
तृतीय खण्ड की प्रस्तावना
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
योगेश्वर श्रीकृष्ण के मुख से निकली अमृतवाणी हर साधक, लोकसेवी, दिव्यकर्मी
के लिए एक प्रेरणादायी संदेश है, जिसे ऋषिश्रेष्ठ वेदव्यास ने
लिपिबद्ध किया है। प्रथम दो खण्ड में गीता के प्रारंभिक चार
अध्याय की चर्चा हुई है। युद्धभूमि में कार्पण्यदोष से अपने कर्त्तव्य से विमुख होकर पलायन की बात कर रहे अपने शिष्य अर्जुन को वे आत्मा की अजरता, अमरता, युद्धभूमि में उसके कर्त्तव्य,
अपने अवतार होने के प्रमाण तथा कर्मयोग की दैनन्दिन जीवन में
आवश्यकता पर अतिमहत्त्वपूर्ण सारगर्भित उपदेश दे चुके हैं। प्रथम
चार अध्याय विषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग एवं ज्ञानकर्म संन्यासयोग में जो कह चुके वह युगगीता के प्रथम दो खण्डों में प्रस्तुत किया गया।
अब वे पाँचवे अध्याय द्वारा जो अति महत्त्वपूर्ण है, में ‘‘कर्म संन्यास योग’’ प्रकरण में सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय प्रस्तुत करते हैं, सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा का ज्ञान कराते हैं। वे फिर वे ज्ञानयोग की महत्ता बताते हुए भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन भी करते हैं। ध्यान योग की पूर्व भूमिका बनाकर वे अपने प्रिय शिष्य को एक प्रकार से छठे अध्याय के प्रारम्भिक श्लोकों द्वारा आत्मसंयम की महत्ता समझा देते हैं। यही सब कुछ परम पूज्य गुरुदेव के चिंतन के परिप्रेक्ष्य में युगगीता- ३ में प्रस्तुत किया गया है। इससे हर साधक को कर्मयोग के संदर्भ में ज्ञान की एवं ज्ञान के चक्षु खुलने के बाद ध्यान की भूमिका में प्रतिष्ठित होने का मार्गदर्शन मिलेगा। जीवन में कैसे पूर्णयोगी बने- युक्तपुरुष किस तरह बनें, यह मार्गदर्शन छठे अध्याय के प्रारंभिक ९ श्लोकों में हुआ है। इस तरह प्रचम अध्याय के २९ एवं छठे अध्याय के ९ श्लोकों की युगानुकूल व्याख्या के साथ युगगीता का एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण समाप्त होता है।
अर्जुन ने प्रारंभ में ही एक महत्त्वपूर्ण जिज्ञासा प्रस्तुत की है कि कर्मसंन्यास व कर्मयोग में क्या अंतर है। उसे संशय है कि कहीं ये दोनों एक ही तो नहीं। दोनों में से यदि किसी एक को जीवन में उतारना है तो उसके जैसे कार्यकर्त्ता- एक क्षत्रिय राजकुमार के लिए कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। वह एक सुनिश्चित जवाब जानना चाहता है। उसके मन में संन्यास की एक पूर्व निर्धारित पृष्ठभूमि बनी हुई है। जिसमें सभी कर्म छोड़कर गोत्र आदि- अग्रि को छोड़कर संन्यास लिया जाता है। भगवान् की दृष्टि में दोनों एक ही हैं। ज्ञानयोगियों को फल एक में मिलता है तो कर्मयोगियों को दूसरे में, पर दोनों का महत्त्व एक जैसा ही है। जो कर्म का न्यास बनादे, कर्म करते हुए भी अकर्म में प्रतिष्ठित हो, कभी जिसकी फल में लिप्सा न हो वह कर्मसंन्यासी