• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • प्रथम खण्ड की प्रस्तावना
    • द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना
    • तृतीय खण्ड की प्रस्तावना
    • प्रस्तुत चतुर्थ खण्ड की प्रस्तावना
    • एकाकी यतचित्तात्मा निराशीः अपरिग्रहः
    • ध्यान हेतु व्यावहारिक निर्देश देते एक कुशल शिक्षक
    • सबसे बड़ा अनुदान परमानंद की पराकाष्ठा वाली दिव्य शांति
    • युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु
    • कैसा होना चाहिए योगी का संयत चित्त
    • योग की चरमावस्था की ओर ले जाते योगेश्वर
    • परमात्मारूपी लाभ को प्राप्त व्यक्ति दुःख में विचलित नहीं होता
    • बार-बार मन को परमात्मा में ही निरुद्ध किया जाए
    • चित्तवृत्ति निरोध एवं परमानन्द प्राप्ति का राजमाग
    • ध्यान की पराकाष्ठा पर होती है सर्वोच्च अनुभूति
    • यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति
    • सुख या दुख में सर्वत्र समत्व के दर्शन करता है योगी
    • कैसे आए यह चंचल मन काबू में?
    • अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते
    • कल्याणकारी कार्य करने वाले साधक की कभी दुर्गति नहीं होती
    • भविष्य में हमारी क्या गति होगी, हम स्वयं निर्धारित करते हैं
    • योग पथ पर चलने वाले का सदा कल्याण ही कल्याण है
    • तस्मात् योगी भवार्जुन्
    • वही ध्यानयोगी है श्रेष्ठ जो प्रभु को समर्पित है
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • प्रथम खण्ड की प्रस्तावना
    • द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना
    • तृतीय खण्ड की प्रस्तावना
    • प्रस्तुत चतुर्थ खण्ड की प्रस्तावना
    • एकाकी यतचित्तात्मा निराशीः अपरिग्रहः
    • ध्यान हेतु व्यावहारिक निर्देश देते एक कुशल शिक्षक
    • सबसे बड़ा अनुदान परमानंद की पराकाष्ठा वाली दिव्य शांति
    • युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु
    • कैसा होना चाहिए योगी का संयत चित्त
    • योग की चरमावस्था की ओर ले जाते योगेश्वर
    • परमात्मारूपी लाभ को प्राप्त व्यक्ति दुःख में विचलित नहीं होता
    • बार-बार मन को परमात्मा में ही निरुद्ध किया जाए
    • चित्तवृत्ति निरोध एवं परमानन्द प्राप्ति का राजमाग
    • ध्यान की पराकाष्ठा पर होती है सर्वोच्च अनुभूति
    • यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति
    • सुख या दुख में सर्वत्र समत्व के दर्शन करता है योगी
    • कैसे आए यह चंचल मन काबू में?
    • अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते
    • कल्याणकारी कार्य करने वाले साधक की कभी दुर्गति नहीं होती
    • भविष्य में हमारी क्या गति होगी, हम स्वयं निर्धारित करते हैं
    • योग पथ पर चलने वाले का सदा कल्याण ही कल्याण है
    • तस्मात् योगी भवार्जुन्
    • वही ध्यानयोगी है श्रेष्ठ जो प्रभु को समर्पित है
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - युगगीता (भाग-४)

