• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • प्रथम खण्ड की प्रस्तावना
    • द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना
    • तृतीय खण्ड की प्रस्तावना
    • प्रस्तुत चतुर्थ खण्ड की प्रस्तावना
    • एकाकी यतचित्तात्मा निराशीः अपरिग्रहः
    • ध्यान हेतु व्यावहारिक निर्देश देते एक कुशल शिक्षक
    • सबसे बड़ा अनुदान परमानंद की पराकाष्ठा वाली दिव्य शांति
    • युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु
    • कैसा होना चाहिए योगी का संयत चित्त
    • योग की चरमावस्था की ओर ले जाते योगेश्वर
    • परमात्मारूपी लाभ को प्राप्त व्यक्ति दुःख में विचलित नहीं होता
    • बार-बार मन को परमात्मा में ही निरुद्ध किया जाए
    • चित्तवृत्ति निरोध एवं परमानन्द प्राप्ति का राजमाग
    • ध्यान की पराकाष्ठा पर होती है सर्वोच्च अनुभूति
    • यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति
    • सुख या दुख में सर्वत्र समत्व के दर्शन करता है योगी
    • कैसे आए यह चंचल मन काबू में?
    • अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते
    • कल्याणकारी कार्य करने वाले साधक की कभी दुर्गति नहीं होती
    • भविष्य में हमारी क्या गति होगी, हम स्वयं निर्धारित करते हैं
    • योग पथ पर चलने वाले का सदा कल्याण ही कल्याण है
    • तस्मात् योगी भवार्जुन्
    • वही ध्यानयोगी है श्रेष्ठ जो प्रभु को समर्पित है
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • प्रथम खण्ड की प्रस्तावना
    • द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना
    • तृतीय खण्ड की प्रस्तावना
    • प्रस्तुत चतुर्थ खण्ड की प्रस्तावना
    • एकाकी यतचित्तात्मा निराशीः अपरिग्रहः
    • ध्यान हेतु व्यावहारिक निर्देश देते एक कुशल शिक्षक
    • सबसे बड़ा अनुदान परमानंद की पराकाष्ठा वाली दिव्य शांति
    • युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु
    • कैसा होना चाहिए योगी का संयत चित्त
    • योग की चरमावस्था की ओर ले जाते योगेश्वर
    • परमात्मारूपी लाभ को प्राप्त व्यक्ति दुःख में विचलित नहीं होता
    • बार-बार मन को परमात्मा में ही निरुद्ध किया जाए
    • चित्तवृत्ति निरोध एवं परमानन्द प्राप्ति का राजमाग
    • ध्यान की पराकाष्ठा पर होती है सर्वोच्च अनुभूति
    • यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति
    • सुख या दुख में सर्वत्र समत्व के दर्शन करता है योगी
    • कैसे आए यह चंचल मन काबू में?
    • अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते
    • कल्याणकारी कार्य करने वाले साधक की कभी दुर्गति नहीं होती
    • भविष्य में हमारी क्या गति होगी, हम स्वयं निर्धारित करते हैं
    • योग पथ पर चलने वाले का सदा कल्याण ही कल्याण है
    • तस्मात् योगी भवार्जुन्
    • वही ध्यानयोगी है श्रेष्ठ जो प्रभु को समर्पित है
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - युगगीता (भाग-४)

Media: TEXT
Language: EN
TEXT TEXT TEXT


योग पथ पर चलने वाले का सदा कल्याण ही कल्याण है

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 20 22 Last
योग से युत होने का भय

अर्जुन विद्वान है, भावनाशील है बचपन से ही उसे सत्पुरुषों की संगति मिली है, पर उसने बड़ा दुख झेला है। राजपुत्र होने के बावजूद कौरवों द्वारा सौतेला व्यवहार, पिता का विछोह, अपनी बड़ी माँ की (माद्री) जल्दी मृत्यु, अज्ञातवासों की शृंखला- इस पर भी उसे वासुदेव का साथ मिला, यह उसका सौभाग्य है। पर उसकी मनःस्थिति इन हिचकोलों की वजह से बड़ी व्यथित है। युद्ध वास्तविक रूप में सामने आने पर वह अपने पितामह एवं गुरु द्रोण को देखकर व्यथित हो जाता है। उसे श्रीकृष्ण के उपदेश प्रिय तो लग रहे हैं, पर उसकी कमजोरियाँ भी याद आ रही हैं। उसकी जिज्ञासा किसी भी आम आदमी की जिज्ञासा है। क्या होगा- यदि योग पथ पर चलते- चलते अंत आने के पूर्व ही मार्ग से च्युत हो जायें- कोई असंयम किसी भी प्रकार का हो जाय। कहीं ऐसा तो नहीं कि वर्षों का आध्यात्मिक पुरुषार्थ व्यर्थ चला जायेगा। कोई कैसे इतनी सावधानी रखेगा। यह सारी आशंकायें उसे परेशान कर रही हैं। उन्हीं से ग्रस्त हो वह हम सभी की ओर से प्रश्र पूछता है और भगवान उसका तुष्टिपरक समाधान देते हैं।