एवं बिना किसी आसक्ति के निर्दिष्ट कर्म- दिव्यकर्म करने वाला कर्मयोगी- यह व्याख्या श्रीकृष्ण देते हैं। भगवान् कहते हैं कि इन्हें अलग- अलग नहीं मानना चाहिए। ‘‘सांख्ययोगो पृथग्बालःप्रवदन्ति न पण्डिताः’’ (चौथे श्लोक में कहकर वे मोहर लगा देते हैं कि दोनों एक ही हैं। हो सकता है स्वरूप पृथक- पृथक दिखाते देते हों पर दोनों मार्ग एक ही फल देते हैं, एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं।)
भगवान् की युगगीता के इस तीसरे खण्ड में यात्रा कर्म से ध्यान की ओर है। पूर्व भूमिका ज्ञान द्वारा बनाई गयी है- आत्मसत्ता की महानता प्रतिष्ठित करके समझाई गई है। सामान्य कर्म जो हम करते हैं वे शरीर यात्रा- सुख आदि के लिए होते हैं। आदमी बंधनों में बंधता है। कर्म में जब विवेक जगता है तो सार्थकता- औचित्य का भाव जगता है। तब ज्ञान का जागरण होता है। फिर क्षुद्र स्वार्थों के लिए कर्म नहीं होते, विराट् के लिए कर्म होने लगते हैं। भगवान् कहते हैं कि अब ज्ञान व कर्म में कोई भेद नहीं रह जाता। ज्ञानयोगी कहता है कि मैं देह नहीं, चित्त नहीं, इन्द्रिय नहीं हूँ- मैं तो परब्रह्म में प्रतिष्ठित हूँ। जब चित्त ही नहीं तो प्रारब्ध कैसे बन सकेगा? भगवान् कहते हैं- न इति, न इति। ज्ञानयोगी उनके अनुसार बौनेपन में काम नहीं करता है वह तो विवेक के आधार पर प्रभु के मार्गदर्शन में तालबद्ध नाचता है। न सांख्ययोग आसक्तिवश कोई गलत कर्म करता है, न ही कर्मयोगी कोई गलत कर्म करता है क्योंकि वह भी आसक्ति के दोष से मुक्त है। ज्ञानयोगी तो श्रवण, मनन, निदिध्यासन में प्रतिष्ठित हो जाता है।
रामकृष्णमरमहंस एक कथा सुनाते थे। गाँव में बायोस्कोप वाला आया। वह दिखाता था- रंग बिरंगी दुनिया वह रंग बिरंगे स्वरूप दिखाकर समझाता था- दुनिया ऐसी है, ऐसी नहीं भी है। थोड़ी देर का खेल है। आत्मा से देखो तो रंग नहीं है। मन से- चित्त से देखोगे तो रंग हैं। ज्ञानयोगी कहता है तत्त्व से समझ लोगे तो मर्म कुछ और ही है। ठाकुर कहते थे कि खानदानी हार में आसक्तियाँ हो सकती हैं। सभी घरवाले उससे भिन्न- भिन्न रूपों में जुड़े हो सकते हैं पर सुनार नहीं जुड़ा होता। वह तो तत्त्व से जानता है। ज्ञानयोगी बार- बार कहता है कि रूप और आकार में कोई भेद नहीं होता। सारे भेद बेकार हैं। कर्मयोगी भी हर काम प्रभु को अर्पित करके करता है। दोनों के तरीके विराट् में घुलने के अलग- अलग हैं पर उद्देश्य एक ही है।
भगवान् इस कर्म संन्यास योग में कहते हैं कि सबका मूल है आसक्ति का त्याग, ममत्व से मुक्ति, अंतःकरण की शुद्धि के लिए निरन्तर कर्म एवं आत्मरूप परमात्मा में निवास (५/७)। ऐसा दिव्यकर्मी कर्म करते हुए भी कभी उनमें लिप्त नहीं होता। कर्मसंन्यास योग की यह यात्रा स्वयं में बड़ी विलक्षण है। भगवान् कहते हैं कि देखें, सुने, स्पर्श करें, सूंघें, भोजन करें पर यह भाव रखें कि इन्द्रियाँ अपने- अपने कार्य में लगी हैं, मैं कुछ नहीं कर रहा, यह