Media: TEXT
Language: EN
TEXT TEXT TEXT


युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 7 9 Last
विगत कड़ी में इस अध्याय के चौदहवें श्लोक के माध्यम से ध्यान हेतु छह स्वर्णिम सूत्र दिए गये थे- आत्मा की शान्ति, भयनिवृत्ति, ब्रह्मचर्य व्रत में स्थिति, मन का संयम, समाहित चित्त एवं भगवत्परायणता के रूप में इन छहों की व्याख्या विस्तार से की गयी थी। फिर पंद्रहवें श्लोक की विस्तार से विवेचना के माध्यम से यह बताया गया कि परम निर्वाण की शान्ति पानी है- परमानन्द की पराकाष्ठा तक पहुँचकर मोक्ष का आनन्द लेना है तो संत मन वाला तथा परमात्मा में चित्त लगाने वाला योगी बनना होगा। भवबंधनों से मुक्ति की परम पूज्य गुरुदेव की परिभाषा भी लोभ- मोह की बेड़ियों से मुक्ति के रूप में बतायी गयी थी। नियत मानस योगी (वश में किए मन वाला योगी) तथा युञ्जन्नेवं सदात्मानं (मन को सदा परमात्मा में लगाने वाला) साधक परमात्मा की स्वरूपता को प्राप्त है। परम निर्वाण की शान्ति पाता है- यह पूरे अध्याय का सार था। स्थान- स्थान पर प्रभु मन के संयम की महत्ता बताते रहे हैं। किसी बात को बार- बार कहने का मतलब यह कि इस पर सर्वप्रथम व सर्वाधिक ध्यान देना चाहिए। फिर वे कहते हैं कि शान्ति तो तभी मिलेगी जब मन परमात्मा में लगेगा, लौकिक साधनों में- भोग प्रधान सुखों में नहीं। रमण महर्षि व श्रीअरविन्द के उदाहरणों से परम शान्ति के स्वरूप को समझाने का प्रयास भी किया गया था। अब आगे सोलहवें श्लोक व आगे की चर्चा पर चलते हैं।

दुःखनाशक योग

नात्यश्रतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्रतः।
न चाति स्वप्रशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥ ६/१६
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्रावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥ ६/१७

शब्दार्थ (१) हे अर्जुन (अर्जुन), किन्तु (तु), अधिक भोजन करने वाले का (अति अश्रतः), योग (योगः), सिद्ध नहीं होता (न अस्ति), और (च), न एकदम उपवास पर रहने वाले को ही योगसिद्ध हो पाता है। न च एकान्तम् अनश्नतः, अत्यधिक (अति), सोने वाले व्यक्ति का भी नहीं (स्वप्रशीलस्य च न )) और फिर न ही सदा जागने वाले का योग सिद्ध हो पाता है। (जाग्रतः एव च न)। ६/१६

(२) दुखों का नाश करने वाला (दुःखहा), यह योग (योगः), तो परिमित भोजन और विहार करने वाले (युक्त आहार विहारस्य), कर्म में भी (कर्मसु) यथायोग्य प्रयत्न करने वाले (युक्त चेष्टस्य), सीमित निद्रा तथा जागरण करने वाले का ही (युक्तस्वप्रावबोधस्य) सिद्ध हो पाता है।

अब भावार्थ पर ध्यान दें—‘‘हे अर्जुन! यह योगरूपी सफल ध्यान न तो उसके लिए संभव है जो बहुत अधिक खाता है अथवा बिल्कुल नहीं खाता अथवा यह उसके लिए भी संभव नहीं जो बहुत अधिक सोता है अथवा कम सोता है। जो आहार और विहार के कर्मों में अपनी चेष्टाओं को संतुलित रखता है तथा निद्रा जागरण में संयत होता है, उसके लिए ही यह ध्यान (योग) दुःखनाशक सिद्ध होता है। ’’ (६/१६,१७)

ध्यान हेतु छह स्वर्णिम सूत्र को बताने के बाद यहाँ श्रीकृष्ण सफल ध्यान के लिए कुछ बाधाओं से बचने की ओर संकेत करते हैं जो शरीर व मन से जुड़ी हैं। योग साधना इसी यंत्र से ही तो होनी है पर यदि यही अतिवाद का शिकार हो गया तो क्या करके योग सधेगा और यदि इन पर समुचित ध्यान रख लिया गया तो ऐसा ध्यान- आत्मसंयम रूपी योग दुखनाशक सिद्ध होता है। ऐसे दुःखनाशक ध्यान के बाद ही वह शान्ति मिल पाएगी जिसकी परिसमाप्ति परम निर्वाण में- मोक्ष में होती है जिसकी चर्चा योगेश्वर पंद्रहवें श्लोक में कर चुके हैं।