पूज्यवर का हमें संदेश

परम पूज्य गुरुदेव ने मृत्यु को एक पर्व माना है और भारतीय संस्कृति की परिभाषाओं में व्याख्या करते हुए उसे आत्मा की अनंत यात्रा का एक विराम (Stop Over) भर कहा है। आत्मा की निरंतरता- पुण्यों का संचय- तप से अर्जित संस्कारों की निधि की अक्षुण्णता बराबर बनी रहती है। इसीलिए उनने योग शब्द की विराट व्याख्या की- उसे यज्ञ से जोड़कर परमार्थ के लिए किया गया एक श्रेष्ठतम कर्म माना। कहा कुसंस्कारों की गलाई करो- उन्हें साफ करते चलो- तप की प्रक्रिया द्वारा तथा सुसंस्कारों की ढलाई करो- योग के द्वारा। युग निर्माण जैसे विराट कार्य में, विचार क्रांति अभियान में, देव संस्कृति विश्वविद्यालय द्वारा एक व्यापक विद्या विस्तार योजना में उनके द्वारा हमें नियोजित किया जाना हमारे हित में ही है, यह हमें मानते रहना चाहिए। हम इस जन्म में मुक्त न हो पाए तो क्या? गुरु का कार्य करते हुए अगला जन्म लेंगे- किसी श्रीमंत के यहाँ या किसी योगी- ज्ञानी के यहाँ और अंततः बंधनमुक्त हो जायेंगे- हमारी दिव्य गति होगी। हमें याद रखना है कि हमारे द्वारा किया गया एक भी कल्याणकारी कार्य कभी निरर्थक नहीं जायेगा। वह हमारे अक्षय पुण्यों की निधि में जुड़ता चला जायेगा। जहाँ तक हम कर सकें करें- उसी कड़ी को आगामी जन्म में पुनः वहीं से जोड़ते हुए चलेंगे- पिछला फिक्स्ड डिपाजिट (Fixed Deposit) हमारे काम आएगा।

योगेश्वर श्रीकृष्ण बड़े मर्म की बात कहते हैं एवं अर्जुन के साथ- साथ हम सभी गीता के सुधी पाठकों को एक आश्वासन देते हैं कि धैर्य रखो- तप और योग को जीवन का एक अंग बना लो और अपने जीवन में क्रमशः आध्यात्मिकता का समावेश करते रहो। सभी कुछ ठीक होता चला जायेगा। चाहे वह युग साहित्य का स्वाध्याय हो, चाहे उस क्रांतिकारी चिंतन का विस्तार हो, वाणी द्वारा या लेखनी द्वारा, आचरण द्वारा या अन्य किसी माध्यम द्वारा- हमारे हित के लिए ही है। आगे के श्लोकों में श्रीकृष्ण कहते हैं—

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥६/४३॥

शब्दार्थ-

‘‘हे कुरुनन्दन अर्जुन (कुरुनन्दन) उस जन्म में (तत्र) उसको (तं) पूर्वजन्म की (पौर्वदेहिकम्) ब्रह्मविषयक बुद्धि का संयोग- साधन सम्पत्ति [अनायास ही] (बुद्धिसंयोगं) प्राप्त हो जाती है (लभते)। उससे [वह] (ततः) फिर (च) साधन की सिद्धि के विषय में (संसिद्धौ) पुनः (भूयः) प्रयत्न करता है (यतते)।’’

भावार्थ- ‘‘वहाँ वहा उस पहले शरीर में संग्रह किये हुए बुद्धि- संयोग को अर्थात् योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्तिरूपी सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़चढ़कर प्रयत्न करता है।’’

