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Books - युगगीता (भाग-४)

Media: TEXT
Language: EN
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कैसे आए यह चंचल मन काबू में?

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First 16 18 Last
विगत कड़ी में इस महत्त्वपूर्ण अध्याय के बत्तीसवें श्लोक का हमने बड़ी गहराई से मंथन किया। भगवान इसके पूर्व कह चुके हैं कि जो एकत्व में स्थित होकर सब प्राणियों में स्थित मेरी उपासना करता है, वह योगी वर्तमान में रहते हुए भी- सभी प्रकार का निर्वाह करते हुए मुझ में ही वास करता है (श्लोक ३१)। विलक्षण दिव्य अनुभूति है यह- परमात्मा में निवास करना। इसके बाद भगवान, अर्जुन को सम्बोधित कर कहते हैं कि ‘‘जो योगी की भाँति अपनी आत्मदृष्टि से सुख अथवा दुख में सर्वत्र समत्व के ही दर्शन करता है, सभी को सम भाव से देखता है, वह परम श्रेष्ठ योगी है’’। (श्लोक ३२)। यह योग की पराकाष्ठा है। ऐसे योगी के लिए सभी ओर पवित्रता ही विराजती है- सब ओर उसे भगवान ही भगवान दिखाई देता है। भगवान में रहकर दिव्य कर्म करना- उनके साथ ऐक्य भाव स्थापित कर लेना- यही योग का उद्देश्य होना चाहिए। ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द एवं परम पूज्य गुरुदेव के दृष्टान्तों के माध्यम से इस भावदर्शन को प्रतिपादित भी किया गया। इन तीनों ही महापुरुषों ने ऐसा ही जीवन जिया। यह भी बताया गया कि विश्वमानव की पीड़ा, अपनी पीड़ा बन जाने पर व्यक्ति महामानव की कक्षा में स्थापित हो भगवान में विराजमान सभी ओर उसी सत्ता को देखता है। यह सब सुनकर अर्जुन का जिज्ञासु मन जागकर पुनः प्रश्र करने लगता है। वह लगभग स्तब्ध है आत्मसंयम से होने वाली इस उपलब्धि को अपने आराध्य के मुख से सुनकर आत्मावलोकन कर वह कुछ पूछना चाहता है।

अर्जुन की जिज्ञासा

अगले दो श्लोक अर्जुन के प्रश्रों के हैं एवं उसके तुरंत बाद सूत्ररूप में योगेश्वर द्वारा दिये गये उत्तर के दो श्लोक हैं। संभवतः उनसे फिर उसकी जिज्ञासा जाग उठती है एवं वह फिर इसी सबको स्वयं पर लागूकर पुनः प्रश्र पूछ बैठता है। भगवान धैर्यपूर्वक उसका भी, उसका ही नहीं- हम सबकी जिज्ञासाओं का भी समाधान करते हैं। सैंतालीस श्लोकों वाले इस अध्याय का हर पक्ष- हर पहलू इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसे यदि जीवन विज्ञान का मूल कहा जाय, तो अत्युक्ति न होगी। अर्जुन की जिज्ञासाएँ हैं—

अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥ ६/३३

चचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥ ४/३४

इनका शब्दार्थ इस प्रकार है-

अर्जुन ने कहा-

हे मधुसूदन कृष्ण (मधूसूदन) आपने (त्वया) सम्यक् दर्शन रूप (साम्येन) यह (अयं) जो (यो) योग (योगः) कहा (प्रोक्तः), मैं (अहं) चित्त की चंचलता के कारण (चंचलत्वात्) इस योग की (एतस्य) विनियत स्थिति (स्थिरां स्थितिम्) नहीं देख पाता (नपश्यामि)। ६/३३

शब्दार्थ

क्योंकि (हि) हे कृष्ण (कृष्ण) मन (मनः) चंचल (चञ्चलं), प्रमथन स्वभाववाला- भ्रम पैदा करने वाला (प्रमाथि), बलवान (बलवत्), दृढ़ है (दृढम्)। मैं (अहं) उसको (तस्य) वश में करना (निग्रहं) वायु की तरह (वायोरिव- वायोःइव) कठिन (दुष्करं) मानता हूँ (मन्ये)। ६/३४
अब दोनों का भावार्थ इस प्रकार है-

‘‘हे मधुसूदन, समत्व में स्थित होकर आपके द्वारा जिस योग का उपदेश दिया गया है, मन की चंचलता के कारण मैं इसकी स्थिर स्थिति नहीं देखता हूँ। क्योंकि हे कृष्ण। यह मन बड़ा ही चंचल, प्रमथनशील, बलवान और अदमनीय है। इसे वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ।’’ (६/३३ एवं ६/३४)