अतिवाद ही बाधक

‘‘सर्वम् अत्यन्तं गर्हितम्’’ अर्थात् किसी भी बात की अधिकता (अतिवाद) योग में बाधक बनती है। सभी कर्मों में सभी प्रयत्नों में- भोजन- निद्रा आदि नित्य के साधनों में कहीं भी किसी भी प्रकार का अतिवाद साधना में ध्यान के लक्ष्य की प्राप्ति में बाधक है। उसे समझे बिना योगी ध्यान की दिशा में आगे बढ़ नहीं सकता इसीलिए भगवान् मोक्ष की बात कहके तुरंत ‘‘किंतु’’ कहकर पुनः अपनी बात सोलहवें श्लोक से आरम्भ कर उसे दो श्लोकों में समझा देते हैं। भगवान् स्पष्ट कह देते हैं कि जब तक तुम अपने यम- नियम नहीं साधते, निद्रा- आहार पर ठीक ध्यान रखकर समत्व स्थापित नहीं करते तब तक तुम्हारा सारा श्रम बेकार है, चाहे जितना भी ध्यान लगाने की कोशिश करो। जो अपने अन्नमयकोष को आहार के उचित अनुपात से तथा प्राणमय- मनोमयकोष को पवित्र अन्न एवं सही दिनचर्या- निद्रा का सही क्रम रखते हुए साध लेता है, दुःखों का नाश करने वाला योग तो उसी का सध पाता है।

आज की सारी समस्याएँ भी इन्हीं से जुड़ी हैं। अधिक खाने के परिणाम स्वरूप व्याधियाँ हैं तो ‘‘डायटिंग’’ से दुबला होने वालों की अपनी व्याधियाँ हैं। किसी को नींद की समस्या है कि नहीं आती, तो किसी को बहुत आती है। ‘‘स्लीप डिस आर्डर्स’’ आज की गंभीरतम मनोव्याधियों में से एक हैं। करोड़ों टन गोलियाँ रोज ‘‘अनिद्रा’’ के रोगीजनों द्वारा नींद लाने के लिए ली जाती हैं। ये योगी तो नहीं हैं पर जीवन शैली अस्त व्यस्त कर इनने अपनी लय बिगाड़ ली है। फिर स्वस्थ रहें कैंसे, दुःख कम कैसे हों, मन शान्त किस प्रकार हो, हृदय में शान्ति की स्थापना किस तरह हो। इसीलिए भगवान् ने यहाँ ‘‘दुःखहा’’ समस्त प्रकार के दुःखों- क्लेशों को- तनावों को दूर करने वाला योग किसका कैसे सध सकेगा यह स्पष्ट कर दिया है।

जीवन की लय ठीक हो

अतिवाद बड़ा दुःखदायी है, योग दुःखनाशक है। यह हम पर है कि हम किसे चुनते हैं। मगध का एक राजकुमार था श्रोण। बड़ा विलासी भोग प्रधान जीवन- हर समय मदिरा व कामिनियों से घिरा रहता था। अचानक एक क्षण आया। भोग से विरक्ति हो गयी। जीवन में वैराग्य आ गया। बुद्ध का शिष्य बन गया। साधु का- भिक्षु का जीवन जीने लगा। कठोर संन्यास की मर्यादाएँ पाल लीं। कड़ी तितिक्षा में गुजरने का उसका मन था। धूप में बैठकर ध्यान करता। शरीर सूखकर काला व काँटे जैसा हो गया। आहार कदापि नही, मात्र जल पर। जब तक मन पक्का था निभ गया, पर बीमार पड़ गया। जिद्दी था- हठी था पर उसे वीणा वादन बड़ा प्रिय था। बैठे- बैठे वीणा बजाता रहता था। बैठे बैठे बीमारी की स्थिति में भी वीणा के माध्यम से मन को साधने का प्रयास कर रहा था, पर मन लग ही नहीं पा रहा था। भगवान् ने पूछा- वत्स, तुम यह क्या कर रहे हो। क्यों इतना कठोर तप कर रहे हो। तो वह बोला हमें निर्विकल्प समाधि प्राप्त करनी है। इसीलिए कड़ी तितिक्षा कर रहे हैं। भगवान बोले कि निर्विकल्प तो तुम तब पाओगे जब अहं का विसर्जन करोगे।