 पूर्वजन्म की सम्पदा

श्रीमद्भगवद्गीता का सौन्दर्य उसके काव्य में भगवान वेदव्यास द्वारा चयन किए हुए शब्दों के गुंथन में देखा जा सकता है। ऐसा लगता है वासुदेव के श्रीमुख से वह सब इस श्लोक में अभिव्यक्त कर दिया गया है, जो कोई योगी इस जन्म में संग्रहीत कर भावी जन्म में प्राप्त करता है या जिसे जानने की आकांक्षा हर किसी में रहती है। पिछले श्लोकों (४१,४२) के द्वारा हमें यह तो समझ में आ गया कि योग से भ्रष्ट हुआ व्यक्ति कुछ अपनी विशिष्ट भोगकामनाओं का क्षय करता हुआ क्रमशः योगी के घर में जन्म ले लेता है अथवा श्रीमन्तों के यहाँ पैदा होता है। फिर पूर्व में अर्जित ज्ञान- अन्यान्य विशिष्ट योग्यताओं का क्या होता है। पूर्वजन्म में इतना परिश्रम किया, वह निरर्थक तो नहीं चला जाता। क्या फिर से मन को निग्रहीत कर ध्यान का पूरा अभ्यास फिर से करना पड़ता है? यह प्रश्र किसी के भी मन में आ सकता है।

ऐसे में महान मनोवैज्ञानिक एक कुशल चिकित्सक के रूप में श्रीकृष्ण घोषणा करते हैं कि जैसे ही नया शरीर मिलता है- मानवी बुद्धि स्वतः स्वाभाविक रूप से पूर्व शरीर में अर्जित ज्ञान को प्राप्त कर लेती है- लभते पौर्वदेहिकम्। अब सारा विश्व इस तथ्य को स्वीकार कर रहा है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक चिकित्सक डॉ० ब्रायन वायस अपनी मेनीलाइव्स मेनीमास्टर्स एवं मेसेजेस फ्राम मास्टर्स जैसी विश्वविख्यात पुस्तकों में अपने अनुभवों द्वारा विगत एक दशक में एक क्रांति मचा चुके हैं कि मनुष्य पूर्व जन्म की यादों को- बुद्धि को संग्रहीत करता चलता है। उनने इसके माध्यम से रोगियों को पूर्व जन्म की यादों में ले जाकर बहुत सी आज की व्याधियों की चिकित्सा करने की कोशिश की है और उन्हें नब्बे प्रतिशत सफलता मिली है। इस देह के छोड़ने के बाद वासनाओं से प्रेरित मन- बुद्धि नये- नये अनुभवों का संग्रह कर एक नए शरीर में प्रविष्ट होती है और वहाँ उसे वे सारी स्मृतियाँ पुनः याद हो आती हैं।
योग पथ पर चलते रहें- भावी जन्म में सफलता सुनिश्चित है |

      कई प्रतिभाशाली व्यक्तित्व- प्रोडिगी (Prodigy) जिन्हें हम जानते हैं कि बाल्यकाल से ही वे बड़े कुशल मेधा संपन्न थे- उनके मूल में वस्तुतः भूतकाल का जन्म ही मुख्य भूमिका निभा रहा होता है। पूर्णतः स्वस्थ- दुर्बलताओं से मुक्त व्यक्ति जो पूर्वजन्म में योगभ्रष्ट हो गया था, अपने ज्ञान- संग्रह की निधि के साथ जन्म लेता है और पूरे उत्साह के साथ अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थ में जुट जाता है; ताकि वह शीघ्र ही सिद्धि को पा सके। सिद्धि क्या है? परमात्मा की प्राप्ति- परम लक्ष्य की प्राप्ति। जीव का ब्रह्म में विलय। कभी- कभी हम एक ही गुरु के दो- तीन शिष्यों में किसी एक की असाधारण प्रगति देखकर विस्मय में पड़ जाते हैं। यह वस्तुतः पूर्वजन्म की उपलब्धि का ही परिणाम है कि एक शिष्य असाधारण लक्ष्य की ओर चल पड़ता है। अनुभवों के उच्चतम शिखर पर पहुँचकर वह गुरु के कार्यों को और आगे बढ़ाता है। हर व्यक्ति के लिए योगेश्वर का आश्वासन है कि हम धैर्य न छोड़ें- सही मार्ग पर- गुरुसत्ता के बताए मार्ग पर चलें और प्रयासरत रहें- पुनः योग- भ्रष्ट न हों और प्रसन्नतापूर्वक लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में बढ़ते रहें- निश्चित ही सफलता कदम चूमेगी।

