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Books - इक्कीसवीं सदी का संविधान

Media: TEXT
Language: HINDI
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शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर

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Normal 0 false false false EN-US X-NONE X-NONE MicrosoftInternetExplorer4      आस्तिकता और कर्तव्य परायणता की सत्प्रवृत्ति का प्रभाव पहले अपने सबसे समीपवर्ती स्वजन पर पड़ना चाहिए। हमारा सबसे निकटवर्ती संबंधी हमारा शरीर है। उसके साथ सद्व्यवहार करना, उसे स्वस्थ और सुरक्षित रखना अत्यावश्यक है। शरीर को नश्वर कहकर उसकी उपेक्षा करना अथवा उसे ही संजोने- सँवारने में सारी शक्ति खर्च कर देना, दोनों ही ढंग अकल्याणकारी हैं। हमें संतुलन का मार्ग अपनाना चाहिए।

      हमारा सदा सहायक सेवक शरीर है। वह चौबीसों घंटे सोते- जागते हमारे लिए काम करता रहता है। वह जिस भी स्थिति में हो, अपनी सामर्थ्य भर आज्ञा पालन के लिए तत्पर रहता है। सुविधा- साधनों के उपार्जन में उसी का पुरुषार्थ काम देता है। इतना ही नहीं, वरन् समय- समय पर अपने- अपने ढंग से अनेक प्रकार के रसास्वादन भी कराती रहती हैं। नेत्र, कान, नाक, जिह्वा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ज्ञान तंतु अपने- अपने ढंग के रसास्वादन कराते रहते हैं। इन विशेषताओं के कारण ही आत्मा उसकी सेवा- साधना का मुग्ध हो जाती है और अपने सुख ही नहीं अस्तित्व तक को भूल कर उसी में पूरी तरह रम जाती है। उसका सुख- दुःख मानापमान आदि अपनी निज की भाव- संवेदना में सम्मिलित कर लेती है। यह घनिष्ठता इतनी अधिक सघन हो जाती है कि व्यक्ति, आत्मा की सत्ता, आवश्यकता तक को भूल जाता है और शरीर को अपना ही आपा मानने लगता है। उसका अंत हो जाने पर तो जीवन की इतिश्री ही मान ली जाती है।     ऐसे वफादार सेवक को समर्थ, निरोग एवं दीर्घजीवी बनाए रखना प्रत्येक विचारशील का कर्तव्य है। चाहते तो सभी ऐसा ही हैं, पर जो रहन- सहन आहार- विहार अपनाते हैं, वह विधा ऐसी उल्टी पड़ जाती है कि उसके कारण अपने प्रिय पात्र को अपार हानि उठानी पड़ती है, इतना अत्याचार सहना पड़ता है कि उसका कचूमर तक निकल जाता है और रोता- कलपता दुर्बलता और रुग्णता से ग्रसित होकर व्यक्ति असमय में ही दम तोड़ देता है।

      यह सब अज्ञान के कारण होता है, जो होश सँभालने से पूर्व ही अभिभावकों के अनाड़ीपन के कारण वह अपने ऊपर लाद लेता है। स्वस्थ- समर्थ रहना कुछ भी कठिन नहीं है। प्रकृति के संकेतों का अनुसरण करने भर से यह प्रयोजन सिद्ध हो सकता है। प्रकृति के सभी जीवधारी यही करते और दुर्घटना जैसी आकस्मिक परिस्थितियों को छोड़कर साधारणतया निरोग रहते और समयानुसार अपनी मौत मरते हैं। प्रकृति के संदेश- संकेतों को जब सृष्टि के सभी जीवधारी मोटी बुद्धि होने पर भी समझ लेते हैं तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य जैसा बुद्धिजीवी उन्हें न अपना सके। प्रकृति के स्वास्थ्य रक्षा के नियम व्यवहार में अति सरल हैं। उचित और अनुचित का निर्णय करने वाले यंत्र इसी शरीर में लगे हैं, जो तत्काल यह बता देते हैं कि क्या करना चाहिए, क्या नहीं? मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं का अनुशासन मानने भर से उद्देश्य की पूर्ति हो जाती है।
   