है निरासक्ति का भाव। समुद्र में नदियाँ विलीन हो जाती हैं पर समुद्र को यह भाव नहीं कि वह धारण कर रहा। वह तो वास्पीकृत कर बादल बनाता रहता है जो बरसकर वापस नदियों के रूप में उसके पास जलराशि लेकर आ जाते हैं। हम जल में कमल की भाँति रहें। जैसे जल उसे स्पर्श नहीं करता ऐसे दैनंदिन जीवन से जुड़े कर्म- उनके साथ जुड़े संस्कार हमें स्पर्श नहीं करेंगे। हमारे कर्ममात्र अंतःकरण- चित्त की शुद्धि के लिए हों। अज्ञान के द्वारा प्राणी मात्र का ज्ञान आच्छादित है। अर्थात् हम अज्ञान से मोहित होकर ही अज्ञानी जन जैसे कर्म कर रहे हैं। जिनका यह अज्ञान परमात्मा के ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया वे अंदर- बाहर से ज्ञान से आप्लावित साधक कर्मयोगी उसी में अपनी निष्ठा, बुद्धि, मन सभी समर्पित कर पापरहित हो मोक्ष को प्राप्त होते हैं (५/१७)।
दिव्य कर्म करते करते हम परमात्मा में अनुरक्ति का भाव जगाते हुए, अपना सभी कुछ उन्हें अर्पित कर देते हैं- अपने ज्ञानचक्षु जगा लेते हैं तो हमें भान होता है कि जो सुख विषयी रूपों को सुख जैसा लगता है वह तो क्षणिक है, दुख का कारण ही- सदैव बंधनों में बाँधता रहता है एवं यह तो अनित्य- क्षणभंगुर है। विवेकवान कर्मयोगी उनमें अपना ध्यान नहीं लगता- न उनमें रमण करने की इच्छा करता है (५/२२)। भगवान् यह भी कहते हैं कि शरीर नष्ट होने से पहले काम- क्रोध से उत्पन्न वेगों को सहन करने की सामर्थ्य पैदा करलो। ऐसा ही पुरुष योगी कहलाता है- सच्चा सुख पाता है। क्रमशः योश्वरकृष्ण ध्यानयोग की, आत्मसंयम योग की पृष्ठभूमि बनाते हैं। वे कहते हैं कि ध्यान वही कर पायेगा जो इच्छा- भय से, राग- द्वेष से मुक्त हो परमात्मा की धारणा कर पायेगा। हम अपने चित्त की वृत्तियों को धारणा द्वारा घनीभूत कर अपने विचारों को चित्त में घोल लेते हैं। चित्त में विचारों का घुलना ही ध्यान है। फिर चित्त का रोम- रोम बोलने लगता है- अहं ब्रह्मास्मि। इस अनुभव की प्रगाढ़ता ही ध्यान है। धीरे- धीरे चित्तवृत्तियाँ शुद्ध होती हैं एवं ध्यान लगने लगता है। इसकी एक पूर्वक्रिया भगवान् २७- २८ श्लोक में समझाते हैं।
ज्ञानयोगी में चिन्तन की- विचारों की प्रगाढ़ता होती है, कर्मयोगी में भावों की प्रगाढ़ता होती है। कर्मयोगी इसीलिए श्रेष्ठ माना गया है। भावना के बिना न अर्पण हो पाता है, न कर्म। इस भक्ति मिश्रित कर्म से ध्यानयोग की पृष्ठभूमि बन जाती है। समाधि का लाभ दोनों वर्गों को मिलता है पर भगवान् के बड़े स्पष्ट विचार है कि योगी कौन है। युगगीता के इस तीसरे खण्ड में छठे अध्याय का प्रारंभिक भाग भी प्रस्तुत किया गया है जिसमें वे बताते हैं कि सच्चा योगी कौन है? संकल्पों को त्यागने वाला ही संन्यासी है, योगी है, ध्यानयोगी है, कर्मयोगी है। योगारूढ़ होने वाला जानता है कि मेरा आत्मा स्वयं में बड़ा बलिष्ठ है। वही मुझे प्रेरणा देगा, वही मेरा सच्चा मित्र है और इंद्रियों को जीतने में उसी की सच्ची प्रेरणा है। ज्ञानविज्ञान से तृप्त विकाररहित अंतकरण वाला ही धारणा स्थापित कर ध्यानयोग में प्रतिष्ठत हो सकेगा, ऐसा श्रीकृष्ण का मत है। युगगीता का यह तीसरा खण्ड वसंत पर्व २००८ (विक्रम संवत् २०६४) की पावन वेला में ऐसे योगेश्वर परम पूज्य गुरुदेव को समर्पित है जिनने सारा जीवन श्रीकृष्ण की ही तरह जिया, लोकशिक्षण किया एवं विद्या विस्तार किया।
