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Books - इक्कीसवीं सदी का संविधान

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Language: HINDI
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नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे..

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Normal 0 false false false EN-US X-NONE X-NONE MicrosoftInternetExplorer4     नर का नारी के प्रति तथा नारी का नर के प्रति पवित्र दृष्टिकोण होना, आत्मोन्नति सामाजिक प्रगति एवं सुख- शांति के लिए आवश्यक है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले, अविवाहित नर- नारियों के लिए व्यवहार एवं चिंतन में एक- दूसरे के प्रति पवित्रता का समावेश अनिवार्य है ही, किन्तु अन्यों को भी उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अपवित्र पाशविक दृष्टि रखकर कोई भी वर्ग, दूसरे वर्ग की श्रेष्ठता का न तो मूल्यांकन कर सकता है और न उनका लाभ उठा सकता है। इस हानि से बचने की अत्यधिक उपयोगी प्रेरणा इस वाक्य में दी गई है।

    ‘नारी इस संसार की सर्वोत्कृष्टता पवित्रता है।’ जननी के रूप में वह अगाध वात्सल्य लेकर इस धरती पर अवतीर्ण होती है। पत्नी के रूप में त्याग और बलिदान की, प्रेम और आत्मदान की सजीव प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठित होती है। बहन के रूप में स्नेह, उदारता और ममता की देवी जैसी परिलक्षित होती है। पुत्री के रूप में वह कोमलता, मृदुलता, निश्छलता की प्रतिकृति के रूप में इस नीरस संसार को सरस बनाती रहती है। परमात्मा ने नारी में सत्य, शिव और सुंदर का अनंत भंडार भरा है। उसके नेत्रों में एक अलौकिक ज्योति रहती है, जिसकी कुछ किरणें पड़ने मात्र से निष्ठुर हृदयों की भी मुरझाई हुई कली खिल सकती है। दुर्बल, अपंग मानव को शक्तिमान और सत्ता सम्पन्न बनाने का सबसे बड़ा श्रेय यदि किसी को हो सकता है तो वह नारी का ही है। वह मूर्तिमान प्रेरणा, भावना और स्फूर्ति के रूप में अचेतन को चेतन बनाती है। उसके सान्निध्य में अकिंचन व्यक्ति का भाग्य मुखरित हो उठता है। वह अपने को कृत- कृत्य हुआ अनुभव करता है।

    नारी की महत्ता अग्नि के समान है। अग्नि हमारे जीवन का स्रोत है, उसके अभाव में हम निर्जीव और निष्प्राण बनकर ही रह सकते हैं। उसका उपयोगिता की जितनी महिमा गाई जाए, उतनी ही कम है, पर इस अग्नि का दूसरा पहलू भी है, वह स्पर्श करते ही काली नागिन की तरह लपलपाती हुई उठती है और छूते ही छटपटा देने वाली, भारी पीड़ा देने वाली परिस्थिति उत्पन्न कर देती है। नारी में जहाँ अनंत गुण हैं, वहाँ एक दोष ऐसा भी है जिसके स्पर्श करते ही असीम वेदना से छटपटाना पड़ता है। वह रूप है- नारी का रमणी रूप। रमण की आकांक्षा से जब भी उसे देखा, सोचा और छुआ जाएगा तभी वह काली नागिन की तरह अपने विष भरे दंत चुभो देगी। बिच्छू की बनावट कैसी अच्छी है, पर उसके डंक को छूते ही विपत्ति खड़ी हो जाती है। मधुमक्खी कितनी उपकारी है। भौंरा कितना मधुर गूँजता है, काँतर कैसे रंग- बिरंगे पैरों से चलती है, बर्र और ततैया अपने छत्तों में बैठे हुए कैसे सुंदर गुलदस्ते से सजे दीखते हैं, पर इनमें से किसी का भी स्पर्श हमारे लिये विपत्ति का कारण बन जाता है। नारी के कामिनी और रमणी के रूप में जो एक विष की छोटी- सी पोटली छिपी हुई है, उस सुनहरी कटार से हमें बचना ही चाहिए।

    अपने से बड़ी आयु की नारी को माता के रूप में, समान आयु वाली को बहन के रूप में, छोटी को पुत्री के रूप में देखकर, उन्हीं भावनाओं का अधिकाधिक अभिवर्द्धन करके हम उतने ही आह्लादित और प्रमुदित हो सकते हैं, जैसे माता सरस्वती, माता लक्ष्मी, माता दुर्गा के चरणों में बैठकर उनके अनंत- वात्सल्य का अनुभव करते हैं। हम गायत्री उपासक भगवान् की सर्वश्रेष्ठ सजीव रचना को नारी रूप में ही मानते हैं। नारी में भगवान् की करुणा, पवित्रता और सदाशयता का दर्शन करना हमारी भक्तिभावना का दार्शनिक आधार है। उपासना में ही नहीं, व्यावहारिक जीवन में भी हमारा दृष्टिकोण यही रहना चाहिए। नारी मात्र को हम पवित्र दृष्टि से देखें। वासना की दृष्टि से न सोचें, न उसे देखें, न उसे छुए।