  आहार- विहार का ध्यान रखने के स्वास्थ्य रक्षा की समस्या हल हो जाती है। आहार प्रमुख पक्ष है, जिसे स्वास्थ्य, अनुशासन का पूर्वार्द्ध कहा जा सकता है। उत्तरार्द्ध में विहार आता है, जिसका तात्पर्य होता है नित्य कर्म, शौच, स्नान, शयन, परिश्रम, संतोष आदि। इन्हीं के संबंध में समुचित जानकारी प्राप्त कर लेने और उनका परिपालन करते रहने से एक प्रकार से आरोग्य का बीमा जैसा हो जाता है।

         शरीर को ईश्वर के पवित्र निवास के रूप में मान्यता देना उचित है। यह तथ्य ध्यान में बना रहे तो शरीर के प्रति निरर्थक मोहग्रस्तता से बचकर, उसके प्रति कर्तव्यों का संतुलित निर्वाह संभव है। मंदिर को सजाने, सँवारने में भगवान् को भुला देना निरी मूर्खता है, किंतु देवालयों को गंदा, तिरस्कृत, भ्रष्ट, जीर्ण- शीर्ण रखना भी पाप माना जाता है। शरीर रूपी मंदिर को मनमानी बुरी आदतों के कारण रुग्ण बनाना प्रकृति की दृष्टि में बड़ा अपराध है। उसके फलस्वरूप पीड़ा, बेचैनी, अल्पायु, आर्थिक हानि, तिरस्कार जैसे दंड भोगने पड़ते हैं।

      रुग्णता या बीमारी कहीं बाहर से नहीं आती। विकार तो बाहर से भी प्रविष्ट हो सकते हैं तथा शरीर के अंदर भी पैदा होते हैं, किंतु शरीर संस्थान में उन्हें बाहर निकाल फेंकने की अद्भुत क्षमता विद्यमान है। मनुष्य अपने इंद्रिय असंयम द्वारा जीवनी शक्ति को बुरी तरह नष्ट कर देता है। आहार- विहार के असंयम से शरीर के पाचन तंत्र, रक्त संचार, मस्तिष्क, स्नायु संस्थान आदि पर भारी आघात पड़ता है। बार- बार के आघात से वे दुर्बल एवं रोगग्रस्त होने लग जाते हैं। निर्बल संस्थान अंदर के विकारों को स्वाभाविक ढंग से बाहर नहीं निकाल पाते। फलस्वरूप वे शरीर में एकत्रित होने लगते हैं तथा अस्वाभाविक ढंग से बाहर निकलने लगते हैं। यही स्थिति बीमारी कहलाती है।

      स्वस्थ रहने पर ही कोई अपना और दूसरों का भला कर सकता है। जिसे दुर्बलता और रुग्णता घेरे हुए होगी, वह निर्वाह के योग्य भी उत्पादन न कर सकेगा। दूसरों पर आश्रित रहेगा। परावलम्बन एक प्रकार से अपमानजनक स्थिति है। भारभूत होकर जीने वाले न कहीं सम्मान पाते हैं और न किसी की सहायता कर सकने में समर्थ होते हैं। जिससे अपना बोझ ही सही प्रकार उठ नहीं पाता, वह दूसरों के लिए किस प्रकार कितना उपयोगी हो सकता है? /* Style Definitions */ table.MsoNormalTable {mso-style-name:"Table Normal"; mso-tstyle-rowband-size:0; mso-tstyle-colband-size:0; mso-style-noshow:yes; mso-style-priority:99; mso-style-qformat:yes; mso-style-parent:""; mso-padding-alt:0in 5.4pt 0in 5.4pt; mso-para-margin:0in; mso-para-margin-bottom:.0001pt; mso-pagination:widow-orphan; font-size:11.0pt; font-family:"Calibri","sans-serif"; mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-fareast-font-family:"Times New Roman"; mso-fareast-theme-font:minor-fareast; mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-font-family:"Times New Roman"; mso-bidi-theme-font:minor-bidi;} Normal 0 false false false EN-US X-NONE X-NONE MicrosoftInternetExplorer4      मनुष्य जन्म अगणित विशेषताओं और विभूतियों से भरा पूरा है। किसी को भी यह छूट है कि उतना ऊँचा उठे जितना अब तक कोई महामानव उत्कर्ष कर सका है, पर यह संभव तभी है, जब कि शरीर और मन पूर्णतया स्वस्थ हो। जो जितनों के लिए, जितना उपयोगी और सहायक सिद्ध होता हैं, उसे उसी अनुपात में सम्मान और सहयोग मिलता है। अपने और दूसरों के अभ्युदय में योगदान करते उसी में बन पड़ता है, जो स्वस्थ, समर्थ रहने की स्थिति बनाए रहता है। इसलिए अनेक दुःखद दुर्भाग्यों और अभिशापों में प्रथम अस्वस्थता को ही माना गया है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि वैसी स्थिति उत्पन्न न होने पाए। सच्चे अर्थों में जीवन उतने ही समय का माना जाता है, जितना कि स्वस्थतापूर्वक जिया जा सके।