— डॉ० प्रणव पण्ड्या
अब वे पाँचवे अध्याय द्वारा जो अति महत्त्वपूर्ण है, में ‘‘कर्म संन्यास योग’’ प्रकरण में सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय प्रस्तुत करते हैं, सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा का ज्ञान कराते हैं। वे फिर वे ज्ञानयोग की महत्ता बताते हुए भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन भी करते हैं। ध्यान योग की पूर्व भूमिका बनाकर वे अपने प्रिय शिष्य को एक प्रकार से छठे अध्याय के प्रारम्भिक श्लोकों द्वारा आत्मसंयम की महत्ता समझा देते हैं। यही सब कुछ परम पूज्य गुरुदेव के चिंतन के परिप्रेक्ष्य में युगगीता- ३ में प्रस्तुत किया गया है। इससे हर साधक को कर्मयोग के संदर्भ में ज्ञान की एवं ज्ञान के चक्षु खुलने के बाद ध्यान की भूमिका में प्रतिष्ठित होने का मार्गदर्शन मिलेगा। जीवन में कैसे पूर्णयोगी बने- युक्तपुरुष किस तरह बनें, यह मार्गदर्शन छठे अध्याय के प्रारंभिक ९ श्लोकों में हुआ है। इस तरह प्रचम अध्याय के २९ एवं छठे अध्याय के ९ श्लोकों की युगानुकूल व्याख्या के साथ युगगीता का एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण समाप्त होता है।
अर्जुन ने प्रारंभ में ही एक महत्त्वपूर्ण जिज्ञासा प्रस्तुत की है कि कर्मसंन्यास व कर्मयोग में क्या अंतर है। उसे संशय है कि कहीं ये दोनों एक ही तो नहीं। दोनों में से यदि किसी एक को जीवन में उतारना है तो उसके जैसे कार्यकर्त्ता- एक क्षत्रिय राजकुमार के लिए कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। वह एक सुनिश्चित जवाब जानना चाहता है। उसके मन में संन्यास की एक पूर्व निर्धारित पृष्ठभूमि बनी हुई है। जिसमें सभी कर्म छोड़कर गोत्र आदि- अग्रि को छोड़कर संन्यास लिया जाता है। भगवान् की दृष्टि में दोनों एक ही हैं। ज्ञानयोगियों को फल एक में मिलता है तो कर्मयोगियों को दूसरे में, पर दोनों का महत्त्व एक जैसा ही है। जो कर्म का न्यास बनादे, कर्म करते हुए भी अकर्म में प्रतिष्ठित हो, कभी जिसकी फल में लिप्सा न हो वह कर्मसंन्यासी एवं बिना किसी आसक्ति के निर्दिष्ट कर्म- दिव्यकर्म करने वाला कर्मयोगी- यह व्याख्या श्रीकृष्ण देते हैं। भगवान् कहते हैं कि इन्हें अलग- अलग नहीं मानना चाहिए। ‘‘सांख्ययोगो पृथग्बालःप्रवदन्ति न पण्डिताः’’ (चौथे श्लोक में कहकर वे मोहर लगा देते हैं कि दोनों एक ही हैं। हो सकता है स्वरूप पृथक- पृथक दिखाते देते हों पर दोनों मार्ग एक ही फल देते हैं, एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं।)