तितिक्षा का अहं तुम्हारे अंदर बैठा फुफकार रहा है। अतिवाद का अहं तुम्हारे अंदर बैठा है। एक अतिवाद तो वह था जब मदिरा, स्त्रियाँ, भोग सभी तुम्हारे आसपास रहते थे और एक अतिवाद यह है कि तुम सूखकर काँटा हो गए हो। इस अतिवाद से निकलो। इसी बात को उदाहरण से समझाने के लिए उनने कहा कि तुम अपनी वीणा को क्यों नहीं देखते। वीणा के तार ज्यादा कस दिए जायें तो वीणा बजती नहीं, ढीले छोड़ दिये जायें तो वीणा बजती नहीं। यह शरीर भी एक जीवन वीणा है। इसे सही ढंग से कसोगे- थोड़ा ढीला छोड़ोगे, तो परमेश्वर का संगीत तुम्हारे माध्यम से बोलने लगेगा। जीवन वीणा को टूटने मत दो। श्रोण को समझ में आ गया। जैसे ही उसने अपनी जीवन साधना की लय ठीक करली- उसका ध्यान सफल होने लगा। यह घटना कई व्यक्ति बुद्ध के जीवन से जुड़ी बताते हैं पर वस्तुतः यह श्रोण के साथ घटित हुई थी एवं उपदेष्टा थे गौतम बुद्ध।

 हठयोगी देहाभिमानी

    जो अतिवाद न बरते, समय पर जागे, समय पर सोये, समय पर खाए-अधिक न खाए-अत्यल्प भी न खाए, उतना ही ले जितना जरूरी है, तो ध्यान हेतु मनोभूमि बन जाती है। योगी होने के लिए हर विषय में विशेष संयम की आवश्यकता पड़ती है। समत्व ही योग है। एक ही संतुलन दो छोरों के बीच। श्रीरामकृष्ण परमहंस का मत है— ‘‘सच्चे योगी का मन सदा ईश्वर में ही रहता है, सदा ही आत्मस्थित रहता है। योगी का उद्देश्य होता है विषयों से मन को समेटकर परमात्मा में संलग्र करना। इसी कारण वह पहले निर्जन स्थान पर स्थिर आसन में बैठकर मन को एकाग्र करने का ध्यान करते हैं। कामिनी कांचन में मन रहे, तो योग नहीं होता............राजयोग में मन के द्वारा, भक्ति और विचार के द्वारा योग होता है.........हठयोग अच्छा नहीं है। उसमें शरीर के प्रति अधिक ध्यान रखना पड़ता है। हठयोगी देहाभिमानी साधु है।’’ श्रीमद्भगवद्गीता-टीका स्वामी श्री अपूर्णानन्दजी पृष्ठ (७९)।

    श्रीरामकृष्ण का स्पष्ट मत है कि हठयोग में जहाँ तितिक्षा को-शरीर शुद्धि हेतु अतिवाद पर, शरीर को कष्ट देने की स्थिति तक संपन्न किया जाता है, वहाँ राजयोग मन को साधकर ईश्वर से मिलन का कार्य पूरा कर देता है। ‘‘देहाभिमानी’’ कहकर ठाकुर रामकृष्णदेव ने स्पष्ट कर दिया कि ऐसे व्यक्ति मात्र देह तक सीमित होते हैं एवं वे योग के समग्र अर्थ को नहीं समझते। आज ऐसे व्यक्तियों की समाज में बाढ़ आ गयी है जो योग के नाम पर अतिवाद तक ले जाकर जीवन शैली के रोगों को ठीक करने का दावा करते हैं। ऐसा योग लम्बे समय तक सध नहीं पाता। जिस योग में आहार-विहार, यम-नियम पर ध्यान न देकर क्रियाओं का ही महत्त्व है वह टिकाऊ नहीं है तथा अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति भी नहीं करता। अतः योग यदि साधना है तो उसे शरीर से आरंभ कर-मन व आत्मा तक ले जाया जाना चाहिए। हमारे सभी कर्मों व चेष्टाओं में समभाव हो, यह श्रीकृष्ण का स्पष्ट आदेश है।