एक तार्किक के योगेश्वर से प्रश्र

जब कोई शिक्षक हमें किसी उपलब्धि के विषय में इतना बड़ा उसका चित्र सामने रख समझाए, जो हमें अविश्वनीय लगने लगे; ऐसी प्रतीति हो, मानो चमत्कारी सिद्धियाँ हों, वह भी मात्र कर्मयोग से, एक धर्म प्रधान निर्लिप्त घोर कर्मयुद्ध से जिसे निर्मम व निरहंकारी होकर किया जाना है, तो हमें आश्चर्य होने लगता है। क्या ऐसा भी संभव है? क्या हमारे अंदर ऐसा कुछ है, जिसे जान एवं समझकर परमात्मा से साक्षात्कार भी किया जा सकता है। क्या पूर्णता के शिखर तक पहुँचा जा सकता है। हमारे समक्ष जो वर्णन प्रस्तुत किया गया, उसे जानकर अर्जुन की तरह हम भी बौखला सकते हैं, कह सकते हैं कि ऐसा कैसे होगा? कभी- कभी अपने आपके बारे में परिपूर्ण जानकारी न होने- या जो भी हम अपने विषय में जानते हैं, उसे सामने रख हम उत्साहहीन हो जाते हैं। एक प्रकार से अन्दर से अपने विषय में अविश्वास रख अर्जुन एक तार्किक व्यक्ति होने के नाते मानस निर्माण की इस यात्रा पर शंका उठाते हुए कह उठता है कि जो समत्व रूपी योग समझाया गया, वह तो सध नहीं पाएगा, क्योंकि मन बड़ा चंचल है। मन हमेशा परिचित विषय प्रधान- भोग प्रधान क्षेत्रों की ओर भागता रहता है। सिद्धान्ततः वह मान्य हो सकता है, पर मन चूंकि केन्द्रित नहीं हो पा रहा, यह एक अव्यावहारिक सा सिद्धान्त प्रतीत होता है।

ध्यान में मन नहीं लगता

अर्जुन की यह जिज्ञासा हममें से हर किसी की हो सकती है। ध्यान में मन नहीं लगता- मन भागता है- बार भटकता है। कभी चीटियाँ काटती प्रतीत होती हैं, कभी शरीर में कहीं दर्द उठ बैठता है, तो हिलने- डुलने का मन करता है। विचार प्रवाह, उसमें भी कामुकता प्रधान- अनापशनाप चिन्तन हमारे मन को केन्द्रीभूत होने ही नहीं देता। अर्जुन को भगवान ने प्रिय शिष्य की तरह स्नेह देते हुए समझाया है, इसलिये वह भी अपना प्रश्र खोलकर अपने आराध्य के समक्ष रख देता है। कहता है कि यह मन तो बड़ा भ्रामक है- बड़ा बलवान है और दमन करने में बड़ी असमर्थता अनुभव होती है। उसे नियंत्रित करना तो ऐसा है कि जैसे तीव्रगति से चलने वाले वायु के प्रवाह को रोकने का प्रयास किया जाय।

वायु रोकने जैसा कठिन कार्य

मन की दौड़ बहुत तीव्र होती है। इतनी कि कुछ ही क्षणों में यह मीलों दूर की यात्रा कर वापस आ सकता है। यह स्थिर होकर बैठे, इसका जितना प्रयास किया जाय, उतना ही तीव्रगति से यह भागता है। वायु के प्रवाह को रोकने जैसी उपमा गीताकार ने दी है। भगवान श्री वेदव्यास ने जब अर्जुन की जिज्ञासा को शब्द दिए होंगे तो चिंतन के उच्चस्तरीय आयाम में जाकर उन्हें यह दो शब्द मिले होंगे- प्रमाथि (भ्रमोत्पादक), निग्रहं वायोःइव दुष्करम् (वश में करना वायु रोकने की तरह कठिन है)। जिसने भी वायु के तीव्र प्रवाह, आँधी के झोंकों अथवा चक्रवातों का सामना किया है, वह जानता है कि कितना वेग उनमें होता है। उन्हें रोकना नितान्त असंभव है। विज्ञान ने आज के विकसित युग में चक्रवातों से ऊर्जा पैदा करने के तरीके खोज लिये हैं, पर उन्हें रोक पाना असंभव है। मन कामनाओं- वासनाओं की भगदड़ में निरत रहता है- भ्रामक परिकल्पनायें करता हैं एवं उस दौड़ को रोक पाना अत्यंत कठिन कार्य है। ऐसे में अर्जुन की जिज्ञासा स्वाभाविक है कि कैसे इसे नियंत्रित किया जाये- कैसे ध्यान योग में प्रवृत्त हुआ जाये- कैसे यह आत्मसंयम योग साधा जाय, जिसकी व्याख्या इतने विस्तार से इस अति महत्त्वपूर्ण अध्याय में योगेश्वर कर रहे हैं।

