
प्रस्तुत चतुर्थ खण्ड की प्रस्तावना
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युगगीता श्रीमद्भगवद्गीता पर योगेश्वर श्रीकृष्ण के वक्तव्य, अर्जुन को दिये गए सदुपदेश एवं उसके साथ मानव जाति के लिए दिए गए मार्गदर्शन के साथ युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं०
श्रीराम शर्मा आचार्य जी के चिंतन का युगानुकूल प्रस्तुतीकरण
है। पहले के तीन खण्डों में गीता के प्रथम पाँच अध्याय एवं छठे
अध्याय के प्रथम नौ श्लोकों
की विषद व्याख्या सभी आधुनिक- पुरातन उदाहरणों- साक्षियों के साथ
प्रस्तुत की गई। इस चतुर्थ खण्ड में योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा ‘‘आत्मसंयम योग’’ नामक छठे अध्याय में की गई ध्यान योग की व्याख्या का विस्तृत विवेचन है।
ध्यान हमारी दैनंदिन आवश्यकता है। ध्यान में ही हम अपने आपको पूर्णतः जान पाते हैं। यह अन्तर्शक्तियों के जागरण की विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। ध्यान एकाग्रता नहीं है पर ध्यान की शुरुआत एकाग्रता से होती है। हम चेतन मन का विकास अचेतन मन से कर अतिचेतन में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। ध्येय के प्रति प्रेम विकसित होकर वैसी ही धारणा बने तब ध्यान लग पाता है। ध्यान से मन में शांति का साम्राज्य स्थापित होता है। योगी का चित्त ध्यान के द्वारा निर्मल हो जाता है। सारे चित्त की सफाई हो जाती है। विगत जीवन- वर्तमान जीवन के सभी मर्म धुल जाते हैं। ध्यान अपने मन में बुहारी लगाने की प्रक्रिया है। अपने आपका संपूर्ण अध्ययन करना हो तो हमें ध्यान करना चाहिए।
भगवान् ने ‘‘कर्मसंन्यास योग’’ नामक पाँचवे अध्याय द्वारा एक प्रकार से ध्यान योग की पूर्व भूमिका बना दी है। यही नहीं वे प्रारंभिक आवश्यकताओं मे जहाँ इस ‘‘नवद्वारे पुरे देही’’ (नौ दरवाजों की आध्यात्मिक राजधानी- शरीर) की यात्रा से संबंधित विभिन्न पक्षों की चर्चा करते है, वहां वे यह भी बताते हैं कि जितेन्द्रिय होने के साथ विशुद्ध अंतःकरण वाला भी होना चाहिए, ममत्व बुद्धि रहित हो मात्र अंतःकरण- चित्त की शुद्धि के लिए कर्म करते रहना चाहिए। सबसे बड़ी जरूरत है अपने विवेक चक्षु जाग्रत करना। ऐसा होता है ‘‘आदित्य’’ के समान ज्ञान द्वारा अपने अंदर बैठे परमात्मा को प्रकाशित करने के बाद हमारा मन ध्यान हेतु तद्रूप हो, बुद्धि तद्रूप हो तथा हम सच्चिदानंद घन परमात्मा में ही एकीभाव से स्थित हों। दुखों को लाने वाले अनित्य सुखों में लिप्त न हों एवं आवेगों से प्रभावित न होकर मोक्ष में प्रतिष्ठित होने की बात सोचें।