    दाम्पत्य जीवन में संतानोत्पादन का विशेष प्रयोजन या अवसर आवश्यक हो तो पति- पत्नी कुछ क्षण के लिए वासना की एक हल्की धूप- छाँह अनुभव कर सकते हैं। शास्त्रों में तो इतनी भी छूट नहीं है, उन्होंने तो गर्भाधान संस्कार को भी यज्ञोपवीत या मुण्डन- संस्कार की भाँति एक पवित्र धर्मकृत्य माना है और इसी दृष्टि से उस क्रिया को सम्पन्न करने की आज्ञा दी है, पर मानवीय दुर्बलता को देखते हुए दाम्पत्य जीवन में एक सीमित मर्यादा के अंतर्गत वासना को छूट मिल सकती है। इसके अतिरिक्त दाम्पत्य जीवन भी ऐसा ही पवित्र होना चाहिए जैसा कि दो सहोदर भाइयों का या दो सगी बहनों का होता है। विवाह का उद्देश्य दो शरीरों को एक आत्मा बनाकर जीवन की गाड़ी का भार दो कंधों पर ढोते चलना है, दुष्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करना नहीं। यह तो सिनेमा का, गंदे चित्रों का, अश्लील साहित्य का और दुर्बुद्धि का प्रसाद है, जो हमने नारी की परम पुनीत प्रतिमा को ऐसे अश्लील, गंदे और गर्हित रूप में गिरा रखा है। नारी को वासना के उद्देश्य से सोचना या देखना, उसकी महानता का वैसा ही तिरस्कार करना है, जैसे किसी आवश्यकता को पूर्ण करने के उद्देश्य से देखना। यह दृष्टि जितनी निंदनीय और घृणित है, उतनी ही हानिकर और विग्रह उत्पन्न करने वाली भी है। हमें उस स्थिति को अपने भीतर से और सारे समाज से हटाना होगा और नारी को उस स्वरूप में पुनः प्रतिष्ठित करना होगा, जिसकी एक दृष्टि मात्र से मानव प्राणी धन्य होता रहा है।

 

/* Style Definitions */ table.MsoNormalTable {mso-style-name:"Table Normal"; mso-tstyle-rowband-size:0; mso-tstyle-colband-size:0; mso-style-noshow:yes; mso-style-priority:99; mso-style-qformat:yes; mso-style-parent:""; mso-padding-alt:0in 5.4pt 0in 5.4pt; mso-para-margin:0in; mso-para-margin-bottom:.0001pt; mso-pagination:widow-orphan; font-size:11.0pt; font-family:"Calibri","sans-serif"; mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-fareast-font-family:"Times New Roman"; mso-fareast-theme-font:minor-fareast; mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-font-family:"Times New Roman"; mso-bidi-theme-font:minor-bidi;} Normal 0 false false false EN-US X-NONE X-NONE MicrosoftInternetExplorer4          उपरोक्त पंक्तियों में नारी का जैसा चित्रण नर की दृष्टि से किया गया है, ठीक वैसा ही चित्रण कुछ शब्दों के हेर- फेर के साथ नारी की दृष्टि से नर के सम्बन्ध में किया जा सकता है। जननेन्द्रिय की बनावट में राई- रत्ती अंतर होते हुए भी मनुष्य की दृष्टि से दोनों ही लगभग समान क्षमता, बुद्धि, भावना एवं स्थिति के बने हुए हैं। यह ठीक है कि दोनों में अपनी- अपनी विशेषताएँ और अपनी- अपनी न्यूनताएँ हैं, उनकी पूर्ति के लिए दोनों एक- दूसरे का आश्रय लेते हैं। यह आश्रय पति- पत्नी के रूप में केवल काम प्रयोजन के रूप में हो, ऐसा किसी भी प्रकार आवश्यक नहीं। नारी के प्रति नर और नर के प्रति नारी पवित्र, पुनीत, कर्तव्य और स्नेह का सात्विक एवं स्वर्गीय संबंध रखते हुए भी माता, पुत्री या बहन के रूप में सखा, सहोदर, स्वजन और आत्मीय के रूप में श्रेष्ठ संबंध रख सकते हैं, वैसा ही रखना भी चाहिए। पवित्रता में जो अजस्र बल है, वह वासना के नारकीय कीचड़ में कभी भी दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। वासना और प्रेम दोनों दृष्टिकोण एक- दूसरे से उतने ही भिन्न हैं, जितनी स्वर्ग से नरक में भिन्नता है। व्याभिचार में द्वेष, ईर्ष्या, आधिपत्य, संकीर्णता, कामुकता, रूप- सौंदर्य शृंगार, कलह, निराशा, कुढ़न, पतन, ह्रास, निंदा आदि अगणित यंत्रणाएँ भरी पड़ी हैं, पर प्रेम इन सबसे सर्वथा मुक्त है। पवित्रता में त्याग, उदारता, शुभकामना, सहृदयता और शांति के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता।

    युग निर्माण सत्संकल्प में, आत्मवत् सर्वभूतेषु की, परद्रव्येषु लोष्ठवत्, परदारेषु मातृवत् की पवित्र भावनाएँ भरी पड़ी हैं, इन्हीं के आधार पर नवयुग का सृजन हो सकता है। इन्हीं का अवलंबन लेकर इस दुनिया को स्वर्ग के रूप में परिणत करने का स्वप्न साकार हो सकता है।

     जो प्रस्तुत सौभाग्य का सदुपयोग करते हैं, वे क्रमशः अधिक ऊँचे उठते और पूर्णता के लक्ष्य तक जा पहुँचते हैं।

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