ध्यान एक अंतः परीक्षण

    ध्यान अपने आपके साथ किया जाने वाला एक प्रकार से वैज्ञानिक परीक्षण है, जिसकी सफलता इस पर निर्भर करती है कि उसने अपने आपको अतिवाद से बचाया है या नहीं। जो अधिक खाएगा उसका मन ध्यान में कहाँ से लगेगा। जो अधिक खाएगा उसे निरंतर प्रमाद से- आलस्य से जूझना होगा। यह ध्यान के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। शरीर भी स्वस्थ नहीं रहेगा, अपच-कब्ज और अन्य तकलीफें ही उसे अधिक सताती रहेंगी। इसी प्रकार जो अत्यल्प खाएगा, उसका मन सदैव भोजन में ही लगेगा। भूख उसे मानसिक कष्ट देती रहेगी। भोजन उसके स्वाद की कल्पना उसके मन को सतत चंचल बनाए रखेगी। अधिकांश उपवास करने वाले (अतिवाद की सीमा तक) इसी कारण ध्यान नहीं लगा पाते। एक अतिवाद यह भी होता है कि पहले उपवास कर लिया-एकादशी का-पूर्णिमा का-सोमवार का-गुरुवार का; कुछ भी नहीं लिया और फिर ज्यों ही उपवास टूटा-ढेर सारा फलाहारी भोजन ले लिया। फिर मात्रा पर ध्यान नहीं जाता। फलाहारी के नाम पर व्यंजन खाते और ‘‘कोलेस्टेरॉल’’ बढ़ाने वाला भोजन करते ढेरों को देखा जा सकता है।

बाजार में भी ढेरों व्यंजन उपलब्ध हैं तथा भारतीय नारी इस क्षेत्र में नयी शोधें करने में माहिर है। जितने प्रकार का व जितनी मात्रा का फलाहारी भोजन उपवास के बाद किया जाता है, वह औसत दिनों से ढाई गुना अधिक गरिष्ठ पाया जाता है। चरक महर्षि ने इसीलिए कहा है-हिताशी, मिताशी, कालभोजी जितेन्द्रियः- हितकारी भोजन, निश्चित मात्रा में नियत समय पर करने वाला संयमी व्यक्ति ही स्वस्थ सफल योगी बन पाता है। परम पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि व्यक्ति को हितकारी आहार से आधा पेट भरने के लिए खाना चाहिए, एक चौथाई पेट पानी के लिए, एक चौथाई हवा के लिए खाली रहना चाहिए ताकि भोजन का पाचन ठीक से होता रहे। ‘‘क्या खायें? क्यों खायें? कैसे खायें?’’ पुस्तक में उनने बड़ा विस्तार से इस विषय में लिखा है। कहा भी गया है-‘‘थोड़ा थोड़ा खाओ-न मरो न मुटाओ।’’ न मरने की दिशा में आगे कदम रखोगे, न मोटे ही होगे। मोटापा ही तो आज समस्याओं का केन्द्र बिन्दु है।
  
 आज भोजन स्वाद के लिए किया जाता है इसलिए अधिक हो जाता है। कब सीमारेखा पार कर गए, पता ही नहीं चलता। विगत दो दशकों में सारी धरित्री पर बेडौल शरीर वाले-मोटे शरीर वाले बीमार किशोरों-युवाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है। हृदयरोग जल्दी जल्दी होने लगे हैं। आहार से जुड़ी है ढेर सारी व्याधियाँ। ‘‘फास्ट फूड’’ के प्रचलन ने भी जो पश्चिम से आया है इसी विकृति को बढ़ाया है। सबसे बड़ी बात यह है कि ‘‘अन्नं वै मनः’’ पर किसी का ध्यान नहीं है और ध्यान करने चल पड़ते हैं।  जब अन्न मन बनाता है तो उससे पकाया भोजन खाने वाले का मन भी उसी अनुसार होगा। अन्न की शुचिता, उसे किस स्रोत से पाया गया है, किसने पकाया है- यह भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यदि इन सब बातों पर ध्यान दिया जाता रहे तो ध्यान साधना का सबसे बड़ा विघ्र आलस्य-प्रमाद-मन न लगने की शिकायत से छुटकारा मिल जाएगा।

