सुनाकर अधिक दूध प्राप्त करने में बहुत सहायता मिली है। मानसिक रोगियों पर भी संगीत से आश्चर्य जनक लाभकारी प्रभाव होने का निष्कर्ष सामने आया है। पेड़-पौधों की उन्नति में भी संगीत की प्रभावी शक्ति सिद्ध हुई है। अन्ना मलय विश्व विद्यालय के वनस्पति विज्ञानी डा. टी.सी.एन. सिंह ने अपने प्रयोगों से यह सिद्ध किया है कि ध्वनि तरंगों द्वारा पेड़ पौधों की—फसलों की उन्नति में आशा जनक सहायता मिल सकती है। अमेरिका संगीत चिकित्सक डा. हार्ल्स एस्टले ने अपनी उस प्रक्रिया को अधिक व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया है। उनने लगातार बीस वर्ष इसी पद्धति से चिकित्सा की है और बताया है कि ऐलोपैथी द्वारा रोग मुक्त होने वालों की अपेक्षा संगीत उपचार से अच्छे होने वालों का अनुपात कहीं अधिक है। विशेषतया मानसिक रोगों में तो वह अचूक काम करती है। मांस पेशियों और नाड़ी संस्थान की गड़बड़ी तो निश्चित रूप से अन्य उपायों की अपेक्षा संगीत द्वारा अधिक सफलता पूर्वक और अधिक जल्दी अच्छी की जा सकती है।
पूर्व जर्मनी के गोटिंगमन नगर के संगीत द्वारा चिकित्सा करने वाले जौहान्म शूमिलिन ने अपने प्रयोगों और अनुसंधानों से यह सिद्ध किया है कि मनुष्यों की तरह ही बीमार पशुओं को भी संगीत उपचार से रोग मुक्त किया जा सकता है। उन्होंने अनुभवों और परीक्षणों का विस्तृत विवरण प्रकाशित करते हुए यह बताया है कि किस प्रकार बिना दवा-दारू के कितने कष्ट साध्य रोगों से ग्रस्त मनुष्यों ने ही नहीं वरन् पशुओं ने भी रुग्णता से छुटकारा पाया।
चिकित्सा शास्त्र के साथ-साथ भूतकाल में विभिन्न प्रकार से संगीत का उपयोग होता रहा है। मिस्र के चिकित्सक दवा-दारू करने के अतिरिक्त संगीतमय मंत्रों का भी उच्चारण करते थे। अफ्रीका के वन्य प्रदेशों की आदिवासी जातियां विशेष प्रकार की ध्वनियां मुख से उच्चारण करके विभिन्न रोगों का उपचार करने में दक्ष रही है। डेविट हार्प नामक संगीतकार सम्राट साँल को असाध्य रोग से मुक्त करने में अपनी वाद्यकला को पूर्णतया सफल सिद्ध कर चुका है। होमर के अनुसार यूलीसेस को प्राण घातक रोग से संगीत उपचार से ही मुक्ति मिली थी।
इटालियन नृत्य ‘टैरेनटेला’ के बारे में प्रसिद्ध है कि जब वह नृतृय आरम्भ होता है तो दर्शक आवेश में आ जाते हैं और वे स्वयं भी अपनी मान मर्यादा को छोड़कर नृत्य करने लगते हैं। इस नृत्य में विशेष प्रकार के संगीत की ही प्रधानता रहती है।
मानसोपचार में अब संगीत ध्वनि प्रवाह को बहुत महत्व दिया जाने लगा है। पाश्चात्य देशों के प्रायः सभी मानसिक रोगों के अस्पतालों में इस प्रकार का प्रबन्ध है कि विभिन्न स्तर के पागलों एवं सनकियों को विशेष प्रकार की संगीत ध्वनियों से भाव विभोर कर दिया जाय। इससे उनका उन्माद घटता है और मनःस्थिति में आशाजनक सुधार होता है। दन्त चिकित्सकों ने भी अब इस पद्धति को अपने व्यवसाय में उपयोग करना आरम्भ किया है। दांत उखाड़ने इंजेक्शन लगाने एवं आपरेशन करने की कठिन घड़ियों में संगीत उनका मानसिक स्तर संतुलित बनाये रहता है और दन्त चिकित्सा के कठिन क्षण सहज ही निकल जाते हैं।