भगवान् की युगगीता के इस तीसरे खण्ड में यात्रा कर्म से ध्यान की ओर है। पूर्व भूमिका ज्ञान द्वारा बनाई गयी है- आत्मसत्ता की महानता प्रतिष्ठित करके समझाई गई है। सामान्य कर्म जो हम करते हैं वे शरीर यात्रा- सुख आदि के लिए होते हैं। आदमी बंधनों में बंधता है। कर्म में जब विवेक जगता है तो सार्थकता- औचित्य का भाव जगता है। तब ज्ञान का जागरण होता है। फिर क्षुद्र स्वार्थों के लिए कर्म नहीं होते, विराट् के लिए कर्म होने लगते हैं। भगवान् कहते हैं कि अब ज्ञान व कर्म में कोई भेद नहीं रह जाता। ज्ञानयोगी कहता है कि मैं देह नहीं, चित्त नहीं, इन्द्रिय नहीं हूँ- मैं तो परब्रह्म में प्रतिष्ठित हूँ। जब चित्त ही नहीं तो प्रारब्ध कैसे बन सकेगा? भगवान् कहते हैं- न इति, न इति। ज्ञानयोगी उनके अनुसार बौनेपन में काम नहीं करता है वह तो विवेक के आधार पर प्रभु के मार्गदर्शन में तालबद्ध नाचता है। न सांख्ययोग आसक्तिवश कोई गलत कर्म करता है, न ही कर्मयोगी कोई गलत कर्म करता है क्योंकि वह भी आसक्ति के दोष से मुक्त है। ज्ञानयोगी तो श्रवण, मनन, निदिध्यासन में प्रतिष्ठित हो जाता है।
रामकृष्णमरमहंस एक कथा सुनाते थे। गाँव में बायोस्कोप वाला आया। वह दिखाता था- रंग बिरंगी दुनिया वह रंग बिरंगे स्वरूप दिखाकर समझाता था- दुनिया ऐसी है, ऐसी नहीं भी है। थोड़ी देर का खेल है। आत्मा से देखो तो रंग नहीं है। मन से- चित्त से देखोगे तो रंग हैं। ज्ञानयोगी कहता है तत्त्व से समझ लोगे तो मर्म कुछ और ही है। ठाकुर कहते थे कि खानदानी हार में आसक्तियाँ हो सकती हैं। सभी घरवाले उससे भिन्न- भिन्न रूपों में जुड़े हो सकते हैं पर सुनार नहीं जुड़ा होता। वह तो तत्त्व से जानता है। ज्ञानयोगी बार- बार कहता है कि रूप और आकार में कोई भेद नहीं होता। सारे भेद बेकार हैं। कर्मयोगी भी हर काम प्रभु को अर्पित करके करता है। दोनों के तरीके विराट् में घुलने के अलग- अलग हैं पर उद्देश्य एक ही है।
भगवान् इस कर्म संन्यास योग में कहते हैं कि सबका मूल है आसक्ति का त्याग, ममत्व से मुक्ति, अंतःकरण की शुद्धि के लिए निरन्तर कर्म एवं आत्मरूप परमात्मा में निवास (५/७)। ऐसा दिव्यकर्मी कर्म करते हुए भी कभी उनमें लिप्त नहीं होता। कर्मसंन्यास योग की यह यात्रा स्वयं में बड़ी विलक्षण है। भगवान् कहते हैं कि देखें, सुने, स्पर्श करें, सूंघें, भोजन करें पर यह भाव रखें कि इन्द्रियाँ अपने- अपने कार्य में लगी हैं, मैं कुछ नहीं कर रहा, यह है निरासक्ति का भाव। समुद्र में नदियाँ विलीन हो जाती हैं पर समुद्र को यह भाव नहीं कि वह धारण कर रहा। वह तो वास्पीकृत कर बादल बनाता रहता है जो बरसकर वापस नदियों के रूप में उसके पास जलराशि लेकर आ जाते हैं। हम जल में कमल की भाँति रहें। जैसे जल उसे स्पर्श नहीं करता ऐसे दैनंदिन जीवन से जुड़े कर्म- उनके साथ जुड़े संस्कार हमें स्पर्श नहीं करेंगे। हमारे कर्ममात्र