समत्व ही योग है

    ‘‘संयम का अर्थ है संतुलन। दोनों अतियों की ओर न सरकना। ठीक मध्य में रहना। समत्व जिसकी बात बार-बार योगेश्वर ने गीता में कही है-वह यही है कि हम किसी भी प्रकार के अतिवाद से बचें! अधिक भूखे रहने वाले-ढेर सारे उपवास करने वाले तो स्वयं को क्लेश पहुँचाते हैं। तितिक्षा की यह अति भी श्रीकृष्ण रूपी योग शिक्षक को स्वीकार्य नहीं है। वे आगे सत्रहवें अध्याय (श्रद्धात्रय विभाग योग) में बड़ा स्पष्ट विचार व्यक्त करते हैं—
    कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
    मां चैवान्त शरीरस्थं तान्विद्ध््यासुरनिश्चयान्॥ १७/६

अर्थात- ‘‘शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं (शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना) उन अज्ञानियों को तू असुर स्वभाव वाला जानना।’’

    यहाँ तप-तितिक्षा की अवमानना नहीं की जा रही, वरन् यह कहा जा रहा है कि हम अतिवाद से बचें। शास्त्रोक्त परिधि में चलें। सप्ताह में एक बार पेट को आराम देने के लिये उपवास रखें अथवा अस्वाद व्रत रखें। प्रवाही द्रव्य (जल, दुग्ध, छाछ, फलों के रस शाक-सब्जी के रस) आदि लेते रहें। मूल तथ्य यह है कि हम अपने शरीर को आहार की अति अत्यल्पतारूपी प्रक्रिया से दूर रख शरीर-मन-आत्मा के साथ न्याय करें।

निद्रा कैसी हो?

योग साधना की सफलता इस पर भी निर्भर करती है कि हम कितनी निद्रा लेते हैं। एक सामान्य व्यक्ति के लिए आठ घण्टे की नींद जरूरी है। एक साधक स्तर के व्यक्ति जिसका आहार नियमित, नियत तथा सात्त्विक है छह घण्टे की प्रगाढ़ निद्रा ले ले, तो काफी है। योगनिद्रा के अभ्यस्त साधक की चार घण्टे की नींद भी अन्य लौकिक व्यक्तियों की आठ घण्टे की नींद के बराबर मानी जाती है। अभ्यास द्वारा यह सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। पर यह उच्चस्तरीय गुरुकृपा प्राप्त साधक के लिए ही संभव है। किसी को भी इस अतिवाद पर बिना मार्गदर्शन के नहीं चलना चाहिए। अर्जुन को तो योगेश्वर श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त थी। उसने निद्रा पर विजय प्राप्त कर ली थी, अतः वह ‘‘गुडाकेश’’ कहलाया। परम पूज्य गुरुदेव को भी निद्रा पर विजय प्राप्त थी। वे सोते हुए भी योगी की तरह जागते थे। लौकिक दृष्टि से वे आठ बजे सोकर १२- १२.३० पर उठ जाते थे, पर यह उनके वश में था। प्रातः का अपना साधनादि क्रम ४ घण्टे में समाप्त कर वे चार घण्टे नित्य लिखते थे। दिन में मुश्किल से आधा घण्टा मात्र बिस्तर पर लेटकर उन्हें शिथिलीकरण करते देखा गया। ८० वर्ष की आयु पहुँचते तक महाप्रयाण के पूर्व तक उनकी यही दिनचर्या रही।

