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Books - युगगीता (भाग-४)

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Language: EN
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अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते

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First 17 19 Last
अभ्यास अर्थात प्रभु के प्रति अनुराग

श्री भगवान आत्मसंयम योग से भी पूर्व शुरु से स्थितप्रज्ञ की व्याख्या एवं उसके बाद के अध्यायों के श्लोकों में यह बात कहते चले आ रहे हैं कि अपने मन को परमात्मा में नियोजित करो। मन को सच्चिदानन्दघन परमात्मा में लगाने के लिए किये गये निरन्तर संपन्न प्रयास ही अभ्यास योग के अन्तर्गत आते हैं। ‘‘अभ्यास’’ में उनके प्रति भक्ति बढ़े- अनुराग बढ़ें- उनमें निरुद्धता हो, ऐसे सभी उपाय आते हैं। उनकी लीलाओं का चिन्तन, मनन- उनके लीला सहचर रूप सद्गुरु की अमृत वाणी का पठन पाठन- आध्यात्मिक पुस्तकों का स्वाध्याय अभ्यास के अन्तर्गत ही आता है। यह प्रक्रिया शरीर, मन, वाणी से बार- बार की जाती है। विषयों का दोषदर्शन कराया जाता है। उनमें आसक्ति से होने वाली हानियों पर चिन्तन किया जाता है एवं बार- बार मन को आत्मा में लौटा लिया जाता है। आत्मा ही परमात्मा का अंश है, दिव्यताओं का घनीभूत केन्द्र है। इस प्रकार करते रहने से विषयों से निरासक्ति- वैराग्य का भाव उत्पन्न हो जाता है। भगवत्कृपा यदि हो तो यह संभव हो जाता है एवं मन आनन्दमय परमात्मा में तन्मय हो जाता है।

भगवान दूसरे अध्याय के स्थितप्रज्ञ प्रकरण में कहते हैं- ‘‘साधक को चाहिए कि वह संपूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे पारायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वश में होती है उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है’’ (२/६१)। ‘‘जब ऐसा साधक अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है तो उसके संपूर्ण दुःख समाप्त हो जाते हैं और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है’’ (२/६५)। आगे चलकर श्रीकृष्ण इसे और स्पष्ट करते हैं। ‘‘मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा संपूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममता रहित और सन्ताप रहित होकर युद्ध कर ३/३०’’ ।। यहाँ जिस ‘मैं’ की बात श्रीकृष्ण कह रहे हैं- वह है हर मनुष्य के भीतर विद्यमान अन्तर्यामी परमात्मा। जब उसमें चित्त लगा तो योगी वैराग्य भाव से अपने सभी कर्मों का फल उन्हें अर्पित कर बिना किसी महत्त्वाकांक्षा या किसी प्रकार के लगाव या उद्विग्रता के कार्य में निरत हो जाता है। यही संयमी साधक दिव्यकर्मी योगी की पहचान है। वह जानता है कि स्थूल शरीर से भी परे इन्द्रिय हैं। उनसे भी परे- श्रेष्ठ मन है, मन से परे बुद्धि है एवं बुद्धि से भी परे आत्मा है। यही आत्मा परमात्मा का निवास है। (३/४२)

परमात्म सत्ता में सतत निवास

आगे वे कहते हैं जो राग, भय और क्रोध पर विजय प्राप्त कर चुके है वे परमात्मा में ही प्रेम पूर्वक निवास करते हैं और ऐसे भक्त ज्ञानरूपी तप से पवित्र होकर परमात्मा के ही स्वरूप को। श्रीकृष्ण को प्राप्त हो चुके हैं (४/१०)। यहाँ मर्म भी यही है कि परमात्मा को प्राप्त होकर वह उन्हीं में निवास करता है पवित्रतम बन जाता है और इसके लिये उसे अभ्यास करना पड़ता है। वीतराग होने का, भय, क्रोध पर विजय प्राप्त करने का। परमात्मा का सतत चिन्तन इसे इस सिद्धि की प्राप्ति में मदद देता है।

कैसे मिले वह पवित्र ज्ञान?

बात अभ्यास और वैराग्य की ही चल रही है। भगवान इस संबंध में ज्ञान की महिमा चौथे अध्याय में बता चुके हैं एवं कह चुके हैं कि यह ज्ञान उसे तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर उन्हें समझने से, उन्हें विनयपूर्वक प्रणाम करने से, उनकी निष्कपट सेवा एवं अपनी जिज्ञासा उनके समक्ष रखने से मिल सकेगा। आज यदि ऐसे ज्ञानियों का अभाव है तो उनके लिखे बहुत से ग्रन्थ- सत्साहित्य विद्यमान हैं, जिनका स्वाध्याय हमें परमात्म चिन्तन की ओर प्रेरित कर सकता है। परम पूज्सय गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने ऐसा साहित्य विपुल परिमाण में अपनी तीन हजार पुस्तकों के माध्यम से लिखा है जिन्हें एक विराट वाङ्मय के सत्तर खण्डों में क्रमबद्ध रखा गया है। उनके साहित्य के मनन- चिन्तन, लीलाओं का पठन पाठन भी हमें अभ्यास और वैराग्य की ओर ले जा सकता है। इस ज्ञान से व्यक्ति मोह को नहीं प्राप्त होता क्योंकि यह अति पवित्र है। पापी से पापी व्यक्ति भी इस ज्ञान रूपी नौका में बैठकर पाप समुद्र से भलीभाँति तर जाता है (४/३४, ४/३५ एवं ४/३६)।

