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Books - इक्कीसवीं सदी का संविधान

Media: TEXT
Language: HINDI
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मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से

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Normal 0 false false false EN-US X-NONE X-NONE MicrosoftInternetExplorer4 Normal 0 false false false EN-US X-NONE X-NONE MicrosoftInternetExplorer4     व्यक्ति के मन मस्तिष्क में इस जन्म की ही नहीं जन्म- जन्मान्तरों की विकृतियाँ भरी रहती हैं। न जाने कितने कुविचार, कुवृत्तियाँ एवं मूढ़- मान्यताएँ हमारे मन- मस्तिष्क को घेरे रहती हैं। ज्ञान पाने अथवा विवेक जागृत करने के लिए आवश्यक है कि पहले हम अपने विचारों एवं संस्कारों को परिष्कृत करें। विचार एवं संस्कार परिष्कार के अभाव में ज्ञान के लिए की गई साधना निष्फल ही चली जाएगी। उन्नति एवं प्रगति की आधारशिला मनुष्य के अपनी विचार ही हैं। विचारों के अनुरूप ही उसका जीवन बनता- बिगड़ता है। विचार साँचे की तरह हैं, जो मनुष्य जीवन को अपने अनुरूप ढाल लिया करते हैं। मनुष्य का जो भी रूप सामने आता है, वह विचारों का प्रतिबिम्ब हुआ करता है। अपने आंतरिक एवं बाह्य जीवन को तेजस्वी, प्रखरतापूर्ण तथा पुरोगामी बनाने के लिए अपनी विचार शक्ति को विकसित, परिमार्जित करना होगा। यह कार्य उन्नत विचारों के संपर्क में आने से ही पूरा हो सकता है।

    ऊर्ध्वगामी विचारधारा स्वाध्याय और सत्संग के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है। आत्मिक विकास एवं आत्म शिक्षण के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग दो ही मार्ग हैं। आज की परिस्थितियों में स्वाध्याय ही सबसे बड़ा सरल मार्ग है। उसी के द्वारा दूरस्थ, स्वर्गवासी या दुर्लभ महापुरुषों का सत्संग किसी भी स्थान, किसी भी समय, कितनी देर तक अपनी सुविधानुसार प्राप्त किया जा सकता है। उच्चकोटि के विचारों की पूँजी अधिकाधिक मात्रा में जमा किए बिना हम न तो अंतःकरण को शुद्ध कर सकते हैं और न उच्च मार्ग पर अग्रसर होने के लिए प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। अतः स्वाध्याय को साधना का एक अंग समझकर अपने नित्य कर्मों में स्थान देना आवश्यक है। मन- मस्तिष्क से अवांछनीयताओं को बुहारने का कार्य नित्य स्वाध्याय और सत्संग से होते रहना चाहिए।

    शिक्षित व्यक्ति को स्वाध्याय कर ही सकते हैं। अशिक्षित तथा जिनका मन स्वाध्याय में नहीं लगता, उन लोगों के लिए सत्संग ही एक उपाय है। विचारणा पलटते ही जीवन दिशा ही पलट जाती है। स्वाध्याय एवं सत्संग विचारों को स्थापित करते हैं, परंतु आज सत्संग की समस्या विकट हो गई है। अतः जिन महान् आत्माओं का सत्संग लाभ लेना चाहें, उनके द्वारा लिखे विचारों का स्वाध्याय तो किया ही जा सकता है। स्वाध्याय एक प्रकार का सत्संग ही है। इसके लिए वे ही चुनी हुई पुस्तकें होनी चाहिए, जो जीवन की विविध समस्याओं को आध्यात्मिक दृष्टि से सुलझाने में व्यावहारिक मार्गदर्शन करें और हमारी सर्वांगीण प्रगति को उचित प्रेरणा देकर अग्रगामी बनाएँ।

   स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन एवं मनन इन चारों आधारों पर मानसिक दुर्बलता को हटाना और आत्मबल बढ़ाना निर्भर करता है। स्वाध्याय के अभाव में मन की न जड़ता जाती है न संकीर्णता, गन्दगी, मूढ़ता एवं विषयासक्ति से छुटकारा मिलता है। स्वाध्याय के लिए समय निकालना ही पड़ेगा। इसके लिए छोटा- सा आध्यात्मिक पुस्तकालय अपने- अपने घरों में शिक्षित लोग बना सकते हैं। पुस्तकें तो माँगकर भी पढ़ी जा सकती हैं। ज्ञान लेना और देना दोनों ही पुण्य कार्य समझकर किए जा सकते हैं। अपने परिवार में साप्ताहिक सत्संग किया जा सकता है। इसके लिए अखण्ड ज्योति, युग निर्माण योजना अथवा प्रज्ञापुराण के प्रेरणाप्रद अंश पढ़कर सुनाए जा सकता हैं। साप्ताहिक गोष्ठियाँ एवं सत्संग विचारधारा को परिष्कृत करने के लिए महत्त्वपूर्ण समझना चाहिए।

    सद्ग्रंथ जीते- जागते देवता होते हैं। उनका स्वाध्याय करना, उनकी उपासना करने के समान ही है। भोजन से पूर्व साधना वे शयन से पूर्व स्वाध्याय का क्रम सुनिश्चित रूप से चलना चाहिए। सत्कर्मों को प्रेरणा देने वाले दो ही अवलंबन हैं- सद्विचार और सद्भाव। सद्विचार स्वाध्याय से और सद्भाव उपासना से विकसित व परिपुष्ट होते हैं। यह आत्मिक अन्न- जल हमारी आत्मा को नित्य नियमित रूप से मिलता रहना चाहिए। इसे आत्मा और परमात्मा की जीवन और आदर्श के मिलन- समन्वय की पोषण साधना कहा जा सकता है। स्वाध्याय के बिना विचार परिष्कार नहीं, जहाँ ज्ञान नहीं वहाँ अंधकार होना स्वाभाविक है और अज्ञानी न केवल इस जन्म में ही वरन् जन्म- जन्मान्तरों तक, जब तक ज्ञान का आलोक नहीं पा लेता, त्रिविध तापों की यातना सहता रहेगा। आत्मवान् व्यक्ति स्वाध्याय के सरल उपाय से ही भौतिक ज्ञान की यातना से मुक्त हो सकता है।

 

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