जो व्यक्ति निर्धारित निद्रा से कम सोता है या अधिक सोता है- उसे आलस्य, प्रमाद का शिकार होना पड़ता है जो साधना में- जीवन में सफलता के मार्ग पर बढ़ने में बाधक है। जो योगी नहीं है, रात्रि देर से सोकर सुबह जल्दी काम पर चला जाता है, वह दिन में ऊबासी- जम्भाई लेता देखा जाता है। शरीर में आलस्य एवं मन में प्रमाद एक प्रकार से घुन की तरह, विषाणु की तरह प्रवेश कर जाते हैं। ये सारे शरीर ही नहीं मन को भी खोखला कर देते हैं। नींद की भरपाई दिन में कर २ से ३ घण्टे सोने वाले तो अत्यधिक अतिवादी हैं। वे श्रीकृष्ण के निर्देशों की एक प्रकार से अवज्ञा करते हैं। उन्हें जीवन शैली के रोग तो होते ही हैं, उनका साधना में मन भी नहीं लगता। दिन भर शरीर टूटा सा रहता है एवं मनोयोग में कमी आ जाती है। किसी भी काम में मन नहीं लगता। ऐसे व्यक्ति आध्यात्मिक तो एक तरफ, भौतिक जगत् में भी कहीं किसी लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते। असफल जीवन बिता किसी तरह नरपशु का जीवन काटकर यह यात्रा पूरी कर लेते हैं।

निद्रा का विज्ञान

निद्रा भी स्वप्रवाली तथा बिना स्वप्रवाली होती है। स्वप्र कभी कभी सार्थक होते हैं, कभी निरर्थक। दिव्य स्वप्र आऐं उसके लिए सही आहार, स्वाध्याय एवं सही दिनचर्या जरूरी है। सामान्यतया निरर्थक स्वप्र ही आते रहते हैं। हम चाहें तो दिव्य स्वप्रों को आमंत्रित करने की कला ध्यान द्वारा सीख सकते हैं। तीव्र पुतलियों की गतिवाली नींद (रैपिड आई मूवमेण्ट स्लीप- आर.ई.एम.) कही जाती है तथा बिना इस तरह की नींद (नॉन रैपिड आई मूवमेण्ट स्लीप- एन.आर.ई.एम.) कही जाती है। नींद आने के तुरंत बाद पैंतालीस मिनट से एक घण्टे के अंदर व्यक्ति हृक्रश्वरू नींद की चार सीढ़ियों से गुजर जाता है। दूसरे घण्टे से क्रश्वरू नींद चालू होती है। दोनों ही प्रकार की नींदों का चक्र १० से ११ मिनट के अन्तराल पर बदलता रहता है। एक वयस्क युवा में लगभग पच्चीस प्रतिशत अनुपात क्रश्वरू का एवं साठ से पैंसठ प्रतिशत अनुपात हृक्रश्वरू का होता है। बच्चे व बूढ़े में क्रश्वरू का अनुपात अधिक होता है। अनिद्रा की बीमारी में यह चक्र गड़बड़ा जाता है एवं रातभर करवटें बदलते बीतती है। दिन भर प्रमाद छाया रहता है। इसी तरह नींद से जुड़ी जितनी बीमारियाँ हैं, विशेषज्ञ बताते हैं कि वे हमारी जीवनशैली की अस्तव्यस्तता के कारण हैं।

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जिस बात पर ध्यान केन्द्रित किया है वह है निद्रा का अतिवाद। अत्यधिक जागना (पढ़ाई के लिए, काम के कारण अथवा साधना का हठ) या फिर अधिक सोना रात्रि में भी एवं दिन में भी। ऐसे व्यक्ति का योग दुःखनाशक के स्थान पर दुःखकारक बन जाता है। वे गीता के अठारहवें अध्याय के ३९ वें श्लोक में कहते भी हैं कि निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामसी सुख है एवं यह भोगकाल में भी तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला होता है। भले ही आरंभ में विषतुल्य लगे परंतु परिणाम में अमृत तुल्य हो ऐसा परमात्म विषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाले सात्विक सुख की ओर ही साधक को जाना चाहिए (संदर्भ- तीन प्रकार के सुख- श्लोक ३६ से ३९, अध्याय १८)।