छठवाँ अध्याय (जिसके नौ श्लोकों की चर्चा पूर्व खण्ड युगगीता- ३ में की गयी) में योगेश्वर श्रीकृष्ण जीवन जीने की कला की धुरी की चर्चा करते है पर बड़े शान्त भाव से। योगेश्वर श्रीकृष्ण बड़े शान्त मन से युद्धभूमि में खड़े होकर अपने आप पर संयम रखने की कला सिखाते हैं। भगवान् कहते हैं कि सही अर्थों में अनासक्त ही संन्यासी है- वही सही तरीके से ध्यान कर सकता है क्योंकि उसे आंतरिक संन्यास के साथ- साथ कर्म करते रहने से वासनाओं पर विजय का अभ्यास हो गया है। योगारूढ़ साधक को उच्च स्तरीय एकाग्रता चाहिए और वह मिलेगी आत्मावलम्बन द्वारा ही। अपने मन की शक्ति को पहचानकर अपने आप ही अपने उद्धार का संकल्प लेकर चलने वाला साधक हर दृष्टि से एक शुद्ध कर्मयोगी है, क्योंकि वह परमात्मा का सुपात्र बन रहा है। वह शुद्ध मन- शुद्ध अहं की शक्ति को पहचान रहा है। सारा खेल विधेयात्मक मनःस्थिति का है जो विकसित करनी पड़ती है- सत्संग के माध्यम से, स्वाध्याय से, अच्छे विचारों में रमण करने का अभ्याण करने से। विकार रहित, जितेन्द्रिय, प्रलोभनों में न पड़ने वाला ही ध्यानयोगी बन सकता है यह श्रीकृष्ण द्वारा बतायी गयी पूर्व शर्त है। इसके साथ ही हमें हितैषी, मित्र, शत्रु, उदासी, मध्यस्थ, द्वेषी, वंधु, धर्मात्मा, पापात्मा सभी में समदृष्टि रखनी होगी। किसी भी तरह के रागद्वेष से बचना होगा तभी हमारा मन- बुद्धि शुद्ध हो उस परा चेतना को ग्रहण करने योग्य बन पाएगा।
भगवान् इस खण्ड में छठे अध्याय के जिन श्लोकों की व्याख्या कर रहे हैं (दसवें से सैतालीसवें तक) वे किसी भी उच्चस्तरीय ही नहीं एक सामान्य साधक के लिए भी अद्भुत मार्गदर्शन लिए हुए हैं। इसमें वे एकान्त की, आसन की, ध्यान की पूर्व तैयारी हेतु शरीर की स्थिति भी बताते हैं साथ ही कहते है कि ब्रह्मचर्य का पालन कर, भय रहित जीवन जीने वाला साधक अपने मन को मुझ में लगाए। योग किसका सधेगा, किसका नहीं इसके लिए वे नियम बताते हैं। खानपान, निद्रा- स्वप्न, चेष्टाओं में हमारा भाग ही ठीक है। न अधिक खाएँ न बिल्कुल न खाने का व्रत लें, न बहुत सोयें न जागें। हमारी चेष्टाएँ भी यथायोग्य हों। इसके बाद जब ध्यान की बात आती है तो वे दीपक की उपमा देते हैं जो वायु रहित स्थान में निश्चल भाव से दिखाई देता है। हमारा चित्त ऐसा ही होना चाहिए। हम झंझावातों से प्रभावित न हों। ध्यान से बुद्धि को और सूक्ष्म बनायें तथा परमात्मा प्राप्ति को ही सबसे बड़ा फायदे का सौदा मानें। किसी भारी से भारी दुख से भी कभी प्रभावित न हों। इन्हें उतार- चढ़ाव मात्र मानें। तनावग्रस्त या विक्षुब्ध न हों। जब- जब विषयों की ओर मन भागे तो वापस परमात्मा में ही लाकर उसे निरुद्ध करें।
अर्जुन जानता है कि उसका चित्त चंचल है। भटकता है तो फिर समाधान क्या है। वह पूछ बैठता है। श्री भगवान् उसे अभ्यास व वैराग्य की शरण में जाने को कहते हैं। अर्जुन की यह समस्या हर कर्मयोगी- गृहस्थ की समस्या है। मन सभी का डांवाडोल होता है। भगवान् अपना समाधान जिस कुशलता से देते हैं उससे हमें जप और ध्यान का स्वरूप समझ में आता है। कहीं मन न लगे तो कहीं दुर्गति तो न होगी यह आशंका भी वे निर्मूल कर देते हैं पर अंत में समझा देते हैं कि तप, ज्ञान व कर्म सभी का अंत है पर योगी के फल का कोई अंत नहीं। वह परम धाम को जाता है। युगगीता का यह चौथा खण्ड ध्यान योग के हर साधक के लिए एक पाठ्यपुस्तक के रूप में वसंत पर्व २००८ की वेला में अपनी आराध्य सत्ता के जन्म शताब्दी वर्ष की पूर्व वेला में उन्हीं को समर्पित है।
—डॉ . प्रणव पण्ड्या
ध्यान हमारी दैनंदिन आवश्यकता है। ध्यान में ही हम अपने आपको पूर्णतः जान पाते हैं। यह अन्तर्शक्तियों के जागरण की विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। ध्यान एकाग्रता नहीं है पर ध्यान की शुरुआत एकाग्रता से होती है। हम चेतन मन का विकास अचेतन मन से कर अतिचेतन में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। ध्येय के प्रति प्रेम विकसित होकर वैसी ही धारणा बने तब ध्यान लग पाता है। ध्यान से मन में शांति का साम्राज्य स्थापित होता है। योगी का चित्त ध्यान के द्वारा निर्मल हो जाता है। सारे चित्त की सफाई हो जाती है। विगत जीवन- वर्तमान जीवन के सभी मर्म धुल जाते हैं। ध्यान अपने मन में बुहारी लगाने की प्रक्रिया है। अपने आपका संपूर्ण अध्ययन करना हो तो हमें ध्यान करना चाहिए।
भगवान् ने ‘‘कर्मसंन्यास योग’’ नामक पाँचवे अध्याय द्वारा एक प्रकार से ध्यान योग की पूर्व भूमिका बना दी है। यही नहीं वे प्रारंभिक आवश्यकताओं मे जहाँ इस ‘‘नवद्वारे पुरे देही’’ (नौ दरवाजों की आध्यात्मिक राजधानी- शरीर) की यात्रा से संबंधित विभिन्न पक्षों की चर्चा करते है, वहां वे यह भी बताते हैं कि जितेन्द्रिय होने के साथ विशुद्ध अंतःकरण वाला भी होना चाहिए, ममत्व बुद्धि रहित हो मात्र अंतःकरण- चित्त की शुद्धि के लिए कर्म करते रहना चाहिए। सबसे बड़ी जरूरत है अपने विवेक चक्षु जाग्रत करना। ऐसा होता है ‘‘आदित्य’’ के समान ज्ञान द्वारा अपने अंदर बैठे परमात्मा को प्रकाशित करने के बाद हमारा मन ध्यान हेतु तद्रूप हो, बुद्धि तद्रूप हो तथा हम सच्चिदानंद घन परमात्मा में ही एकीभाव से स्थित हों। दुखों को लाने वाले अनित्य सुखों में लिप्त न हों एवं आवेगों से प्रभावित न होकर मोक्ष में प्रतिष्ठित होने की बात सोचें।
छठवाँ अध्याय (जिसके नौ श्लोकों की चर्चा पूर्व खण्ड युगगीता- ३ में की गयी) में योगेश्वर श्रीकृष्ण जीवन जीने की कला की धुरी की चर्चा करते है पर बड़े शान्त भाव से। योगेश्वर श्रीकृष्ण बड़े शान्त मन से युद्धभूमि में खड़े होकर अपने आप पर संयम रखने की कला सिखाते हैं। भगवान् कहते हैं कि सही अर्थों में अनासक्त ही संन्यासी है- वही सही तरीके से ध्यान कर सकता है क्योंकि उसे आंतरिक संन्यास के साथ- साथ कर्म करते रहने से वासनाओं पर विजय का अभ्यास हो गया है। योगारूढ़ साधक को उच्च स्तरीय एकाग्रता चाहिए और वह मिलेगी आत्मावलम्बन द्वारा ही। अपने मन की शक्ति को पहचानकर अपने आप ही अपने उद्धार का संकल्प लेकर चलने वाला साधक हर दृष्टि से एक शुद्ध कर्मयोगी है, क्योंकि वह परमात्मा का सुपात्र बन रहा है। वह शुद्ध मन- शुद्ध अहं की शक्ति को पहचान रहा है। सारा खेल विधेयात्मक मनःस्थिति का है जो विकसित करनी पड़ती है- सत्संग के माध्यम से, स्वाध्याय से, अच्छे विचारों में रमण करने का अभ्याण करने से। विकार रहित, जितेन्द्रिय, प्रलोभनों में न पड़ने वाला ही ध्यानयोगी बन सकता है यह श्रीकृष्ण द्वारा बतायी गयी पूर्व शर्त है। इसके साथ ही हमें हितैषी, मित्र, शत्रु, उदासी, मध्यस्थ, द्वेषी, वंधु, धर्मात्मा, पापात्मा सभी में समदृष्टि रखनी होगी। किसी भी तरह के रागद्वेष से बचना होगा तभी हमारा मन- बुद्धि शुद्ध हो उस परा चेतना को ग्रहण करने योग्य बन पाएगा।
भगवान् इस खण्ड में छठे अध्याय के जिन श्लोकों की व्याख्या कर रहे हैं (दसवें से सैतालीसवें तक) वे किसी भी उच्चस्तरीय ही नहीं एक सामान्य साधक के लिए भी अद्भुत मार्गदर्शन लिए हुए हैं। इसमें वे एकान्त की, आसन की, ध्यान की पूर्व तैयारी हेतु शरीर की स्थिति भी बताते हैं साथ ही कहते है कि ब्रह्मचर्य का पालन कर, भय रहित जीवन जीने वाला साधक अपने मन को मुझ में लगाए। योग किसका सधेगा, किसका नहीं इसके लिए वे नियम बताते हैं। खानपान, निद्रा- स्वप्न, चेष्टाओं में हमारा भाग ही ठीक है। न अधिक खाएँ न बिल्कुल न खाने का व्रत लें, न बहुत सोयें न जागें। हमारी चेष्टाएँ भी यथायोग्य हों। इसके बाद जब ध्यान की बात आती है तो वे दीपक की उपमा देते हैं जो वायु रहित स्थान में निश्चल भाव से दिखाई देता है। हमारा चित्त ऐसा ही होना चाहिए। हम झंझावातों से प्रभावित न हों। ध्यान से बुद्धि को और सूक्ष्म बनायें तथा परमात्मा प्राप्ति को ही सबसे बड़ा फायदे का सौदा मानें। किसी भारी से भारी दुख से भी कभी प्रभावित न हों। इन्हें उतार- चढ़ाव मात्र मानें। तनावग्रस्त या विक्षुब्ध न हों। जब- जब विषयों की ओर मन भागे तो वापस परमात्मा में ही लाकर उसे निरुद्ध करें।
अर्जुन जानता है कि उसका चित्त चंचल है। भटकता है तो फिर समाधान क्या है। वह पूछ बैठता है। श्री भगवान् उसे अभ्यास व वैराग्य की शरण में जाने को कहते हैं। अर्जुन की यह समस्या हर कर्मयोगी- गृहस्थ की समस्या है। मन सभी का डांवाडोल होता है। भगवान् अपना समाधान जिस कुशलता से देते हैं उससे हमें जप और ध्यान का स्वरूप समझ में आता है। कहीं मन न लगे तो कहीं दुर्गति तो न होगी यह आशंका भी वे निर्मूल कर देते हैं पर अंत में समझा देते हैं कि तप, ज्ञान व कर्म सभी का अंत है पर योगी के फल का कोई अंत नहीं। वह परम धाम को जाता है। युगगीता का यह चौथा खण्ड ध्यान योग के हर साधक के लिए एक पाठ्यपुस्तक के रूप में वसंत पर्व २००८ की वेला में अपनी आराध्य सत्ता के जन्म शताब्दी वर्ष की पूर्व वेला में उन्हीं को समर्पित है।
—डॉ . प्रणव पण्ड्या