एकाग्रता का अभ्यास बनाम ध्यान

अर्जुन के चित्त की यह दशा तब भी थी जब गीता का आरम्भ हुआ था। उस समय भी तर्क जाल का प्रयोग कर बिना एकाग्र चित्त हुए उसने श्रीकृष्ण के समक्ष अपनी युद्ध न करने की बात कह दी थी। अब पुनः वह प्रसंग सामने आने पर वह मन की चंचलता की बात कह रहा है। उसे आशा नहीं थी कि श्रीकृष्ण उसकी इस कमजोरी पर प्रहार करेंगे। किंतु जब आत्मसंयम योग के रूप में वह शिखर का दर्शन कर लेता है तो उसकी जिज्ञासा आरंभ हो जाती है। वह भी सकारात्मक ढंग से। यह एक शिष्य के लिए शुभ चिन्ह है।

अर्जुन को मन की एकाग्रता का अभ्यास है। उसने निशाना लगाकर मछली की आँख बेधी थी और द्रौपदी को जीता था। उसने तेल के प्रवाह में गोल घूमती मछली की छवि मात्र देखकर अपना बाण चलाकर मन की एकाग्रता की चमत्कारी क्षमता का प्रदर्शन किया था, किंतु मन की एकाग्रता और तल्लीनता- तद्रूपता वाले वास्तविक योग में अंतर है। ध्यान योग सधता है पहले सचेतन मन की एकाग्रता से- इसके बाद उसे अचेतन मन पर केन्द्रित किया जाता है, ताकि वह चैतन्यवान- प्राणवान बन सके और इसके बाद सचेतन व अचेतन दोनों को जोड़कर सुपरचेतन- अतिचेतन की ओर आरोहण किया जाता है। तब ध्यान परिपूर्ण होता है। सचेतन मन की एकाग्रता को कई व्यक्ति साध लेते हैं। इससे आदमी के कर्म कुशलतापूर्वक होने लगते हैं। अर्जुन महावीर है- एकाग्रचित्त है पर ध्यान योगी नहीं, इसीलिए वह मन की चंचलता की बात बार बार कहता है। जब हम दूसरा कदम उठाते हैं- ‘‘फोकस इट आन अनकांशस्’’ अर्थात सचेतन को अचेतन पर केन्द्रित कर प्राणवान- सशक्त बनाना, तब हमें आंतरिक प्रसन्नता मिलती है। जब हम सुपरचेतन की ओर जाते हैं, तो हमें दिव्य रसानुभूति होने लगती है। कार्यकुशलता, प्रसन्नता, दिव्य रसानुभूति आत्मानुभूति- यह सभी ध्यान की फलश्रुतियाँ हैं। हमारा पात्र अर्जुन अभी एकाग्रता- कर्म कुशलता से भीतर नहीं जा पा रहा; क्योंकि चित्त की वृत्तियाँ उसे चंचल बना रही हैं। यदि यह यात्रा पूरी हो जाय, तो उसे योगेश्वर के अमृत वचनों की अनुभूति अपने अंदर होने लगेगी।

पूज्यवर द्वारा बताए उपाय

परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा जी आचार्य के पास भी कई लोग अपनी जिज्ञासाएँ उसी प्रकार की लेकर आते थे। मन नहीं लगता, भागता है। पूज्यवर उसे उदीयमान सूर्य की पीतवर्णी किरणों में स्नान- अपने को ईंधन मानकर आग में समर्पण का भाव पैदा करने को तथा मानसिक गायत्री जाप करने को कहते थे। व्यक्ति- व्यक्ति के लिए उनके पास ध्यान की पद्धतियाँ थी। सबसे पहला सुझाव वे देते थे कि हम स्वाध्याय की वृत्ति विकसित करें, ताकि हमारा मन सतत श्रेष्ठ विचारों में स्नान करता रहे। इससे धारणा पक्की बनेगी और ध्यान टिकेगा। उनने कभी किसी को निराश नहीं किया। किन्हीं को उनने माँ गायत्री का, किसी को विराट आकाश का वा किसी को स्वयं उनका (गुरुदेव का) ध्यान करने को कहा। मन क्रमशः इससे एकाग्र हो सुपर चेतन की यात्रा करने लगता था, अब भी उनकी सूक्ष्म व कारण सत्ता पर ध्यान केन्द्रित करने से साधको को वही अनुभूति हो सकती है। सही बात यही है कि ९५ से ९९ प्रतिशत व्यक्तियों का चंचल मन पहला कदम तो पूरा कर लेता है- एकाग्रता का, पर अचेतन से सुपर चेतन की यात्रा नहीं कर पाता।