संगीत की विशेष प्रकार की ध्वनि तरंगों के साथ नृत्य मुद्रायें मिलकर सोना सुगन्ध के सम्मिश्रण जैसा प्रभाव उत्पन्न करती है। घुंघरुओं की पायलों की झकारें, नृत्य प्रवाह में थिरकते हुए चरण जब विशेष प्रकार की संगीत लहरियों के साथ लहराती हैं तो उससे नर्तक ही नहीं दर्शक भी किसी अति मानवी लोक में विचरण करते हुए पाते हैं। उस भाव विभोरता की स्थिति में मन पर जमे हुए तनावों का भार सहज ही हलका होता है। और उलझी हुई मनःस्थिति सहज ही सुलझने लगती है। यों नृत्य का एक स्वतंत्र शास्त्र भी है पर वस्तुतः वह संगीत के साथ ही जुड़ा हुआ है। यों गायन और वाद्य व्याकरण और साहित्य की तरह दो अलग-अलग पक्ष भी हैं फिर भी उन्हें परस्पर सम्बद्ध एवं पूरक ही माना जाता है। सो शृंखला की तीसरी कड़ी नृत्य भी है। यह समन्वय एक विशेष प्रकार के ऐसे प्राणायाम का सृजन करता है जो जीवन में उल्लास भरी परिस्थितियां उत्पन्न करता है। आमतौर से गायक, वादक और नर्तक स्वस्थ ही नहीं प्रफुल्लित, स्फूर्तिवान, सुकोमल एवं सुरम्य मनोहर भी होते हैं।
युद्धों में संगीत का सदा से प्रयोग होता रहा है। सैनिकों में शौर्य, साहस एवम् लड़ने का उत्साह पराक्रम जगाने में वाद्यों की पयागता सदैव स्वीकार की जाती रही है। महाभारत के सूत्रधार भगवान कृष्ण ने स्वयं पांच-जय शंख बजाकर युद्ध उद्घोष किया था। बिगुल, नगाड़े, भेरी, मृदंग, बीन, झांझ जैसे बाजों के उपयोग का वर्णन युद्ध इतिहासों में मिलता है। वर्तमान शताब्दी की इस दिशा में और भी अधिक प्रगति हुई है। युद्ध वाद्यों की शृंखला में ऐसे बाजे विनिर्मित हुए हैं जो भयभीत और कायरों की नसों में भी मरने मारने का आवेश भर सकें।
इतना ही नहीं, शत्रु पक्ष के सैनिक में निराशा, शिथिलता एवं ग्रस्तता उत्पन्न करने वाली ध्वनि लहरियां भी उत्पन्न की गई हैं। उनसे प्रतिपक्षी को परास्त करने में एक सीमा तक अच्छी सफलता मिली है। युद्ध बन्दियों के बीच ऐसी ध्वनियां बजाई जाती हैं जिससे वे भविष्य में युद्ध करने योग्य ही न रह जाएं और उनसे किसी पराक्रम की आशा न की जाय।
यों मोटे तौर से यही प्रतीत होता है कि आवाज कंठ, तालु, जिह्वा, ओष्ठ आदि के सम्मिलित संचालन से निकलती है पर यह बात मात्र वार्तालाप के बारे में ही सत्य है। गायन में एक विशेष प्रकार के खिंचाव तनाव एवं उल्लास की जरूरत पड़ती है और वह एक स्नायु विद्युत के रूप में नाभि केन्द्र से उद्भूत होती है। उस उद्भव के साथ न केवल स्वर संधान होता है वरन् षट्चक्रों के-उपत्यिकाओं के त्रिविध ग्रन्थियों के सुप्त संस्थान भी जागृत होते हैं। इस प्रकार गायन न केवल गायक के लिए भावोद्दोलित करके आनन्दित करता है वरन् आन्तरिक अवयवों का व्यायाम होते रहने से उसके स्वास्थ्य संरक्षण एवं आन्तरिक दिव्य शक्तियों की प्रसुप्त स्थिति को जागरण में परिवर्तित करने का लाभ भी मिलता है। शरीर और मन को उभयपक्षी शक्ति प्रदान करने की जिस सरलता और अधिकता भरी क्षमता गायन में है उतनी और किसी में नहीं। भावनात्मक उल्लास के प्रभाव में उसके मानसिक तनावों एवं अवसादों का भी निवारण होता रहना है।