अंतःकरण- चित्त की शुद्धि के लिए हों। अज्ञान के द्वारा प्राणी मात्र का ज्ञान आच्छादित है। अर्थात् हम अज्ञान से मोहित होकर ही अज्ञानी जन जैसे कर्म कर रहे हैं। जिनका यह अज्ञान परमात्मा के ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया वे अंदर- बाहर से ज्ञान से आप्लावित साधक कर्मयोगी उसी में अपनी निष्ठा, बुद्धि, मन सभी समर्पित कर पापरहित हो मोक्ष को प्राप्त होते हैं (५/१७)।
दिव्य कर्म करते करते हम परमात्मा में अनुरक्ति का भाव जगाते हुए, अपना सभी कुछ उन्हें अर्पित कर देते हैं- अपने ज्ञानचक्षु जगा लेते हैं तो हमें भान होता है कि जो सुख विषयी रूपों को सुख जैसा लगता है वह तो क्षणिक है, दुख का कारण ही- सदैव बंधनों में बाँधता रहता है एवं यह तो अनित्य- क्षणभंगुर है। विवेकवान कर्मयोगी उनमें अपना ध्यान नहीं लगता- न उनमें रमण करने की इच्छा करता है (५/२२)। भगवान् यह भी कहते हैं कि शरीर नष्ट होने से पहले काम- क्रोध से उत्पन्न वेगों को सहन करने की सामर्थ्य पैदा करलो। ऐसा ही पुरुष योगी कहलाता है- सच्चा सुख पाता है। क्रमशः योश्वरकृष्ण ध्यानयोग की, आत्मसंयम योग की पृष्ठभूमि बनाते हैं। वे कहते हैं कि ध्यान वही कर पायेगा जो इच्छा- भय से, राग- द्वेष से मुक्त हो परमात्मा की धारणा कर पायेगा। हम अपने चित्त की वृत्तियों को धारणा द्वारा घनीभूत कर अपने विचारों को चित्त में घोल लेते हैं। चित्त में विचारों का घुलना ही ध्यान है। फिर चित्त का रोम- रोम बोलने लगता है- अहं ब्रह्मास्मि। इस अनुभव की प्रगाढ़ता ही ध्यान है। धीरे- धीरे चित्तवृत्तियाँ शुद्ध होती हैं एवं ध्यान लगने लगता है। इसकी एक पूर्वक्रिया भगवान् २७- २८ श्लोक में समझाते हैं।
ज्ञानयोगी में चिन्तन की- विचारों की प्रगाढ़ता होती है, कर्मयोगी में भावों की प्रगाढ़ता होती है। कर्मयोगी इसीलिए श्रेष्ठ माना गया है। भावना के बिना न अर्पण हो पाता है, न कर्म। इस भक्ति मिश्रित कर्म से ध्यानयोग की पृष्ठभूमि बन जाती है। समाधि का लाभ दोनों वर्गों को मिलता है पर भगवान् के बड़े स्पष्ट विचार है कि योगी कौन है। युगगीता के इस तीसरे खण्ड में छठे अध्याय का प्रारंभिक भाग भी प्रस्तुत किया गया है जिसमें वे बताते हैं कि सच्चा योगी कौन है? संकल्पों को त्यागने वाला ही संन्यासी है, योगी है, ध्यानयोगी है, कर्मयोगी है। योगारूढ़ होने वाला जानता है कि मेरा आत्मा स्वयं में बड़ा बलिष्ठ है। वही मुझे प्रेरणा देगा, वही मेरा सच्चा मित्र है और इंद्रियों को जीतने में उसी की सच्ची प्रेरणा है। ज्ञानविज्ञान से तृप्त विकाररहित अंतकरण वाला ही धारणा स्थापित कर ध्यानयोग में प्रतिष्ठत हो सकेगा, ऐसा श्रीकृष्ण का मत है। युगगीता का यह तीसरा खण्ड वसंत पर्व २००८ (विक्रम संवत् २०६४) की पावन वेला में ऐसे योगेश्वर परम पूज्य गुरुदेव को समर्पित है जिनने सारा जीवन श्रीकृष्ण की ही तरह जिया, लोकशिक्षण किया एवं विद्या विस्तार किया।
— डॉ० प्रणव पण्ड्या