प्रमथनशील इन्द्रियाँ

यहाँ अर्जुन का प्रश्र यही है। हमें एकाग्रता से तल्लीनता- तद्रूपता की ओर जाना है, परमात्म चेतना में स्नान करना है। अर्जुन जब अपनी बात कहते हैं, तो संभवतः यही कह रहे हैं कि हे नाथ! आप ही कृपा करके इस मन को खींचकर अपने में लगा लें, तो ही यह मन लग सकता है। मेरे अपने प्रयासों से तो यह वश में होना बड़ा कठिन है। मन जिद्दी है, बलवान है, चंचल है, प्रमाथि (भ्रमोत्पादक) होने के कारण ही यह मेरी स्थिति को बार- बार विचलित करता रहता है। (इससे पहले श्रीकृष्ण दूसरे अध्याय के साठवें श्लोक में कह चुके हैं- ‘‘इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः’’ २/६० अर्थात् प्रयत्नशील पुरुष के मन को भी ये प्रमथनशील इन्द्रियाँ बलात् हर लेती हैं। संभवतः अर्जुन का यह प्रश्र इसी श्लोक से प्रेरित होकर पूछा गया है। ‘‘साधक संजीवनी’’ में स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि जब कामना मन और इन्द्रियों में आती है, तब वह साधक को व्यथित कर देती है, साधक अपनी ध्यान की स्थिति फिर नहीं बना पाता। जैसे ही साधक मन से काम को निकाल देता है, मन की प्रमथनशीलता नष्ट हो जाती है। सुनामी की प्रलयंकारी लहरों का वर्णन जिनने पढ़ा है, एरेज्मा (उड़ीसा) के महाविनाश में जिसने देखा है, वह जानता है कि वायु का वेग कितना तीव्र होता है। विनाश का पुनर्निर्माण कितना मुश्किल है। कहीं ऐसा न हो कि अर्जुन का मन उस प्रवाह में बह जाए, इसीलिए वह स्थिति की गंभीरता को अपनी शब्दावली में श्रीकृष्ण के समक्ष व्यक्त करने का प्रयास कर रहा है। निःस्वार्थ सेवामय कार्यों जिनमें समर्पण भाव प्रमख है, द्वारा वासनाओं का क्षय किया जा सकता है, यह उसे बताया गया है। ध्यान साधना इसके बाद ही संभव हो सकती है। श्रीकृष्ण अर्जुन की जिज्ञासा का समाधान करते हैं।

जिज्ञासा का समाधान

श्रीभगवान उवाच
    असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
    अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ ६/३५

    असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
    वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तु मुपायतः॥ ६/३६

    हे अर्जुन (महाबाहो) [यह] मन (मनः) कष्ट से वशीभूत होने वाला तथा सदा चंचल है (दुर्निग्रहं चलम्), इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है (असंशयं)। किन्तु (तु) हे कुन्ती पुत्र (कौन्तेय) अभ्यास के द्वारा (अभ्यासेन) और वैराग्य से (वैराग्येण च) यह मन वशीभूत हो जाता है (गृह्यते)।
    असंयत व्यक्ति के द्वारा (असंयत आत्मना) योग की सिद्धि (योगसिद्धिः) दुष्प्राप्य है (दुष्प्राप्त), यह (इति) मेरा (मे) मत है (मतः) किन्तु (तु) शास्त्रविहित उपाय से (उपायतः) यत्नशील (यतता) संयतचित्त व्यक्ति के द्वारा (वश्यात्मना) [यह योगसिद्धि] प्राप्त हो सकती है (अवाप्तुम् शक्यः)। ६/३५, ६/३६