गायन की तीन लय हैं—द्रुत, विलम्बित, मध्यमाद्रुत अर्थात् तीव्र गति का गायन। इससे जीभ, कंठ, वक्ष और हृदय का विशेष व्यायाम होता है। विलम्बित—अर्थात् श्वर को खींच कर गाना। इसका प्रभाव स्वर वाहिनी नलिकाओं को खोलता और सुदृढ़ बनाता है। मध्यम एवं सामान्य गायन। इसी प्रतिक्रिया—स्नायु मण्डल नाड़ी संस्थान, हृदय एवं रक्त वाहनियों पर होती है। जिनके जो अवयव दुर्लभ हैं वे उसके अनुरूप लय चुनकर इस प्रकार से आन्तरिक अवयवों की सहज चिकित्सा कर सकते हैं। हास्यरस, वीररस, श्रृंगाररस, शान्तरस आदि नौ रस गायन के माने गये हैं, उनके लिये विशेष राग रागनियां और विशेष समय का निर्देश किया गया है। समय राग और रस इनके सम्मिश्रण से एक विशेष प्रकार का ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है और उससे अगणित मानसिक रोगों की चिकित्सा हो सकती है।
शरीर पांच तत्वों से बना माना जाता है। आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार उसकी गति विधियां बात, पित्त, कफ के अनुसार दबती उभरती रहती हैं। वायोकैमिक चिकित्सा से बारह नमक शरीर के संचालक और आयोग्य के आधार हैं। होम्योपैथी में विष तत्वों की विवेचना की गई है। क्रोमो पैथी (सूर्य चिकित्सा) में सात रंगों की न्यूनाधिकता स्वास्थ्य के सन्तुलन असन्तुलन का कारण है। स्वर शास्त्र के अनुसार कार्य कलेवर में सप्त सूक्ष्म नाद उठते रहते हैं। इन्हें जगत में सप्त स्वरों से पहचाना जाता है। सूक्ष्म स्वरूप के दबने उभरने से जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य असन्तुलन उत्पन्न होता है उसे स्वर विज्ञान के आधार पर उपयुक्त गायनों के विधान से सन्तुलित किया जा सकता है। ऋतुओं के अनुरूप विशिष्ठ गायनों के विधान में भी ऐसे ही रहस्य छिपे पड़े हैं। बसन्त ऋतु में बसन्त राग, वर्षा में मेघ मल्हार आदि के लिये संकेत है। जिस प्रकार प्रातःकाल प्रभात राग एवं भक्ति रस की उपयोगिता मानी गई है, उसी प्रकार दिन-रात के विभिन्न समयों में—विभिन्न राग एवं रस उपयोगी माने गये हैं यह व्यवस्था ऐसे ही मनमानी नहीं है। वरन् इसके पीछे शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य के महत्वपूर्ण आधारों का समावेश है।
सामान्यतया गायन को एक आकर्षक, मनोरंजन मात्र माना जाता है। पर यदि उसके सम्बन्ध में अधिक गहराई तक उतरा जाय तो प्रतीत होगा कि वह शारीरिक एवं मानसिक रोग निवारण एवं शक्ति संवर्धन का भी एक महत्वपूर्ण माध्यम है। विभिन्न रोगों में ग्रस्त व्यक्तियों को समय तथा कष्ट के अनुरूप गायन विद्या बताकर लाभान्वित किया जा सकता है। जिनका स्वास्थ्य साधारणतया ठीक है किन्तु हृदय, फुफ्फुस आदि विशेष अवयवों को परिपुष्ट करना हो तो उसके लिए भी गायनों का अवलम्बन लिया जा सकता है। खिलाड़ी एवं पहलवानों की सफलता हृदय एवं फुफ्फसों की बलिष्ठता पर निर्भय रहती है, यह प्रयोजन वे उपयुक्त गायन विधि अपनाकर पूरी कर सकते हैं।
गायन के अतिरिक्त वाद्य संगीत की अपनी महत्ता है। गायन जिन्हें नहीं आता वे वाद्य की ध्वनि लहरियों के सहारे उपयुक्त लाभ प्राप्त कर सकते हैं। यदि स्वयं बजाना आता हो तो उनके सहारे सिर, गर्दन, कन्धे, छाती, पेट आदि का उपयोगी व्यायाम हो सकता है। क्रमबद्ध और तालबद्ध क्रिया कलाप से उत्पन्न होने वाली शक्ति धाराओं के सम्बन्ध में जिन्होंने पढ़ा सुना है वे सहज ही यह समझ सकते हैं कि वाद्य यंत्र बजाने के साथ साथ जो ताल क्रम चलता है उसके कैसे उपयोगी स्पन्दन उठते हैं ओर उससे किस प्रकार मनुष्य लाभान्वित होता है। बांसुरी शहनाई प्रभृति बाजे तो एक प्रका