यह पवित्रतम ज्ञान अन्तःकरण को शुद्ध कर देता है और जितेन्द्रिय, तत्पर, श्रद्धावान व्यक्ति इसे सहज ही प्राप्त कर सकता है। इससे बिना विलम्ब के भगवत्प्राप्तिरूपी परम शान्ति मिलती है। (४/३८,३९) इसी संदर्भ में पंचम अध्याय में भगवान कहते हैं जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और संपूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता- अर्थात वैराग्य भाव उसका सदैव बना रहता है। (५/७)। ज्ञान सबसे महत्त्वपूर्ण प्राप्त करने योग्य तत्व भगवान बताते हैं एवं वह भगवद तत्व को जाने बिना मिलेगा नहीं। चूंकि अज्ञान से ज्ञान ढंका हुआ है, जन्तुरूपी मनुष्य इसे पहचान नहीं पाता, सम्मोहित बना रहता है, किंतु यदि वह अज्ञान परमात्मा के तत्वज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया जाय तो वह ज्ञान सूर्य के समान सच्चिदानन्द घन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है। (५/१५, १६) उपचार एक ही है तद्रूपता- सच्चिदानन्दघन भगवान में ही एकीभाव से स्थिति। यही निरुद्धता है- समर्पण है- विलय है। यही योग का परम लक्ष्य है। (५/१७)। भगवान अपनी व्याख्या द्वारा अर्जुन को इसी दिशा में ले जाना चाह रहे हैं।

नियमित अभ्यास सतत ध्यान ही एक मात्र उपाय

अतः जब जब मन भटके, श्रीकृष्ण कहते हैं कि निरन्तर अभ्यास एवं वैराग्य द्वारा मन को साधो। नियमित गंभीर अभ्यास से अहं केन्द्रित कामनाएँ कम होंगी तथा धीरे धीरे वे छूटती चली जाएँगी। वे कहते हैं कि नियमित अभ्यास से- परमात्मा में मन को निरुद्ध करने से- सतत ध्यान करते रहने से तथा अपने मन से उठने वाली कामनाओं- वासनाओं से त्याग ले लेने से मन को भली प्रकार साधा जा सकता है और उस पर मनुष्य का अपना पूरा नियंत्रण हो सकता है। (अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ६/३५ बी)। पहले भी भगवान इसी अध्याय में अर्जुन को बता चुके हैं- ‘‘आत्मैव ही आत्मनो बन्धुः आत्मैव रिपु आत्मनः’’- अर्थात यह मनुष्य आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है। यह यदि कोशिश करे तो अभ्यास और वैराग्यरूपी दो उपचारों से अपने मन- आत्मा को अपना मित्र- हितैषी बनाकर योगारूढ़ हो सकता है।

वैराग्य से आशय?

वैराग्य की चर्चा, आसक्ति के त्याग, ‘‘संगंत्यक्त्वा’’- तृष्णा- कामना छोड़ने के रूप में उपदेश द्वारा योगेश्वर बार- बार कर चुके हैं। मनुष्य अपना स्वभाविक जीवन जिए पर मोहासक्ति किसी से न रखे। वे कह चुके हैं कि वही सच्चा संन्यासी- योगी है जो कर्म फल का आश्रय न लेकर, करने योग्य कर्म करता रहता है। निष्काम भाव से सतत कर्म- यही एक दिव्यकर्मी का धर्म होना चाहिए। यही सच्चा वैराग्य है। किसी को भी श्रीकृष्ण के कहे इस वाक्य का गलत अर्थ निकालकर घर बार नहीं छोड़ देना चाहिए। आप कहीं भी रहें पर निरासक्त भाव से रहें, मन में किसी के प्रति कोई राग न हो, न द्वेष हो, फिर भी सभी के प्रति आत्मवत् सर्वभूतेषु का भाव हो।

हे महाबाहो। हे कौन्तेय!