दोनों का भावार्थ है-

    ‘‘हे महाबाहो! निःसन्देह यह मन बहुत ही चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र! अभ्यास और वैराग्य द्वारा इसको साधा जा सकता है।’’
    ‘‘जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है (असंयमी व्यक्ति), ऐसे पुरुष द्वारा योग की प्राप्ति असम्भव है, ऐसा मेरा निश्चय है, किंतु संयमित मन वाला व्यक्ति सम्यक् प्रयासों द्वारा इसे प्राप्त कर ही लेता है।’’ (६/३५, ६/३६)

अभ्यास और वैराग्य साधे मन को

    जब अर्जुन ध्यान योग की शक्यता के बारे में अपने संदेह व्यक्त करता है और कारण यह बताता है कि मानवी मन के अस्थिर और अशान्त स्वरूप के कारण यह संभव नहीं है, तो श्रीकृष्ण इसे एक चुनौती के रूप में लेते हैं और उसे तुरंत उत्तर भी देते हैं-कहते हैं कि तुम्हारा यह मत सही है कि मन निश्चित ही चंचल और कठिनता से वश में आने वाला है (असंशयं महाबाहो मनोर्निग्रहं चलम्) किंतु निश्चित ही अर्जुन जैसा साहसी-महाबाहु मन पर विजय प्राप्त करने में समर्थ एक बहादुर योद्धा यह कार्य कर सकता है। एक दुर्बल मन वाला व्यक्ति इसे एक बहाना बनाकर मना भी कर सकता है व जीवन भर एक परजीवी जैसी जिन्दगी जीता है, किन्तु अर्जुन के लिये यह संभव है। आक्षेप स्वीकार कर लिया गयाा अतः अर्जुन शान्त हो जाता है, फिर श्रीकृष्ण आक्रामक होते हैं व कहते हैं कि हे कुन्ती पुत्र! इस मन को अभ्यास और वैराग्य से साधा जा सकता है। अभ्यास योग क्या है? जब-जब मन विषयों में भटके तब-तब उसे अपने ध्यान बिन्दु पर पुनः-पुनः वापस लाने का प्रयास किया जाय, अनवरत परिश्रम किया जाय-निरंतरता-नियमितता में कोई कमी न हो, तो यह संभव है। यही अभ्यास योग है। नियमित अभ्यास से अहं केन्द्रित कामनाओं में कमी होगी एवं उनसे मुक्ति पाने की इच्छा प्रबल होगी-यही वैराग्य है।

कैसे करें यह?

    अभ्यास योग की व्याख्या भगवान आगे ‘‘भक्तियोग’’ नामक बारहवें अध्याय (श्लोक ९) में करने वाले हैं। अभ्यास योग अर्थात् भगवान के नाम और गुणों का श्रवण, कीर्तन, मनन, लीलाओं पर चर्चा-सत्संग, श्वास द्वारा जप और भगवत्प्राप्ति विषयक शास्त्रों का पठन पाठन इत्यादि चेष्टाएँ बार-बार करना ही अभ्यास कहलाता है। वे कहते हैं-अभ्यासयोगेन ततो माम् इच्छाप्तुम् धनंजय- हे अर्जुन! अभ्यास रूप योग द्वारा मुझ को प्राप्त होने के लिए इच्छा कर! (श्लोक ९, अध्याय १२)। अभ्यास का अर्थ है निरन्तर मन को परमात्मा-सद्गुरु-आध्यात्मिक चिन्तन में लगाए रखना। मन का अभ्यास फिर परमात्मा में स्थित होने का हो जाता है। वैराग्य का अर्थ है आसक्ति रहित कर्म। कर्मफल से वैराग्य ले लेना। जीवन जीते हुए गृहस्थ रहते हुए भी कोई आसक्ति किसी भी वस्तु-व्यक्ति आदि से न रखना, वरन् हमेशा स्वयं को याद दिलाना कि आत्मा की यात्रा एकाकी है। हमें उस यात्रा को महत्त्व देना चाहिए। आत्मिक प्रगति कर मोक्ष प्राप्ति जीवन-बंधनों से मुक्ति का प्रयास करना चाहिए। यही व्याख्या और विस्तार से अगले अंक में अर्जुन की नयी जिज्ञासाओं के साथ।

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  • कल्याणकारी कार्य करने वाले साधक की कभी दुर्गति नहीं होती
  • भविष्य में हमारी क्या गति होगी, हम स्वयं निर्धारित करते हैं
  • योग पथ पर चलने वाले का सदा कल्याण ही कल्याण है
  • तस्मात् योगी भवार्जुन्
  • वही ध्यानयोगी है श्रेष्ठ जो प्रभु को समर्पित है
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Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

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