र से गायन द्वारा प्राप्त हो सकने वाले लाभों की ही आवश्यकता पूरी करते हैं। जो लाभ गायन का है वह मुंह से बजाये जाने वाले बाजे भी दें सकते हैं। गायन और वाद्य यदि स्वर शास्त्र के अनुरूप हों तो उसका सुनने वालों पर उपयोगी प्रभाव पड़ता है। जो न गाना जानते हैं न बजाना वे अपनी शारीरिक मानसिक स्थिति के अनुरूप स्वर लहरी उपयुक्त मात्रा में सुनकर भी बहुत हद तक लाभान्वित हो सकते हैं। संगीत के सम्बन्ध में यदि आवश्यक शोध की जाय तो उससे शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य के अभिवर्द्धन में बहुत सहायता ली जा सकती है। इस प्रकार के प्रयोग योरोप एवं अमेरिका के वैज्ञानिक कर भी रहे हैं और उन्हें आशाजनक सफलता भी मिली है। दुधारू पशुओं को दुहते समय अमुक ध्वनि का संगीत सुनाकर अधिक दूध प्राप्त करने में बहुत सहायता मिली है। मानसिक रोगियों पर भी संगीत से आश्चर्य जनक लाभकारी प्रभाव होने का निष्कर्ष सामने आया है। पेड़-पौधों की उन्नति में भी संगीत की प्रभावी शक्ति सिद्ध हुई है। अन्ना मलय विश्व विद्यालय के वनस्पति विज्ञानी डा. टी.सी.एन. सिंह ने अपने प्रयोगों से यह सिद्ध किया है कि ध्वनि तरंगों द्वारा पेड़ पौधों की—फसलों की उन्नति में आशा जनक सहायता मिल सकती है। अमेरिका संगीत चिकित्सक डा. हार्ल्स एस्टले ने अपनी उस प्रक्रिया को अधिक व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया है। उनने लगातार बीस वर्ष इसी पद्धति से चिकित्सा की है और बताया है कि ऐलोपैथी द्वारा रोग मुक्त होने वालों की अपेक्षा संगीत उपचार से अच्छे होने वालों का अनुपात कहीं अधिक है। विशेषतया मानसिक रोगों में तो वह अचूक काम करती है। मांस पेशियों और नाड़ी संस्थान की गड़बड़ी तो निश्चित रूप से अन्य उपायों की अपेक्षा संगीत द्वारा अधिक सफलता पूर्वक और अधिक जल्दी अच्छी की जा सकती है।
पूर्व जर्मनी के गोटिंगमन नगर के संगीत द्वारा चिकित्सा करने वाले जौहान्म शूमिलिन ने अपने प्रयोगों और अनुसंधानों से यह सिद्ध किया है कि मनुष्यों की तरह ही बीमार पशुओं को भी संगीत उपचार से रोग मुक्त किया जा सकता है। उन्होंने अनुभवों और परीक्षणों का विस्तृत विवरण प्रकाशित करते हुए यह बताया है कि किस प्रकार बिना दवा-दारू के कितने कष्ट साध्य रोगों से ग्रस्त मनुष्यों ने ही नहीं वरन् पशुओं ने भी रुग्णता से छुटकारा पाया।
चिकित्सा शास्त्र के साथ-साथ भूतकाल में विभिन्न प्रकार से संगीत का उपयोग होता रहा है। मिस्र के चिकित्सक दवा-दारू करने के अतिरिक्त संगीतमय मंत्रों का भी उच्चारण करते थे। अफ्रीका के वन्य प्रदेशों की आदिवासी जातियां विशेष प्रकार की ध्वनियां मुख से उच्चारण करके विभिन्न रोगों का उपचार करने में दक्ष रही है। डेविट हार्प नामक संगीतकार सम्राट साँल को असाध्य रोग से मुक्त करने में अपनी वाद्यकला को पूर्णतया सफल सिद्ध कर चुका है। होमर के अनुसार यूलीसेस को प्राण घातक रोग से संगीत उपचार से ही मुक्ति मिली थी।