एक बात यहाँ ध्यान देने योग्य है कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन के लिए ‘‘महाबाहो’’ शब्द का प्रयोग किया है। वे कहना चाहते हैं कि योद्धा, वीर अर्जुन जिसने इतने युद्ध जीते हैं, आखिर क्यों अपने आंतरिक शत्रु से भयभीत होता है। इस पर तो उसे विजय प्राप्त करना चाहिए। यह उसकी शान के खिलाफ है कि वह इन सामान्य सी दिखने वाली आपदाओं से डर कर कह उठे कि उसका मन नहीं लगता क्योंकि मन बड़ा चंचल है, बलवान है, अदमनीय है। वायु रोकने के समान दुष्कर कार्य है यह। फिर वे उसे दूसरी ही पंक्ति में पुनः प्यार से संबोधित करते हैं- ‘‘कौन्तेय’’ कुन्तीपुत्र! तुम मुझे अत्यधिक प्रिय हो। भाव यह है कि मैं तुम्हें पूरा मार्गदर्शन दूँगा- तुम्हारी जिज्ञासा का समुचित समाधान करूँगा। क्योंकि तुम माता कुन्ती के पुत्र हो, मेरे प्रिय सखा एवं शिष्य भी हो। यदि मुझ पर विश्वास रखोते तो दीर्घकाल तक किये गए अभ्यास और वैराग्य से तुम अपने मन पर पूरा नियंत्रण कर सकोगे।

आगे वे कहते हैं कि यह मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि असंयमी व्यक्ति योग को प्राप्त नहीं होता किंतु संयमी व्यक्ति शास्त्रविहित उपायों से निश्चित ही अपने मन पर नियंत्रण प्राप्त कर सकता है (श्लोक क्रमांक ३६)। जिस किसी भी साधना पथ पर चलने वाले ने कर्मयोग के अभ्यास द्वारा अपनी वासनाओं का क्षय नहीं किया, वह कभी भी अपने मन को वश में नहीं कर सकता और इस तरह उसे कभी भी ध्यान योग में सफलता नहीं मिल सकती। किंतु ठीक इसके उलटे यदि किसी ने विषयों- भावोद्वेगों से अपने को उपरत कर लिया है तो वह गहन ध्यान कर सकता है और उसे सफलता भी मिलती है (किंतु) उपायतः (शास्त्र विहित उपाय से)यतता (यत्नशील) वश्यात्मना (संयम चित्त व्यक्ति के द्वारा) [वह योग सिद्धि](प्राप्त हो सकती है) अवाप्तुम शक्य। ।’’ ६/३६ बी

 संयम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण

कितना स्पष्ट आश्वासन व मार्गदर्शन है। भगवान चाहते हैं कि अर्जुन मन की चंचलता का कारण समझे। क्षणिक विषयभोगों की अंधाधुंध भगदड़ से इन्द्रियों को रोका जाना चाहिए। मन को निरर्थक- थका देने वाली भटकनों से संयमित किया जाना चाहिए। बुद्धि को कामोद्वेगों के फन्दों से पूरी तरह मुक्ति दी जानी चाहिए। यह योग की परमावश्यकता है। जब तक इस बहिरंग की भगदड़ को रोका न गया, जब तक शरीर, मन, बुद्धि को शान्त न कर लिया गया, तब तक ध्यान द्वारा मन को प्रगाढ़ भावदशा में ले जाना संभव नहीं। ध्यान कोई हँसी खेल नहीं। अधिकांश व्यक्तियों का ध्यान इसी कारण सफल नहीं हो पाता। हमारा अंतः सामंजस्य परिपूर्ण हो- यह हम धैर्यपूर्वक देखलें- उसकी व्यवस्था बनायें तो ध्यान एक कीमिया का काम करता है। एक रसायन की तरह हमें आमूलचूल बदल डालता है। भगवान का स्पष्ट मत है कि जो अपने जीवन में संयम का परिपूर्ण पालन कर रहा है और सम्यक प्रयास कर रहा है- शास्त्रविहित उपचारों के अनुरूप जीवन जी रहा है, उसके लिये सफलता सुनिश्चित है। उसे सफलता मिलेगी ही। संयम के साथ ही इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात है धैर्य। अभ्यास एवं वैराग्य का पालन धीरज के साथ करना पड़ता है। कई व्यक्ति ध्यान न लगने, जल्दी परिणाम न मिलने से ध्यान बीच में ही छोड़ देते है। धैर्यपूर्वक यदि अभ्यासरत हुआ जाय तो श्रीकृष्ण का आश्वासन सही ही सिद्ध होता है कि संयमी व्यक्ति सम्यक प्रयासों से इसे प्राप्त कर लेता है, उसे योसिद्धि मिलकर ही रहती है।

