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Books - इक्कीसवीं सदी का संविधान

Media: TEXT
Language: HINDI
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सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा

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First 14 16 Last
Normal 0 false false false EN-US X-NONE X-NONE MicrosoftInternetExplorer4         कोमल और सौम्य तत्त्वों को इशारे में समझाकर विवेक एवं तर्क द्वारा औचित्य सुझाकर सन्मार्गगामी बनाया जा सकता है, पर कठोर और दुष्ट तत्त्वों को बदलने के लिए, लोहे को आग में तपाकर पिटाई करने वाली लुहार की नीति ही अपनानी पड़ती है। दुर्योधन को समझाने- बुझाने में जब श्रीकृष्ण सफल न हो सके, तब उसे अर्जुन के बाणों द्वारा सीधे रास्ते पर लाने का प्रबंध करना पड़ा। हिंसक पशु नम्रता और औचित्य की भाषा नहीं समझते, उन्हें तो शस्त्र ही काबू में ला सकते हैं। भगवान् को बार- बार धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेना पड़ता है, साथ ही वे असुरता के उन्मूलन का रुद्र कृत्य भी करते हैं।

    व्यक्तिगत जीवन में देव शक्ति का अवतरण निस्संदेह एक सृजनात्मक कृत्य है। उसके लिए सद्गुणों के अभिवर्द्धन की साधना निरंतर करनी पड़ती है, पर साथ ही अंतरंग में छिपे हुए दोष- दुर्गुणों से जूझना भी पड़ता है। यदि कुसंस्कारों का उन्मूलन न किया जाए, तो सद्गुण पनप ही न सकेंगे और सारी शक्ति इन कषाय- कल्मषों में ही नष्ट होती रहेगी। आलस्य, प्रमाद, आवेश, असंयम आदि दुर्गुणों के विरुद्ध कड़ा मोर्चा खड़ा करना पड़ता है और पग- पग पर उनसे जूझने के लिए तत्पर रहना पड़ता है। गीता का रहस्यवाद अंतरंग के इन्हीं शत्रुओं को कौरव मानकर अर्जुन रूपी जीव को इनसे लड़ मरने के लिए प्रोत्साहित करता है। जिसने अपने से लड़कर विजय पाई, वस्तुतः उसे ही सच्चा विजेता कहा जाएगा।         सामूहिक जीवन में समय- समय पर अनेक अनाचार उत्पन्न होते रहते हैं और उन्हें रोकने के लिए सरकारी तथा गैर सरकारी स्तर पर प्रबल प्रयत्न करने पड़ते हैं। पुलिस, जेल, अदालत, कानून, सेना आदि के माध्यम से सरकारी दंड संहिता अनाचार को रोकने का यथासंभव प्रयत्न करती है। जन स्तर पर भी अवांछनीय और असामाजिक तत्त्वों का प्रतिरोध अवश्य होता है। यदि वह रोकथाम न हो, उद्दंडता और दुष्टता का प्रतिरोध न किया जाए तो वह देखते- देखते आकाश- पाताल तक चढ़ दौड़े और अपने सर्वभक्षी मुख में शालीनता और शांति को देखते- देखते निगल जाए।

    इन दिनों नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्र में अवांछनीय तत्त्वों का इतना अधिक बाहुल्य हो गया है कि शांति और सुव्यवस्था के लिए एक प्रकार से संकट ही उत्पन्न हो गया है। छल, असत्य, बनावट और विश्वासघात का ऐसा प्रचलन हो गया है कि किसी व्यक्ति पर सहज ही विश्वास करना खतरे से खाली नहीं रहा। विचारों की दृष्टि से मनुष्य बहुत ही संकीर्ण, स्वार्थी, ओछा और कमीना होता चला जा रहा है। पेट और प्रजनन के अतिरिक्त कोई लक्ष्य नहीं, आदर्शवादिता और उत्कृष्टता अब कहने- सुनने भर की बात रह गई है। व्यवहार में कोई बिरला ही उसे काम में लाता हो। सामाजिक कुरीतियों का तो कहना ही क्या? विवाहोन्माद, मृत्यु- भोज ऊँच- नीच नारी तिरस्कार, बाल- विवाह वृद्ध- विवाह आदि न जाने कितनी प्रकार की कुरीतियाँ अपने समाज में घुसी बैठी हैं। यदि उन्हें ज्यों का त्यों ही बना रहने दिया गया, तो हम संसार के सभ्य देशों में पिछड़े हुए और उपहासास्पद ही न माने जाएँगे, वरन् अपनी दुर्बलताओं के शिकार होकर अपना अस्तित्व ही खो बैठेंगे।