स्वामी रामसुखदासजी लिखते हैं कि पूर्वजन्म की साधन सामग्री मिलना ठीक उसी प्रकार है, जैसे किसी को रास्ते पर चलते- चलते नींद आने लगे और वह वहीं किनारे पर सो जाय। जब वह सोकर उठेगा, तो उतना रास्ता तो उसका तय किया हुआ रहेगी ही- बस वह आगे की यात्रा आरंभ कर देगा। पूर्वजन्म की साधना वस्तुतः जीवात्मा पर संस्कारों की छाप छोड़ देती है। जितने अच्छे संस्कार पड़ चुके हैं, वे सभी इस नए जन्म में जाग्रत् हो जाते हैं।

आध्यात्मिक पूंजी कभी नष्ट नहीं होती

पूर्वजन्म का बुद्धिसंयोग एक अनुदान रूप में मिलता है, साथ ही योगी के घर में जन्म- श्रेष्ठ पुरुषों की संगति- स्वाध्याय इन सबके सहज मिल जाने से साधन- सिद्धि में उत्साह बढ़ता चला जाता है। आध्यात्मिक प्रगति सहज ही होने लगती है। प्रस्तुत श्लोक इस आशावाद को बढ़ाता है कि मनुष्य को सतत आध्यात्मिक पुरुषार्थ करते रहना चाहिए, वह निश्चित ही फलित होगा। सांसारिक पूँजी तो समाप्त होनी ही है, वह तो क्षणभंगुर है, पर आध्यात्मिक पूँजी योगभ्रष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती। वह समय पाकर फिर प्रकट हो जाती है। यह एक प्रकार से ऐसा डिपॉजिट है, जो आत्मसत्ता के साथ जुड़ा है। समाप्त नहीं होता- बढ़ता चला जाता है।

     सद् गुरु अपने शिष्यों की पूर्व जन्मों की साधना- संपदा को जानते हैं, इसीलिए वे उन्हें तलाशते रहते हैं और अपने कार्य में लगाते रहते हैं- प्रेरित करते रहते हैं। शिष्य हो सकता है कदाचित् गुरु को भूल गया हो, पर गुरु कभी गलती नहीं करते। वे बराबर उनके योग- क्षेम का ध्यान रखते हैं। वे उनके पूर्व- जन्मों की संचित संपदानुसार लोकहित के कार्यों में उनका नियोजन करते रहते हैं। भले ही वे सशरीर यह कार्य करें अथवा सूक्ष्म या कारण शरीर से। पर उनका उद्देश्य बराबर भान कराने का रहता है। जो इस तथ्य को जल्दी पहचान लेता है, वह सौभाग्यशाली होता है; क्योंकि सद्गुरु के कार्यों से जुड़कर साधनादि कर्मों द्वारा वह सकाम कर्मों का भी अतिक्रमण, अपने समर्पण के कारण- योग में एकजुट होने के कारण, कर जाता है। यही बात वासुदेव अगले श्लोक में कह रहे हैं-

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥६/४४॥

शब्दार्थ-

‘‘वह योगी (सः) उस (तेन) पूर्वजन्म के अभ्यास से प्राप्त प्रारब्ध के वश में होने के बावजूद (एव पूर्वाभ्यासेन अपि) विवश होकर (अवशः) परमात्मा की तरफ आकर्षित हो जाता है। [विषय भोग छोड़कर ब्रह्मनिष्ठ हो जाता है] (ह्रियते)। क्योंकि (हि) इस समतारूपी योग का (योगस्य) जिज्ञासु भी (जिज्ञासुः अपि) वेदोक्त कर्मों के फलों का (शब्दब्रह्म) अतिक्रमण कर जाता है (अतिवर्तते)।’’

भावार्थ-

‘‘वह योगभ्रष्ट पूर्वाभ्यास के वेग से विवश हुआ सहज ही भगवान की ओर खिंचा चला आता है तथा योग का जिज्ञासु ऐसा व्यक्ति वैदिक कर्मकाण्डों का- सकाम कर्मों के फलों का उल्लंघन कर जाता है- अर्थात् उनसे श्रेष्ठ माना जाता है।’’