ध्यान सिद्धि के स्वर्णिम सूत्र

अब यहाँ संक्षेप में श्रीकृष्ण भगवान के द्वारा गूढ़रूप में ३५ वें एवं ३६ वें श्लोक में जो बातें कही गयी हैं- उन्हें बिन्दुवार समझ लेते हैं।
(१) ध्यान योग में मन की चंचलता स्वाभाविक है। मन का निग्रह करना उतना आवश्यक नहीं, जितना उसे वश में करना अर्थात चित्तशुद्धि। इससे तात्पर्य है, मन में विषयों का राग न रहना। इतना कर लिया तो प्रयत्न करने पर ध्यान सिद्ध हो जाएगा।

(२) वस्तुतः मन की चंचलता ध्यान में इतनी बाधक नहीं है। इसके विपरीत सबमें भगवद्बुद्धि न होना (श्लोक ३१) और राग द्वेष का होना बाधक है। चित्तशुद्धि होते ही रागद्वेष चले जाते हैं, मन परमात्मा में निरुद्ध होने लगता है। सभी में भगवान दिखाई देते हैं।

(३) जब भगवान अभ्यास की चर्चा करते हैं तो उसका आशय है जहाँ जहाँ मन भागे वहाँ वहाँ हम अपने इष्ट- लक्ष्य को देखें। वह इष्ट हमारा आदर्शों का समुच्चय परमात्मा ही है।

(४) अभ्यास के साथ श्रद्धा, विश्वास, निरन्तरता एवं नियमितता ये चार चीजें जरूरी हैं। कभी ध्यान लगाया कभी नहीं- यह ठीक नहीं। रोजाना समय लगाया जाय, नियत चिंतन प्रवाह में मन को नहलाया जाय एवं यह क्रम कभी टूटने न पाए। प्रयास यही हो कि मन संसार से हटकर परमात्मा में लगे। दूसरा कुछ भी चिन्तन आ जाय तो उसकी उपेक्षा कर दें।

(५) भगवान के नाम का जप भी किया जा सकता है, मंत्र जप भी किया जा सकता है अथवा किसी धारणा पर ध्यान टिकाया जा सकता है। इसके अलावा अपने इष्ट, आराध्य, परमात्मा- श्रीकृष्ण, श्रीराम, भगवान शिव अथवा अपने सद्गुरु का भगवान रूप में चिन्तन भी किया जा सकता है। भगवान को सौन्दर्य का समुच्चय मानकर उनके संपूर्ण अंगों का- उनकी विशेषताओं का- उनकी लीलाओं का स्मरण व चिन्तन करना चाहिए।

(६) वैराग्य अभ्यास की सहायता के लिए है। संसार के भोगों से राग जितना हटेगा, मन उतना ही परमात्मा में लगेगा। रागों के प्रति आसक्ति सर्वथा हटने पर मन में संसार का कभी भी रागपूर्वक चिन्तन नहीं होगा। प्रारब्धवश पुराने संस्कार कभी प्रबल हो भी जायँ तो साधक उनकी उपेक्षा कर दे।

(७) निरन्तर चिन्तन करते रहें, यहाँ सभी कुछ तो परिवर्तनशील है। कल हम बालक थे- युवा हुए और अब हम और आयु में बढ़ रहे हैं। हमारी आत्मिक प्रगति ही सब कुछ है। वह हुई कि नहीं। इसके लिए प्रयास हुआ कि नहीं। क्या जाने कब मृत्यु आ जाय। ऐसा बार- बार चिन्तन करने से वैराग्य का भाव मन में आता है- आसक्ति छूटती है।

(८) किसी से कुछ भी अपेक्षा न रखें। बार- बार मन को विक्षुब्ध न होने दें। अपनी आध्यात्मिक यात्रा पर बारम्बार चिन्तन करें। अपेक्षा रखने से राग पैदा होता है- न पूर्त्ति होने पर द्वेष और फिर मन भटक जाता है। राग रहित जीवन में ही शान्ति मिलती है, यह ध्यान रखें।

(९) परम पूज्य गुरुदेव ने चार प्रकार के संयम बताये हैं जिन पर विशेष महत्त्व योगेश्वर ने ३६वें श्लोक में दिया है। इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम एवं विचार संयम। सभी महत्त्वपूर्ण हैं पर यदि विचार संयम सध गया तो जीवन साधना पूर्णतः निभ जाएगी। स्मरण रखें कि यह जीवन साधना कुछ मिनटों- घण्टों की नहीं- चौबीस घण्टे की होती है। पूर्णतः मन को विचारों को भगवत्ता रूपी सैटेलाइट से जोड़े रहना ही संयम की कुंजी है।

अर्जुन के तर्कोँ का खण्डन कर दिया गया किंतु योग पर आरूढ़, युद्ध क्षेत्र में अपनी जिज्ञासा रख रहे इस महावीर किंतु विद्यार्थी के मन में और भी शंकाएँ हैं। कुछ अपने संबंध में कुछ योगक्षेत्र में कदम रखने के बाद भी देखें जाने वाले पतन के विषय में। इनकी चर्चा जुलाई अंक में करेंगे।
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