     अगले दिनों इस बात की आवश्यकता पड़ेगी कि व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में संव्याप्त अगणित दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध व्यापक परिमाण में संघर्ष आरंभ किया जाए। इसलिए हर नागरिक को अनाचार के विरुद्ध आरंभ किए गए धर्म- युद्ध में भाग लेने के लिए आह्वान करना होगा। किसी समय तलवार चलाने वाले और सिर काटने में अग्रणी लोगों को योद्धा कहा जाता था, अब मापदण्ड बदल गया। चारों ओर संव्याप्त आतंक और अनाचार के विरुद्ध संघर्ष में जो जितना साहस दिखा सके और चोट खा सके, उसे उतना ही बड़ा बहादुर माना जाएगा। उस बहादुरी के ऊपर शोषण- विहीन समाज की स्थापना संभव हो सकेगी। दुर्बुद्धि और कुत्सा से लड़ सकने में जो लोग समर्थ होंगे, उन्हीं का पुरुषार्थ पीड़ित मानवता को त्राण दे सकने का यश संचित कर सकेगा।

     भारतीय समाज को बेईमान और गरीब बनने के लिए विवश करने वाले सत्यानाशी विवाहोन्माद नामक असुर से पूरी शक्ति के साथ जूझना पड़ेगा। अभी प्रचार, विरोध, प्रतिज्ञापत्र आदि के हल्के कदम उठाए गए हैं, आगे चलकर असहयोग, सत्याग्रह और घिराव जैसे बड़े कदम उठाकर इस कुप्रथा को गर्हित और वर्जित बनने के लिए घृणित और दुष्ट समझे जाने के लिए विवश करेंगे। अगले दिनों ऐसा प्रबल लोकमत तैयार करेंगे, जिसमें विवाहों के नाम पर प्रचलित उद्धतपन को जीवित रह सकना असंभव हो जाए। पूर्ण सादगी और स्वल्प खर्च के विवाहों का प्रचलन होने तक अपना संघर्ष चलता रहेगा। हम तब तक न चैन लेंगे और न लेने देंगे, जब तक कि इस अनैतिक एवं अवांछनीय प्रथा का देश से काला मुँह न हो जाए।

/* Style Definitions */ table.MsoNormalTable {mso-style-name:"Table Normal"; mso-tstyle-rowband-size:0; mso-tstyle-colband-size:0; mso-style-noshow:yes; mso-style-priority:99; mso-style-qformat:yes; mso-style-parent:""; mso-padding-alt:0in 5.4pt 0in 5.4pt; mso-para-margin:0in; mso-para-margin-bottom:.0001pt; mso-pagination:widow-orphan; font-size:11.0pt; font-family:"Calibri","sans-serif"; mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-fareast-font-family:"Times New Roman"; mso-fareast-theme-font:minor-fareast; mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-font-family:"Times New Roman"; mso-bidi-theme-font:minor-bidi;} Normal 0 false false false EN-US X-NONE X-NONE MicrosoftInternetExplorer4     मृतक भोज के नाम पर घृणित दावतें खाने की निष्ठुरता, पशुबलि की नृशंसता, ऊँच- नीच के नाम पर मानवीय अधिकारों का अपहरण, नारी को पद- दलित और उत्पीड़न करने की क्रूरता हमारे समाज पर लगे हुए ऐसे कलंक हैं, जिनका समर्थन कोई भी विवेकशील और सहृदय व्यक्ति कर ही नहीं सकता। मूढ़ परम्पराओं ने इन कुरीतियों को धार्मिकता के साथ जोड़ दिया है, इस स्थिति को कब तक सहन किया जाता रहेगा? इस मूढ़ता के विरुद्ध प्रचार मोर्चे से आगे बढ़कर हमें कई और ऐसे सक्रिय कदम उठाने पड़ेंगे, जिन्हें भले ही अशान्ति उत्पन्न करने वाले कहा जाए, परंतु रुकेंगे तभी, जब मानवता के मूलभूत आधारों को स्वीकार करने वाले और झगड़े का खतरा मोल लेकर भी अनीति से हर मोर्चे पर जूझने के लिए कमर कस लें, भले ही इस संदर्भ में हमें कोई भी खतरा क्यों न उठाना पड़े।