इटालियन नृत्य ‘टैरेनटेला’ के बारे में प्रसिद्ध है कि जब वह नृतृय आरम्भ होता है तो दर्शक आवेश में आ जाते हैं और वे स्वयं भी अपनी मान मर्यादा को छोड़कर नृत्य करने लगते हैं। इस नृत्य में विशेष प्रकार के संगीत की ही प्रधानता रहती है।
मानसोपचार में अब संगीत ध्वनि प्रवाह को बहुत महत्व दिया जाने लगा है। पाश्चात्य देशों के प्रायः सभी मानसिक रोगों के अस्पतालों में इस प्रकार का प्रबन्ध है कि विभिन्न स्तर के पागलों एवं सनकियों को विशेष प्रकार की संगीत ध्वनियों से भाव विभोर कर दिया जाय। इससे उनका उन्माद घटता है और मनःस्थिति में आशाजनक सुधार होता है। दन्त चिकित्सकों ने भी अब इस पद्धति को अपने व्यवसाय में उपयोग करना आरम्भ किया है। दांत उखाड़ने इंजेक्शन लगाने एवं आपरेशन करने की कठिन घड़ियों में संगीत उनका मानसिक स्तर संतुलित बनाये रहता है और दन्त चिकित्सा के कठिन क्षण सहज ही निकल जाते हैं।
संगीत की विशेष प्रकार की ध्वनि तरंगों के साथ नृत्य मुद्रायें मिलकर सोना सुगन्ध के सम्मिश्रण जैसा प्रभाव उत्पन्न करती है। घुंघरुओं की पायलों की झकारें, नृत्य प्रवाह में थिरकते हुए चरण जब विशेष प्रकार की संगीत लहरियों के साथ लहराती हैं तो उससे नर्तक ही नहीं दर्शक भी किसी अति मानवी लोक में विचरण करते हुए पाते हैं। उस भाव विभोरता की स्थिति में मन पर जमे हुए तनावों का भार सहज ही हलका होता है। और उलझी हुई मनःस्थिति सहज ही सुलझने लगती है। यों नृत्य का एक स्वतंत्र शास्त्र भी है पर वस्तुतः वह संगीत के साथ ही जुड़ा हुआ है। यों गायन और वाद्य व्याकरण और साहित्य की तरह दो अलग-अलग पक्ष भी हैं फिर भी उन्हें परस्पर सम्बद्ध एवं पूरक ही माना जाता है। सो शृंखला की तीसरी कड़ी नृत्य भी है। यह समन्वय एक विशेष प्रकार के ऐसे प्राणायाम का सृजन करता है जो जीवन में उल्लास भरी परिस्थितियां उत्पन्न करता है। आमतौर से गायक, वादक और नर्तक स्वस्थ ही नहीं प्रफुल्लित, स्फूर्तिवान, सुकोमल एवं सुरम्य मनोहर भी होते हैं।
युद्धों में संगीत का सदा से प्रयोग होता रहा है। सैनिकों में शौर्य, साहस एवम् लड़ने का उत्साह पराक्रम जगाने में वाद्यों की पयागता सदैव स्वीकार की जाती रही है। महाभारत के सूत्रधार भगवान कृष्ण ने स्वयं पांच-जय शंख बजाकर युद्ध उद्घोष किया था। बिगुल, नगाड़े, भेरी, मृदंग, बीन, झांझ जैसे बाजों के उपयोग का वर्णन युद्ध इतिहासों में मिलता है। वर्तमान शताब्दी की इस दिशा में और भी अधिक प्रगति हुई है। युद्ध वाद्यों की शृंखला में ऐसे बाजे विनिर्मित हुए हैं जो भयभीत और कायरों की नसों में भी मरने मारने का आवेश भर सकें।
इतना ही नहीं, शत्रु पक्ष के सैनिक में निराशा, शिथिलता एवं ग्रस्तता उत्पन्न करने वाली ध्वनि लहरियां भी उत्पन्न की गई हैं। उनसे प्रतिपक्षी को परास्त करने में एक सीमा तक अच्छी सफलता मिली है। युद्ध बन्दियों के बीच ऐसी ध्वनियां बजाई जाती हैं जिससे वे भविष्य में युद्ध करने योग्य ही न रह जाएं और उनसे किसी पराक्रम की आशा न की जाय।