योग करता है दुःखों का नाश

भगवान् की स्पष्ट मान्यता है कि समस्त लौकिक कष्ट, दुःखों का क्षय हो सकता है यदि व्यक्ति योग को जीवन में समग्र रूप में उतारे- यम, नियम के सभी सूत्रों का पालन करे, आसन- प्राणायाम की सीढ़ियों से गुजरकर ध्यान तक पहुँचे। यथायोग्य आहार ले, जीवनचर्या व्यवस्थित रखे तथा सभी कर्म परमात्मा के प्रति समर्पण भाव से संयत होकर एक कर्मयोगी की तरह किए जायें। यथायोग्य सोने व जागने का नियम बनाया जाय। ‘‘जल्दी सोना- जल्दी उठना’’ यह एक योगी की दिनचर्या का महत्त्वपूर्ण बिंदु होता है। शाम को हल्का भोजन जल्दी लेकर जल्दी सो जायें। प्रातः जल्दी उठें एवं फिर नित्यकर्म से निवृत्त होकर ध्यान, स्वाध्याय, लेखन आदि आध्यात्मिक उपचार में लग जाय। ब्राह्ममुहूर्त में ध्यान शीघ्र लगता है व फलदायी होता है। जल्दी उठने वाला परमात्म सत्ता में शीघ्र स्थित होने की पात्रता विकसित कर लेता है। इतना स्पष्ट मार्गदर्शन है, फिर हम क्यों गड़बड़ा जाते हैं।
First 7 9 Last


Other Version of this book



युगगीता (भाग-४)
Type: TEXT
Language: EN
...

युग गीता भाग-3
Type: SCAN
Language: HINDI
...

યુગગીતા ભાગ - ૧
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...

युग गीता (भाग-1)
Type: SCAN
Language: HINDI
...

યુગગીતા ભાગ - ૨
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...

युगगीता (भाग-३)
Type: TEXT
Language: EN
...

युगगीता - (भाग-२)
Type: TEXT
Language: EN
...

युग गीता भाग-2
Type: SCAN
Language: HINDI
...

युग गीता भाग-4
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

स्वर्ग नरक की स्वचालित प्रक्रिया
Type: SCAN
Language: HINDI
...

स्वर्ग नरक की स्वचालित प्रक्रिया
Type: SCAN
Language: HINDI
...

स्वर्ग नरक की स्वचालित प्रक्रिया
Type: SCAN
Language: HINDI
...

स्वर्ग नरक की स्वचालित प्रक्रिया
Type: SCAN
Language: HINDI
...

धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं पूरक हैं
Type: TEXT
Language: HINDI
...

धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं पूरक हैं
Type: TEXT
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मित्रभाव बढ़ाने की कला
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मित्रभाव बढ़ाने की कला
Type: SCAN
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • प्रथम खण्ड की प्रस्तावना
  • द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना
  • तृतीय खण्ड की प्रस्तावना
  • प्रस्तुत चतुर्थ खण्ड की प्रस्तावना
  • एकाकी यतचित्तात्मा निराशीः अपरिग्रहः
  • ध्यान हेतु व्यावहारिक निर्देश देते एक कुशल शिक्षक
  • सबसे बड़ा अनुदान परमानंद की पराकाष्ठा वाली दिव्य शांति
  • युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु
  • कैसा होना चाहिए योगी का संयत चित्त
  • योग की चरमावस्था की ओर ले जाते योगेश्वर
  • परमात्मारूपी लाभ को प्राप्त व्यक्ति दुःख में विचलित नहीं होता
  • बार-बार मन को परमात्मा में ही निरुद्ध किया जाए
  • चित्तवृत्ति निरोध एवं परमानन्द प्राप्ति का राजमाग
  • ध्यान की पराकाष्ठा पर होती है सर्वोच्च अनुभूति
  • यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति
  • सुख या दुख में सर्वत्र समत्व के दर्शन करता है योगी
  • कैसे आए यह चंचल मन काबू में?
  • अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते
  • कल्याणकारी कार्य करने वाले साधक की कभी दुर्गति नहीं होती
  • भविष्य में हमारी क्या गति होगी, हम स्वयं निर्धारित करते हैं
  • योग पथ पर चलने वाले का सदा कल्याण ही कल्याण है
  • तस्मात् योगी भवार्जुन्
  • वही ध्यानयोगी है श्रेष्ठ जो प्रभु को समर्पित है
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj