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Books - युगगीता (भाग-४)

Media: TEXT
Language: EN
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तस्मात् योगी भवार्जुन्

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अनेकजन्मसंसिद्धः योगी

योगेश्वर श्रीकृष्ण दृढ़तापूर्वक स्वरों के साथ मानो घोषणा करते हैं-
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥ ६/४५

शब्दार्थः-

किन्तु (तु) पूर्वजन्म के प्रयत्नों की अपेक्षा भी अधिक यत्न के साथ (प्रयत्नात् यतमानः) निष्पाप होकर (संशुद्ध- किल्बिषः) योगी (योगी) अनेक जन्मों के प्रयासों से सिद्धि लाभ करके (अनेकजन्मसंसिद्धः) उसके पश्चात् (ततः) श्रेष्ठ (परां) मोक्षरूपी परमगति (गतिं) प्राप्त करते हैं (याति)।

भावार्थः-

‘‘ऐसा ध्यान- योगी जो निरन्तर प्रयत्नशील है, विगत अनेक जन्मों के संस्कारबल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित तत्काल ही परमगति (मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है।’’

मानवी व्यक्तित्व पर निरन्तर पड़ने वाले धब्बे जो वासना रूप होते हैं क्रमशः ध्यान की प्रक्रिया से धुलने लगते हैं। वासनाएँ क्रमिक रूप से दग्ध होती चलती हैं। अब ये नए कर्मों या विचारों का निर्माण नहीं करतीं। ऐसा ध्यान योगी अपने अनेक जन्मों के निरन्तर प्रयास से पूर्णतः निष्पाप हो जाता है (संशुद्धकिल्बिषः) और अपने पूर्व के संगृहीत ज्ञान- अनुभव व साधना के परिपाक के फलस्वरूप विकास के चरम शिखर तक पहुँच जाता है- पूर्णता को प्राप्त हो जाता है। उसे मोक्ष रूप में परम पद की प्राप्ति होती है।

पाप से मुक्ति का आश्वासन

योगेश्वर श्रीकृष्ण का प्रयास है कि कोई भी साधक अपनी योगपथ पर यात्रा छोड़े नहीं, निरन्तर प्रयत्नरत रहे। ध्यान की स्थिति में अंतः में उपलब्ध शान्ति के समक्ष हमारा सारा व्यक्तित्व खुलकर सामने आ जाता है। क्रमशः वासनाएँ मिटती चली जाती हैं। जैसे- जैसे वासनाएँ मिटती हैं, सद्ज्ञान की प्राप्ति होती चली जाती है। यही ज्ञान अंत में श्रीकृष्ण की पूर्व घोषणा के अनुसार उसे पापों से मुक्त करता है। पहले श्रीकृष्ण कह चुके हैं-

‘‘यदि तू अन्य सभी पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है तो भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा बिना किसी सन्देह के सम्पूर्ण पाप- समुद्र से भलीभाँति तर जाएगा’’ (४/३६)। वे बड़े करुण हृदय हैं। सभी पापकर्म करने वालों पर उनकी दृष्टि है एवं वे सभी को सतत ध्यान योगी बनने की, कर्म के माध्यम से प्रेरणा दे रहे हैं। अर्जुन निमित्त बना है पर यह संदेश वस्तुतः हम सभी के लिए है। परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने भी जीवन भर अपनी दृष्टि मध्यम वर्ग के उन लोगों पर रखी, जिन्हें युग निर्माण में आगे चलकर भागीदारी करनी थी। जो पूर्व जन्मों में साधना कर चुके थे, पर लक्ष्य- प्राप्ति तक अपने मनोयोग- ध्यान प्रक्रिया में संसिद्ध न होने के कारण, नहीं पहुँच पाए थे। उन सभी को उनने आश्वासन दिया कि वे भी सतत प्रयासरत रहें, ज्ञान का लाभ प्राप्त करें- गायत्री साधना का आश्रय लें, उपासना के साथ आराधना को भी समन्वित करें- क्रमशः ‘‘संशुद्ध किल्बिषः’’ होते- होते वे भी बंधनमुक्त हो जायेंगे। न जाने कितने नरपुंगवों को- नारी शक्ति को उनने इस अभियान से जोड़ दिया। उनके दैवी प्रयास से आज करोड़ों व्यक्ति ध्यान योग के मार्ग पर प्रवृत्त हो चुके हैं। सूक्ष्म- कारण रूप में उनकी सत्ता सतत सभी का मार्गदर्शन कर रही है। यही व्यक्ति, विशेष रूप से युवापीढ़ी आने वाले दिनों में उनके द्वारा दिये गये ज्ञान के सहारे भारत को सारे विश्व का सिरमौर बनाएगी।

ध्यान योग से होगा युग निर्माण

मानव से महामानव बनने की यह या- सामान्यकर्मी से दिव्यकर्मी बनने की यह प्रक्रिया गीता के वेदान्तरूपी इस उपदेश से स्पष्ट परिलक्षित होने लगती है। ध्यान योग ही इक्कीसवीं सदी की न केवल चिकित्सा पद्धति है, यही एक मात्र उपाय है समष्टि से एकाकार होने का। विज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुँचा मनुष्य, विभिन्न यंत्रों- कम्प्यूटर्स की खोज के बाद अब संतृप्त हो ध्यान में ही शान्ति एवं उस शान्ति में ही मानव जाति का भविष्य ढूँढ़ रहा है। आचार्यश्री कहते हैं कि इतिहास का यही वह महत्त्वपूर्ण मोड़ है, जहाँ अनन्तजन्मों के प्रयत्नों के परिणाम से अपने संस्कारों की सम्पदा लेकर अब जन्मे देवमानव युग परिवर्तन का निमित्त बनने जा रहे हैं। यह स्पष्ट समझ लिया जाना चाहिए कि सिद्धि के शिखर पर पहुँचने की प्रक्रिया किसी भी साधक के मात्र वर्तमान के प्रयासों की परिणति नहीं होती। उसके अनन्त जन्मों के प्रयास (अनेकजन्मसंसिद्धः) इस लक्ष्य प्राप्ति तक उसे पहुँचाते हैं। गायत्री परिवार एवं अन्य अनेक संगठनों के साधक इसी आधार पर अगले दिनों शिखर पर पहुँचने वाले हैं एवं विश्व- वसुधा की इन दिनों के आसन्न- संकटों से रक्षा करने वाले हैं। युग निर्माण की धुरी भी यह ध्यान रूपी छलाँग ही होगी, जो हम सभी को नित्य करना है।

परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं- ‘‘गंगावतरण के लिए जैसी साधना हुई थी, वैसी ही साधना करोड़ों गायत्री मंत्र के नित्य जप व ध्यान द्वारा गायत्री परिजनों के माध्यम से हो रही है। चौबीस लाख परिजन कंधे से कंधा, कदम से कदम मिलाकर चलें, तो कोई कारण नहीं कि वे डूबे हुए सूर्य को फिर से उदय होने के लिए विवश न कर सकें। ऐसे ही तूफानी प्रवाह संसार को बदलते रहे हैं जैसे कि प्रज्ञा अभियान के रूप में संसार के कोने- कोने में हो रहे
हैं।.........

इन दिनों कोई विश्वामित्र, कोई दुर्वासा सूक्ष्मीकरण का प्रचण्ड तप कर रहा है। युग परिवर्तन की शुभारम्भ वेला में दृश्य और अदृश्य जगत में ऐसी हलचलें हो रही हैं, जिन्हें अद्भुत या ऐतिहासिक कहा जा सके। इन दिनों हिमालय तप रहा है। उसके घोंसले में बैठे अण्डे- बच्चे हिलते- डुलते और पंख फड़फड़ाते देखे जा सकते हैं। विश्व को अभिनव ऊर्जा से भर देने वाला दैवी प्रयास चल रहा है। कितने ही च्यवन और वाल्मीकि ऐसा प्रत्यक्ष तप कर रहे हैं, जिसके प्रमाण उनके शरीरों पर दीमक जम जाने जैसे देखे जा सकते हैं। पर यह तो प्रत्यक्ष है। परोक्ष भी इतना कुछ है, जो इसके अतिरिक्त है। वर्षा होती दीखती है, पर उसके आधारभूत केन्द्र मानसून के बादल दूर समुद्र से द्रुतगति से क्रियाशील हो रहे होते हैं। दिव्यदर्शी ऐसी ही हलचलों का आभास प्राप्त कर रहे हैं। कुछ मूर्धन्य तपस्वी मात्र अपने ही अस्थि- पिंजरों को भट्टी की तरह गर्म नहीं कर रहे, उसका प्रभाव वातावरण पर भी देखा जा रहा है या दिखने लगेगा।’’ (वाङ्मय खण्ड २९- ‘‘सतयुग की वापसी- ’’ पृष्ठ ६.६८ से ६.७१)

ध्यान ही है नवयुग का केन्द्र बिन्दु

इससे स्पष्ट है कि साधना ही धुरी है- ध्यान योग ही अब वह केन्द्र है जिस माध्यम से नवयुग का आगमन होने जा रहा है। यदि हम सब जल्दी जाग गए, पेट- प्रजनन के चक्र से निकलकर गीताकार के उपदेशानुसार स्वयं को ढाल पाए, युगावतार- प्रज्ञावतार की वाणी को आत्मसात् कर सके, तो ध्यान का आश्रय लेकर सतयुग की वापसी का निमित्त बन सकते हैं। श्री अरविन्द लिखते हैं—‘‘मेरा काम अब मानव निर्माण नहीं, बल्कि दैवी मानव निर्माण है’’ (पृष्ठ ११८ ‘‘भारत का पुनर्जन्म’’)। निश्चित ही जीवन साधना एवं उसमें भी ध्यान को केन्द्र बनाकर परम पूज्य गुरुदेव ने भी योगेश्वर श्रीकृष्ण के आदर्श देवमानव- दिव्यकर्मी मानव के निर्माण की बात इस अध्याय में बार- बार कही है और यहाँ तो उनने विगत जन्मों की साधना की पूंजी को आधार बताकर सबको स्मरण भी दिला दिया है—हमें हमारा कर्त्तव्य बता दिया है।

सुरदुर्लभ यह जन्म

गीता के मर्मज्ञ महान विद्वान पं० श्री रामसुखदास जी महाराज ‘‘अनेकजन्मसंसिद्धः’’, ‘‘संशुद्धकिल्बिषः’’ एवं ‘‘ततो याति परां गतिम्’’ की व्याख्या का समापन करते हुए लिखते हैं कि ‘‘वस्तुतः मनुष्य का जन्म अनेक जन्मों की संसिद्धि के कारण है। यदि मनुष्य शरीर के पहले वह स्वर्गादि लोकों में गया है, तो वहाँ शुभ कर्मों का फल भोगने से उसके स्वर्ग प्राप्ति कारक पुण्य समाप्त हो गए और वह पुण्यों से शुद्ध हो गया। यदि वह नरकों में गया है, तो वहाँ नारकीय यातना भोगने से उसके वे पाप समाप्त हो गए एवं वह पापों से शुद्ध हो गया। अगर वह चौरासी लाख योनियों में गया है, तो वहाँ उस- उस योनि के रूप में अशुभ कर्मों का, पापों का फल भोगने से उसके मनुष्येतर योनि के पाप कट गए और वह शुद्ध हो गया। यह शुद्ध होना ही ‘‘संसिद्ध’’ होना है।

 हर मनुष्य प्रयास पूर्वक परमगति को प्राप्त कर सकता है, अपना कल्याण कर सकता है। कारण यह कि भगवान् ने यह अंतिम जन्म मनुष्य को केवल अपना कल्याण करने के लिए ही दिया है। जब उनने यह दुर्लभ तन दिया है तो यह मुक्ति का पात्र है ही। हर मनुष्य को अपने उद्धार के लिए तत्परता पूर्वक यत्न करना ही चाहिए।’’ (पृष्ठ ४६०- साधक संजीवनी)। एक बात और वे लिखते हैं कि ‘‘मनुष्य जन्म ही ऐसा है, जिसमें अपने उद्धार- बंधनमुक्ति के लिए मिले अवसर का सदुपयोग या दुरुपयोग किया जा सकता है। दुरुपयोग करके ही व्यक्ति पाप, अन्याय करके अशुद्ध होता है।’’ जहाँ योगेश्वर ‘‘संशुद्धकिल्विषः’’ की बात कह रहे हैं- वहाँ उनका आशय है- पापों को नष्ट कर देना। यह जन्म- जन्मों की साधना से, इस जीवन में मिले अवसर का सदुपयोग करने से, दिव्य कर्म करने से- सेवा साधना के लिए मिले समय का आराधना में नियोजन करने से एवं ध्यान- योग द्वारा संभव है। हम सभी बड़े सौभाग्यशाली हैं कि हमें ऐसी गुरुसत्ता का सान्निध्य मिला है, जिनने हमें अपनी ज्ञान की नौका में बिठा दिया है, हमें तो बस भवसागर पार होना है- उनके काम में स्वयं को खपा देना है।

अंतिम छलाँग

भगवान् अब इस अध्याय के समापन के पूर्व एक अति महत्त्वपूर्ण ४६ वें श्लोक द्वारा साधक को अंतिम छलांग ले लेने हेतु प्रेरित करते दिखाई देते हैं। उनका उद्देश्य यही है कि दिव्यकर्मी- योगी ध्यान का मर्म समझें- स्वयं के जीवन में ध्यान को महत्त्वपूर्ण स्थान दें क्योंकि सभी योगों में ध्यान- योग ही सर्वश्रेष्ठ है।

तपस्विभ्योऽधिको योगी
ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी
तस्माद्योगी भवार्जुन॥ (६/४६)

शब्दार्थ इस प्रकार हुआ—

योगी (योगी) तपस्वियों की अपेक्षा (तपस्विभ्यः) श्रेष्ठ हैं (अधिकः), ज्ञानियों से (ज्ञानिभ्यः) भी (अपि) श्रेष्ठ हैं (अधिकः) और (च) सकाम कर्म करने वालों से भी (कर्मिभ्यः) योगी (योगी) श्रेष्ठ हैं (अधिकः), ऐसा मेरा मत है (मतः) इसलिए (तस्मात्) हे अर्जुन तुम (अर्जुन) योगी हो जाओ (भव)।
भावार्थ है—‘‘योगी तपस्वियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है, शास्त्र- ज्ञान व्यक्तियों से भी बढ़कर है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिए हे अर्जुन! तुम योगी (ध्यानयोगी) बनो।’’

 ध्यानयोगी ही सर्वश्रेष्ठ

ध्यान मनुष्य की ही विशेषता है। जीवजन्तु ध्यानस्थ होकर उच्चस्तरीय चेतन कक्षाओं में नहीं जाते। मनुष्य ही- एक दिव्यकर्मी ही ध्यान कर सकता है। ध्यान की सबसे बड़ी उपलब्धि है—अंतःकरण की शुद्धि, आसक्तियों से मुक्ति और वासनाओं की खाई का पटना। इसलिए श्रीकृष्ण का एक शाश्वत संदेश है- ध्यान करो, ध्यान करो। जितनी भी योग पद्धतियाँ हैं- एक स्थान पर जाकर मिलती हैं, वह है ध्यान। हठयोग, नादयोग, लययोग, राजयोग सभी का समापन परिपक्वावस्था में ध्यान योग में ही होता है। ध्यान व्यक्तित्व की अन्तर्निहित शक्तियों के विकास की प्रक्रिया है। विकास में जो अवरोध आ सकते हैं, उनका निदान भी ध्यान है, उपचार भी ध्यान। इस प्रकार एक समग्र समर्थ उपचार पद्धति है—ध्यान। सम्पूर्ण व्यक्तित्व कैसे विकसित हो, इसकी क्रिया पद्धति सिखाती है ध्यान—प्रक्रिया हमें।

तपसाधन ध्यानयोग का लक्ष्य

ध्यान योग संबंधी इस महत्त्वपूर्ण अध्याय का उपसंहार अब पूर्णपुरुष श्रीकृष्ण साधकों से—कर्मयोगियों से इस आग्रह के साथ करते हैं कि तुम सभी ध्यान करो—ध्यानयोगी बनो- ‘‘तस्माद् योगी भव!’’ यह एक प्रकार से समापन परक निर्देश है- सारे अब तक के उनके कहे वचनों का सार है। वे कहते हैं कि तप से श्रेष्ठ ध्यान है- इसका अर्थ यह नहीं कि तप नहीं किया जाना चाहिए। तप गलाई है, तो ध्यानयोग ढलाई। परम पूज्य गुरुदेव के शब्दों में धुलाई और रंगाई है। तप साधन है एवं ध्यान एक योगी का लक्ष्य है। कई व्यक्ति तप को ही सब कुछ मान बैठने की भूल कर बैठते हैं। विषय त्याग, तितीक्षा तक सीमित होकर रह जाते हैं, जबकि यह तो यात्रा का शुभारम्भ मात्र है।
 
ज्ञान व सकाम कर्म से श्रेष्ठ है योग

किसी भी महापण्डित को सभी शास्त्रों का संपूर्ण ज्ञान हो सकता है, वे तर्ककला में प्रवीण हो सकते हैं- शास्त्रार्थ भी कर लेते हैं, पर इस ज्ञान का अर्थ यह नहीं कि वह सर्वश्रेष्ठ है। उसके दैनन्दिन जीवन में व्यक्तित्व की सुन्दरता इस पढ़े हुए शब्द ज्ञान से नहीं आती, न परिलक्षित होती है। जब तक इसका ज्ञान- ध्यान में विलीन नहीं होगा, वह शब्दजाल- बुद्धि के मान (घमण्ड)- अहं के पनपने का ही निमित्त बनेगा। ढेरों पी.एच.डी., विज्ञ व्यक्ति समाज में हैं, पर उनके जीवन में आध्यात्मिक विकास नहीं दिखाई देता, क्योंकि ध्यानयोगी वे नहीं बन पाए। भोगों की कामना से जो सकाम कर्म करते रहते हैं- यज्ञ,दान, तीर्थसेवन आदि शास्त्रीय कर्मों का सम्पादन करते हैं, उनसे भी श्रीकृष्ण के अनुसार ध्यान योगी श्रेष्ठ है; क्योंकि वे निष्काम कर्म में लीन हो चुके हैं। परम पूज्य गुरुदेव के अनुसार उपासना (जप और ध्यान) के तप साधना (मनोयोग- चतुर्संयम) के बाद भी जो आराधना (निष्काम कर्म- सेवा साधना) करता है- उसी का आध्यात्मिक उत्कर्ष हो पाता है। कर्मकाण्ड अपनी जगह है, पर प्राणहीन सकाम कर्मकाण्ड किस काम का? यदि भावविह्वल हो ध्यानस्थ न हुआ गया हो। तप, शास्त्रों का ज्ञान और यज्ञ- दान आदि सभी साधन हैं। जब तक ध्येय और ध्याता में समरसता न हो- दोनों विलय न हों- ध्यान की पराकाष्ठा वाली प्रक्रिया संपन्न न हो- ये सभी साधन व्यर्थ हैं। एक पूर्ण योग की परिभाषा योगेश्वर बता रहे हैं, सार संक्षेप में।
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