पूर्वाभ्यास का वेग

जैसा हमारा भूतकाल रहा है, वैसे ही आज हम हैं। यदि हमारी साहित्यलेखन में रुचि रही है, तो कलम उठाने का मन करेगा ही, यदि गायन में हमें आनन्द आता रहा है, तो गाए बिना मन मानेगा नहीं। पूर्वाभ्यास का वेग यही है। पूर्वजन्म के साधना के अभ्यासजन्य संस्कार हमें सहज ही इस ओर खींचते चले जाते हैं। यदि हमारी रुचि आध्यात्मिक रही है- हमारा मन स्वतः ही उन सभी कार्यों में रुचि लेगा, जो भगवद्भक्ति से जुड़े हैं, जिनसे हमारा आत्मिक उत्कर्ष सधता हो। हमारे कर्म आज क्या हैं, यह महत्त्वपूर्ण नहीं। हमारे विचार- चिंतन प्रक्रिया आदि किस दिशा में चल रहे हैं- यह महत्त्वपूर्ण है। हमारे विचार ही हमारे कर्मों के पीछे होते हैं एवं यदि वे अच्छे हैं- विधेयात्मक हैं- हमें सदा भगवद् चर्चा की ओर मोड़ देते हैं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा पूर्वाभ्यास हमें विवश कर रहा है। कभी- कभी इस जन्म में हम देखते हैं कि अच्छे लोग कष्ट भोग रहे हैं और बुरे जीवन में सुखी हैं, तो हमें एकदम इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच जाना चाहिए कि जो कष्ट झेल रहे हैं, उनने बुरे कर्म किए हैं। बहिरंग के कर्म स्थूल कर्म हैं- हमारे विचार सूक्ष्मकर्म। महत्त्व इन सूक्ष्म कर्मों का है। इसीलिये एक ध्यान योगी कष्ट भोगते हुए भी कभी- कभी तप कर लेता है और आत्मिक सुख प्राप्त कर योग की ओर कदम बढ़ा लेता है।

सहज ही मुड़ जाते हैं परमात्मा की ओर

यहाँ योगेश्वर ने एक शब्द का प्रयोग किया है ‘‘अवशो अपि’’ अर्थात् परवश होने पर भी- इन्द्रियाँ आदि भोगों में आसक्त होने पर भी पूर्व के अभ्यास के कारण ध्यान योगी सहज ही परमात्मा की ओर खिंचा चला आता है। जितना ध्यानयोग सम्पादित होगा- जितना मन परमात्मा में नियोजित किया जायेगा- सत्संस्कार एकत्र होते चले जायेंगे। यही श्रेष्ठ संस्कार भोगों से आवेश में आए हुए योगभ्रष्ट को खींचकर परमात्मा की ओर मोड़ देते हैं।

योग का जिज्ञासु कर्मकाण्डी से श्रेष्ठ

आगे भगवान जब कहते हैं कि समबुद्धिरूपी योग का जिज्ञासु वैदिक सकाम कर्मों के फल का भी उल्लंघन कर जाता है, तो उनका आशय है- यांत्रिक रूप से मंत्रोच्चारण करने वाले (मात्र लिप सर्विस), अंधविश्वासपूर्वक वैदिक कर्मकाण्ड या अनुष्ठानों का सम्पादन करने वाले से वह व्यक्ति श्रेष्ठ है, जो ध्यानयोग के राजमार्ग पर चल रहा है। इसीलिए वे कहते हैं, जिज्ञासुरपि योगस्य (योग का जिज्ञासु भी) सकाम कर्म करने वाले- तथाकथित कर्मकाण्डी अनुष्ठानों का सम्पादन करने वालों से श्रेष्ठ है- ‘‘शब्दब्रह्मातिवर्तते’’। जिसका मन सूक्ष्मतम स्तर पर भगवत्सत्ता के गुह्यभावों को स्वीकार करने की स्थिति तक परिपक्व हो गया- जिसने उस तृप्ति- तुष्टि का रसास्वादन कर लिया, जो परमात्मा के साक्षात अनुभव में है तथा जो सत्- चित् के सम्पर्क में आ चुका- उसे क्षणिक विषय सुख अब कैसे प्रभावित करेंगे। अब वह मार्ग से कभी डगमगा नहीं सकता। अब वह और योगभ्रष्ट नहीं हो सकता।