      कुछ अपवादों को छोड़कर अस्वस्थता अपना निज का उपार्जन है। भले ही वह अनजाने में, भ्रमवश या दूसरों की देखा- देखी उसे न्यौत बुलाया गया हो। सृष्टि के सभी प्राणी जीवन भर निरोग रहते हैं। मरणकाल आने पर जाना तो सभी को पड़ता है। मनुष्य की उच्छृंखल आदत ही उसे बीमार बनाती है। जीभ का चटोरापन अतिशय मात्रा में अखाद्य खाने के लिए बाधित करता रहता है। जितना भार उठ नहीं सकता उतना लादने पर किसी का भी कचूमर निकल सकता है। पेट पर अपच भी इसी कारण चढ़ दौड़ती है। बिना पचा सड़ता है और सड़न रक्त प्रवाह में मिल जाने से जहाँ भी अवसर मिलता है, रोग का लक्षण उभर पड़ता है। कामुकता की कुटेब जीवनी शक्ति का बुरी तरह क्षरण करती है और मस्तिष्क की तीक्ष्णता का हरण कर लेती है। अस्वच्छता, पूरी नींद न लेना, कड़े परिश्रम से जी चुराना, नशेबाजी जैसे कुटेब भी स्वास्थ्य को जर्जर बनाने का कारण बनते हैं। खुली हवा और रोशनी से बचना, घुटन भरे वातावरण में रहना भी रुग्णता का एक बड़ा कारण है। भय का आक्रोश जैसे उतार- चढ़ाव भरे ज्वार- भाटे भी मनोविकार बनते और व्यक्ति को सनकी, कमजोर एवं बीमार बनाकर रहते हैं।

    शरीर को निरोग बनाकर रखना कठिन नहीं है। आहार, श्रम एवं विश्राम का संतुलन बिठा कर हर व्यक्ति आरोग्य एवं दीर्घजीवी पा सकता है। आलस्य रहित, श्रमयुक्त, व्यवस्थित दिनचर्या का निर्धारण कठिन नहीं है। स्वाद को नहीं स्वास्थ्य को लक्ष्य करके उपयुक्त भोजन की व्यवस्था हर स्थिति में बनाई जानी संभव है। सुपाच्य आहार समुचित मात्रा में लेना जरा भी कठिन नहीं है। शरीर को उचित विश्राम देकर हर बार तरोताजा बना लेने के लिए कहीं से कुछ लेने नहीं जाना पड़ता। यह सब हमारी असंयम एवं असंतुलन की वृत्ति के कारण ही नहीं सध पाता और हम इस सुर दुर्लभ देह को पाकर भी नर्क जैसी हीन और यातना ग्रस्त स्थिति में पड़े रहते हैं।

       शारीरिक आरोग्य के मुख्य आधार आत्म संयम एवं नियमितता ही हैं। इनकी उपेक्षा करके मात्र औषधियों के सहारे आरोग्य लाभ का प्रयास मृग मरीचिका के अतिरिक्त कुछ नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर औषधियों का सहारा लाठी की तरह लिया तो जा सकता है, किंतु चलना तो पैरों से ही पड़ता है। शारीरिक आरोग्य एवं सशक्तता जिस जीवनी शक्ति के ऊपर आधारित है, उसे बनाए रखना इन्हीं माध्यमों से संभव है। शरीर को प्रभु मंदिर की तरह ही महत्त्व दें। बचकाने, छ
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