    वैयक्तिक दोष- दुर्गुणों से लड़ने और जीवन को स्वच्छ, पवित्र निर्मल बनाने के लिए अगर कुसंस्कारों से लड़ना पड़ता है, तो वह लड़ाई लड़ी ही जानी चाहिए। परिवार में कुछ सदस्यों को दास- दासी की तरह और कुछ को राजा- रानी की तरह रहने को यदि परम्परा का पालन माना जाता है, तो उसे बदल कर ऐसी परम्पराएँ स्थापित करनी पड़ेंगी, जिनमें सबको न्यायानुकूल अधिकार, लाभ, श्रम तथा सहयोग करने की व्यवस्था करे। आर्थिक क्षेत्र में बेईमानी को प्रश्रय न मिले। व्यक्तिगत व्यवहार में छल करने और धोखेबाजी की गुंजाइश न रहे। ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए प्रबल लोकमत तैयार करना पड़ेगा और अवांछनीय तत्त्वों के उस प्रतिरोध को इतना सक्रिय बनाना पड़ेगा कि अपराध, उद्दंडता और गुंडागर्दी करने की हिम्मत करना किसी के लिए भी संभव न रहे। हराम की कमाई खाने वाले, भ्रष्टाचारी, बेईमान लोगों के विरुद्ध इतनी तीव्र प्रतिक्रिया उठानी होगी, जिसके कारण उन्हें सड़क पर चलना और मुँह दिखाना कठिन हो जाए। जिधर से वे निकलें उधर से ही धिक्कार की आवाजें ही उन्हें सुननी पड़ें। समाज में उनका उठना- बैठना बंद हो जाए और नाई, धोबी, दर्जी कोई उनके साथ किसी प्रकार का सहयोग करने के लिए तैयार न हों।

    सार्वजनिक संस्थाओं में स्वार्थपरता और नेतागिरी लूटने के लिए जिन दुरात्माओं ने अड्डा जमा लिया है, उन्हें दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया जाए। धर्म और अध्यात्म का लबादा ओढ़कर जो रंगे सियार अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं, उनकी असलियत चौराहे पर नंगी खड़ी कर दी जाए, ताकि लोग उन्हें भरपूर धिक्कारे। भोले लोगों को अनेक हाथों से लूटने से बचाना, एक ऊँची और श्रेष्ठ सेवा होती है। ८० लाख भिखमंगे नाना प्रकार के ढोंग बनाकर जिस तरह ठगी और हरामखोरी करने में जुटे हुए हैं, आखिर उसे कब तक सहन किया जाता रहेगा। स्वच्छ शासन प्रदान करने के लिए राजनैतिक नेता और विधायकों, शासकों और अफसरों को यह सोचने के लिए बाध्य किया जाएगा कि वे अपने निजी लाभ के लिए नहीं, लोकमंगल के लिए ही शासन- तंत्र का उपयोग करें।

          इस प्रकार संघर्ष की बहुमुखी प्रचंड प्रक्रिया अगले दिनों युग निर्माण योजना आरंभ करेगी। उसके साधन जैसे- जैसे विकसित होते जाएँगे, First 14 16 Last


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