थोड़ा सा भी योग का अनुष्ठान कल्याणकारी है

यहाँ कर्मकाण्डों की आलोचना नहीं की जा रही। भगवान कह रहे हैं कि कर्मकाण्ड तो मात्र मन की शुद्धि के लिए उपरत होने एवं एकाग्रता की ओर ले जाने के लिए हैं। ध्यान तो उससे भी ऊपर की बात है और उसकी जिज्ञासा यदि बनी रहे, तो वह योग के सर्वोच्च पद पर हमें स्थापित कर देती है। भगवान कितने उदार- विराट हृदय वाले हैं। यह बात इस श्लोक से पता लगती है। जो यहाँ के भोगों की- संग्रह की रुचि सर्वथा मिटा नहीं पाया और पूरी स्फूर्ति के साथ भोग में भी स्वयं को नियोजित नहीं कर पाया, उसकी भी उनने इतनी महत्ता बतायी है। ऐसा संकेत भगवान पहले भी दूसरे अध्याय के चालीसवें श्लोक में कर चुके हैं कि समत्वरूपी योग का आरंभ भी कभी नष्ट नहीं होता। एक बार बीज डल गया, तो फलीभूत अवश्य होता है। थोड़ा सा भी योग का अनुष्ठान जन्म- मृत्युरूपी महान भय से रक्षा कर कल्याण कर देता है।

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२/४०॥

कितना सुनिश्चित आश्वासन प्रभु का है। जो एक बार योग में प्रवृत्त हो गया, उसका कल्याण ही कल्याण है। कभी भी उसका पतन नहीं होने वाला। पूर्व संस्कार निश्चित रूप से नये जन्म में फलीभूत होंगे और अंततः योग की पराकाष्ठा पर पहुँचकर बंधनमुक्ति का पथ- प्रशस्त होगा। प्रयास करते रहना- योग पथ पर चलते रहना- ध्यान योग का आश्रय न छोड़ना मनुष्य का कर्त्तव्य है।

First 20 22 Last


Other Version of this book



युगगीता (भाग-४)
Type: TEXT
Language: EN
...

युग गीता भाग-3
Type: SCAN
Language: HINDI
...

યુગગીતા ભાગ - ૧
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...

युग गीता (भाग-1)
Type: SCAN
Language: HINDI
...

યુગગીતા ભાગ - ૨
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...

युगगीता (भाग-३)
Type: TEXT
Language: EN
...

युगगीता - (भाग-२)
Type: TEXT
Language: EN
...

युग गीता भाग-2
Type: SCAN
Language: HINDI
...

युग गीता भाग-4
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

स्वर्ग नरक की स्वचालित प्रक्रिया
Type: SCAN
Language: HINDI
...

स्वर्ग नरक की स्वचालित प्रक्रिया
Type: SCAN
Language: HINDI
...

स्वर्ग नरक की स्वचालित प्रक्रिया
Type: SCAN
Language: HINDI
...

स्वर्ग नरक की स्वचालित प्रक्रिया
Type: SCAN
Language: HINDI
...

धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं पूरक हैं
Type: TEXT
Language: HINDI
...

धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं पूरक हैं
Type: TEXT
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मित्रभाव बढ़ाने की कला
Type: SCAN
Language: HINDI
...

मित्रभाव बढ़ाने की कला
Type: SCAN
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • प्रथम खण्ड की प्रस्तावना
  • द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना
  • तृतीय खण्ड की प्रस्तावना
  • प्रस्तुत चतुर्थ खण्ड की प्रस्तावना
  • एकाकी यतचित्तात्मा निराशीः अपरिग्रहः
  • ध्यान हेतु व्यावहारिक निर्देश देते एक कुशल शिक्षक
  • सबसे बड़ा अनुदान परमानंद की पराकाष्ठा वाली दिव्य शांति
  • युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु
  • कैसा होना चाहिए योगी का संयत चित्त
  • योग की चरमावस्था की ओर ले जाते योगेश्वर
  • परमात्मारूपी लाभ को प्राप्त व्यक्ति दुःख में विचलित नहीं होता
  • बार-बार मन को परमात्मा में ही निरुद्ध किया जाए
  • चित्तवृत्ति निरोध एवं परमानन्द प्राप्ति का राजमाग
  • ध्यान की पराकाष्ठा पर होती है सर्वोच्च अनुभूति
  • यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति
  • सुख या दुख में सर्वत्र समत्व के दर्शन करता है योगी
  • कैसे आए यह चंचल मन काबू में?
  • अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते
  • कल्याणकारी कार्य करने वाले साधक की कभी दुर्गति नहीं होती
  • भविष्य में हमारी क्या गति होगी, हम स्वयं निर्धारित करते हैं
  • योग पथ पर चलने वाले का सदा कल्याण ही कल्याण है
  • तस्मात् योगी भवार्जुन्
  • वही ध्यानयोगी है श्रेष्ठ जो प्रभु को समर्पित है
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj